Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAC महावीर -जयन्ती रमारिका 1981 प्रकाशक राजस्थान जत समा,जयपुर Naor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orma Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का 2579 at जयन्ती समारोह महावीर जयन्ती स्मारिका 1981 व्यवस्थापक मण्डल श्री ज्ञानचन्द झांझरी श्री सुमेरकुमार जैन श्री कपूरचन्द पाटनी श्री बाबूलाल सेठी श्री राकेश छाबड़ा श्री प्रभाकर देव डंडिया श्री विनयकुमार पापड़ीवाल श्री प्रकाशचन्द ठोलिया श्री महेश काला प्रधान सम्पादक ज्ञानचन्द बिल्टीवाला एम. ए. (अंग्रेजी एवं दर्शन शास्त्र) सम्पादक: बुद्धिप्रकाश भास्कर एम. ए., साहित्य रत्न, शास्त्री (शिक्षा एवं दर्शन) सम्पादक मण्डल : सुश्री प्रीति जैन श्री भागचन्द छाबड़ा श्री कैलाशचन्द साह मुद्रक : जैना प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जयपुर फोन : 63068 प्रकाशक : रतनलाल छाबड़ा मंत्री राजस्थान जैन सभा, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा पदाधिकारी एवं कार्यकारिणी के सदस्य 1. श्री राजकुमार काला 2. श्री ताराचन्द्र साह 3. श्री बाबूलाल सेठी 4. श्री रतनलाल छाबड़ा 5. श्री भागचन्द छाबड़ा 6. श्री प्रकाशचन्द ठोलिया 7. श्री तेजकरण सौगारणी 8. श्री कपूरचन्द पाटणी 9. श्री रमेशचन्द गंगवाल 10. श्री लल्लूलाल जैन 11. श्री कैलाशचन्द साह 12. श्री कैलाशचन्द गोधा 13. श्री अरुणकुमार सोनी 14. श्री कैलाशचन्द सौगारणो 15. श्री महावीरकुमार बिन्दायक्या 16. श्री सुमेरकुमार जैन 17. श्री महेश काला 18. श्री राजेन्द्रकुमार बिल्टीवाला 19. श्री शांतिकुमार गोधा 20. श्री त्रिलोकचन्द काला 21. श्री प्रेमचन्द बैनाड़ा 22. श्री ज्ञानचन्द झांझरी 23. श्री बलभद्र जैन अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष मंत्री संयुक्त मंत्री संयुक्त मंत्री कोषाध्यक्ष सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर (श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेश महावीर जयन्ती के अवसर पर प्रत्येक जैन को ऐसा संकल्प करना चाहिए कि आत्म शुद्धि एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए वह अपने व्यवहार में अधिकाधिक नैतिकता लाने का सच्चा प्रयत्न करेगा । जब तक हमारे देश के व्यक्तियों में नैतिकता नहीं आयेगी तब तक हम राष्ट्र को कभी ऊँचा नहीं उठा सकते | भगवान महावीर के उपदेश हमें यही सिखलाते हैं । उन्होंने सबसे अधिक जोर आत्म शुद्धि पर दिया है । मनुष्य में अगर नैतिकता प्रा जाए, उसका आचरण निर्दोष हो जाए तो उसकी सभी समस्याएँ हल सकती है । T भगवान महावीर के सर्व जीव समभाव, सर्व जाति समभाव और सर्व धर्म समभाव के पुनीत सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार हेतु महावीर जयन्ती के अवसर पर राजस्थान जैन सभा एक स्मारिका का प्रकाशन कर रही है, इसकी मुझे प्रसन्नता है । कार्यकर्ताओं एवं पाठकों में उत्तरोत्तर धर्म वृद्धि हो इस शुभ भावना के साथ, एलाचार्य मुनि विद्यानन्द Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6086033 संदेश __ जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर विश्व क्षितिज पर चमकने वाले महापुरुषों में से एक हैं। लाखों-करोड़ों श्रद्धालु लोगों की आस्था के के एक मात्र केन्द्र हैं। उनके बारे में बहुत कुछ लिखा गया है, कहा गया है और पढ़ा गया है। प्रति वर्ष उनका जन्म-दिन और निर्वाण-दिन मनाया जाता है। उनकी स्मृति में प्रति वर्ष स्मारिकाए प्रकाशित होती हैं। पर ये सब उपक्रम उनकी उपासना के लिए पर्याप्त हैं. ऐसा मैं नहीं मानता। मेरे अभिमत से भगवान महावीर को मनाने या उनकी उपासना करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उनकी साधना पद्धति को प्रायोगिक रूप देकर उसे जन-जन तक पहुचाया जाए। . इस ओर किसी का ध्यान आकर्षित हुआ या नहीं, मैं नहीं कह सकता। हमने एक प्रयास शुरू किया है। प्रेक्षा ध्यान साधना के माध्यम से भगवान महावीर की साधना पद्धति को उजागर किया जा रहा है । उसके उन्नीस शिविर सफलता पूर्वक सम्पन्न हो चुके हैं और बीसवां इस समय जयपुर में चल रहा है। इस अभिक्रम के द्वारा हम भगवान महावीर के प्रति सच्ची श्रद्धा समर्पित कर सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। राजस्थान जैन सभा (जयपुर) महावीर जयन्ती के अवसर पर एक स्मारिका प्रकाशित कर रही है। यह स्मारिका इस रूप का कोई सृजनात्मक पक्ष प्रस्तुत कर भगवान महावीर की साधना के रहस्यों को उजागर करने में थोड़ा भी निमित्त बन सकी तो बहुत बड़ा काम हो सकेगा। प्राचार्य तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रीन हाऊस जयपुर 6 अप्रेल, 1981 संदेश कुछ अभिव्यक्त होते हैं कुछ अभिव्यक्त किये जाते हैं। भगवान महावीर का जीवन स्वयं एक अभिव्यक्ति हैं। उनकी साधना स्वयं मुखर । उसके लिए किसी को मुखर होने की आवश्यकता नहीं है । फिर भी हमारी दुनियां में जागरूकता की कम अपेक्षा नहीं है । अजागृत को जागृत करने के लिए समय-समय पर प्रयत्न अपेक्षित होते हैं। महावीर जयन्ती के अवसर पर प्रति वर्ष प्रकाशित होने वाली स्मारिका एक स्वस्थ प्रायास है, इसमें भगवान महावीर के जीवन, दर्शन, साधना आदि के अनेक महत्वपूर्ण बिन्दु उजागर हुए हैं। इसका निरन्तर विकास होता रहे । युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यधिक जयत राज भवन जयपुर मार्च 26, 1981 संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर महावीर जयन्ती के पावन पर्व पर एक स्मारिका प्रकाशित कर रही है। जब तक समाज का नैतिक स्तर ऊंचा नहीं उठता राष्ट्र की वास्त ठिक उन्नति सम्भव नहीं है। जैन दर्शन हमारी संस्कृति की पावन धरोहर है। जैन आचार्यों ने सत्य, अहिंसा और त्याग द्वारा जीवन में आवरण को सुधारने के लिए महान प्रयास किये है। 1 आज विश्व में सर्वत्र व्याप्त अशान्ति और असन्तोष का बहुत कुछ समाधान भगवान महावीर के अपर संदेश द्वारा सम्भव हो सकता है। महावीर जयन्ती के अवसर पर हमें उनके बताए मार्ग पर चलने तथा जन कल्याणकारी सिद्धान्तों को अपने जीवन में आत्मसात करने का संकल्प दोहराना है। इस अवसर पर में अपनी शुभ कामनाएं प्रेषित करता हूं तथा आश्रा करता हूं कि यह स्मारिका भगवान महावीर की वाणी के प्रचार प्रसार में सहायक सिद्ध होगी । रघुकुल तिलक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैट्रोलियम तथा रसायन मंत्रो भारत सरकार नई दिल्ली-110001 10 अप्रेल, 1981 संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर में भगवान महावीर की 2579 वी जयन्ती की पावन स्मृति में एक स्मारिका प्रकाशन करने जा रही है। जैन धर्म के प्रवर्तक एवं अहिंसा के सर्वांगीण व्याख्याकार भगवान महावीर ने समस्त मानव समुदाय को अनेकों उपदेश दिये हैं । यू तो सभी उपदेश मानव जाति में व्याप्त जाति-पांति, उच्च-नीच, वर्ण भेद आदि बुराइयों को समाप्त करने में अत्यन्त उपयोगी हैं परन्तु 'अहिंसा' का जो उपदेश भगवान महावीर ने दिया उसका अपना विशिष्ट स्थान है। यह सर्व विदित है कि इसी अहिंसा के बल पर महात्मा गांधी ने भारत जैसे विशाल देश को स्वतन्त्र कराया। आधुनिक युग में, जहां हर बात के समाधान के लिए केवल हिंसा का सहारा लिया जाता हे, अहिंसा प्रचार-प्रसार की नितान्त आवश्यकता है। मुझे आशा है कि राजस्थान जैन सभा उक्त स्मारिका के माध्यम से भगवान महावीर के सिद्धान्तों उपदेशों को जन-जन तक पहुंचा पाएंगे और आधुनिक युग में उनकी उपयोगिता का बोध करा पाएंगे। मैं आपके प्रयास एवं स्मारिका की पूर्ण सफलता के लिए शुभकामना करता हूं । प्रकाशचन्द सेठी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मूलचन्द सोनी मार्ग, अनूप चौक, अजमेर परस्परोपकाही जीवानाम यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा के तत्वावधान में विश्ववंद्य भगवान महावीर की २५७६ वीं जन्म जयन्ती पर स्मारिका का प्रकाशन हो रहा है। वर्तमान विश्व की स्थिति बड़े कठिन समय से गुजर रही है। प्रतिदिन का जीवन भी अशान्त और संघर्षमय हो रहा है, उनमें शान्ति, निराकुलता और धैर्य धारण हेतु भगवान के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह आदि के सिद्धान्त अमृतमयी हैं। स्मारिका उन सिद्धान्तों का प्रचार व प्रसार करेगी इसी भावना के साथ मैं स्मारिका की सफलता चाहता हूँ। भागचन्द सोनी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्री पर्यटन तथा नागर विमानन मंत्रालय नई दिल्ली दिनांक : 13 अप्रैल, 1981 सम्यमेव जयते संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर भगवान महावीर की पावन जयन्ती पर एक बृहद स्मारिका के प्रकाशन का आयोजन कर रही है । इस अवसर पर मेरी ओर से बधाई। भगवान महावीर ने जात-पात, शोषण, सामाजिक अन्याय के विरुद्ध अहिंसा, उपरिग्रह, क्षमा, समानता का प्रचार किया और मन, वचन तथा कर्म की एकता पर बल दिया । वस्तुतः वे एक ऐसे महापुरुष थे जो सिद्धान्तों को व्यवहारिक जीवन में उतारने के काबिल थे। मुझे आशा है कि इस अवसर पर प्रकाशित की जाने वाली स्मारिका में जो सामग्री प्रकाशित होगी, उससे जनता में राष्ट्रीय एकता, धर्म निरपेक्षता ऑर सामाजिक प्रगति की भावनाओं को बढ़ावा मिलेगा। शुभ कामनाओं और सद्भावनाओं सहित । अनन्त प्रसाद शर्मा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MON संदेश शिक्षा मन्त्री, राजस्थान जयपुर 13 अप्रेल, 1981 मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि राजस्थान जैन सभा द्वारा महावीर भगवान की 2579 वीं जयन्ती पर एक स्मारिका का प्रकाश किया जा रहा है । भगवान महावीर ने विश्व को अहिंसा धर्म का पालन करने का निर्देश दिया था और महात्मा गांधी ने भी अहिंसा का रास्ता अपना कर ही भारत को गुलामी के चंगुल से छुड़ा कर स्वतन्त्रता प्रदान कराई थी। महावीर भगवान के सिद्धान्तों के पालन से समूचे विश्व का कल्याण हो सकता है । मैं विश्वास करता हूं कि इस अवसर पर प्रकाशित की जाने वाली स्मारिका में महावीर भगवान के द्वारा दिये गये उपदेशों से सम्बन्धित सामग्री प्रकाशित की जावेगी जिससे पूरा समाज महावीर भगवान के सिद्धान्तों से परिचित हो सके तथा उनका पालन कर अपना व सम्पूर्ण मानव समाज का कल्याण कर सके । चन्दनमल बंद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जन सभा, जयपुर का कार्यकारिणी ( वर्ष 1980-81) Jain Eucation International कुर्सी पर बैठे हुए : सर्वश्री प्रकाश ठोलिया (संयुक्त मंत्रो), कपूरचन्द पाटणी, ताराचन्द साह (उपाध्यक्ष) राजकुमार काला (अध्यक्ष) (बायें से दायें) बाबूलाल सेठी (उपाध्यक्ष), रतनलाल छाबड़ा (मंत्री) भागचन्द छाबड़ा (संयुक्त मंत्री) खड़े हुए प्रथम पंक्ति : सर्वश्री कैलाशचन्द सौगाणी, बलभद्र जैन, लल्लूलाल जैन, महावीर कुमार बिन्दायका, प्रेमचन्द बैनाड़ा, (बायें से दायें) त्रिलोकचन्द काला, कैलाशचन्द गोधा, शान्ति कुमार गोधा। खड़े हुए द्वितीय पंक्ति : सर्वश्री राकेश छाबड़ा, कैलाशचन्द साह, महेश काला, रमेशचन्द गंगवाल, अरूण सोनी, ज्ञानचन्द झांझरी । (बायें से दायें) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पाठकों के सम्मुख महावीर जयन्ती स्मारिका का यह 18 वां अंक प्रस्तुत है। पूर्व के अंकों की भांति, प्राशा है, इस अंक का भी विद्वान पाठकों द्वारा समादर होगा । जहां तक हमारा सम्बन्ध है हमें सन्तोष है कि इस अंक में प्रकाशित प्रत्येक रचना स्मारिका का.गौरव बढ़ाने वाली है। इस हेतु विद्वान लेखकों को साधुवाद अर्पित करते हैं। साथ ही हम उन विद्वान महानुभावों से क्षमा याचना करना चाहते हैं जिनकी रचनायें हम स्मारिका का सीमित कलेवर निर्धारित होने से अंक में शामिल नहीं कर सके । इसका हमें अत्यन्त खेद है। गत अंक की भांति यह अंक भी खण्डों में विभाजित हैं- 1. महावीर जीवन और सिद्धान्त 2. महामस्तकाभिषेक । इतिहास, पुरातत्व और कला 3. साहित्य और संस्कृति 4. सेवा, संस्थायें, 5. नई प्रतिभा, 6. आंग्ल भाषा । प्रथम खण्ड में भगवान महावीर के जीवन और सिद्धान्तों की चर्चा है। भक्ति से आपूरित अनेक लेख और कवितायें हमारे चित्त में प्रभु का बिम्ब और उनके आदर्श गहराई से उकेरती है और हमारे में छिपे 'महावीर' से हमें आत्मसात करती है । लेखों में एक दर्द भी है, एक चुनौती भी कि आज हम महावीर से केवल नाम जाप और जय जयकार तक ही अपने को जोड़ रहे हैं--मन-वचन-काय से, कृत-कारित-अनुमोदन से, अन्दर-बाहर सर्वत्र महावीर के अनुरूप अपने को ढालकर अपना जीवन तथा समाज को कृतार्थ नहीं कर रहे हैं । द्वितीय-खण्ड इस वर्ष मनाये गये राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के महामस्तकाभिषेक महोत्सव और तत् सम्बन्धी इतिहास की झांकियां हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है । दो लेख उसमें मथुरा के जैन पुरातत्व सम्बन्धी है-एक विद्वान श्री गणेश ग्रसाद जी का तथा दूसरा जैन पुरातत्व पर जाने माने विद्वान लेखक श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी का है। तृतीय खण्ड के एकाधिक लेखों में आचार्य कुन्दकुन्द उनके मन्तव्यों, उनका प्रभाव आदि चर्चित हुए हैं । प्रसंगत: हमें 1985 में आ रही कुन्दकुन्द द्विसहस्त्राब्दि का स्मरण हो रहा है। स्मारिका ने मानों उस उत्सव का प्रारम्भ अभी से कर दिया है। कुन्दकुन्द को गहराई से समझकर शुद्ध निश्चय नय के भी पार निर्विकल्प अनुभूतियों में पहुंचना कोई एक दिन का तो कार्य नहीं है जिसे हम बाजे गाजे और जुलूस मात्र निकाल कर पूरा कर सके। उत्सव दिवस के बाजे गाजे के साथ हमारा अन्तरंग उल्लास तभी जागेगा जब हमने प्रा० कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों का अनवरत अभ्यास अनुभूतियां पूर्व में कर ली होगी। (ऐसा सतत् अभ्यास करने और कराने वाली एक महान् विभूति श्री कान जी स्वामी आज हमारे बीच नहीं है। स्मारिका परिवार उन्हें सादर श्रद्धांजलि सादर समर्पित करता है।) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड सेवाकार्य और संस्थानों से सम्बन्धित है । फिरोजाबाद तथा राजस्थान की कुछ संस्थानों के परिचय सामने आये है। सामान्य ऊहापोह भी हुआ है । संस्थायें कैसे बनें और हमारे प्रयत्न विशेष फलदायी कैसे हो? हर प्रात्म-विश्लेषक, सजग व्यक्ति के मन के इस प्रश्न को भी हमारे सम्मुख रखा गया है । ___पांचवें खण्ड में नये लेखकों की रचनायें संकलित हैं-हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में । अहिंसा, कर्मसिद्धान्त, समता आदि पर निश्चय-परक, व्यवहार-परक सुदृष्टि का, भगवान बाहुबली का इतिहास, महामस्तकाभिषेक महोत्सव, पुनीत वैयावृत्य आदि का युवा लेखकों की कलम से गंभीर विवेचन, चित्रण पढ़कर हृदय को सन्तोष होता है कि संस्कृति के भवन के भावी स्तम्भ सशक्त हैं और हमारा भय मिथ्या लगने लगता है कि भावी पीढ़ी तीर्थंकरों की इस महान संस्कृति के प्रति अन्यमनस्क है। अन्तिम खण्ड प्रांग्ल भाषा का है। इसको प्रत्येक लेख पठनीय-मननीयहै । प्रथम में डा० वर्मा साहिब ने बड़े सुलझे रूप में क्षमादि दश धर्मों की चर्चा की है। जगह-जगह ईसा के कथनों को तुलना में प्रस्तुत कर, लीक से थोड़ी हटी, परिभाषायें देकर (यथा प्रतिक्रमण की 'home coming' तथा 'मूर्छा परिग्रह' को 'The life of ignorance A the life of bondage' कहकर) आपने लेख को विशेष रोचक बना दिया है। आदरणीय बी० बी० बज साहिब तथा आर० सी० सेठी साहिब ने कर्म शरीर, तैजस शरीर की रचना के साथ व्यक्ति के विचारों भावों के समानान्तर उठते, निसृत होते सूक्ष्म पर प्रभावशाली आकार, आभा, तरंगों की थियोसाकी तथा आधुनिक विज्ञान की खोजों की चर्चा भी संक्षेप में प्रस्तुत की है। इन्हें पढ़कर हमारा विश्वास बने कि मन, वचन, काय के स्तर पर किये गये कार्य व्यर्थ नहीं जाते-अपना अच्छा बुरा भल देते ही है, कि कार्य से वाणी तथा वाणी से मन के स्तर पर किया जा रहा कार्य अधिक-अधिक प्रभावोत्पादक होता है अतः हमें अपने मन को सदैव पवित्र भावों से ही भरना है, यह जीवन में आवश्यक रूप से सही और सफल क्रांति होगी। अन्तिम लेख श्री सोमानी जी का चित्तोड़ के कीति स्तम्भ के निर्माण की तिथि के सम्बन्ध में है। । अन्त में, कहते हैं भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि जब श्रोताओं के कानों में पड़ती थी तो वे इस तरह गद्गद् होते थे मानो अमृत ही झर रहा हो । उससे संतुष्ट हो वे भूख प्यास से निवृत्त हो जाते थे । भगवान की वाणी ही इस स्मारिका में चर्चित हुई है । समवशरण की श्रुति के समान इसका पठन भी हमें शांति. सन्तोष देने वाला हो इस कामना के साथ ज्ञानचन्द बिल्टीवाला प्रधान सम्पादक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यक्षीय जैन दर्शन, जैन संस्कृति और जैन साहित्य की धारा शाश्वत रूप से प्रवाहमान रहे, इसलिए भगवान महावीर के पाबन 2579 वीं जयन्ती के शुभावसर पर स्मारिका का यह प्रकाशन, उस निरन्तर प्रवाह में एक धारा के