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द्रव्यमोक्ष-आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय का अर्थात् सम्यग्दर्शन से सम्यज्ञान होता है, सम्य. क्षय होना द्रव्यमोक्ष है । द्रव्यमोक्ष तब तक कहा ज्ञान से समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है और जा सकता है जब तक जीव अपने शरीर का परि- और समस्त पदार्थों की उपलब्धि होने से यह जीव त्याग न कर दे।
कर्तव्य और अकर्तव्य को जानने लगता है। जीव
समीचन दर्शन के द्वारा सामान्य सत्तात्मक पदार्थों दिव्य शरीर का सद्भाव रहने पर राग-द्वेष- को देखता है, सम्यग्ज्ञान के द्वारा द्रव्य और पदार्थों मीहादि से रहित एवं अनंतचतुष्टय ज्ञान से युक्त का जानता है एवं सम्यग्दर्शन द्वारा उनका श्रद्धान जीव की प्ररहंत अवस्था कही जाती है । इस अवस्था करता है तभी चारित्र सम्बन्धी दोषो को छोड़ता में विशेष ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की है। ये तीनों 'मोहरहियस्य जीवस्स' मोहरहित जीव अधिकता हो जाने से घातियाँ (तप-एवं ध्यान, संय- के होते हैं । ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र “च उहिं मादि से जिन्हें स्वयं पाता जा सके) कर्मों का क्षय समाजोगे मोक्खो, चारों के समागम होने पर मोक्ष हो जाता है । अघातियां (जिन्हें तप प्रादि के द्वारा होता है । इसलिए कहा भी जाता हैक्षय नहीं किये जा सके) कर्मों का क्षय होने से ही जीव सिद्ध कहलाता है।
गाणं सारस्य सारो-सारो वि,
परस्स होइ सम्मत्तं। मोक्ष के साधन
सम्मत्तामो चरणं चरणामो सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र ये तीन
होइ णिव्वाणं॥ मोक्ष के साधन कहे गये हैं । मात्र सम्यग्दर्शन मोक्ष
। दर्शन पा. 391 का साधन नहीं है । न मात्र सम्यक्ज्ञान या सम्यक्चारित्र । तीनों की प्रधानता से तीनों के योग से ही अर्थात् सर्वप्रथम मनुष्य के लिए ज्ञानसार है मोक्ष की प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शन को श्रेष्ठ- और ज्ञान से भी अधिक सार सम्यग्दर्शन है, क्योंकि रत्न एवं मोक्ष की प्रथम सीढी भी कहा है। सम्यग्दर्शन से सम्यक्चारित्र होता है और सम्यक्यथा
चारित्र से निर्वाण होता है ।
"सारं गुणरयणाणं सोवाणं,
प्रतः यह कहा जा सकता है कि रत्नत्रय मोक्ष पढममोक्खस्स" |भा. पा.1461 के साधन हैं जिससे जीव अनुपम गुणो को धारण
करता है और अंत में शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त हो अर्थात् सम्यग्दर्शन गुण रूपी रत्नों में श्रेष्ठ है जाता है। तथा मोक्ष की पहली सीढ़ी है । क्योंकि 'दंसणभटस्स णत्थि णिव्वाणं-सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य को मोक्ष प्रवस्थामोक्ष नहीं होता है इसलिए तीनों की वास्तविकता को जानना आवश्यक है । यथा
शुद्धात्मावस्था से युक्त जीव जन्म-मरण से रहित
है, उत्कृष्ट है, पाठ कर्मों से मुक्त है, शुद्ध है, ज्ञान, सम्मत्तादो गाणं गाणादो सव्वभाव उवलद्धी। दर्शन, चारित्र और तप रूप गुणों के स्वभाव से उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ।। रहित है, अक्षय है, अविनाशी है, अभेद्य है।
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