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ही हम अच्छे या बुरे होने का निश्चय करते हैं। हैं और किसी से अलग होने को अच्छा मानते हैं - जो हमें अच्छा लगता है, उसे हम चाहते हैं, उसके यह सब हमारी मानसिक प्रतिक्रियाओं का परिप्रति हमारे मन में राग का भाव जगता है और जो णाम है । यदि अपने में इस प्रकार का परिणमन हमें नहीं रुचता है, जिसे हम पसन्द नहीं करते, न हो तो लोक के कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो उससे हमारा मन मुड़ता है। हम नहीं चाहते कि सकते । वह वैसा हो, उससे हमारे मन में द्वष व घृणा का भाव जाग्रत होता है। भगवान महावीर कहते हैं
प्रत्येक प्रकार की समस्या के मूल में वस्तु में कि राग-द्वेष भाव का उत्पन्न होना ही हिंसा है
होने वाले परिणाम को हम नहीं बदल सकते हैं,
किन्तु अपने भाव को, अपने भाव-कर्म को हम और जहां हिंसा है, वहां हमारे जीवन में तरह
अवश्य बदल सकते हैं, उसकी दिशा को परिवर्तित तरह की समस्याए निरन्तर जन्म लेती रहती हैं।
कर सकते हैं । जिस किसी भी क्रिया के साथ रागइसलिये यदि हम वस्तुत: समस्या का समाधान करना चाहते हैं तो सदा-सदा के लिए यही अभ्यास
द्वेषमूलक आवेश होगा, वहां नियम से प्रतिक्रिया
होगी ओर प्रतिक्रिया पूनः क्रिया-प्रतिक्रिया को करना चाहिए कि राग-द्वेष किसी प्रकार उत्पन्न न हों । जहां साम्यभाव है, वीतरागता है, वहां
जन्म देगी । इस प्रकार हिंसा, युद्ध, संघर्ष तथा किसी प्रकार की समस्या जन्म नहीं लेती । वस्तुतः
अशान्ति से शान्ति व सूखमूलक समाधान नहीं यह सिद्धान्त है—इसमें किसी प्रकार की विप्रति
होगा । यदि हम वास्तविक शान्ति चाहते हैं तो पत्ति नहीं हो सकती।
अहिंसा व साम्यभाव के द्वारा ही उपलब्ध हो
हो सकती है। जहां तनाव है, वहां टकराहट है, द्वन्द्व है, संघर्ष है और जहां अन्तर्द्वन्द्व व टकराहट है, वहां
विश्व के इतिहास में इस प्रकार के अनेक बिखराव है और ऐसी स्थिति का निर्माण बिना
उदाहरण हैं कि मनुष्य के क्षणिक आवेश ने, भले राग-द्वेषमूलक संकल्प-विकल्पों के होता नहीं। इस
ही वह पानी के बहाव को लेकर हो, अन्य देश के लिये सभी प्रकार की समस्या त्रों के मूल में राग
प्रशासक को शरण देने का हो अथवा सीमा
विषयक गलत मानचित्र के प्रचार का हो, किस द्वेष की उपस्थिति अनिवार्य है। व्यक्ति को इसे
प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया और स्वीकार करना होगा कि समस्याओं को पैदा करने
अन्तत: वे ही संघर्ष व यूद्ध का कारण बनीं । वाले हम हैं। हमारी समस्याओं को अन्य कोई
भीतर में चलने व पलने वाली हिंसा बाहर की उत्पन्न करने वाला नहीं है और इसलिये उनका समाधान भी हम कर सकते हैं। इस प्रकार जैन
हिंसा से कहीं अधिक भीषण व खतरनाक होती वर्शन पुरुषार्थ को जाग्रत करता है,हमारी मूलगामी
है। बाहर की हिंसा हमें उतना नहीं जलाती,
जितनी कि भीतर की हिंसा पल-पल में तिल-तिल चित्तवृत्तियों का हमें बोध कराता है।
कर हमें जलाती, मिटाती रहती है। वर्तमान में यह सभी जानते हैं कि समाज में हम कई चलने वाले शीतयुद्ध इसीलिये सबसे अधिक खतरतरह की वस्तुओं के साथ रहते हैं। जिस तरह नाक तथा अन्तकारी भीषण हैं कि वे हमें ही नहीं, हम उन सबसे जुड़ते हैं, वैसे ही वे सब भी हम से हमारी संस्कृति को भी धीरे-धीरे मिटाते जा रहे जुड़ते हैं । जुड़ने और अलग होने की प्रक्रिया सदा हैं। बाहर से भले ही वे क्रूर व दर्दनाक न दिखते चलती ही रहती है । किन्तु हमारा ध्यान उस पर हों, किन्तु उनमें निरन्तर हिंसा का लावा धधकता नहीं जाता। हम किसी के जुड़ने को अच्छा मानते रहता है। पशुओं की मृत्यु के क्रूर नाटक को
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