रूप में मिलकर उसे स्थायित्व प्रदान करने की दिशा में एक प्रयत्न है। लगभग 2600 वर्ष पूर्व वैशाली नगरी का कण कण वर्द्ध मान के जन्म से धन्य हो उठा था। कितने भाग्यशाली होंगे उस समय के जन जिन्होंने इतने निकट से महावीर को देखा. पाया और आत्म सात् किया । उसी दिन, उसी क्षण स्मृति के रूप में महावीर के सत्य अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत और ब्रह्मचर्य के पवित्र सिद्धान्तों के प्रचार और प्रसार में राजस्थान जैन सभा द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित स्मारिकायें, कितना योगदान दे रही है, इसका आकलन तो प्रबुद्ध पाठक गरण ही करें । मैं उसी पुष्पमाला की कडी में इस अठारहवां पुष्प को समर्पित करते हुए अपने आप को गौरान्वित मानता हूं। महावीर द्वारा प्रणीत सिद्धान्त, सार्वदैशिक और सार्वजनिक है, उन्हीं को अपनाने पर प्रशांत मानव को शांति मिल सकती है। विभिन्न विद्वानों, मनीषियों और विषय विज्ञों द्वारा अपनी अपनी विधा से अपनी अपनी लेखनी द्वारा उक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रस्तुत स्मारिका में किया है। इस वर्ष सम्पन्न हए भगवान बाहबली के सहस्त्राब्दि महामस्तकाभिषेक से सम्बन्धित तथा भगवान बाहुबली के जीवन चरित व उनके दर्शन को चित्रित करने वाली सामग्री को भी इस अठारहवें पुष्प में उपयुक्त स्थान देने का प्रयास किया गया है। फिर भी अपनी सीमाओं के कारण सामग्री सीमित अवश्य है किन्तु मेरा विश्वास है पाठकों का मन लभाने में कोई कसर सम्पादक ने नहीं रखी हैं। स्मारिका में प्रकाशनार्थ अनेक सुनाम धन्य विद्वान् मनीषियों ने सभी बहुमूल्य कृतियां भेजी, पर सभी को स्मारिका में स्थान न दे पाने की हमारी अपनी विवशता है । कृतियों के स्तर पर हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते, वे तो सभी उच्चता और गरिमा लिए हुए हैं, जिन्हें इस वर्ष हम चाहते हुए भी प्रकाशित नहीं कर पा रहे, उन्हें आगामी वर्ष के लिए सुरक्षित रख लिया है । जिनकी रचनायें प्रकाशित हुई है और जिनकी सुरक्षित रख ली गई है, उन सभी विद्वान मनीषियों के प्रति मैं आभारी हूं, जिन्होंने स्मारिका के लिए सामग्री देकर सुन्दरतम रूप देने का प्रयास किया है । मेरी भावना है यह स्मारिका सम्पूर्ण मत-भेदों को भुलाकर एकता की प्रतीक बनेगी। इस स्मारिका के सम्पादन का दायित्व इस वर्ष भी प्रधान सम्पादक के रूप में श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला को दिया गया है जिन्होंने सम्पादक के कार्य हेतु श्री बुद्धि प्रकाश भाष्कर को चून कर स्मारिका में चार चांद लगाने का प्रयास किया है। यह स्मारिका Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त दोनों विद्वानों तथा उनके सम्पादक मण्डल के साथियों के प्रयास से ही रोचक बन सकी है । मैं उन सभी का आभारी हैं, जिनके प्रयास से यह स्मारिका पाठकों तक प्राज यहां पहुंच सकी है। ___ स्मारिका की सफलता आवश्यक अर्थ व्यवस्था पर भी निर्भर है, माध्यम सदैव विज्ञापन ही रहा जो अपने आप में एक कठिन कार्य है। उस कार्य में प्रबन्ध समिति के संयोजक श्री ज्ञानचन्द झांझरी ने जिस सूझ बूझ का परिचय दिया है वह भुलाया नहीं जा सकता है। उनके साथ प्रबन्ध समिति के अन्य साथी सर्व श्री राकेश कुमार छाबडा, श्री कपूर चन्द पाटनी, श्री देश-भूषण सौगानी, श्री सुमेर कुमार जैन, श्री बाबूलाल सेठी, श्री विनय कुमार पापडीवाल, श्री प्रभाकर देव डंडिया, श्री रमेश कुमार गंगवाल एवं श्री महेश काला ने अथक परिश्रम कर अर्थ व्यवस्था को सजोंया है मैं इन सभी का अत्यन्त आभारी हूं । इस अवसर पर विशाल हृदयी विज्ञापन दाताओं का भी मैं आभार प्रकट किये बिना नहीं रह सकता हूं। राजस्थान जैन सभा की गतिविधियों को मूर्त रूप देने के लिए अर्थ व्यवस्था की अावश्यकता विज्ञापन के अतिरिक्त मी कोई कम नहीं रही है। इस कार्य में सर्व श्री ताराचन्द्र साह, श्री भागचन्द छाबड़ा, श्री लल्लूलाल जैन, मै० हीरालाल भागचन्द पाटनी, श्री कैलाश चन्द सोगानी, श्री महावीर कुमार विन्दायक्या, श्री प्रेमचन्द नाडा, श्री त्रिलोकचन्द काला, श्री तेजकरण सोगानी, श्री देव कुमार शाह, व श्री प्रकाश चन्द ठोलिया के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता है। संस्था के अन्य कार्यों में श्री प्रवीण चन्द छाबडा, श्री राजरूप टांक, श्री हीराचन्द वैद, श्री नरेश कुमार सेठी, श्री चन्दनमल वेद, श्री तिलकराज जैन, श्री सुभाषचन्द चोधरी, श्री राजकुमार जैन, श्री कैलाशचन्द गोधा एवं अन्य अनेक लोगों का योगदान रहा है जिससे संस्था की गतिविधियां आगे बढ़ पाई है । संस्था के मन्त्री श्री रतनलाल छाबडा ने सदैव अपनी सूझ-बूझ के साथ सारे कार्यों में व्यक्तिशः जिम्मेवारी निभाई है, उनका, तथा संस्था की कार्यकारिणी के सभी साथियों का जिनके निर्देशन में कार्य सम्पन्न होता रहा है। मैं पूर्ण हृदय से आभारी हूं, राजस्थान जैन सभा का वर्तमान स्वरूप उनकी ही देय है। यह 18 वां पुष्प जैना प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स के प्रो० कैलाशचन्द शाह, श्री अनिल कुमार शाह एवं प्रेस के समस्त कर्मचारियों की मेहनत के फलस्वरूप ही प्राज पाठकों के हाथ में है । अन्त में यह पूष्प भगवान महावीर के चरणों में प्रस्तुत है। राजकुमार काला अध्यक्ष, राजस्थान जैन सभा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जिस समय स्मारिका का यह अङ्क पाठकों के हाथों में पहुंचेगा उस समय समूचा देश विश्वबंद्य भगवान महावीर का 2579 वां जयन्ती समारोह मना रहा होगा। मानव समाज को ऐसा साहित्य जो भगवान महावीर एवं उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म एवं दर्शन पर विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रकाश डालता हो सुलभ कराने की दृष्टि से सभा ने 1962 में स्व० पं० चैनसुखदासजी की सत्प्रेरणा और परामर्श से भगवान महावीर की जयन्ती के पुण्यावसर पर एक स्मारिका के प्रकाशन का निर्णय लिया था। सभा के इस प्रयास को चतु तुर्मुखी प्रशंसा मिली। जिससे प्रोत्साहित होकर सभा ने अपनी इस योजना को स्थाई रूप दे दिया। अब तक सत्रह अङ्क प्रकाशित हो चुके हैं और यह अठारहवां अङ्क आपके हाथों में प्रस्तुत हैं । पं० चैनसुखदासजी के स्वर्ग प्रयाण के पश्चात् इसके सम्पादन का कार्य सर्व श्री भंवरलालजी पोल्याका व डा० कस्तरचन्दजी कासलीवाल ने किया । गत वर्ष से इसके सम्पादन का कार्य प्रसिद्ध विद्वान श्री ज्ञानचन्द जी बिल्टीवाला कर रहें हैं। आपने पूर्व के सम्पादकों की भाँति ही पूर्ण लग्न एवं उत्साह से लेखों के संकलन, चयन एवं सजाने संवारने का पूर्ण उत्तरदायित्व वहन कर इसे समय पर प्रकाशित कराकर कार्य को पूर्ण किया है । उसके लिए (मैं) उनका हृदय से आभार मानते हैं। स्मारिका के इस प्रकाशन कार्य में सम्पादक श्री बुद्धिप्रकाशजी जैन 'भास्कर' ने जो सहयोग प्रदान किया है हम उसे भी भुला नहीं सकते । इसके साथ ही हम सम्पादक मण्डल के अन्य सदस्यों का उनके द्वारा दिये गये सहयोग के लिए आभार मानते हैं। इसके लिए हम उन विद्वानों, लेखकों, कवियों के भी अत्यन्त आभारी हैं जो हमें निःशुल्क अपनी मौलिक रचनायें भेजते रहते हैं। यह उनकी कृपा का फल है जिसके फलस्वरूप स्मारिका ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया है। भविष्य में इसी प्रकार सहयोग प्रदान करते रहेंगे यह उनसे प्रार्थना है। किसी भी विशेष अवसर के लिए विज्ञापन आदि के द्वारा अर्थ संचय हेतू स्मारिका का प्रकाशन करना प्राजकल एक सामान्य प्रवृत्ति हो गई है। आपने ऐसी स्मारिकाएं अवश्य देखी होंगी जिनमें विज्ञापन अधिक और पठनीय सामग्री बहुत न्यून । हमें गर्व Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, राजस्थान जैन सभा, जयपूर द्वारा प्रकाशित स्मारिका समाज में अपना एक विशिष्ठ स्थान रखती है। स्मारिका के प्रकाशन का कार्य बिना अर्थ के संभव नहीं हो पाता । विज्ञापन ही अर्थ का माध्यम है। अतः हम समस्त विज्ञापन दाताओं के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इस सामग्री को जुटाने में श्री ज्ञानचन्दजी झांझरी, संयोजक विज्ञापन समिति एवं उनके अतिरिक्त सर्व श्री सुमेरकुमारजी जैन, कपूरचन्दजी पाटनी बाबूलालजी सेठी, देशभूषण जी सोगाणी, सोहनलालजी जैन, विनयचन्दजी पापड़ीवाल, वीरेन्द्रकुमारजी बज, प्रभाकरदेवजी डंडिया, महेशजी काला, नरेशकुमारजी सेठी, राकेशजी छाबड़ा, ने जो सहयोग दिया है उसके प्रति आभार प्रकट करते हैं। इसके अतिरिक्त सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमारजी काला ने सभा व उसकी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में सहयोग व मार्गदर्शन दिया है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । इस अवसर पर हम अर्थ संग्रह हेतु सर्वश्री ताराचन्दजी शाह, कैलाशचन्दजी सौगाणी, (संयोजक गण अर्थव्यवस्था समिति) प्रकाशचन्दजी ठोलिया, भागचन्दजी छाबड़ा, विनयचन्दजी पापड़ीवाल, देवकुमारजी साह, तेजकरणजी सौगाणी आदि ने अथक परिश्रम करके जो सहयोग प्रदान किया है उसके लिए हम उनका प्राभार मानते हैं । स्मारिका के स्तर में उत्तरोतर वृद्धि करने हेतु सभा सतत् प्रयत्नशील है । पाठक गण सफलता का मूल्यांकन स्वयं करेंगे। यदि वे कमियों से तथा प्राने सुझावों से अवगत करावेंगे तो हम उनके आभारी होंगे। स्मारिका का मुद्रण कार्य जैना प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स, जयपुर ने किया है। संस्थान के मालिक श्री कैलाशचन्दजी साह व उनके सभी सहयोगी धन्यवाद के पात्र हैं। अन्त में हम (मैं) स्मारिका के प्रकाशन में उन सभी महानुभावों के प्रति जिनका हमें अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है कृतज्ञता प्रकट करते हैं। महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार व प्रसार अधिकतम हो इसी आशा के साथ । रतनलाल छाबड़ा मंत्री, राजस्थान जैन सभा, जयपुर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा एक संक्षिप्त परिचय जैन समाज की सर्वांगीण उन्नति का लक्ष्य गुलाबचन्दजी जैनदर्शनाचार्य द्वारा शास्त्र प्रवचन रखकर वर्ष 1952 में दिगम्बर जैन समाज जयपूर एवं आध्यात्मिक प्रवक्ता पण्डित उत्तमचन्दजी में पथक-पृथक कार्य करने वाली विभिन्न संस्थानों भारिल्ल ने दस धर्मों पर मार्मिक विवेचना की। का एकीकरण कर एक नवीन संस्था का निर्माण आपके अलावा सर्वश्री त्रिलोकचंदजी, निहालचंदजी किया गया, जिसे राजस्थान जैन सभा के नाम से पाण्डया, ताराचन्दजी साह, डा. कस्तूरचन्दजी सम्बोधित किया गया। कासलीवाल, प्राचार्य प्रकाशचंदजी जैन, ज्ञानचंदजी समाज को रूढियों के प्रपंच से दूर हटाकर बिल्टीवाला, तेजकरणजी डंडिया, नवीनकुमारजी बज, कपूरचन्दजी पाटनी, राजकुमारजी काला प्रगतिशील मार्ग का अनुगामी बनाना इसका लक्ष्य आदि विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर है। यह सभा जनमानस को धर्म एवं कर्तव्य की। विचार व्यक्त किया । श्री राजमल बेगस्या, मोर आकृष्ट करने की दृष्टि से समय समय पर श्री प्रसन्नकुमार सेठी, श्री दासूलाल छाबड़ा, व्याख्यानों का प्रायोजन तथा साहित्य प्रकाशन भी कु. प्रीति जैन, कु. त्रिशला निधि एवं श्रीमती करती है। महावीर जयन्ती स्मारिका इसका एक निर्मला अजमेरा आदि ने भजन प्रस्तुत किए तथा अनूठा प्रकाशन है। इस स्मारिका को विद्वत् जगत् दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, महावीर में संदर्भ ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है। दिगम्बर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय, दिगम्बर सभा की मुख्य गतिविधियों में पर्युषण पर्व, जैन पद्मावती कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, सामूहिक क्षमापन समारोह, महावीर जयन्ती, महावीर दिगम्बर जैन बालिका विद्यालय प्रादि के महावीर निर्वाणोत्सव, मास्टर मोतीलाल दिवस, छात्र-छात्राओं एवं महिला जागृत संघ एवं वीर विशिष्ट विद्वानों के भाषणों का प्रायोजन, महावीर महिला संघ की सदस्याओं द्वारा संवाद, एकाभिनय जयन्ती स्मारिका प्रकाशन तथा सामाजिक सुधार गायन प्रादि के रोचक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये । के कार्यक्रम हैं। मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज की दिल्ली से जयपुर पर्युषण पर्व समारोह : व गोमटेश्वर बाहुबलि यात्रा की रील जो श्री जनमानस को धर्म एवं कर्तव्य की ओर प्राकृष्ट सुभाषचन्द जैन जौहरी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी का प्रदर्शन भी किया गया। करने हेतु भाद्रपद शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक बड़े दीवानजी के मन्दिर प्रांगण पर उस पर्व का सामूहिक क्षमापन समारोह : प्रायोजन किया जाता है। पर्दूषण पर्व की समाप्ति पर पासोज बुदी गत वर्ष इस अवसर पर प्रतिदिन पण्डित दोज को प्रातः रामलीला मैदान पर इस समारोह Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का आयोजन किया जाता है । आपसी मतभेदों को व श्री जीवन बल्लभ, श्वे. जैन सैकण्डरी स्कूल, भुलाने एवं विश्व प्रेम की भावना को जागृत करने जयपुर द्वितीय रहे । की दिशा में यह पर्व अपनी विशेष महत्ता रखता है। भाषण प्रतियोगिता: दिनांक 18 मार्च, 1981 को एस. एस. जैन गत वर्ष यह समारोह मुनि श्री मल्लिसागरजी सुबोध उच्च माध्यमिक विद्यालय में श्री उत्तमसिंह महाराज के सानिध्य में श्रीमती कमला, कृषिमत्री, कर्णावट की अध्यक्षता में आयोजित की गई। राजस्थान की अध्यक्षता में मनाया गया। इस 15 छात्र-छात्राओं ने इसमें भाग लिया। चल अवसर पर सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडित मिलापचन्दजी पुरस्कार हेत सुबोध कन्या उच्च माध्यमिक विद्याशास्त्री भूतपूर्व मुख्यमन्त्री श्री हरिदेव जोशी, लय चयनित हा। वीर बालिका उच्च माध्यमिक समाज के वयोवृद्ध नेता श्री राजरूप टांक ने विद्यालय द्वितीय रहा। श्रेष्ठ वक्ता में कु. अन्जु समारोह की महत्वता पर प्रकाश डालते हुये क्षमा अजमेरा, वीर बालिका उच्च मा. विद्यालय प्रथम को जीवन में उतारने की प्रेरणा दी। व श्री देवेन्द्र कुमार, एस. एस. जैन सुबोध उच्च महावीर जयन्ती समारोह : मा. विद्यालय द्वितीय रहे। विशेष पुरस्कार हेतु कु. ममता, महावीर बालिका विद्यालय को चुना चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन समस्त जैन गया। समाज के सहयोग से महावीर जयन्ती समारोह का सम्मिलित प्रायोजन सभा के तत्वावधान में प्रभात फेरी : किया जाता है। इस समारोह के अन्तर्गत निबन्ध दिनांक 28 मार्च, 1980 को प्रात: 5 बजे प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता, प्रभात फेरी, महावीर पार्क से प्रभात फेरी निकाली गई जो विचार गोष्ठी, युवक सम्मेलन, महिला सम्मेलन, शहर के विभिन्न रास्तों से होती हुई चाकसू के जुलुस, ग्राम सभा एवं सांस्कृतिक समारोह के चौक में पहुंच कर समाप्त हुई। पायोजन किये जाते रहे हैं। जिनमें जैन समाज के अतिरिक्त अन्य समाजों के विद्वान्, लेखक, वक्ता युवा सम्मेलन : आदि पधारते हैं और भगवान महावीर के प्रति दिनांक 28 मार्च, 1980 को सायंकाल अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। 8 बजे जैन मण्डल जवाहर नगर एवं सभा के गत वर्ष इस समारोह के अन्तर्गत निम्न संयुक्त तत्वावधान में जवाहर नगर में प्रायोजित कार्यक्रम सम्पन्न हुये:-- किया गया। निबन्ध प्रतियोगिता: जुलूस दिनांक 9 मार्च, 1980 को महावीर दिगम्बर जयन्ती के पावन दिवस दिनांक 29 मार्च 80 जर बालिका विद्यालय भवन में दो भागों में को प्रात: 6.30 बजे महावीर पार्क से एक विशाल प्रायोजित की गई। जिसमें श्री कमल लोढ़ा, श्वे. जुलूस निकाला गया जो नगर के प्रमुख बाजारों जैन सैकण्डरी स्कूल जयपुर व सुश्री मंजु जालानी, से होता हुआ रामलीला मैदान पर पहुंचा और एस. एस. जैन सुबोध बालिका विद्यालय प्रथम रहे वहां सार्वजनिक सभा के रूप में परिवर्तित हुआ । तथा श्री देवेन्द्र जैन, बाल शिक्षा मन्दिर जयपुर इस जुलूस में विभिन्न संस्थानों द्वारा रोचक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झांकियां भी प्रदर्शित की गई। भगवान महावीर महावीर स्मारिका विकलांग सहायता समिति श्री पार्श्वनाथ नवयुवक . गत वर्ष से स्मारिका का सम्पादन श्री ज्ञानचन्द मण्डल से बापू नगर, प्रादर्श नगर जैन समाज, बिल्टीवाला के प्रधान सम्पादकत्व में ही हो रहा तथा जवाहर नगर जैन समाज द्वारा प्रस्तुत झांकियां आकर्षण का मुख्य केन्द्र रहीं। विशेष व्याख्यानों का आयोजन सार्वजनिक सभा : जुलाई 1980 में तत्वज्ञान निधि बालब्रह्ममनि श्री मल्लिसागर जी महाराज एवं चारिणी कुमारी कौशल जी का दिगम्बर जैन साध्वीजी श्री मणिप्रभाजी की निश्रा में सार्वजनिक मन्दिर जी ठोलियान में प्रवचनों का प्रायोजन सभा का आयोजन किया गया। सभा के विशिष्ठ किया गया। अतिथि श्री जगन्नाथजी पहाड़िया, केन्द्रीय वित्तराज्य मंत्री थे तथा विकास आयुक्त श्री डी. प्रार. सेवा काय मेहता ने सभा की अध्यक्षता की। माननीय गयाजी से भगवान बाहवली महामस्तकाभिषेक न्यायाधीश, राजस्थान उच्च न्यायालय जयपुर की जा रही एक यात्री बस जयपुर-अजमेर मार्ग खण्ड पीठ श्री दरेन्द्र मोहन कासलीवाल द्वारा भयंकर दुर्घटना ग्रस्त हो जाने पर 5 यात्रियों की झण्डा रोहण किया गया । दुर्घटनास्थल पर मृत्यु हो गई तथा बैठे सभी इसी दिन सायंकाल एक वहत सांस्कृतिक यात्री घायल हो गये कुछने तो गम्भीर रूप से. जिन्हें अस्पताल में लाया गया। घायलों की पूरी समारोह के कार्यक्रम का आयोजन श्री एन. के. सेवा-सुश्रूषा की गई। इस कार्य में सर्ग श्री सेठी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। महावीर दिगम्बर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय के छात्र ज्ञानचन्द जी खिन्दुका, सुमेरकुमार जी जैन, रमेश चन्द जी गंगवाल, श्री एवं श्रीमती सुशीलकुमार छात्राओं का प्रदर्शन सराहनीय रहा। जुलूस, जी वेद, बलभद्रकुमार जी, श्रीमती राजकाला झांकी एवं नाटिकाओं के प्रशंसनीय कार्य के फलस्वरूप एक विशिष्ठ शील्ड जो स्व. श्री सूरज डा. हुकमचन्द जी सेठी, ताराचन्द ठोलिया प्रकाशचन्द लुहाडिया आदि ने जो परिश्रम किया नारायण जी सेठी की पुण्य स्मृति में उनके है वह सदैव प्रशंसनीय रहेगा। सभा इनकी परिवारजनों की ओर से राजस्थान जैन सभा को आभारी है। दी गई थी, वह प्रथम बार श्री महावीर दिगम्बर जैन उच्च मा. विद्यालय, जयपुर ने प्राप्त की। सामाजिक प्रवत्तियां महावीर निर्वाण महोत्सव जैन सभा की गतिविधियां केवल समारोह प्रायोजन तक ही सीमित नही । जनगणना में जैन भगवान महावीर के उपदेशों के प्रचार एवं प्रसार के उद्देश्य से इस समारोह का आयोजन सम्प्रदायों को जैन ही लिखवाने, नये-नये नियमों, दीपमालिका के दूसरे दिन की संध्या में बड़े दीवान। आदेशों से जैन समाज को अवगत कराते रहने के क्षेत्र में काफी महथ्वपूर्ण कार्य किया है। जी के मन्दिर में प्राध्यात्मिक प्रवक्ता डा. हकमचन्द जी भारिल्ल की अध्यक्षता में प्रायोजित इसके अतिरिक्त समाज के लोगों को उनके किया गया। द्वारा बिशेष कार्य सम्पादन करने, विशेश यात्रा से Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौटने अथवा उच्च स्थान प्राप्त करने पर उन्हें सम्मान देने की दृष्टि से समय-समय पर सभा द्वारा अभिनन्दन समारोह भी आयोजित किये जाते रहे हैं । गत वर्ष सभा द्वारा श्री प्रवीणचन्द्र छाबडा, श्री देवराज मेहता का अभिनन्दन किया गया । सभा द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले विभिन्न प्रयोजनों व कार्यक्रमों में जहां कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों का सहयोग रहा है वहां सर्व श्री रामरुप टांक, हीराचन्द जी बंद, निहाल चन्द जी पाण्डया, पं० मिलापचन्द जी शास्त्री डा० हुकमचन्द जी भारिल्ल, तिलकराज जी जैन डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, पन्नालाल जी महावीर जयन्ती :17-4-819 वांठिया, विनयचन्द जी पापडीवाल, तेजकरण जी ssor, नरेन्द्रकुमार जी सेठी, नवीनकुमार जी जैन सुरेन्द्रकुमार जी बंद, देवकुमार जी साह, मोहनलाल जी बांकीवाला, पारसलाल जी जैन नवनिधिराय जी लुहाडिया, कन्हैयालाल जी जैन विनोदकुमार जी अजमेरा, सोहनलाल जी जैन देशभूषणजी सोगानी, सुरज्ञानीलाल जी लुहाडिया पूनमचन्द जी गोधा, सुभाषचन्द जी चौधरी, प्रेमचन्द जी हैदरी, श्रीमती मोहनादेवी जी, श्रीमती सुशीलादेवी जी एवं श्रीमती निर्मलादेवी जी अजमेरा आदि के सहयोग भी भुलाये नहीं जा सकते । सभा को सुदृढ़ बनाने में सक्रिय सहयोग प्रदान करें इसी नम्र निवेदन के साथ रतनलाल छाबड़ा मंत्री Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड महावीर : जीवन सिद्धान्त एवं उपदेश 12 16 19 22 25 1. सन्मति की खिरती वाणी में भरा विश्व का सार है श्री कल्याणकुमार जैन 'शशी' 2. प्रेरणा के पुज भगवान महावीर श्री लादूलाल जैन 3. महावीर संप्रदायवाद से प्रावृत्त एक ज्योति पुज श्री कपूरचन्द जैन जय महावीर श्रीमती सुशीलादेवी जैन 5. वर्तमान संदर्भ में भगवान महावीर डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री भगवान महावीर का ध्यान नित्य नियमित रूप से करें श्री अगरचन्द नाहटा श्रम और समता के उन्नायक भगवान महावीर डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया 8. महावीर से हम कितनी दूर कितने पास श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला 9. भगवान महावीर का मानवतावाद श्री अशोककुमार 10. महावीर का नारा श्री प्रसन्नकुमार सेठी 11. तीर्थकर महावीर और उनके धर्म का स्वरूप श्री आचार्य राजकुमार जैन 12. भगवान महावीर की आधुनिक युग को देन श्री राजकुमार जैन एडवोकेट 13. महावीर के उपदेशों को श्री शर्मनलाल 'सरस' 14. पशु क्रूरता-एक विचारणीय विषय श्री हीराचन्द बैद 15. नैतिक चारित्र के अपरिवर्तनीय आयाम डा. ज्योतिप्रसाद जैन 16. अनन्त जीवन के साथी श्री राजकिशोर जैन 17. महावीर का आह्वान श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ 18. वीर वन्दना डा. शोभानाथ पाठक 19. उपदेश सन्मति ने दिये हैं श्री हजारीलाल 'काका' पुनः जरुरत है इस युग को महावीर के सन्देश की श्री ज्ञानचन्द ज्ञानेन्द्र 21. ज्ञान प्रात्मा का गुण सुश्री राजकुमारी जैन 22. अचौर्य (अस्तेय) व्रतः आधुनिक सन्दर्भ में डा. राजेन्द्रकुमार बंसल 23. महावीर मनीषियों दृष्टि में सं० राकेश कुमार छाबड़ा 26 31 33 34 41 45 46 48 49 50 51 54 58 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी (१) शरीर नाव है, जीव नाविक, और संसार समुद्र । इस समुद्र को महर्षि पार कर जाते हैं, प्रमादी इसमें डूब जाते हैं। (२) जो परिग्रह धारी मनूष्य प्राणियों का स्वयं घात करता है, दूसरों से उनकी हिंसा कराता है और हिंसा करने वालों का सर्मथन करता है, वह संसार में शत्र भाव को बढ़ाता है। (३) जो धर्म किसी प्रकार की अस्वाभाविकता-विषमता को आश्रय देता है, उससे संसार का कोई भला नहीं हो सकता। (४) दूसरों की सहायता करो, उन्हें जीने की सम्यक् राह बताओ, और यदि इतना नहीं कर सकते हो तो कम से कम किसी को सतायो मत । (५) किसी के अस्तित्व को मत मिटायो । शान्ति पूर्वक जियो और दूसरों को जीने दो। (६) निर्दोष आहार ग्रहण कर, अहिंसक जीवनोपकरण रख, और देख कि इनसे दूसरों का अपकार तो नहीं हो रहा है। (७) जब तक घर में दीपक का प्रकाश रहता है, तब तक सभी पदार्थ दीख पड़ते हैं, पर दीपक के बुझ जाने पर कुछ नहीं दीख पड़ता है। (८) जैसे वृक्ष के पके पीले पत्त अपने आप झड़ जाते हैं, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी आयु समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है। (8) जो शरीर सदा आत्मा के साथ रहता है, उसका भी सम्बन्ध प्रात्मा से कुछ नहीं है, क्योंकि आत्मा चेतन है, शरीर अचेतन । (१०) धर्म गांव में भी हो सकता है और जंगल में भी, वस्तुतः धर्म न कहीं गांव में होता है और न कहीं जंगल में ही; किन्तु वह तो अन्तरात्मा में होता है। श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा प्रचारित Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति की खिरती वाणी में भरा विश्व का सार है . कल्याणकुमार जैन 'शशि' - जिनके लिए भटकता फिरता, प्राणी मारा मारा हमने कैद कर रखा है, अपने अन्दर उजियारा घोर अंधेरों के घेरों ने, हमको घेर रखा है अपने प्रात्म तेज को हमने, स्वयम् नहीं परखा है बाहर नागफनी है, अन्दर वृक्ष फलदार है सन्मति की खिरती वाणी में, भरा यही भण्डार है हम निष्ठुर बन किसी दीन को, यदि पीड़ा देते हैं तो यह 'ब्याजू-ऋण' अपने खाते में लिख लेते हैं यदपि दीन-दुखिया-निराश को, सुख पहुंचा पाते हैं तो भविष्य की झोली में, बाँटा-सुख भर लेते हैं प्रात्म शक्ति के क्रय-विक्रय का यही बड़ा बाजार है सन्मति की खिरती वारणी का, यही अनोखा सार है प्राणी, जिस सहयोगी को, बाहर कर रहा तलाश है बाहर क्या रक्खा है, घर में ढूंढ 'स्वयम्' के पास है निज का निग्रह ही, आत्मा का अरूणोदयी प्रकाश है नर से नारायण बनने का, यह प्रारम्भ-प्रयास है खुला हुमा अन्तत्मिा में, लक्ष्य प्राप्ति का द्वार है सम्मति की खिरती वाणी में, बड़ा विलक्षण-सार है अपनी अनमोलो-निधियों को, हम पहिचान न पाये नर्क, निगोद, तिर्यञ्च, भ्रमण के दुख सर्वत्र उठाये आज फिर महा पुण्योदय से, मनुज-यौन में पाये यह मानव-पर्याय कठिन है, फिर न अकारथ जाये मनुज देह ही मोक्ष गमन का एक मात्र प्राधार है सन्मति की खिरती बाणी का आत्म धर्म उपहार है बाजार नसरूल्ला खाँ, रामपुर (उ० प्र०) 1/1 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा के पुञ्ज - भगवान महावीर लादूलाल जैन एम. ए, बी. टी., साहित्यरत्न महापुरुषों के जीवन प्रेरणा के स्रोत होते हैं। मानव सभी योनियों में भ्रमण किया। त्रसउनके बताये मार्ग का अनुसरण कर मानव उनके स्थावर सभी योनियों के दुःख उन्होंने भोगे । समान बन सकता है। भगवान महावीर का जीवन ___ एक भव में वे सिंह हुये । पशुओं का मारना हमारे लिये प्रेरणा का पुज है। उनके महावीर उनके जीवन का साधारण क्रम था। यह दो बनने के पूर्व के भवों को यदि हम बारीकी से देखें चारणऋद्धि धारी मुनियों की प्रेरणा से उनके तो हमें ज्ञात होगा कि किस प्रकार एक साधारण जीवन मे मोड़ आया। घोर हिंसक पशू सिंह ने प्राणी की स्थिति से उठते, गिरते उन्होंने महा भी अपने जीवन-क्रम को बदला। पांचों पापों का वीरत्व को प्राप्त किया। प्रांशिक त्याग किया। आइये, उनके वु छ भवों का सूक्ष्म निरीक्षण सम्यक श्रद्धा एवं विवेक का पथ अपनाया। करे । वे अपने एक पूर्व भव में पुरुखा नालक भीलों वे निष्ठापूर्वक प्रात्मोन्नति के प्रयास में लगे रहे । के राजा थे। वे पशुओं का ही नहीं मनुष्यों का की पर्याय को छोड़कर देव बने, मानव बने । भी शिकार करते थे। पर एक मुनिराज की प्रेरणा साधना का मार्ग अपनाते अपनाते वे महावीर के से जिनको वे मारना चाहते थे, उन्होंने मद्य, मांस, भव को प्राप्त हये। महावीर के भव मे भी उन्होंने एवं मधु तथा हिंसक कार्यों का त्याग किया। शांत कठोर साधना की । अत्म कल्याण के लिये उन्होंने परिणामों से प्राण त्याग कर प्रथम स्वर्ग में देव कठोर साधना की । आत्म कल्याण के लिये उन्होंने हुए। वहाँ से निकलकर भगवान आदिनाथ के राजसी सुखों को त्यागा, इन्द्रिय सुखों से मुख मोड़ा पौत्र एवं भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि हुये । भग तथा बारह वर्षों तक शांति तथा सुख की खोज वान आदिनाथ का अंधानुकरण कर उन्होंने मुनि में लगे रहे। अनेक प्रकार के कष्ट ऊपर आये, नर दीक्षा ली। पर अज्ञान के कारण उस पद का उनका शांतिपूर्वक सामना किया। उनकी साधना निर्वाह करना तो दूर, अधंकार के कारण उन्होंने सफल हुई । उन्होंने आत्मा के विवादों का समूल मिथ्या मतौं का प्रवचन किया। सद् धर्म के विरूद्ध नाश किया तथा सच्चे सुख एवं शान्ति की उन्होंने विद्रोह का नेतृत्व किया। उनके प्रवर्तित प्राप्ति की। मिथ्यामत आज भी विश्व में प्रचलित हैं । मरीचि का उनका यह भव हमें यह प्रदर्शित करता है कि भगवान महावीर का जीवन हमारे लिये एक किस प्रकार घोर मिथ्यात्वीं भी आगे चलकर अपने जाता जागता उदाहरण है कि एक पतित प्रारपी पुरुषार्थ से अपना कल्याण कर दूसरों के लिये भी आत्म विकास के पथ पर बढ़ता हुआ चरमोआदर्श बन सकता है । मरीचि के भव के पश्चात् त्कृष्ट पद पर पहुंच सकता है। उनका चरित उन्होंने असंख्यात वर्षों तक देव, नारकी, पशु एवं उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि प्राणी अपने उत्थान 1/2 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं पतन के लिये स्वयं उत्तरदायी है। वह चाहे सकेंगे। हग अपने भौतिक शरीर, भौतिक शरीर तो मिथ्यात्व का सेवन करते हुये घोरातिघोर के माध्यम से उत्पन्न परिवार के व्यक्तियों भौतिक दुःखों को भोगते हुये संसार में परिभ्रमण करता पदार्थों रूप, रस. गंध, स्पर्श से युक्त इन्द्रियों के रहे । वह चाहे तो सम्यक्त्व से. व्रतों से, तप से, विषयों को ही अपने आप को मान बैठे हैं । हमने ध्यान से, ध्यान से अपनी मात्मा का विकास कर अपना अस्तित्व इन्हें ही मान लिया है । इनसे परम सुख की प्राप्ति कर ले। प्राणी को निराश भिन्न हमारी सत्ता है या नहीं। भगवान महावीर आवश्यकता नहीं। वह अपने माप का ने हमें बताया है-ये सब पदार्थ हैं। पर प्रात्मा निर्माता स्वयं है। प्रत्येक प्राणी में एक दिव्य इन सबसे भिन्न एक अनुपम पदार्थ है । वह अपने है। प्रावश्यकता इस बात की है कि वह मूल रूप में ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति एवं प्रानन्द व का अनुसरण करता हुआ उस दिव्यता का भण्डार है। विश्व के सभी पदार्थों से अनुपम ने, पहचाने और अनुभव करे। हम जो हैं, गुणों वाला, अनन्त शक्ति का पुज हमारी यह हमारी जैसी वर्तमान स्थिति है, वह हमारे ही प्रात्मा है। एक बार अपने अन्दर झांक कर देखो का परिणाम है । हम जैसे आगे होंगे, हमारे तो सही । हमें ज्ञात होगा कि हममें महान संभावनाएँ स्वयं के कार्यों सेही होंगे । हमारी उन्नति, अवनति हैं पतित से पतित, घोर से घोर दुःखी, निकृष्ट हम पर ही निर्भर है। कोई ईश्वर या अन्य देवी से निकृष्ट प्राणी भी अपना विकास कर सकता शक्ति हमारे उत्थान, पतन के लिए उत्तरदायी है। इस बात की आवश्यकता हैं कि हम हमारी नहीं है। वर्तमान स्थिति पर शांतिपूर्वक विचार करे। हमने अब तक जो प्रयास सुख और शांति के लिए किये भगबान महावीर ने अपनी कठिन साधना से हैं, उनकी सार्थकता पर गंभीर रूप से विचार जो अनुभव के अमृत बिन्दु हमें दिये हैं उनसे सबसे करें। पूरी शक्ति से अपने भीतर झांके । हमारे प्रमुख है आत्म-दर्शन । प्राणी स्वयं अपने को देखें जो अनुभव हों, उन पर सम्यक् विचार करें। समझे एवं तदनुकूल प्रवृत्ति करें। हमारी सारी सद्ग्रन्थों के अध्ययन, चिंतन मनन तथा सत्पुरुषों शक्ति, सारे प्रमाण हमसे भिन्न बाह्य पदार्थों को के समागम एवं मार्गदर्शन को प्राप्त करते हुए समझने, प्राप्त करने तथा उनके माध्यम से सुख- हम लगन एवं निष्ठापूर्वक प्रयास करें। सच्चे सुख प्राप्ति के प्रयत्नों में ही लग जाते हैं । हम स्वयं और शांति को प्राप्त कर सकते हैं । यही भगवान क्या हैं, इसका बोध जब तक हमको नहीं होगा, का पावन संदेश हैं । इसी पर चलना उनकी पूजा हम सच्चे सुख और शान्ति की प्राप्ति नहीं कर है। उपासना है। 622 बरकत कालोनी टोंक फाटक, जयपुर 1/3 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : सम्प्रदायवाद से आवृत्त एक ज्योति पुंज 0 कपूरचन्द जैन महावीर जैसे महापुरुष किसी सम्प्रदाय विशेष के दायरे में कैद नहीं किये जा सकते; पर सामान्यत: जैन और अजैन आज भी उन्हें जैनों का ही मानने की गलती कर रहे हैं । लेखक इस गलती को दूर करना चाहते हैं । प्र० सम्पादक महावीर का जन्म क्षत्रिय वंश में हुआ, उनके थे। क्योंकि महावीर ने आत्म-धर्म की बात प्रधान गणधर गौतम, ब्राह्मण थे। शिष्य और कही है। साधु समुदाय में सभी वर्गों और जातियों के लोग प्रश्न उठता है प्रात्मधर्म क्या है ? धर्म का थे, यहाँ तक कि हरिकेशी चाण्डाल भी। इस प्रकार अर्थ है स्वभाव । कुन्द-कुन्द कहते हैं----'वत्थु सहावो महावीर किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध नहीं धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । प्रात्मा थे। उनकी वाणी समग्र मानव जाति के लिए का स्वभाव-प्रात्मधर्म । आत्मा का स्वभाव है उसी प्रकार सुलभ है जैसे हवा और पानी। हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना महावीर ! एक ऐसा ज्योतिपुंज है यह जिससे आदि । ये आत्मा के स्वभाव इसलिए हैं क्यों कि आबाल-वृद्ध, ऊँच से नीच, गरीब से अमीर, इनके बिना प्रात्मा की स्थिति ही नहीं हो सकती। स्थावर से जंगम, मनुष्य से देव तक सभी आलो- क्षणमात्र को भले ही वह होती सी दिखाई दे जाय कित हो रहे हैं। किन्तु स्थायी रूप से आत्मा इनसे अलग होकर अभी तक महावीर को जैनधर्म के प्रवर्तक के नहीं रह सकती। रूप में जाना जाता था किन्तु यह मान्यता अब अमान्य प्रथम अहिंसा को ही लीजिये, क्या सदा हो चुकी है। महावीर जैनधर्म के चौबीसवें और हिंसक होकर मानव रह सकता है । जब-जब अन्तिम तीर्थङ्कर थे। वस्तुत: देखा जाये तो महा• अहिंसा की बात कही जाती है लोग उसे जैनों का वीर जैनियों के नहीं, दिगम्बरों के नहीं, श्वेताम्बरों एक सिद्धान्त मात्र मानकर उसकी उपेक्षा करते हैं। के नहीं, हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों के नहीं- किन्तु कल्पना कीजिए यदि अहिंसा जैन मात्र की वे किसी के भी नहीं थे और सबके थे। जैनियों रह जाये तो बाकी लोग हिंसक होंगें और हिंसक के भी 'दिगम्बरों के भी, श्वेताम्बरों के भी', हिन्दू होकर उनका जीवन कितना दूभर हो जायगा मुसलमान और ईसाइयों के भी, वे प्राणिमात्र के कितनी सामाजिक अव्यवस्था फैल जायगी, मानव Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव न होकर पशु मात्र रह जायगा । अब सत्य को लीजिए, सत्य के विपरीत होगा असत्य । कोई व्यक्ति सदा सत्य बोलकर समाज में नही रह सकता, जबकि सत्य सेन केबल रह सकता है afe सुखपूर्वक रह सकता है। इसी प्रकार अस्तेय को भी लिया जा सकता है । कहते हैं महावीर ने पार्श्वनाथ के 'चतुर्याम मार्ग' में ब्रह्मचर्य जोड़ा है। कल्पना कीजिये यदि ब्रह्मचर्यं न हो. सारे समाज में व्यभिचार फैल जाये तो समाज की क्या स्थिति होगी ? महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त प्राज के समाजवाद से मिलता जुलता है। महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम, सभी कुछ त्याग कर वानप्रस्थी हो जाओ, ऐसा कहते तो कोई आहार देने वाला भी न बचता, सामाजिक स्थिति ही संशयास्पद हो जाती - 'नग्नक्षपणके देशे रजकः किं करिष्यति' । उन्होंने कहा - रखो तो किन्तु उसकी एक सीमा बांध लो, जितने की तुम्हें प्रावश्यकता है उतना रखो बाकी दूसरों के उपभोग के लिए छोड़ दो । वही महावीर का 'जियो और जीने दो' का सन्देश है। उन्होंने कहा— जैसे ग्रग्नि में चाहे कितना ही ईंधन डालो, वह तुष्ट नहीं होती, सागर में चाहे जितनी ही नदियाँ मिल जायें वह तुष्ट नहीं होता ऐसे ही मनुष्य को चाहे जितनी धन-सम्पत्ति मिल जाऐ वह कभी सन्तुष्ट नहीं होता "कसि पि जो इमं लोयं, पडिपुण्गं दलेज्ज इक्कस्स । तेराऽनि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे श्राया ।।' " अर्थात् यदि धन-धान्य परिपूर्ण यह सारी सृष्टि किसी एक व्यक्ति को दे दी जाय तब भी उसे सन्तोष होने का नहीं, क्योंकि लोभी आत्मा की तृष्णा दुष्पूर होती है । अतः कही न कही जाकर सीमा बांधनी ही होगी । व्यक्ति सोचता है कि मैं जो कहता हूँ, जो सोचता हूँ वही सत्य है । प्रजातान्त्रिक कहता है प्रजातन्त्र ठीक है और समाजवादी कहता है समाजवाद । किन्तु वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । राम दशरथ की दृष्टि से पुत्र, लक्ष्मण की दृष्टि से भाई, सीता की दृष्टि से पति और लव की दृष्टि से पिता है । राम एक ही हैं किन्तु दृष्टि के वैविध से वे विविध हैं । महावीर ने कहा -वस्तु अनन्त धर्मों का पिण्ड हैं । उसे अनेक दृष्टियों से देखो, तुम सत्य को पा जाओगे । केवल अपने को ही सत्य मत समझो, दूसरे को भी सत्य मानो । उनके इस सिद्धान्त का नाम है अनेकान्तवाद । एकान्तवाद मानसिक हिंसा है, और व्यक्ति के लिए मानसिक हिंसा भी याज्य है । अन्य भारतीय दर्शनों ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को ही नकार दिया था, प्रात्मा कुछ नहीं है जो कुछ है परमात्मा है, वही कर्ता-धर्ता और मोक्षदाता भी वही है अतः शरणागति आवश्यक है । किन्तु महावीर ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रति आस्था जगायी । उन्होंने कहा जन-जन ही नहीं, करण करण भी स्वतन्त्र है, अपना कर्ता-धर्ता वही है । आत्मा अनन्त दर्शन -ज्ञान-सुख और वीर्य का पिण्ड है । अपने गुणों का विकास कर वही परमात्मा बन सकता है, आत्मा परमात्मा है, नर ही नारायण है । परमात्मा तो तुममें ही छिपा है । उसी से प्रभावित होकर कबीर ने कहा - 'तेरा साईं तुझ में ज्यों पुहुपन में वास' । और अन्त में महावीर ने समस्याओं में फँसे मानव को एक ऐसा सूत्र दिया जो अकेला ही सभी समस्याओं का समाधान करने वाला है । उन्होंने कहा - 'जो तुम अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरे के लिए भी मत सोचो' (करने की बात तो दूर है ) किसीभी कार्य को करने से पूर्व उसे श्रात्म-तराजू पर तोलो, देखो कहीं ऐसा तो नहीं संसार के सारे झगड़े फसाद एक दूसरे की बात न मानने के कारण ही तो होते हैं । हर 1/5 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वही कार्य कोई दूसरा तुम्हारे प्रति करता तो सुलझ जायेगी, सुख शान्ति संसार में बरसने तुम्हे दुःख होता। लगेगी। भाज जबकि विश्वयुद्ध के बादल संसार पर इस प्रकार महावीर के सभी उपदेश किसी मंडरा रहे हैं-मानव यदि इस एक ही सूत्र एक जाति, वर्ग या सम्प्रदाय के मानव को न पर अमल कर ले तो सारी समस्याय स्वयं ही होकर समग्र मानव जाति के लिए हैं। अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, श्री कुन्द कुन्द जैन डिग्री कालेज, खतौली-25120 महावीर के उपदेश एक उस विजयी आत्मा के विजय गान के समान है जिसने इसी संसार में छुटकारा, स्वतन्त्रता तथा मुक्ति प्राप्त करली हैंउसके आदेश हर एक के लिये अनिवार्य नहीं है। जो बिना उनको स्वीकार किये भी अनुभव से ज्ञान प्राप्त करके ही उस मार्ग पर चलने लगते हैं, वे भी अपनी आत्मा की एक-स्करिता नष्ट होने से और इसके गंदला होने के भय से बच जाते हैं। -इटालियन विद्वान डा अलवर्टी योगी - 1/6 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय महावीर ! चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को महावीर जन्मे सत्य हिंसा की मूर्ति संयमी त्यागी अनेकान्ती आत्म-निरीक्षक | महावीर ने साधना की और बने आत्म ज्ञान के प्रकाश पुंज राग-द्वेष-मोह-विवर्जित, निर्भय, समदृष्टि उपसर्गातीत । महावीर आपके मार्ग का पथिक कटोती उलझनों से प्रतीत होता चलता है वह अपने में 17 श्रीमती सुशीला देवी जैन सरस्वती, धर्मालंकार अपने को खोज अपनी अनन्त ज्ञान निधि का स्वामी बन जाता है । मोक्ष कहीं दूर नहीं कदम कदम पर एक नया उत्साह नया श्रानन्द नयी मुक्ति उसका वरण करती चलती है । प्रभो ! आपको देखने समझने पर सहज ही ज्ञान टूटता है और कदम आपके पथ पर बढ़ने लगते हैं व्यक्ति में छिपा उसका अपना महावीर जाग उठता है । लालजी सांड का रास्ता जयपुर । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान सन्दर्भ में भगवान महावीर महावीर का दर्शन शाश्वत है। उसके अनुसार " आपके अन्तर्जगत में और आपके बहिर्जगत में जो भी घटित होता है, उसका दायित्व आपके ऊपर ही है । " यह समझ लेने पर हम अवश्य ही अपनी समस्याओं से आज भी मुक्त हो सकते हैं । राष्ट्र प्रति वर्ष महावीर जयन्ती मनाता है । महावीर महापुरुष या भगवान साधना के मनन्तर हुए, किन्तु इसके पूर्व वे एक व्यक्ति थे । उनके भगवान बनने का मूल मन्त्र यही था कि वे सर्वप्रथम व्यक्ति बने । व्यक्ति वह होता है जो अपने व्यक्तित्व को पहचान लेता है। जहां व्यक्तता है, अपनी सम्पूर्णता का प्रकाशन है, वहीं व्यक्तित्व है । व्यक्तित्व किसी देह, कर्म या भौतिक शक्ति का नाम नहीं है; किन्तु पदार्थ की शक्ति का पूर्ण रूप से व्यक्त होना है । जो अनन्त की श्रव्यक्ता को व्यक्त कर उसे आलोकित करता है, वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित करता है । व्यक्तित्व की प्रभा स्वयंप्रभा होती है जो व्यक्ति से भिन्न नहीं होती । व्यक्ति किसे कहना और किसे नहीं कहना - यह एक शोध-खोज का विषय हो सकता है । किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि महावीर एक [D] डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री व्यक्ति थे । अनन्त की सम्पूर्ण सत्ता से वे परिचित थे । विश्व के सारे रहस्य उनको व्यक्त हो गए थे । उन्होंने पदार्थ की अनन्त शक्तियों को पहचान लिया था । विश्व की समस्त भौतिक शक्तियों से परे आत्मलोक के अनन्त चिन्मय प्रदेश में सत्य के साक्षात्कार से सच्चिदानन्द को उपलब्ध हो चुके थे । 1/8 -सम्पादक अपने अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्त बल के आधार पर जिस सत्य का उन्होंने निर्वाचन किया था, वह आध्यात्मिक था । विशुद्ध गणित की भांति श्रात्मा, जगत् तथा जीवन के विविध रहस्यों को अध्यात्म-सूत्रों में निबद्ध किया गया । अध्यात्म का विषय हमारे, आपके सबसे अधिक निकट होने पर भी रहस्यात्मक होने से अनुभव में नहीं आ पाया । इसलिये उसके संकेतों से भाषात्मक शब्दावली से हम अपरिचित रहे । अध्यात्म का यह रहस्य केवल चेतनालोक तक ही सीमित नहीं रहा । हमारे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्जगत् में जो भी घटित होता है, उसमें भोतिक ध्यान करते हैं अर्थात् अपने से जुड़ते हैं तो सारी कितना है और आत्मिक हितना है--इस भेद- दुनिया से अपने आप अलग हो जाते हैं, अलग विज्ञान से भी हम अनजान हैं। इसलिये स्व-पर के करना नहीं पड़ता है। किन्तु आप दुनियां से जुड़े भेद-विज्ञान का महान् सूत्र अध्यात्म के रहस्य को रहना चाहते हैं, तो कितना, क्या जुड़ते हैं, दुनियां प्रकट करने वाला सिद्ध हुआ। को अपना बनाने में ही चिन्ता, परेशानी और समस्याओं को जन्म देने वाले बन जाते हैं । जो यह सुनिश्चित है कि महावीर महान् थे, अपने पापको किसी को पैदा करने वाला मानता उनका दर्शन-ज्ञान और वे स्वयं महावीर, अजेय, है, वह उसको मिटाने वाला भी बनता है । हम अपराजित तथा अनन्तशक्ति सम्पन्न थे। एक किसी का अच्छा या बुरा कर सके या न कर सकें, 'अनन्त' शब्द ही उनके अनन्त को संकेतित कर पर करने वाला तो हम अपने आप को मान ही सार्थक हो गया । अन्य सीमित शब्द उस अर्थवत्ता लेते हैं। हमारा दायित्व है कि हम अपना भाव को कैसे समाहित कर सकते हैं ? ....परन्तु प्रश्न करें। भावों के अनुसार ही हमारी दुनियां बनती यह है कि वर्तमान जीवन के सन्दर्भ में भगवान है। हम किसी को अच्छी नजर से देखते हैं तो यह महावीर का धर्म व दर्शन हमारा समाधान किस स्वाभाविक है कि वह भी हमें अच्छी नजर से प्रकार कर सकता है ? देखेगा । क्योंकि देखना हमारे हाथ की बात है धर्म,व दर्शन शाश्वत है; किन्तु समस्याएं और जैसा हम देखते हैं वैसे ही भावों का फल या शाश्वत नहीं हैं। समय तथा परिस्थितियों के अनुभव हमें प्राप्त होता है-इसमें कोई सन्देह बदलते हुए सन्दर्भो में हमारे जीवन की समस्याए नहीं है । इसलिये भावलोक की विशुद्धता प्राप्त बदलती रहती हैं । समस्याओं का जन्म हम बाहर करना समस्या का मूलगामी समाधान है । में मानते हैं, परिस्थिति तथा उससे सम्बन्धित घटना को उसका घटक मानते हैं, बाहरी कारण- यदि हम समस्याओं का समाधान बाहरी कलापों को उसका जनक मानते हैं और इसलिये कारणों के आधार पर खोजें, तय करें तो परिजो कुछ भी घटता है उसका दायित्व हम दूसरों णाम निराशाजनक ही हाथ लगेंगे । इसका मुख्य पर डालते हैं। हम उससे कहां तक जुड़े हुए हैं या कारण यह है कि हम प्रत्येक कार्य का दायित्व अपने को किन परिस्थितियों में सहभागी मानते निमित्त की उपस्थिति के अनुसार दूसरों पर डालते हैं और किन स्थितियों में उसके उत्तरदायित्व को रहे हैं । बात छोटी-सी होती है, किन्तु हमारी नकारते हैं-यही समस्या का मूल है । जैन दर्शन नासमझी से कैसी विस्फोटक स्थिति का निर्माण के अनुसार आपके अन्तर्जगत् में और आपके बहि- कर देती है-इसका अहसास हमें विस्फोट से जगत् में जो भी घटित होता है, उसका दायित्व पहले नहीं होता । बाहर से दिखलाई पड़ने वाले अापके ऊपर ही है। प्रापका संकल्प, आपका भाव कारण सदा वही नहीं होते जिनका हमें अहसास और आपका परिणाम क्या प्रभाव ग्रहण करता है होता है । किसी ने मन्दिर बनवाया, किसी ने और क्या प्रभाव छोड़ता है--यह आपके ही अधीन अपने दल का निर्माण किया और कोई अपनी है । आप चैतन्य, चिन्मय हैं, ज्ञानचेतना आपका सीमा का चित्रांकन करने में लगा है, तो वह कोई धन है। आप उस धन को लुटाना चाहते हैं या अच्छा या बुरा कार्य नहीं कर रहा है, किन्त उसके अपनाना चाहते हैं-यह आपके भावों पर निर्भर उस कार्य से हमारे मन में कैसा भाव जगता। है। आप अपने को देखते हैं, अपनी भावना, अपना ईर्ष्या-द्वेष या स्वार्थ कहाँ टकराता है उसे देखकर 1/9 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही हम अच्छे या बुरे होने का निश्चय करते हैं। हैं और किसी से अलग होने को अच्छा मानते हैं - जो हमें अच्छा लगता है, उसे हम चाहते हैं, उसके यह सब हमारी मानसिक प्रतिक्रियाओं का परिप्रति हमारे मन में राग का भाव जगता है और जो णाम है । यदि अपने में इस प्रकार का परिणमन हमें नहीं रुचता है, जिसे हम पसन्द नहीं करते, न हो तो लोक के कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो उससे हमारा मन मुड़ता है। हम नहीं चाहते कि सकते । वह वैसा हो, उससे हमारे मन में द्वष व घृणा का भाव जाग्रत होता है। भगवान महावीर कहते हैं प्रत्येक प्रकार की समस्या के मूल में वस्तु में कि राग-द्वेष भाव का उत्पन्न होना ही हिंसा है होने वाले परिणाम को हम नहीं बदल सकते हैं, किन्तु अपने भाव को, अपने भाव-कर्म को हम और जहां हिंसा है, वहां हमारे जीवन में तरह अवश्य बदल सकते हैं, उसकी दिशा को परिवर्तित तरह की समस्याए निरन्तर जन्म लेती रहती हैं। कर सकते हैं । जिस किसी भी क्रिया के साथ रागइसलिये यदि हम वस्तुत: समस्या का समाधान करना चाहते हैं तो सदा-सदा के लिए यही अभ्यास द्वेषमूलक आवेश होगा, वहां नियम से प्रतिक्रिया होगी ओर प्रतिक्रिया पूनः क्रिया-प्रतिक्रिया को करना चाहिए कि राग-द्वेष किसी प्रकार उत्पन्न न हों । जहां साम्यभाव है, वीतरागता है, वहां जन्म देगी । इस प्रकार हिंसा, युद्ध, संघर्ष तथा किसी प्रकार की समस्या जन्म नहीं लेती । वस्तुतः अशान्ति से शान्ति व सूखमूलक समाधान नहीं यह सिद्धान्त है—इसमें किसी प्रकार की विप्रति होगा । यदि हम वास्तविक शान्ति चाहते हैं तो पत्ति नहीं हो सकती। अहिंसा व साम्यभाव के द्वारा ही उपलब्ध हो हो सकती है। जहां तनाव है, वहां टकराहट है, द्वन्द्व है, संघर्ष है और जहां अन्तर्द्वन्द्व व टकराहट है, वहां विश्व के इतिहास में इस प्रकार के अनेक बिखराव है और ऐसी स्थिति का निर्माण बिना उदाहरण हैं कि मनुष्य के क्षणिक आवेश ने, भले राग-द्वेषमूलक संकल्प-विकल्पों के होता नहीं। इस ही वह पानी के बहाव को लेकर हो, अन्य देश के लिये सभी प्रकार की समस्या त्रों के मूल में राग प्रशासक को शरण देने का हो अथवा सीमा विषयक गलत मानचित्र के प्रचार का हो, किस द्वेष की उपस्थिति अनिवार्य है। व्यक्ति को इसे प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया और स्वीकार करना होगा कि समस्याओं को पैदा करने अन्तत: वे ही संघर्ष व यूद्ध का कारण बनीं । वाले हम हैं। हमारी समस्याओं को अन्य कोई भीतर में चलने व पलने वाली हिंसा बाहर की उत्पन्न करने वाला नहीं है और इसलिये उनका समाधान भी हम कर सकते हैं। इस प्रकार जैन हिंसा से कहीं अधिक भीषण व खतरनाक होती वर्शन पुरुषार्थ को जाग्रत करता है,हमारी मूलगामी है। बाहर की हिंसा हमें उतना नहीं जलाती, जितनी कि भीतर की हिंसा पल-पल में तिल-तिल चित्तवृत्तियों का हमें बोध कराता है। कर हमें जलाती, मिटाती रहती है। वर्तमान में यह सभी जानते हैं कि समाज में हम कई चलने वाले शीतयुद्ध इसीलिये सबसे अधिक खतरतरह की वस्तुओं के साथ रहते हैं। जिस तरह नाक तथा अन्तकारी भीषण हैं कि वे हमें ही नहीं, हम उन सबसे जुड़ते हैं, वैसे ही वे सब भी हम से हमारी संस्कृति को भी धीरे-धीरे मिटाते जा रहे जुड़ते हैं । जुड़ने और अलग होने की प्रक्रिया सदा हैं। बाहर से भले ही वे क्रूर व दर्दनाक न दिखते चलती ही रहती है । किन्तु हमारा ध्यान उस पर हों, किन्तु उनमें निरन्तर हिंसा का लावा धधकता नहीं जाता। हम किसी के जुड़ने को अच्छा मानते रहता है। पशुओं की मृत्यु के क्रूर नाटक को 1/10 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजीव देखकर लन्दन के पन्द्रह वर्षीय विद्यार्थी अप्पारणमप्पणा रुधिऊरण दोपुण्णपावजोगेसु । मेम्यूल रोज ने लिखा था कि जिस दुनियां में दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अरण म्हि । पशुओं की हत्या की जाती है उसमें मैं नहीं जीना जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । चाहता (प्राय डु नाट वान्ट टु लिव इन दिस वर्ल्ड वि कम्म गोकम्म चेदा चितेदि एयत्त ।। व्हेअर एनिमल्स पार मेसेकर्ड) । अमेरिका के भूत- अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमनो प्रणण्णमयो । पूर्व राष्ट्रपति व कवि मेकडोनल व्हाइट ने हिंसा लहदि अचिरेण अप्पारणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। की इस पीड़न, चुभन से भरी दर्दनाक दशा का (समयसार, गा० १८७-८६) वर्णन उस समय कविता में किया था। जब यह आत्मा अपने उपयोग के द्वारा दो हम नहीं चाहते कि आने वाला कल कसा कसा पुण्य-पाप रूपी शुभ-अशुभ योगों को रोक कर होगा? किन्तु हमें यह प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई दर्शन-ज्ञान में स्थित होता है, तब सभी इच्छानों पड़ रहा है कि हिंसा के नित नये अौजार बनते जा से विरत होकर सभी अंगों से रहित होता हा रहे हैं. उनके प्रयोग करने के तरीके बदलते जा रहे स्व-शद्वात्मा का ध्यान करता है। उस समय यह है; फिर भी मनुष्य धर्मान्धता के शिखर पर चढ़ ज्ञाता-द्रष्टा होकर एकत्व का ही चिन्तन, अनुभवन कर जीना चाहता है, सारी दुनिया की दौलत का । करता है। इस प्रकार प्रात्मा का ध्यान करता मालिक बनकर ऐशो-पाराम से जीना चाहता है। हा उससे अनन्यमय होकर दर्शन, ज्ञानमय होकर किन्तु दमन, शोषण व अत्याचार पर आधारित अल्प काल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त मनुष्य के सभी कार्य दुःख-दर्द से पैदा होते हैं और करता है। वह उनको करता हुआ स्वयं भी प्रशान्त व पीड़ित होता है । इसलिये हमें चाहिए कि हम अपना ही यथार्थ में समस्त कर्मों के संन्यास की भावना नहीं, अपने पड़ौसियों का, अपने पड़ोसी देशों का करने वाला अपने पाप का अवलम्बन लेकर सच्चे भी ख्याल रखें क्योंकि हम बाहर में उन सबसे जुड़े सुख को प्राप्त करता है । प्राचार्य अमृतचन्द्रसूरि के हुए हैं । जो अपना भला करता है, वही दूसरे का शब्दों मेंभला कर सकता है । आज सम्पूर्ण विश्व के देश समस्तमित्येवमपास्यकम राष्ट्रव्यापी नीति-निर्धारण के लिए और सामाजिक कालिकं शुद्धनयावलम्बी। व्यवस्थाओं को लागू करने के लिए एक-दूसरे पर विलीनमोहो रहितं विकारअपने को निर्भर मानते हैं। किन्तु वास्तविकता श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥ यह है कि जो स्वयं आत्मनिर्भर नहीं होता, वह कदापि उन्नति नहीं कर सकता । इसलिये भगवान संक्षेप में. स्वाबलम्बन ही साक्षात् सच्चे सुख महावीर ने प्रात्मोन्नति का मार्ग बताया था, को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है। प्राचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं 243, शिक्षक कालोनी, नीमच 1/11 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का ध्यान नित्य नियमित रुप से करें। 0 श्री अगरचन्द नाहटा विद्वान लेखक ने ध्यान के विभिन्न प्रयोगों पर हमारा ध्यान खीचा है। धर्म का पथ तल्लीनता का पथ है और ध्यान उसी का पर्यायवाची । धर्म की सार्थकता और फल इसी में निहित है। -सम्पादक जैन धर्म में सर्वोच्च पूज्य स्थान तीर्थंकरों का विशेष नहीं, गुण विशिष्ट व्यक्ति हैं। ऐसे एक है। भगवान् ऋषभदेव से भ० महावीर तक 24 नहीं अनन्त व्यक्ति या आत्माएं परमात्म पद प्राप्त तीर्थकर इस अवसर्पिणी काल में हुए हैं। करके सिद्ध बृद्ध व मुक्त हो चुके हैं और उनका उन सबका नित्य स्मरण करना, उनकी पुनरागमन नहीं होता। भक्ति व गुणानुवाद करना प्रत्येक जैनी का परमावश्यक कर्तव्य हैं। वे तीर्थकर केवल- तीर्थंकरों की वाणी को धारण करने वाले, ज्ञानी, वीतराग अर्हन्त हैं। 'अहं' शब्द का उसका प्रचार और जीवन में उतारने वाले प्राचार्य अर्थ है--पूजा के योग्य या पूजनीय । जैन धर्म में कहलाते हैं। तीर्थंकरों की अविद्यमानता में प्राचार्य राग बदेष पर विजय प्राप्त करने वाले महापुरुष ही तीर्थंकरों का धर्मशासन चलाते हैं। वे स्वयं को 'जिन' कहते हैं व उन्हीं के अनुयायी होने से सत् व शुद्ध प्राचार का पालन करते हैं एवं दूसरों हम 'जैन' कहलाते हैं। इसलिए राग व द्वेष पर को भी सदाचार में प्रवृत्त करते हैं । इसी तरह विजय प्राप्त करना, वीतरागी बनने व समभावी जो स्वयं प्रागमादि शास्त्रों को पढ़ते हैं व दूसरों होना प्रत्येक जैनी का लक्ष्य होना चाहिए। को पढ़ाते हैं उनको पाठक या उपाध्याय कहा जाता है । जो साधु आचार का पालन करते हैं, अहंत तीर्थ कर जब पाठों कर्मों का क्षय करके साधना में रत या प्रवृत्त रहते हैं उन्हें साधु कहा सिद्ध हो जाते हैं तब उनके जन्म, जरा, मरण जाता है। ऐसे विशिष्ट गुणों व पदों पर जो प्रारूढ़ आदि समस्त दुःख समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि है, उन्हें 'पंच परमेष्टि' कहते हैं । जो नमस्कार संसार में दु.खों का कारण हमारे कर्म व शरीर किया जाता है. उस सत्र-पाठ का नाम 'नवकार हैं। सिद्धावस्था में न कर्म रहते हैं न शरीर, अतः मंत्र या नमस्कार मंत्र' कहा जाता है, जो जैन धर्म पूर्णानन्द प्राप्त होता है। फिर इस संसार में जन्म का सबसे बड़ा मंत्र है। उसका जप व ध्यान नित्य लेने या आने का कोई कारण ही नहीं रहता। व नियमित रूप से करना चाहिए। अन्य सम्प्रदायों वाले भगवान् पुनः अवतार लेते हैं, पर जैन धर्म उस अवतारवाद को नहीं मानता। - इन पंच परमेष्ठियों के साथ मोक्ष मार्ग के उसकी यह मान्यता है कि भगवान् कोई एक व्यक्ति साधन रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र एवं तप, इन 1/12 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार साधना मार्ग या धर्मों को जोड़ देने से नवपद बन जाते हैं। इसमें महंत व सिद्ध देव पद में है। प्राचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु पद में व दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप धर्म पद में है इसलिए देव, । गुरु व धर्म इन त्रिपुटी का समावेश इस नव पद में हो जाता है। इसी तरह महंत व सिद्ध हमारे साध्य हैं, आचार्य, उपाध्याय साधक हैं और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ये साधन व साधना है | नवपद में साध्य अर्थात् ध्येय साधक अर्थात् ध्याता, साधना, अर्थात् ध्यान इन त्रिपुटियों का भी समावेश हो जाता है । इसलिये इस नवपद को सिद्धचक्र कहते हैं। एक गोलाकर चक्र बनाकर उसके बीच में महंत उसके ऊपर सिद्ध महंत की दाहिनी और पास में प्राचार्य, नीचे उपाध्याय व दाहिनी और साधु, इस तरह पंच परमेष्टि के बीच के चारों पदों के बीच में दर्शन, ज्ञान, चारित्र चार पदों को लिखकर नवपद यंत्र या सिद्ध चक्र का गट्टोजी बनता हैं । इस यंत्र के सामने बैठकर या इसे अपने हृदय कमल पर स्थापित करके ध्यान किया जाता है । श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ भेद के साथ इस सिद्ध चक्र की आराधना या साधना की जाती है। यह भी जैन धर्म की एक विशिष्ट ध्यान की प्रणाली रही है । भगवान् महावीर चौबीसवें या अन्तिम तीर्थंकर थे, जिनकी वाणी आज भी मोक्ष मार्ग की घोर प्रवृत्त करती हैं । उन्हीं का धर्मशासन ग्राज चल रहा है। जिसकी छत्र-छाया में हजारों साधु-साध्वी व लाखों श्रावक-श्राविकाएं प्रात्मिक-धर्म की आराधना करते हुए सिद्धि या मुक्ति के प्रति गतिशील हैं। प्रत्येक क्रिया में कायोत्सर्ग-ध्यान किया जाता है और ग्राभ्यंतर तप में भी स्वाध्याय व ध्यान का प्रमुख स्थान है । पर ज्यों-ज्यों साधु-साध्वी उद्यानों, जंगलों, गिरि-गुफाओं में रहना छोड़कर नगरों में, गाँवों में रहने लगे एवं लोक सम्पर्क बढ़ता गया, त्यों-त्यों ध्यान की साधना कमजोर पड़ती गई । बाह्य प्रवृत्तियों में मन इतना व्यस्त व अभ्यस्त हो गया कि मन एकाग्र एवं स्थिर नहीं हो पाती, जो ध्यान के लिए बहुत ही आवश्यक है । इधर कुछ वर्षो से सारे विश्व में ध्यान के प्रति प्राकर्षरण बढ़ता जा रहा है क्योंकि परिग्रह की वृद्धि, सुख-सुविधाओं की कामना और भौतिक आकर्षण आदि के कारण जीवन में उत्तरोत्तर अशांति बढ़ती जा रही है । अतः शांति की अभिलाषा या लालसा बढ़ना स्वाभाविक है । शांति का सबसे प्रमुख उपाय है ध्यान, क्योंकि इसमें मानसिक चंचलता में संवर संग्रह, ममत्व पर अंकुश लगता है। भटकते हुए मन को स्थिर व एकाग्र होकर भगवान् में या प्रात्मचिंतन में टिकाव होता है, तब गहरी शांति का अनुभव होता है। शांति में ही सुख है, प्रशांत को सुख कहां ? । जैन धर्म में सभी जो ध्यानाभ्यास छूट सा गया था, उसे पुनः चालू करना बहुत आवश्यक समझ कर ध्यान के विषय में विशेष चिंतन व प्रवृति करना प्रारम्भ हुआ है। मैंने भी इस विषय पर काफी चिंतन किया है । अन्य धर्म सम्प्रदायों व व्यक्तियों द्वारा जो ध्यान प्रणालियां चालू हैं, उनको भी जानने समझने का यथाशक्ति प्रयास किया है। मेरे अनुभवी गुरु पूज्व सहजानंदधनजी से मुझे कुछ जानकारी व प्रेरणा मिली है । इन सब के आधार से मैंने प्राथमिक और सरल ध्यान पद्धति पर कुछ चिंतन किया है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनाते हुए अच्छी प्रगति कर सकता है । भगवान् महावीर का 1211 वर्षों का साधनाकाल प्रधानतया ध्यान में ही बीता । ध्यान के साथ, संबर व मौन तो हो ही जाता है । इसलिये महावीर की साधना प्रणाली में ध्यान का सबसे ऊंचा स्थान रहा । आवश्यक व चैत्यवरण की 1/13 हमारे पथ दर्शक में कायोत्सर्ग पांचवां भावश्यक है। उसमें ध्यान का समावेश था ही, पर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले जो श्वासोश्वास की संख्या नियत थी, उसी एक-एक को सामने लाते जाइये । जैसे भगवान नगह अब नवकार मंत्र व लोगस्स का स्मरण जय महावीर का दीक्षा-महोत्सव हो रहा है। हजारों में ध्यान प्रारम्भ कर लिया गया। जो अभी केवल नर-नारी उत्सव देखने के लिए सड़कों, मकानों व प्रेक्षा-ध्यान के रूप में चालू किया गया है। बौद्ध छतों पर बैठे हुए भगवान् की ओर मन को एकाग्र ध्यान प्रणाली में वह विपश्यना के नाम से प्रसिद्ध करके टकटकी लगाये निहार रहे हैं। मन्द गति हैं । श्री सत्यनारायनजी गोयन उसके प्रशिक्षण में से धीरे-धीरे जुलूस आगे बढ़ता जा रहा है । पूर्ण प्रयत्नशील हैं। मुट्ठियां भर-भर के मुद्राएं आदि उछाल रहे हैं । ... मेरी राय में प्रत्येक जैनी को महावीर ध्यान प्रभू के ऊपर लोग पुष्प बरसा रहे हैं। आगे चल की प्रारम्भिक व सरल विधि को अपनाते हुए. कर शहर के बाहर उद्यान में वक्ष के नीचे प्रभू प्रेक्षाध्ययान की ओर गतिशील होना चाहिये । भ० सर्ववस्त्र अलंकारों को त्याग करके पंचमूष्ठि लोंच महावीर हमारे सबसे निकटवर्ती तीर्थकर व परो- कर रहे हैं। चारों और से जय जयकार बोली जा पकारी हैं। अत: सर्वप्रथम उन्हीं के नाम स्मरण रही है। कुटुम्बी जनों व भावुक व्यक्तियों की के साथ, उन्हीं के ध्यान करने के विधि प्रारम्भ प्रांखों में अश्रुधारा बह रही है । प्रभु निश्चल हैं। कर देनी चाहिये । उस विधि का कूछ रूप इस उस दृश्य पर ध्यान टिकाइये । प्रकार हो सकता है। विशेष चितन करने पर अन्य विधि भी खोजी एवं अपनायी जा सकती हैं। यह __इसके बाद महावीर बिहार करके शूल-पारिण यक्ष के मन्दिर के आगे पहुंचते हैं। पुजारी से वहां सुगम विधि है, अतः सभी अपना सकते हैं। रात भर रहने की आज्ञा मांगते हैं । पुजारी मना ... भ० महावीर के किसी भव्य एवं आकर्षक करता है क्योंकि यक्ष कर हैं। वहाँ रात भर मृति चित्र के सामने उन्हीं की तरह खड़े होकर रहना मौत को निमन्त्रण देना हैं, फिर भी महावीर एवं पद्मासन या सुखासन में बैठकर पहले कुछ देर पूजारी को समझा कर उसी में टिकते हैं। यक्ष के लिये उनकी प्रांखों से हमारी प्रांखों को मिला नाना प्रकार के भय हि नाना प्रकार के भय दिखाता है। मरणान्तिक कष्ट के देखते रहे अर्थात् थोड़े समय के लिये त्राटक देता है। पर महावीर अविचल व शांत रहते हैं। करें। उनकी शांत व भव्य-मूर्ति पर अपनी प्रांखों यक्ष पर तनिक भी यक्ष पर तनिक भी रोष-द्वेष नहीं करते हैं। इसका नहीं को केन्द्रित करें। जब तक प्रांखों में थकान अनुभव प्रभाव यक्ष पर पड़ता है। अन्त में वह क्षमा न हो, पानी न पावे तब तक एकटक ध्यान लगाय याचना करते हए भक्त बन जाता है। इस प्रसंग में भ. महावीर के समत्व निश्चलता पर विशेष , भगवान् महावीर के जीवन प्रसंग बहुत चिंतन करना चाहिये । इससे हमारे ध्यान में ही प्रेरणादायक व उद्बोधक हैं। अतः साधना स्थिरता पायेगी। इसी तरह इसके बाद क्रमश: काल के एक एक प्रसंग के काल्पनिक चित्र, ग्वालिये के उपसर्ग, चण्ड कौशिक, कानों में कीले मनोभूमिका के सामने उपस्थित करते हुए, अपने ठोकने, ब्यन्तरी, संगमदेव आदि एक एक अनुकूल मन को वहाँ कुछ समय के लिये टिकाये रखने का प्रतिकूल उपसर्ग-परिषह के प्रसंग मनोभूमिका पर प्रयत्न किया जाय । यह महावीर के ध्यान की उतारते रहिये और उन पर मन को अधिकाधिक प्राथमिकता व सरल विधि है । बैठे हुए, खड़े हुए, समय तक केन्द्रित रखने का प्रयत्न करिये । इससे सोते हए मांखों को बन्द करके भगवान् महावीर बाहर की ओर भटकता हुआ चंचल मन शान्त की दीक्षा से लेकर केवल ज्ञान तक के प्रसंगों में से और स्थिर हो जायेगा। चित्त में परम शान्ति और 1/14 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रानन्द का अनुभव होगा । अब तो इन सभी जिन मुद्रा धर पास, तजी पास, उभा निज ध्याने प्रसंगों के भव्य चित्र भी बने चुके हैं, अत: एक तजी पर आश गया निज ध्याने एक चित्र को सामने रखते हुए उस पर ध्यान अहिछत्रा नगर उद्याने "जिन मुद्रा जमाइये। शत्रुवट दस भवनी धरतो, इसके बाद भ० महावीर के दीक्षित साधू- मेघमाली क्रोधे झलहलतो साध्वियों और श्रावक-श्राविकानों के उद्बोधन । उपसर्ग करे जल धारे, रही नभ छावे""अहिछत्रा. जीवन प्रसंगों को फिल्म के एक एक पट की तरह तन्मय निज शुद्ध स्वभाव ढल्या, सामने उपस्थित करके मन को केन्द्रित करते उपसर्ग नाशाग्र निमग्र छतां न चल्या जाइये । चन्दनबाला के दान का प्रसंग कितना रहता देव विदेही भावे, खड्ग जेम म्याने" भव्य हैं । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कायोत्सर्ग मुद्रा अहिछत्रा० में मन के उतार-चढ़ाव का प्रसंग कितना उदबोधक अासन कंपे अहिपति पावे, है। कामदेव आदि श्रावकों को भी कैसे कैसे कठिन ऊचकी फण । छत्र शिरे ठावे, प्रसंगों से गुजरना पडता है। ऐसे ही अनेकानेक प्रिया युत प्रभु गुणगान करे एक ताने “अहिछत्रा० साधकों के प्रसंगों को सामने लाते जाइये व वंदक निदक समभाव अहा, ज्ञाता दृष्टा शुद्ध भाव महा, मन को टिकाते जाइये। उदये अणव्यापक साक्षी रहना निज भान'अहिछत्रा० महासती चन्दन बाला के अहारदान के प्रसंग छ छे विषम भाव संसार तत्ती, समभाव धर्यो स्व स्वरूप अति, सम्बन्धी एक भजन दे रहा हूं उसे धीरे-धीरे गाइये। उस प्रसंग का चित्र खड़ा करें एवं अपना मन उसमें . कृतकृत्य थया सहजानंद दर्शन ज्ञानेअहिछत्रा० रमा लें। भ० पार्श्वनाथ, महावीर तथा अन्य प्रेरणा दायक प्रसंगों के काफी अच्छे अच्छे चित्र भी बन आज तो हमारे भाग, वीर प्रभु प्राये। चूके हैं। उन चित्रों को सामने रखकर ध्यान किया चंदना खडी दुवार, चित में करे विचार। जाना और अच्छा रहेगा । संगीत के माध्यम से भी देखत विराट हिये हरष भराये । अाज । अच्छा ध्यान रखा जा सकता है। ध्वनि का भी प्राज मोरी पास फली, उतरी मोरी रगरली। बहुत प्रभाव पड़ता है। सो महापुरुषों के गुणगान विकसी पातम कली, प्रभ पात्र पाये । प्राज 2 और जीवन प्रसंगों संबंधी भजन या काव्य गाते धन्य दिन आज मेरो, गयो मह कर्म फेरो। हए एकाग्रता से ध्यान किया जाय। यह ध्यान की सुकृत बहु मेरो, भगवान दिल माये । आज 3 सरल प्रणालियां अधिकाधिक अपनाई जायें। सिद्धारथ रायनंद मोहन शरद पूनमचंद । कहे जिनचंद चित्त, आनंद बधाये। आज 4 नाहटों का मोहल्ला, बीकानेर 1/15 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रम और समता के उन्नायक भगवान महावीर विद्यावारिधि डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया ___ डी.लिट्, साहित्यालंकार विद्वान लेखक का कहना है कि बोध होने पर बुराई छोड़ी नहीं जाती छूट जाती है । भगवान महावीर के श्रम और समता सिद्धान्त का संभवतः हमें बोध नहीं है, मात्र वाचिक चर्चा ही हम करते हैं। बात बोध स्तर पर उतरे तो कार्य बने। -सम्पादक प्राचीन भारतीय संस्कृति का मूलाधार व्रात्य प्राणी-शक्ति पर अवलम्बित नहीं रहता। वह और ब्रह्म-यज्ञ नामक दो प्राचीन संस्कृतियों का पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुभव करने लगता है। समीकरण रहा है। ब्रह्म और यज्ञ संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा गया और व्रत-साधना वाली श्रम तत्व पर विचार करने से लगता है कि संस्कृति कहलायी जिनेन्द्र अथवा श्रमण संस्कृति। उसे मूलतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता श्रमण संस्कृति तीर्थ करों, अरिहंतों, साधुनों और है-श्रम और सम्यक श्रम । जागतिक उपलब्धियों मनीषी मुनियों द्वारा समय-समय पर प्रोन्नत होती के लिए किया गया श्रम वस्तुतः प्रथम कोटि में रही है। तीर्थकर परम्परा में भगवान ऋषभदेव पाता है और प्राध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए किया पहिले तीर्थकर माने जाते हैं और भगवान महावीर गया श्रम सम्यक् श्रम कहलाता है। पुरुष के अंतिम तीर्थकर। पुरुषार्थ की पराकाष्ठा मोक्ष पुरुषार्थ में झलकती है। मोक्ष अर्थात पावागमन से मुक्त्यर्थ व्यक्ति को अाज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व डगमग सम्यक श्रमशील होना पड़ता हैं। भारतीय जनसमूह को श्रमण संस्कृति का मूल उद्घोष श्रम और समता का अमोघ मंत्र भगवान सम्यक् श्रम के लिए तत्व-बोध आवश्यक महावीर द्वारा किया गया था। सुखी जीवन चर्या होता है । तत्व-बोध तथा भेद-विज्ञान के अभाव में के लिए श्रम एक आवश्यक तत्व है। बिना श्रम के सम्यक् श्रम करना सम्भव नहीं है। जीव, अजीव, कोई भी लौकिक अथवा अलौकिक कार्य सम्पादित प्रार्जव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातों नहीं हो सकता । श्रम एक शक्ति है । इस शक्ति का तत्वों में संसार के सभी तत्व समाहित हो जाते अपार्जन कर लेने पर व्यक्ति स्वयं किसी कर्म का हैं। इन तत्वों के रूप को जान लेने से उनके कर्ता और भोक्ता हो जाता है। श्रमण किसी भी अस्तित्व के प्रति विश्वास, आस्था जगा करती है 1/16 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इन तत्वों के प्रति ज्ञान, इनका भेद विज्ञान तथा सीपियों की सम्पत्ति को एकत्र किया था। वस्तुत: ज्ञान की कोटि में आता है। प्रास्था, अपनी सामर्थ्य से भी अधिक मुझे आकर्षित करने ज्ञान के साथ तत्व का प्रयोग अथवा उनसे सम्ब- वाली सम्पत्ति एकत्र हो चुकी थी। अन्तमें जब घर न्धित चर्या प्राचार कोटि में आती है । प्रास्था, लौटना हुया तो मेरे सामने उस ढेर को बटोरने ज्ञान और चर्या की सम्यक् त्रिवेणी मोक्ष के मार्ग तथा ले चलने की समस्या आ खड़ी हुई। परिजनों का प्रवर्तन करती है। यही त्रिवेणी सम्यक् श्रम ने कोई साथ नहीं दिया। उस सम्पत्ति की निरका सूत्रपात करती है । इस त्रिवेणी के परिमार्जन र्थकता उनके लिए स्पष्ट थी। वे ज्ञानी थे, मुझसे का कार्य धर्म के दश प्रभेदों-क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, उसका छूटना कष्टकारी हो उठा था। ममता का सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, प्राकिंचन्य और संसर्ग अज्ञानता में होता है और अज्ञानता में ही ब्रह्मचर्य के समाचरण द्वारा सम्पन्न होता है। छोड़ने की बात आगे प्राती है, तभी व्यक्ति को कष्ट उठाना पड़ता है। अाज मुझे लगता हैं कि तीर्थकर महावीर ने इस प्रकार के श्रम को नीजिव सीपियों तथा पाषाणी-शकल-कूल के प्रति अजित करने हेतु बल दिया था। फलस्वरूप इतना आग्रह निरी अज्ञानता नहीं हैं तो और भटकता, पराश्रित प्राणी अपने पैरों पर खड़े क्या है ? आज उनके प्रति मेरे मन में कोई ममत्व होने का साहस और शक्ति का अनुभव करने लगा। नही है । महावीर स्वामी ने इसी तथ्य को जानने अब वह सुख और कल्याण प्राप्त्यर्थ किसी प्रभु के लिए व्यक्ति को तत्व-बोध हेतु ध्यान आकर्षित तथा शक्ति के अधीन रहने के लिए दीन-हीन को किया था। भूमिका निर्वाह करने से मुक्त हो गया। वह उठा और उसकी जीवन चर्या भी उठने लगी। उसके सम्यक श्रम और समता की सत्यता उत्पन्न अंग-अंग अन्तरंग में आस्था उत्पन्न हो उठी कि हो जाने पर व्यक्ति का विकास स्वतः ही समाव्यक्ति अपने कर्म का स्वयं कर्ता और भोक्ता रम्भ हो उठता है । भटकन तो मात्र तब तक है होता है। संसार की कोई शक्ति उसे न मार जब तक उसे सम्मार्ग की प्राप्ति न हो। भला सकती है और न दे सकती है प्राणदान | वह परिधि पर चक्कर लगाने से आज तक कोई केन्द्र तत्वों के रूप-स्वरूप को पहिचानने के लिए तत्पर तक पहुंच पाया है। चक्कर चाहे पशु-पीठ पर, हना । तत्व-बोध होने पर अन्तरंग में उनके प्रति यान-वायुयान अथवा किसी तीव्रतम साधनों से ही प्रास्था-विश्वास उत्पन्न होता है। तत्व-बोध और क्यों न लगाया जाय, उसका केन्द्र तक पहुंचना भेद विज्ञान को जानकर व्यक्ति जो श्रम करता कभी सम्भव नहीं होता। केन्द्र तक पहुचने के है वह वस्तुतः सार्थ होता है। लिए उसे परिधि का प्रकर्षण छोड़ना होता है । तत्व के प्रति अजान रहने पर ही व्यक्ति में इस भेद-विज्ञान को जानना आवश्यक है कि मोह और ममता की भावना जागरूक रहती है। परिधि बहिर्मुखी विकर्षण मात्र है। उसके प्रति बोध होने पर बुराई ठुकराई नहीं जाती। इस ममता निरर्थक है। केन्द्र तक पहुंचने के लिए सम्बन्ध में मुझे एक घटना का स्मरण हुआ है। व्यक्ति को दिशा परिवर्तन की महती आवश्यकता अपनी छोटी अवस्था में मुझे परिजनों के साथ है। परिधि-प्रभुता, ममता मिटे कि अन्तर्मुखी किसी एक नदी के तट पर जाना हुआ था । लोगों होना हो, तब जो समत्वशील यात्रा होगी उससे ने नदी के स्वच्छ जल में स्नान किये थे और मैंने केन्द्र तक स्वतः पहुंचता होगा । ममताकूल-कगारे पर एकत्र चमकीले पत्यरों के टुकड़ों सौहार्द की विरोधिनी शक्ति है। भटकाव है। 1/17 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने पदार्थ के प्रति प्रासक्त होने की बात स्पष्ट की थी । जब तक मूर्छा और ममत्व है तब तक पदार्थ की निस्सारता स्पष्ठं नहीं हो पाती । पदार्थ आखिर पदार्थ ही है । स्वार्थ हठे कि परमार्थ ऊपर उठकर आता है। इससे प्रारणी - सौहार्द उत्पन्न होता है । जीव-जीव के प्रति सहिष्णुता उत्पन्न होती है । तीर्थंकर महावीर का यह उपदेश तरकालीन समुदाय और समाज को जाग्रम करने में जितना सम्पन्न हुआ आज भी उसकी श्रावश्यकता उतनी ही अधिक अनुभव हो उठी है । प्राज का उठा हुम्रा व्यक्ति भी परमुखापेक्षी होने लगा है। उसमें अपने पुरुषार्थं के प्रति अनास्था उत्पन्न हो उठी है। आज की जीवन धारणा में आडम्बर और प्रदर्शन पुरजोर प्रवाह से बढ़ रहा है । प्राणी एतदर्थ खिन्न है और विपन्न भी। वह प्रभाव में जी उठा है । परिणाम स्वरूप उसे प्रभाव के प्रति आकर्षण है । प्रत्येक घर में ड्राईंग रूम परन्तु घर का प्रत्येक कमरा ड्राईंग रूम नहीं है । सजावट सीमित है । शेष कमरे उसे देखकर कुछ का कुछ अनुभव कर बैठे हैं। दीनता एतदर्थं उनमें मुखर हो उठी है । जीवन प्रखरता हेतु भगवान महावीर का समतावाद आज ज्ञानपूर्वक अपनाने की महती आवश्यकता है। तभी हमारा जीवन आडम्बरों और रूड़ियों से मुक्त हो सकता है । तभी हमारी जीवनचर्या श्रम-साधना सार्थक होगी अन्यथा यह स्वर्णिम मानवी जीवन यों ही बिखर जाने को है । बिखरता ही जवेगा । -- एक भूल " परिग्रह, लोभ, क्रोध, माया, मोह, द्वेष व घृणा पर आधारित कार्यों में संलग्न व्यक्ति भी खान पान में हिंसा से विरत रहने के आधार मात्र पर अपने को पूर्ण अहिंसक मानकर महावीर के कट्टर अनुयायी होने का दम भरते है ".." ― पौली कोठी, प्रागरा रोड़, अलीगढ़ 202001 1/18 रविन्द्र मालव Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर से हम कितनी दूर कितने पास = 0 ज्ञानचन्द विल्टीवाला महावीर महावीर है और हम हम ! दोनों में इतनी दूरी है कि लगता है कभी पट नहीं सकती। वे अपने शुद्ध प्रानन्द में मग्न है हम अपनी अशुद्धि में तड़प रहें हैं। उनसा बन जाने में कुछ संतोष भी मिल जायेगा; पर पूर्स संतोष नहींहमारे में छिपा वैभव पूरा उबड़ नहीं पायेगा, महावीर बनना फिर भी शेष रह जायेगा। महावीर के बाद क्या ? कुछ नहींमहावीर अन्तिम है। यदि शुद्धि को 'महावीर' कहें तो महावीर हममें छिपी एक संभावना है जिसे प्रकट किये बिना हम छटपटाते ही रहेंगेहमें महावीर बनना ही होगा और कुछ बनते रहने से हमें शान्ति नहीं मिल पायेगी। शुद्धि का एक ही प्रकार है तो अशुद्धि के सहस्त्र सहस्त्र रूप हैं। विविध धर्म नेता, राजनेता, देवी देवताछोटे बड़े अनेक रूप । हमें किन्हीं को आदर्श मान सोचियेकिसी ने राजपाट छोड़ा घर बार छोड़ा और लंगोट लगा ली। पर अभी तो और कदम शेष है लंगोट त्याग नग्न होना शेष है। महावीर नग्न थेनग्नता से आगे कुछ नहीं लग्नता पूर्णता है। सोचियेकिसी ने ईश्वर भक्ति की बात कह कर हमें भक्त बना दियाएक अधूरी स्थिति में 1/19 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें डाल दिया; हमें ईश्वर बनना सदैव को शेष रह गया। वह ईश्वरजो अपने ईश्वरवय के लिये भक्तों का मोहताज है भक्तों के नास्तिक होने में जिसका ईश्वरत्व खतरे में हैं। महावीर न भक्त बने न ईश्वरवे तो शुद्ध 'स्व' हो गये पर से निरपेक्ष पूर्ण 'स्व' अन्तिम सत्य-स्व। महावीर की आलोचना संभव नहीं क्योंकि शुद्धि का नाम महावीर है और शुद्धि में अशुद्धि का अभाव है। आप भूगोल, इतिहास क्रियाकाण्ड और व्यवहारिक परंपराओं की पालोचना कर सकते है संशोधन कर सकते हैंपर वे महावीर नहीं है, उन्हें पकड़ना महावीर को पकड़ना नहीं हैं उनकी आलोचना को महावीर की मालोचना मानना भूल है। इससे महावीर छोटे नहीं होते। महावीर को कोई न भी माने तो महावीर छोटे नहीं होते। जिसे ततः किम् ततः किम् की जिज्ञासा उत्पन्न हुई है, जो संसार से पार विकार से मुक्त होना चाहता है वह युग की बात नहीं करता समूह को नहीं नापता; उसे वस्तु स्वरूप को कालिकता में उसकी वस्तु परखता में श्रद्धा होती हैवह जानता है कि वस्तु स्वरूप मनुष्यों के विचारों की उपज नहीं है वह उनके समर्थन से मजबूत और कमजोर नहीं होता वह तो वस्तु में गहरा जुड़ा हुमा वस्तु से अभेद्य हैं। अतः वस्तु स्वरूप की बात में युग की, समूह की बात करना will की कमजोरी है श्रद्धा का कच्चापन है। (छ) महावीर को समझना महावीर होना है। महावीर को मानने वाले बहुत कम लोग हैं- - महावीर होना नहीं चाहते डरते हैं। 1/20 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झिझकते हैं, अतः महावीर को समझना नहीं चाहते। हमें महावीर को समझने के लिए सब और हुए गैर-महावीर को उतार फेंकना होगा, तब महावीर के महावीरत्व को अनुभव कर सकेगें महावीर को समझ सकेगें। मेरा तात्पर्य है कि कषाय की हर परत से पर पदार्थ के हर आरोप से चित्त को मुक्त कर ही हम महावीर को समझ सकेगें। (ज) आखीर आज महावीर के 'अनुयायी' इतने हतप्रभ किंकर्तव्य विमूढ क्यों हैं ? वे संख्या में कम हैयह बुरी बात है। वे प्रतिष्ठा प्रभाव में दीन हो रहे हैं यह और भी बुरी बात है । उनमें परस्पर वात्सल्य, प्रेम, संगठन की कमी हैयह सबसे बुरी बात है। समाज में इजतनी इतनी बुराईयों का संग्रह हो रहा है इसका एक ही कारण है कि हममें महावीर और उनके मार्ग के प्रति आस्था नहीं है, हम उसे समझते नहीं, सच्चाई से उस पर चलते नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि बुराईयों से परेशान होकर अन्यों की, असंयतों की नकल करते हैं और इस तरह महावीर के मार्ग से और दूर हटते हैं। बच्चे बूढ़े सभी यदि महावीर के मार्ग पर पूरी श्रद्धा से चलें तो जीवन में पुन: प्रोज तेज प्रकट होते अन्तर में इसकी धार बहते देर नहीं है। बिल्टीवाला भवन अजायब घर के पीछे, जयपुर-3 1/21 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का मानवतावाद 0 प्रो० अशोक कुमार, एम. ए. महावीर का मानवतावाद पश्चिमी मानवतावाद की भांति अज्ञेयवादी तथा जड़वादी नहीं है। उसके अनुसार मानव जैसा बोता है वैसा काटता है। वह स्ववादी है पर स्वार्थवादी नहीं है । अहिंसा और वैयावृत्त के व्यवहार के बीच मानव की आध्यात्मिक प्रगति के कदम बढ़ते हैं । लेखक के सुलझे विचार पाठकों को अवश्य ही प्रात्म विश्वास और श्रम की प्रेरणा देंगे। कान्ट के 'साध्यों का साम्राज्य' को महावीर में पढ़ना ठीक ही है किन्तु उसका विस्तार महावीर जीव मात्र तक कर देते हैं। स्वोपलाब्ध में मानव जीवन की महत्ता महावीर अवश्य स्वीकार करते हैं। - सम्पादक मानववाद वह धर्म हैं जो ईश्वर के स्थान पर द्रव्यं) पर्याय परिवर्तनशील और नाशवान है मानवीय स्वार्थ, महिमा एवं गरिमा पर अधिक बल लेकिन गुण म्थायी हैं, अतएव प्रतीति बिना सत्ता देता है । पाश्चात्य मानववाद प्रत्यक्षवादी, अज्ञेय- के और सत्ता बिना प्रतीति के नहीं हो सकती है। वादी. मानव-केन्द्रित नीति पर बल देने वाला एवं इस प्रकार समकालीन मानववादियों से आगे जाकर मानव कल्याण का पोषक है। जैन धर्म हिन्दू धर्म जैन धर्म प्रतीति और सत्ता, दोनों के बीच समन्वय की अपेक्षा प्राधुनिक पाश्चात मानववाद के अधिक करता हैं और मानवता को तात्विक आधार प्रदान निकट है, क्योंकि यह अनीश्वर वादी है और करता है। ईश्वर से अधिक मानव की महिमा और गरिमा पर जोर देता हैं। यद्यपि पाश्चात्य मानववाद की यद्यपि जैन धर्म तात्विक सत्ताको मानता है, की भांति यह मात्र प्रतीति तक ही सीमित नहीं फिर भी यह जगत की प्रकृतिवादी व्याख्या करता रहता है बल्कि प्रतीति से परे जाकर सत्ता का भी है। आधुनिक मानववाद की भांति यह भी अनुसंधान करता हैं, क्योंकि यह दोनों के बीच "प्रकृतिवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी समन्वय लाना चाहता है, और परिवर्तन एवं है। जब कि समकालीन पाश्चात्य मानववाद स्थायित्व दोनों को सत्य का लक्षण मानता हैं। का झुकाव भी भौतिकवाद की ओर है । जैन दर्शन (उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्) 1 सत्, गुण और भूत को उचित महत्व देते हुए आत्मा की सत्ता और पर्याय दोनों से युक्त हैं (गुण पर्याय वद् 2. तत्वार्थ सूत्र 5/38 1. तत्वार्थ सूत्र, 5/30 3. आचारांग सूत्र 1/5 1/22 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी स्वीकार करता है; क्यों कि बिना बात्मा को माने मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता है और उनकी व्याख्या भी नहीं हो सकती है। विशुद्ध प्रकृतिवाद में मानवीय मूल्य-सत्यं शिवं सुन्दरम् आदि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है और न तो करूणा, सेवा इत्यादि की कोई गुंजाइश रह जाती है। प्राध्यात्मिक मूल्यों की व्याख्या के लिए प्रकृति से भिन्न ग्रात्मा को मानना आवश्यक है, इसलिए जैन दर्शन पुद्गल के सांच जीव की सत्ता भी स्वीकार करता है और मानता है कि चेतना जीव का लक्षण है, जब कि पुद्गल प्रचेतन है। जैन दर्शन में जीव की व्यापक धारणा है। जीव को जीवन के साथ एकीकृत किया नया है और जहां कहीं भी जीवन है, वहां जीव की कल्पना की गई है। इसलिए मनुष्य से वनस्पति पर्यन्त जीव का विस्तार माना गया है, और स्वाइजर के "रेवरेन्स फॉर लाइफ" की धारणा के अनुरूप जीव मात्र के प्रति करुणा को प्रादर्श माना गया हैं, क्योंकि परस्पर सहयोग जीव की विशेषता है । (परस्परोपग्रहों जीवानाम् ) जैन दर्शन अन्य मानववाद की भांति मनुष्य को ही सर्वोपरि मानता है। यह मनुष्य से ऊपर किसी ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता, क्योंकि यदि के कर्मों का नियंता किसी ईश्वर को मनुष्य मान लिया जाय, तो मनुष्य की अपनी स्वतन्त्रा छिन जाती है। सात्र की भांति जैन दर्शन मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक है और इस कारण यह ईश्वर की सत्ता का निषेध करता है। इसके अनुसार यदि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगता है तो ईश्वर की कोई प्रावश्यकता नहीं हैं और यदि ईश्वर ही मनुष्य के कर्म का फल दाता है, तो उसका अपना कियागया प्रयत्न निरर्थक है, अतएव जैन दर्शन विधान को मानता है और विधाता का निषेध कर देता है। इसके अनुसार कर्म सिद्धान्त स्वयं शुभ, अशुभ सफलता असफलता की व्याख्या करने हेतु पर्याप्त है, प्रतएव ईश्वर को मानमा निरर्थक है । साथ ही साथ जैन दर्शन काण्ट की भांति " साध्यों के साम्राज्य" में विश्वास करता 1 इसके अनुसार प्रत्येक जीव ईश्वर है क्योंकि सबों में अनन्त पूर्णता विद्यमान है । ( अप्पा सो परमम्या) जीव ईश्वर है B प्रात्मा परमात्मा है, किसी एक धनन्त सत्ता की अभिव्यक्ति या अंश होने के कारण नहीं, बल्कि स्वयं में अनन्त पूर्णता या अनन्त चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द) से विभूषित होने के कारण। चूंकि हर जीव स्वयं ईश्वर है, इसलिए प्रत्येक जीव अनन्त शक्ति और संभावनाओं से युक्त है, जिसका विकास करना प्रत्येक मानव का लक्ष्य है । जैन धर्म मनुष्य को ही सर्वोपरि मानता है । इस कारण इसमें किसी ईश्वर के समक्ष समर्पण करने या घुटने टेकने को धर्म नहीं माना गया है, बल्कि सक्रियता और पुरुषार्थ का समर्थक होने के कारण इसे " श्रमण धर्म" कहा गया है। यह माना गया है कि श्रम करने से ही कोई भ्रमण हो सकता है । ( समयाये समरणो होई) " ऐसा मानकर यह स्वयं को समर्पणवादी वैदिक धर्म और विश्रांतिवादी उपनिशदिक रहस्यवाद से पृथक करता है, और लोक एवं कर्म को वास्तविक मानते हुए पूर्ण सक्रिय जीवन की देशना देता है। इसके अनुसार मनुष्य स्वयं अपने राग-द्वेश के बन्धन में बधा हुधा है। अतएव मात्र वीतरागता से ही वह मोक्ष को उपलब्ध हो सकता है । मनुष्य की अपनी प्राकांक्षा और राग ही उसे जगत से बांधते हैं मौर इसके कारण ही दुर्बल होकर वह देवी-देवतानों 5. प्रश्न व्याकरण सूत्र 6. उतराध्ययन सूत्र 1/23 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं भोग मांगता है, लेकिन यदि वह निरपेक्ष निरकांक्षा मौर वीतरागी हो तथा निजबोध को प्राप्त करे, तो वह अपने अन्दर अनन्त शक्तियों का स्त्रोत अनुभव करेगा | भगवान महावीर ने कहा है, !" मनुष्य स्वयं अपने दुःख-सुख का कर्ता - विकर्ता है । सुप्रस्थित धौर दुष्प्रस्थित जीव क्रमशः अपना अपना मित्र और शत्रु स्वयं है।" मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है वह स्वयं को जंसा चाहे बना सकता है । वह अपना स्वामी आप ही है । मनुष्य की आत्मा में ही स्वर्ग और नर्क है आत्मा में ही स्वर्ग की वैतरकी नदी है। आत्मा में ही शाल्मली वृक्ष है । आत्मा में ही कामधेनु है । आत्मा में ही नन्दनवन है।" प्रतएव जैन धर्म अन्य मानव धर्म की भांति ईश्वर के प्रति समर्पण के स्थान पर स्वावलंबन पर और देता है । इसके अनुसार प्रात्मवान होने से ही मोक्ष संभव है। जैन धर्म स्ववादी है, लेकिन स्वार्थवादी नहीं । यह प्राणी मात्र के कल्याण पर बल देता है क्योंकि महिंसा इसका मूल मंत्र है। जैन धर्म में अहिसा पर अत्यधिक जोर है, क्योंकि किसी प्राणी को तनिक भी कष्ट देना इसे सह्य नहीं है । जो व्यक्ति पूर्णतः वीतरागी हो जाता है, वही जगत मात्र का हित कर सकता है, क्योंकि तनिक भी राग रहने पर निष्काम सेवा संभव नहीं है । वैसी सेवा मात्र सुविधाजनक नैतिकता हो सकती है, लेकिन वैसी सेवा पुरस्कार मांगने लगती है। प्रतएव जैन दर्शन ग्रात्म शुद्धि पर अधिक जोर देता है और अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह इत्यादि को सद्गुण मानता है, जो 7. अप्पा कता विकता य सुहारण य दुहारण य । 4 अप्पा मित्तं अमित्त य सुपट्ठय दुपट्ट्य ॥ उत्तराध्ययन सूत्र 20/37 8. अप्पा नई वेबरणो धप्पा में कूड सामती । अप्पा काम दुहा धेनु अप्पा में नन्दनं वनं ॥ उत्तराध्ययन 20/36 मानववादी श्राचार शास्त्र के आधार स्तम्भ हैं । जैन दर्शन में मानव कल्याण एवं मानव सेवा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यद्यपि इसमें पृष्ठभूमि मुख्यतः प्राध्यामिक हैं, फिर भी यह जगत की समस्यायें और मानव पीड़ा को झुठलाता नहीं है। प्राध्यात्मिक धर्म के साथ साथ ग्राम धर्म नगर धर्म और राष्ट्र धर्म को भी महत्व दिया गया है । है। भगवान महावीर ने कहा है कि यदि कोई श्रमण संकटग्रस्त और दुःखी मनुष्य की सेवा करने के बजाय तपस्या, मनन और साधना में लगा रहे तो वह पापी हैं। वह संघ में रहने का अधिकारी नहीं हैं। उसे 120 उपवास करना चाहिये, अन्यथा वह आत्म शुद्धि लाभ नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा है, "यदि कोई श्रमण दूसरे सन्यासी को किसी ग्राम में बीमार देखकर उसकी सेवा और देखभाल किए बगैर आगे बढ़ जाता है, तो वह महापापी हैं । इस प्रकार जैन धर्म मानवता की सेवा या 'वैय्यावृत' को परम तप मानता है। " 10 11 जैन धर्म किसी ईश्वर को प्रदर्श नहीं मानता हैं और न किसी ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा ही करता हैं, बल्कि यह मनुष्य को ईश्वरत्व की उपलब्धि करसे की देशना देता हैं। इसके प्रदर्श जीवन पथ पर चलते हुए वे सजीव मानव हैं जिन्होंने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर मृत तत्व को उपलब्ध किया हैं । इस कारण जैन धर्म के " णमोकार मंत्र" में अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय धौर सभी साधुधों को नमस्कार किया गया हैं, न कि किसी देवी, देवता या ईश्वर को । णमो अरिहन्ताणं, रामो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ॥ 9. स्थानांग सूत्र, दशम स्थान 10. देखिये निशीध सूत्र 11. उत्तराध्ययन सूत्र (तपोमार्ग अध्ययन ) 1/24 व्याख्याता, पथरगामा महाविद्यालय संथाल परगना-बिहार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1980 प्रभात फेरी का एक दृश्य SHETICE जैन मण्डल जवाहर नगर ada आपका हार्दिक अभिनन्दन करता है। महावीर जयन्ती समारोहामा स्थान जवाहर नगर में राजस्थान जैन सभा एवं जैन मण्डल, जवाहर नगर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित युवक सम्मेलन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावन-कन मिजाधव महावीर जयन्ती पर निकाले गये जुलुस का एक दृश्य रण माननीय श्री नरेन्द्रमोहन कासलीवाल, न्यायाधीश, राजस्थान उच्च न्यायालय झण्डाभिवादन करते हुये Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का नारा - प्रशन्न कुमार सेठी जिसने निज में निज को ध्याया, उसने सम्यक् धारा हैं । 'राग द्वेष' को दूर करो, यह महावीर का नारा है || भला काम करता है कोई, नहीं प्रशंसा पाने को । for इसलिए क्योंकि भलाई किये बिना मुरझाने को । है एहसानन्द वह उसका, जो दे भला कमाने को । ऊंचे दर्जे की खुराक यह मिली भलाई, खाने को । मान बड़ाई का ओछापन, कुटिलजनों की कारा है । 'राग द्वेष' को दूर करो, यह महावीर का नारा है । यदि नियमों से नहीं चले तो, जग का कार-बार छूटे । पर अन्धानुकरण में वही नियम, ग्राफत बन कर फूटे । बिना विवेक रूढ़ियां रूधे, कर्म काल बन कर टूटे । नहीं डकैत दीन के डाका डाले, धनिकों को लूटे । समझ सही करनी होगी, क्या तुच्छ और क्या तारा है । राग द्वेष को दूर करो, यह महावीर का नारा है || भोग कभी भी धर्म न बनता, त्याग धर्म का मूल है । पश्चाताप सही प्रायश्चित, काम-वासना शूल है । वृद्धि सूद की बन्द करे, ऐसा प्रायश्चित रूल है । है मस्तिष्क बुद्धि का स्वामी, श्रद्धा दिल का फूल है । बुद्धिमान भयभीत हार से, विश्वासी कब हारा है । 'राग द्वेष को दूर करो, यह महावीर का नारा है || भाई से अपनापन रखलें, इसमें कौन बड़ाई है । बड़ा वही जो दुश्मन से भी लड़ता नहीं लड़ाई है । सत्य अहिंसा - शुन्य न होता, हिंसा झूठ जड़ाई है । सागर में मिल बिन्दु स्वयं सागर है, कहां कड़ाई है । सत्य साध्य है और अहिंसा साधन, सही विचारा है । 'राग द्वेष' को दूर करो, यह महावीर का नारा है । मोटर, महल, रेडियो, टेलीवीजन, सिपाही साथ हो । अखबारों में फोटू छपती, गाई जाती गाथा हो । कहलाता वह पुण्यवान किस कारण, नगरी नाथ हो । और लंगोटी ही जिसने छोड़ी क्यों पापी - हाथ हो । पैसा नहीं पुण्य फल कोई, पाप परिग्रह सारा है । राग द्वेष को दूर करो, यह महावीर का नारा है ।। सेठी भवन, चुरुकों का रास्ता, जयपुर 1/25 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर और उनके धर्म का सर्वोदय स्वरूप [] श्राचार्य राजकुमार जैन एम० ए० ( हिन्दी-संस्कृत) एच. पी. ए.. दर्शनायुर्वेदाचार्य धर्म हवा पानी की भाँति मुक्त है । किसी जाँति -पाँति, ऊँच-नीच, धनी गरीब आदि के भेद भाव में इसे नहीं बाँध सकते । मानव की तो बात ही क्या सर्व जीवजगत का कल्याणकारी तत्व इसमें समाया हुआ है । मानवता की सीमायें भी इसके लिये छोटी पड़ती है। इसकी प्राप्ति निराग्रही अनेकान्तिक दृष्टि वाले व्यक्ति को ही हो सकती है अन्य को नहीं । महावीर की सर्वोदय स्वरूप धर्म देशता के सम्बन्ध में लेखक के उच्च विचार कुछ नये नहीं हैं - जाने-माने हैं, पर पुनः पुनः पठनीय, मननीय है और तब ही हम प्राशा कर सकते हैं कि वे हमारे उतरेंगे । व्यवहार में, प्राचरण में द्वादशवर्षीय कठोरतम तपश्चरण के अनुष्ठान के द्वारा वर्धमान ने ग्रात्मा को विविध योनियों में भटकाने वाले चतुविध धातियां कर्मों का क्षय करके क्रोध - मान-माया-लोभ इन चार कषायों तथा अन्य ईर्ष्या, भय, जुगुप्सा आदि आन्तरिक शत्रुत्रों पर विजय प्राप्त की । संसार के सर्वाधिक चंचल प्रकृति वाले और अत्यन्त कठिनता से वश में किए जाने वाले मनको आत्मा के श्रभिमुख केन्द्रित करके उसकी समस्त बाह्य प्रवृत्तियों को अवरुद्ध कर एकाग्र चित्त द्वारा मुनि वर्धनाम ने जिस साहस, दृढ़ता एवं वीरता का परिचय दिया तथा जिस अभूतपूर्व दृढ़ता से उन्होंने अपने कठोरतम तपश्चरण के द्वारा दुर्जेय कर्मों पर विजय प्राप्त की उससे वे 'महावीर' नाम से जगद्विख्यात हुए । इसके प्रति रिक्त दुर्जेय राग-द्वेष आदि विकार भाव तथा क्रोध - मान-माया-लोभ इन चतुविध कषाय रूप आन्तरिक शत्रुओं के निराकरण में विक्रान्त, शूर एवं महान वीर होने से 'महाबीर' कहलाए । महावीर तीर्थंकर थे । तीर्थंकर वह होता है जो संसार के भव्य जनों को संसार सागर से तार देता है, पार लगाता है। महावीर के कल्याणकारी उपदेशों ने अनेक भव्य जीवों को भव सागर से पार कर दिया । अपने विशिष्ट ज्ञान दर्शन के आधार पर महावीर तीनों लोक के समस्त जीवों के सम्पूर्ण भावों और सभी अवस्थानों को जानने व देखने लगे थे । अतः महावीर अर्हत्, केवली, जिन, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी बनने के पश्चात् तीर्थंकर महावीर कहलाए । यह तीर्थंकरत्व उन्हें बारह वर्ष की 1/26 -सम्पादक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोर तपस्या-अात्म साधना के बाद प्राप्त हुआ था। आत्मा को इतना उन्नत बना दिया कि वे परमात्म जब तक कोई अपने आपको पूर्णतः साधन ले, तत्ब के एकदम निकट पहुंच गए । निरन्तर द्वादशअपने प्राभ्यन्तर शत्रु राग-द्वेष और मोह पर विजय वर्षीय घोरतम तपश्चरण एवं कठोर साधना का प्राप्त न कर ले तब तक वह तीर्थकर नहीं हो सकता। पुण्य फल उन्हें तेरहवें वर्ष के प्रारम्भ में प्राप्त जीवों को कर्म-बंधन से मक्ति का उपाय वही बतला हुप्रा । वह पुण्यफल था केवल ज्ञान की प्राप्ति । सकता है या दूसरों को उपदेश देने का यथार्थ यह चरण अनुत्तर एवं उत्कृष्ट केवल ज्ञान इतना अधिकारी वही है जो स्वयं कर्म बंधन से मुक्त हो अनन्त, निरावरण एवं अव्याहत होता है कि मनुष्य चुका हो । तीर्थकर की यह विशेषता जब महावीर इसकी प्राप्ति के अनन्तर देव-प्रसूर-मानव-तिर्यच ने सर्वाशंत: प्राप्त कर ली तो वे तीर्थकर हो गए प्रधान इहलौकिक समस्त पर्यायों का अविच्छिन्न और तब ही उनकी दिव्य ध्वनि का पावन प्रवाह रूप से ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है। इस प्रकार महाजन-मानस के अभ्यन्तर कल्मष को धोने में समर्थ वीर ने साधना के द्वारा तीर्थकरत्व प्राप्त किया। हो सका । यह है उनका सर्व कल्याणकारी मंगल- तीर्थकरत्व की प्राप्ति के अनन्तर भगवान महावीर मय पावन स्वरूप जो जन जन के लिए अन्तः । लगातार तीस वर्ष तक निरपेक्ष भाव से जगत को प्रेरणा का मूल स्रोत है। आत्म शुद्धि और अात्म कल्याण का पावन उपदेश देते रहे। वर्धमान के समक्ष प्रात्म शुद्धि का एकमात्र प्राणिमात्र के कल्याण के लिए तीर्थकर महामहान लक्ष्य था। यही कारण है कि संसार के अन्यान्य भोतिक पदार्थ तथा भोग विलास के वीर की दिव्य वाणी का यह उद्घोष था कि विविध साधन उन्हें अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर जीवमात्र में स्वतन्त्र आत्मा का अस्तित्व विद्यमान हाय है। प्रत्येक जीव को जीवित रहने और प्रात्म का वैभव विखरा पड़ा था, किन्तु उन्होंने इस वैभव स्वातन्त्र्य का उतना ही अधिकार है जितना दूसरे की नश्वरता, निःसारता और नीरसता को अपने को है । अतः स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो। सहज प्रसूत ज्ञान गाम्भीर्य से समझ कर उसे इस जिस प्रकार अपने जीवन में कोई बाधा तुम्हें सह्य प्रकार छोड़ दिया था जैसे-कोई बीर्ण तृण को नहीं है उसी प्रकार दूसरों के जीवन में भी बाधक छोड़ देता है । उनके जीवन को ऐसी असाधारण मत बनो । धर्म के वाह्य आडम्बरपूर्ण क्रियाकलापों, सुविधाएं उपलब्ध थीं जिनका नसीब होना सच- मिथ्यावाद और रूढ़िगत परम्पराओं में मत फैसो । मुच दुर्लभ है । किन्तु ये समस्त साधन सुविधाएं अपनी प्रात्मा का स्वरूप और उसकी-स्वतन्त्र सत्ता अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने से उन्हें न रोक पहचानो, वही सच्चा धर्म है। सहज क्रिया मात्र सकी और अपने निकटतम परम स्नेही बंधु-बांधवों, धर्म नहीं है, वह तो उसका । परिजनों एवं प्रजाजनों के अनुरोध-प्राग्रह, अनुनय बाह्य रूप भी उसे तब कहा जा सकता है जब विनय और प्रार्थनाओं के वावजूद भी उन्होंने तप अात्मा के भीतर वास्तबिक धर्म की प्रतिष्ठा हो । स्वी जीवन की कठोरताओं को सहज भाव से धर्म एक त्रिकालावाधित सत्य है, वह कोई संकस्वीकार किया। चित दायरा नहीं है । जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, लिंग, योनि, क्षेत्र और काल की मर्यादाएं उसे बांध नहीं - निरन्तर बारह वर्षे तक सतत साधना, कठोर- सकतीं और न ये समस्त भाव उसकी मकर तम तपश्चरण एवं एकाग्र चित्तवृत्ति ने उनकी सकती है । यथार्थ रूप से सम्यश्रद्धा, सम्यकज्ञान 1/27 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रौर सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय ही उसका शब्द गम्य लक्षण है । । तीर्थंकर महावीर ने जिस तीर्थ का प्रणयन किया है और उसके द्वारा जिस धर्मतत्व को मानव लोक के सम्मुख रखा है उसका स्वरूप सर्वोदय है । उस धर्म में न जाति का बन्धन है और न क्षेत्र की सीमा है, न काल की मर्यादा है और न लिंग का प्रतिबन्ध है न ऊँच नीच का भेदभाव है और न प्राग्रह की अनिवार्यता है । आत्मजयी द्वारा प्रतिपादित प्रचार और विचार दोनों धर्म है । अत: धर्म जब प्रात्मा की खुराक बनकर श्राता है तब इस प्रकार की सीमाएँ, बाधाएँ, बन्धन, मर्यादा और प्रतिबन्ध सब कुछ समाप्त हो जाता है और वह सर्वथा उन्मुक्त स्वच्छन्द प्रवाह में प्रवाहित होता है। जब वह आत्मा के लिए है तब सम्पूर्ण विश्व के समस्त ग्रात्माओं के लिए वह क्यों न आवश्यक होगा ? जिस प्रकार शरीर के लिए श्रावश्यक हवा पानी आदि की सीमाएं स्वीकृत नहीं हैं उसी प्रकार धर्म की सीमा कैसे स्वीकृत की जा सकती है? हवा और पानी के उन्मुक्त प्रवाह की जा सकती हैं ? हवा और पानी के उन्मुक्त प्रवाह की भाँति धर्म के उन्मुक्त प्रवाह को भी सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता । वह स्वच्छन्द है और अनादि काल से प्रवाहित है । धर्म के साथ केबल मानव का सम्बन्ध जोड़ना भी एक संकीर्णता है। वह तो प्राणिमात्र के आनंदात्मक स्वरूप को प्राप्त करने का साधन है । कीट, पतंग, मूंग, पशु, पक्षी और मनुष्य यादि समस्त प्रारिण किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित हो सकते हैं। मनुष्य के अन्तःकरण में यदि धर्म ठीक रूप से उतर जाय तो उससे केवल उसको ही लाभ नहीं होगा, अपितु पशु, पक्षी, कीट, पतंग, लता, गुल्म, पेड़, पौधे मादि समस्त जीवों को मनुष्य की ओर से अभय मिल जाने के कारण जीवन में अपे क्षाकृत शांति प्राप्त हो सकती है । इस प्रकार 4 प्रारिण मात्र के लिए कल्याणकारी और उभय लोक हितकारी धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया । यह जीवमात्र के प्रति सर्वोदय की भावना से अनुप्राणित था । धर्म के चाहे कितने ही रूप क्यों न हों, अहिंसा उन सबमें प्रोतप्रोत रहेगी। धर्म प्राणी जीवन की एक ऐसी स्फुर्ति है जिसका स्थान संसार की कोई वस्तु नहीं ले सकती और यह प्रेरणा धर्म - प्रहिंसा से ही प्राप्त हो सकती है । जिस मनुष्य में यह स्फूर्ति और प्रेरणा नहीं होती वह पशु होता है, उसमें हिंसा की परम्पराएं प्रज्वलित होती रहती हैं । जब तक अन्तःकरण में धर्म प्रतिष्ठित रहता है अहिंसा की प्रेरणा से मनुष्य मारने वाले को भी नहीं मारता । किन्तु जब वह उसके मन से निकल जाता है तब औरों की कौन कहे पिता अपने पुत्र की और पुत्र अपने पिता की हत्या करने के लिए भी तत्पर हो जाता है । यह कुकृत्य करते हुए उसे तनिक भी लज्जा का अनुभव नहीं होता । वस्तुतः धर्म ही जगत की रक्षा करने वाला होता है । भगवान महावीर का तौर्थ वास्तव में सर्वोदय तीर्थ है। किसी तीर्थ धर्म में सर्वोदयता तब ही आ सकती है जब उसमें साम्प्रदायिका, पारस्परिक वैमनस्य और हिंसा के लिए कोई स्थान न हो तथा जाति, कुल, धर्म, भेदभाव आदि के अभिमान से वह सर्वथा रहित हो यह तब ही हो सकता है। जब प्रत्येक मनुष्य के विचार में अपेक्षावाद का उपयोग किया जाय और मनुष्य का मन किसी भी प्रकार के आग्रह से सर्वथा मुक्त हो । प्रभिमानी और प्राग्रही व्यक्ति जब तक विवेक बुद्धि से अपने मन का परिष्कार कर उसे सुसंस्कृत नहीं कर लेता उसे यथार्थ धर्म स्वरूप की प्राप्ति नहीं हो सकती । जो धर्म केवल रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, परम्पराओं और मिथ्या मान्यताओं से जीता है वह धर्म नहीं निरा पाखण्ड है । धर्म जीवन की वह सचाई है जिसमें माया, मिथ्यात्व और भोगासक्ति नहीं 1/28 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते। वही कारण है कि धर्म को कभी रूढ़ियों से जीवन प्राप्त करने की स्फूर्ति नहीं मिलती व्यव हारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य, कलह में शांति तथा जीनमात्र के प्रति श्रात्मीयता का भाव उत्पन्न होना ही सच्चा धर्म है और उसी से मानव समाज का, प्राणि मात्र का कल्याण सम्भव है 1 कि धर्म का सर्वोदय स्वरूप तब प्राप्त नहीं हो सकता जब तक आग्रह दूर नहीं हो जाता। क्योंकि धाग्रह ही विग्रह पैदा करता है घोर विग्रह से मन में अनेक बुराईयां उत्पन्न होकर प्रशांति पैदा होती है। वस्तुतः मन की हिंसा का नाम आग्रह है और जब वही ग्रह बाहर आ जाता है तब वह बाहय हिंसा का रूप धारख कर लेता है। जहां हिंसा होती है वहां धर्म किसी भी रूप में टिक नहीं सकता । अतः धर्म का स्वरूप समझने और उसे जीवन में प्रवाहित करने लिए हिंसा का परिहार यावश्यक हैं। वर्तमान में हिंसा का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक हो गया है । प्राज मनुष्य के प्रतिक्षरण के आचरण में हिंसा व्याप्त हो चुकी है, उसका मन - वचन कार्य हिंसा से पूर्णत: व्याप्त है । हत्याएं, प्रागजनी, लूटपाट और अपहरण तक ही हिंसा का दायरा सीमित नहीं है, अपितु व्यक्ति श्रौर समाज का शोषण, अनीति, अन्याय, जमाखोरी मुनाफाखोरी, जीवन की प्रावश्यक वस्तुओं में मिलावट, घूसखोरी, भ्रष्टाचार आदि अन्याय प्रवृतियां भी हिंसा की परिधि में समाविष्ट हैं । ये सारी क्रियाएँ माज मनुष्य अपने लिए प्रावश्यक समझता है। यही कारण हैं कि आज धर्म मनुष्य के जीवन से दूर हो गया है। वर्तमान में धर्म केवल दिखावटी बाह्य क्रियाओं तक ही रह गया है । अन्तःकरण में उतरने की उसे छूट नहीं है । अतः धर्माचरण रहित मनुष्य का पवभ्रष्ट होकर पतनोन्मुख होना स्वभाविक है । यह भीं काल की एक विडम्बना है । तक मनुष्य को उसके मन का वर्तमान परिस्थितियों में मनुष्य के जीवन का आमूल परिष्कार नितान्त आवश्यक है। इसके बिना मन का सस्कार और आचरण की शुद्धता सम्भव नहीं है । अतः वस्तु स्वरूप और धर्म के प्रति श्रद्धा भाव रखना, उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर समवन्य रूप से उसे समझना तथा आचरण की परिशुद्धि के साथ उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना ही वास्तविक धर्म का मूल है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है। हिंसा सत्य, अस्तेय नियम तथा गुदुतर कालीन संघर्ष की जीवमात्र के कल्यास इसकी अनुशंगिक धाराएं हैब्रह्मचार्य धौर अपरिग्रह रूप ऋजुता चादि गुण । वर्तमान अग्नि से परिदग्ध संसार को मीर उत्कर्ष की भावना से प्रोतप्रोत इस धर्म मूलक रत्नत्रय के परिशीलन की नितान्त श्रावश्यकता है । सामाजिक समता और विश्व शान्ति का वही एक मात्र निदान है । महावीर के धर्म के सर्वोदय स्वरुप का एक अपरिहार्य रूप अनेकान्त है यह व्यवहारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य और कलह में शांति स्थापित कर मनुष्य में समझौते को भावला उत्पन्न करता है और सहयोग मूलक समाज रचना पर जोर देता है। जब हम घट पट प्रादि सामान्य पदार्थों का स्वरुप भी अनेकान्त के विना नहीं समझ सकते तब ग्रात्मा की खुराक बनकर श्राने वाले धर्म का स्वरूप उसके बिना कैसे समझ सकते हैं ? अनेकान्त जहाँ निष्पक्ष और यथार्थ दृष्टिकोण की सक्षमता का द्योतक है वहां वह जीवन की बिषमता और व्यवहारिक कठिनाइयों कों दूर करने में भी समर्थ है । धर्म के सर्वोदय स्यरूप में पापी के अहंकार की उत्तेजना नहीं होती है और न लोक मूढ़ता प्रादि का प्रातंक होता आदि का प्रातंक होता है । उसमें प्रत्येक वस्तु लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा परखी जाती है। धर्म सर्वोदय स्वरुप में केवल वही सामा 1/29 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिकता पनप सकती है जिसमें न तो किसी प्रकार व्यवस्था का प्रतिवाद नहीं किया गया है। भगवान का शोषण हो और न उँच नीच का भेदभाव । के सर्वोदय तीर्थ में हर जगह निरतिवादी व्यवस्था मानव केवल मानव है और उसकी महत्ता का को महत्व दिया गया हैं। धर्म के सर्वोदय मूल्यांकन बिना किसी भेदभाव के गुणों के आधार स्वरुप कों हम सर्व जीव समभाव, सर्वधर्म समभाव पर हो, न कि जाति, कुल, पद, प्रतिष्ठा, धन और और सर्व जाति समाभाव के रुप में समझ सकते वैभव आदि के आधार पर। उसमें सहयोग, सह हैं। यहां मनुष्यकृत विषमतामों के लिए कोई अस्तित्व, सह-प्रतिष्ठा आदि मानवोचित गुणों स्थान नहीं है, चाहे वे कितनी ही पुरानी क्यों न हो ? पर बल दिया गया हो। ___महावीर ने धर्म के जिस सर्वोदय स्वरुप का । तीर्थकर महावीर की देशना की यह विशे- प्रतिपादन किया उसे हम उस विश्व धर्म की संज्ञा दे पता रही है कि वह प्रत्येक व्यवस्था को द्रव्य, क्षेत्र सकते हैं जिसके मूल में अहिंसा की प्राण प्रतिष्ठा काल और भाव के अनुसार परिवर्तित करने की की गई हो और जिसमें सर्वाशंत: अहिंसा का मर्म उपयोगिता का सर्मथन करती है। परम्परात्रों की व्याप्त हो। समस्त प्राणियों का कल्याण करने अपेक्षा वहां परीक्षा, तर्क और दलीलों को अधिक वाला, जीवात्माओं का अभ्युत्थान करने वाला श्रेय प्राप्त है। दया, दम, त्याग, सहिष्णुता, और मानव समाज के प्राध्यत्मिक विकास में परम समाधि आदि समस्त मानवीय गुणों के चरम सहायक के रुप में सर्वोदय धर्म अहिंसा धर्म है, विकास का सर्मथन करते हुए भी यहां किसी भी विश्वधर्म है। सहायक निबन्धक (आयुर्वेद) भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद १-ई/६ स्वामी रामतीर्थ नगर, नई-दिल्ली-110055 1/30 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की आधुनिक युग को देन 0 राजकुमार जैन एडवोकेट आज की विकट समस्याओं से हम घिरे हुए हैं। कुछ लोग उनके समाधान हेतु कठोर दण्ड की बात करते हैं। जिन देशों में कठोर दण्ड का सहारा लिया गया वहां भी विद्रोह हो रहे हैं और व्यवस्था बिगड़ती जा रही है। महावीर के संयम को साधने वाला व्यक्ति और समाज ही आज राहत में जी सकता है और अन्य को राहत का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। लेखक ने संक्षेप में इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। --सम्पाक अाज भारत देश जिस ऐतिहासिक दौर से के जो सूत्र दिये हैं, वास्तव में वे लोकतंत्र शासन गुजर रहा है, उस में हमें राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण प्रणाली के प्राधारभूत सूत्र हैं । करने और राष्ट्र में अनुशासन मर्यादा व कर्तव्य भारत का संविधान पूर्णत: अनाक्रमण सह पालन की प्रेरणा जगाने के लिए भगवान महावीर __ अस्तित्व समता और संयम पर आधारित है । ये के सिद्धांतों व आदर्शों को ग्रहण करना होगा। तत्व महावीर के मौलिक और व्यावहारिक सिद्धांत भगवान महावीर एक युग पुरुष थे, उन्होंने है, अाज अनाक्रम ण नीति के पक्ष में समूचे विश्व मानवता को जियो और जीने दो का सिद्धांत दिया की जनभावना जागृत हो रही है। यद्ध की और मानव कल्याण के लिये सत्य और अहिंसा भयानक और विनाशकारी समस्या के समाधान के सिद्धांत के पालन पर बल दिया। में अनाक्रमण नीति सफल और कारगर सिद्ध हुई है, विश्व शान्ति की दिशा में इसे महावीर के भगवान महावीर अहिंसा तथा क्षमा के सिद्धांतों का मूल्यवान योग कहा जा सकता है, सह अवतार थे। उनका जीवन दर्शन विश्व के भाई अस्तित्व भगवान महावीर का ही सिद्धान्त है। चारे व मैत्री और प्रेम की भावना फैलाने के लिये एक प्रकाश पुज का काम करता है। सदियों से समाजवादी विचार महावीर के अपरिग्रह हर मनुष्य उनके उपदेशों से आध्यात्मिक शान्ति दर्शन का फल है । पूजी का केन्द्रीकरण सामाजिक व अहिंसा की प्रेरणा प्राप्त कर रहा है। विषमता को बढ़ावा देता है और यह विषमता ही वर्ग संघर्ष का कारण बनती है । भगवान महावीर ने जो सिद्धान्त निश्चित किये वे सर्वजन हिताय है। उनमें इस यूग की भारतीय संविधान में जाति, धर्म, लिंग, रंग समस्या का सम्यक् समाधान निहित है। महावीर के भेद भावों को भी स्थान नहीं दिया गया है। ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, संयम और समता नागरिकता के मूलभूत अधिकार सबके लिए समान 1/31 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से सुरक्षित है । यह उदार दृष्टिकोस भगवान की साधना अत्यन्त आवश्यक है, जो व्यक्ति जितना महावीर के समतावादी सिद्धांत का ही क्रियान्वयन संयमी होगा वह उतना ही अधिक समाधान और राहत प्राप्त करेगा। भारतीय संस्कृति ने सत्ता संयम महावीर द्वारा प्रदत्त मौलिक और और सम्पत्ति के स्थान पर हमेशा त्याग, तपस्या महत्वपूर्ण सूत्र है, जीवन की जटिलताओं और और संयम को महत्व दिया है। इस महत्व को कठिनाईयों से राहत पाने का दिशा दर्शन इससे सम्यम् रूप से समझकर महावीर के मूलभूत प्राप्त होता है, अभाव, महंगाई आदि समस्याओं सिद्धांतों पर बल दिया जाए और तदनुरूप का समाधान भी संयम से ही प्राप्त किया जा आचरण किया जाय तभी राष्ट्रीय चरित्र का सकता है, आज सभी देशवासियों के लिए संयम निर्माण किया जा सकता है। ठाना, जिला-सागर (म० प्र०) महावीर के सिद्धांत अहिंसा मात्र रसोईघर तक सीमित रखने की वस्तु नहीं है वरन् अन्तर्बाह्य सभी रूपों में स्वयं अपना व अन्य सभी मानव मानवता प्राणियों का अहित न करने सम्बन्धी सजगता के रूप में व्यापक है। अपहिग्रह दर्शन, शास्त्र और व्याख्यानों मात्र का तत्व नहीं है। 1/32 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के उपदेशों को ..... प्राशु कवि : शर्मनलाल “सरस" सकरार (झाँसी) महावीर के उपदेशों को, अगर विश्व फिर से अपनाये, सत्व अहिंसा की भाषा को, फिर से नई उमर मिल जाये। जब करूणा रवि अस्त हो गया, छाई थी हिंसा की राका खंड खंड हो रहा धर्म था, फहरी थी पाखंड पताका अट्टहास कर रही क्रूरता, जन स्नेह पाने को तरसे त्रिशलानंदन महावीर तब, करूणा के बादल वन वर्षे हिंसा के सिंहासन पर, फिर छवि अहिंसा की बिठला दी . भौतिकता पर एक बार फिर विजय प्रात्मा को दिखलादी कठिन नहीं है अगर प्रादमी, दृढ़ होकर कदम बढ़ाये सत्य अहिंसा की भाषा को, फिर से नई उमर मिल जाये। सोच रहा अव भो मेरा कवि, सचमुच थी वह घड़ी निराली मधुवन का भी पता न चलता, अगर रोक लेती वैशाली बन्धु ! अगर माँ के आँसू पर, वीर कहीं पानी हो जाते ? राज महल के सेजों पर, जो महावीर सोचो सो जाते तो-हम तुम जो बात कर रहे, सचमुच इतने पास न होते सत्य अहिंसा मानवता के जीवित फिर इतिहास न होते हिंसा ने इतनी चतुराई से, अपने पर फैलाये ____ सत्य अहिंसा की भाषा को, फिर से नई उमर मिल जाये। द्वार द्वार पर दुराचार ने, अब वैसा फिर डाला डेरा हिंसा के तम गमके द्वारा, अस्त हो रहा सत्य सवेरा सयंम का स्वर है समाप्त, अब जला रही ज्वाला की भाषा रण की भूख बढ़ रही भू पर, भाई है भाई का प्यासा औरों से कहने के पहले, अपना फर्ज निभाना होगा अगर बदलना है यह सब, तो खुद ही कदम बढ़ाना होगा भला नहीं सुबह का भूला, अगर शाम को 'सरस' दिखाये। सत्य अहिंसा की भाषा को फिर से नई उमर मिल जाये। 1/33 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशु क्ररता - एक विचारणीय विषय 0 हीराचन्द बैद उपाध्यक्ष पशु क्रूरता निवारण समिति, जयपुर पुनः पुन: मांसाहार के विरुद्ध कहा जाता रहा है, लिखा जाता रहा है । सब जानते है जीव दया के समान व्यवहार में धर्म दूसरा नहीं है । सभी संत और समझदार मनुष्य यह ही मानव को समझाते रहे हैं पर दुःख का विषय है कि मांसाहार की राक्षसी वृत्ति अभी घटने के स्थान पर उल्टी बढ़ ही रही है । आवश्यकता हैं हम फैशन के नाम पर लाई जा रही प्रत्येक वस्तु को, आवश्यकता के नाम पर प्रयोग में लाये जा रहे खाद्य पदार्थ और औषधि प्रादि को जीव दया की दृष्टि से परख कर ही काम में लें; यह हमारी मानवता का तकाजा है। -- सम्पादक भारत देश अतीत से अहिंसा प्रधान देश है। प्रति अरूचि, यहुदी सम्प्रदाय की इसनिश शाखा प्राणी मात्र के प्रति दया और करूणा का भाव द्वारा अपनाया गया कठोर शाकाहार, नामधारी बना रहे, इस हेतु सब ही धर्मों के महान पुरूषों सिक्खों का अाज भी शुद्ध शाकाहारी होना, ने सदैव ही हम लोगो को जागृत किया है। गाय इस्लाम के पवित्र मक्का स्थित कस्बे के चारों ओर को घास, कुत्तों को रोटी, और कबूतरों को ज्वार कई मील को परिधि में किसी भी पशु-पक्षी की डालने की परम्परा हमें यही बोध देती है कि निरीह हत्या नहीं करने का नियम और हज्ज काल में व मूक पशु-पक्षियों के प्रति हमारे हृदय में दया- हाजियों का मद्य-मांस का सर्वथा त्यागी रहना उमड़ती रहें, इसी के लिए तो ये सब प्रतीक बने किस दिशा का सूचन करती है, यह सहज ही हैं । जैन तो सदैव अहिंसा के उपासक रहे ही हैं, जाना जा सकता है। पर वैष्णव भी अहिंसा के बहुत बड़े पुजारी रहें हैं। इस देश के कुछ धर्मावलम्बी चाहे स्वार्थवश पर आज मांसाहार के लिए जानवरों पर की व स्वादवश अहिंसा पर विशेष ध्यान न दे पाये जाने वाली क्रूरता की कहानी इस देश में कलंक हों, पर समय-समय पर सब धर्मों में ही ऐसे संत रूप बन रही है। मांस, अंडे, मछली आदि के व प्रचारक हुए हैं, जिन्होंने इस सम्बन्ध में खूब सेवन की प्रवृत्ति कितनी बढ़ती जा रही है तथा उपदेश की गंगा बहाई हैं तथा उसका परिणाम सरकारी स्तर पर भी इस प्रवृत्ति को कितना भी पाया है। सम्राट अकबर की मांसाहार के प्रोत्साहन मिल रहा है, यह सब देख कर यह 1/34 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार स्वतः ही पाता है कि आज भारत किधर हारी को रोग से बचने व लड़ने की शक्ति क्षीरस जा रहा है। आज तो इन वस्तुओं के उपयोग के हो जाती है। भाजकल स्वाद, ताकत और फैशन लिए लाखों रुपया प्रचार व प्रसार में व्यय किया के लिए मांस का उपयोग होता हैं । पर यह जा रहा है। मांस प्राप्त करने के लिए की जाने नितांत भ्रमित धारणा है। एक अन्न से अनेक वाली क्रूरता, दिल दहला देने वाली दर्दनाक प्रणाली प्रकार के स्वाद की वस्तुएँ बनाई जा सकती है। अहिंसा प्रेमियों के लिए प्राज अधिक विचारणीय पौष्टिकता की दृष्टि से ग्राज के विज्ञान ने शाकाहार बनी है। कों मांसाहार की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध किया हैं। आज के होटलों में व क्लबों में, पार्टियों आदि में बीमार और गर्भधारण किये हुए जानवरों विशेष प्रकार के शाकाहारी व्यंजन बनाकर परोसे जावें तो जन्मजात मांसाहारी भी शाकाहारी का सरकारी कानून होते हुए भी संहार क्या मांस । के उपयोग करने वालों में नई बीमारीयों का व्यंजन पसन्द करेगे यह निश्चित है, इससे फैशन प्रवेश नहीं करता ? का भूत भी भाग जावेगा। अाज विदेशों में शाकाहार के प्रति खूब रूचि कुछ अनजान और अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा बढ़ी है। अनेक संस्थायें बनी है। अमेरिका में सूबर को मारने का अमानवीय कार्य क्या दिल को सबजियों के सलाद व फलाहार की ओर काफी नहीं दहला देता? झुकाव हुमा है। साधारण अमेरीकी भी स्वेच्छा से कई दिन मांस का उपयोग नहीं करते। मांस भक्षण से शरीर बलवान बनता हैं, यह नितांत अज्ञानपूर्ण धारणा है। प्रोटीन व चर्बी डेनियल पी• हाकमैन ने तो यहां तक कहा के लिए मांस सेवन को अनिवार्य मानना हेय और है कि अमेरिका में शाकाहार इतना विस्तार पा घृरिणत है । मांसाहारी व्यक्ति से शाकाहारी व्यक्ति चुका है कि मांस विक्रेता अपने उत्पादनों के लिए मानसिक व शारीरिक दृष्टि से अधिक स्वस्थ विज्ञापन, प्रलोभन देने को बाध्य हुए हैं। पर वे होता है। लोग जब हमारे देश में आकर शाकाहार के बदले मांसाहार की बढ़ती हई वत्ति देखते हैं तो आश्चर्य पालतू सूअर जमीन की हर गन्दी चीज खाते करते हैं। हैं। यहां तक कि आदमी और पशु का मल-मूत्र भी । संसार का यह सबसे गन्दा पशु माना जाता मांसाहार की प्रवृत्ति जब तक कम नहीं होगी, है । इन सुअरों के मांस का भी मांसाहारी उपयोग तब तक जानवरों के प्रति होने वाली क्रूरता भी करते हैं। पशुओं के मांस के पित्त सम्बन्धी तत्व कैसे कम होगी ? रक्त चाप, केंसर, गठिया और रक्त नलियों में जभाव, आदि भयंकर बीमारियां पैदा करते हैं। मुह के स्वाद के लिये तो यह सब कुछ होता मांसाहार से युरिक एसिड तथा अन्य प्रकार के ही है, पर अहिंसा प्रेमी भी प्राज पशु-पक्षियों के विकार पैदा होते हैं। पाचन प्रणाली में सड़ांध प्रति बढ़ने वाली क्रूरता में अनजाने ही सहयोगी होकर जब यह रक्त मिलता है तब रक्त दूषित हो बन रहें हैं । आज ऐसी अनेक वस्तुएँ हम अपने जाता है और ये सब रोग निर्मित होते हैं । मांसा- व्यवहार में ला रहें हैं जो हिंसा में निमित्त हैं। i/35 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन चीजों के उपयोग से परे हटकर हम प्राणियों के परफ्यम व इत्र-समुद्र में रहने वाली व्हेल प्रति बहुत दयावान बन सकते हैं । फैशन और शौक मछली से प्राप्त होने वाली चर्बी से ऐवरगिस के नाम पर घर-घर में ऐसी चीजें घुस गई हैं। और ऐवरथिस नामक पदार्थ बनता है, जो मोम इनमें से कई का शरीर पर उपयोग कर हम स्वतः जैसा होता है। इससे ही सुगंधित परफ्यूम व इत्र भयानक बीमारियों को प्रामन्त्रित कर रहें हैं। बनाया जाता है। यह प्रश्न अहिंसा प्रेमियों के लिए विशेष विचारगीय हैं। क्रीम व टानिक--इसी मछली से निकलने वाले तेल जैसे पदार्थ से ये पदार्थ बनाये जाते हैं। इन आज के खुबसूरत बैग, पर्स व जूते जिन्हें वस्तुओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया भी बड़ी दर्ददेखकर आम व्यक्ति का मन मचलता है, इनके नाक है। पहले नुकिले भालों से मछली पर खूब निर्माण की कहानी बड़ी दर्दनाक है। ये मगरमच्छ वार किया जाता है फिर रस्सियों द्वारा बड़े की खाल से बनते हैं। मगरमच्छ की आदत है जहाजों से उसे बांध दिया जाता हैं। जैसे-जैसे कि वह जिस रास्ते से जाता है ठीक उसी रास्ते वह पानी में भागती दौड़ती है भालों की नोंक से वापस लौटता है। उसके लौटने के मार्ग पर से की जाने वाली मार से तड़प तड़प कर वह तेज धार वाले चाक रोप दिये जाते हैं, जिनसे पांच-छः घंटे में मरण प्राप्त करती है। तब ये लौटते वक्त उसका पेट चिर जाता हैं। और उसी पदार्थ प्राप्त होता हैं। वेदना से वह प्राण त्याग देता है। उसकी उधेडी फरवाले कोट-समुद्र के सील नामक जीव खाल से ये चीजे बनती है। के बच्चों को लाठियों से मार-मार कर फर प्राप्त किये जाते हैं, जो बड़े खबसरत होते हैं। मरने इसी प्रकार सांप को मारकर उसकी खाल से पहले ही बेहोसी की हालत में उसकी खाल प्राप्त करने का तरीका भी अत्यधिक क्रूरता पूर्ण उतार ली जाती है। छ:-सात बच्चों की खाल है। एक व्यक्ति जीवित सांप को सर से पकड कर . से मुश्किल से एक कोट तैयार हो पाता हैं । इस ऐड के तने से सटा कर रखता है. दसरा उसके सर . जीव को गोली से मारने से खाल व फर खराब पर कील ठोकता है, तीसरा पूछ पर पैर रख कर होने का डर है। ऊदबिलाव, भालू, खरगोश की लम्बा चीरा देता है और इस प्रक्रिया से उसकी " चमड़ी से भी फर तैयार किये जाते हैं । खाल शरीर से छिलके की तरह अलग हो जाती है। सांप के मांस का लोथड़ा लटकता रहता है। शेम्पू-सर धोने का तरल साबुन का प्रयोग वह चींटियों का भोजन बनता है। इस स्थिति पहले चूहों और खरगोशों की आंखों पर किया में तीन चार दिन तक तड़पते रहने बाद कहीं जाता है, जिससे वे अंधे हो जाते हैं। बाद में उसका जीव निकलता है। उनकी खाल को काम में लिया जाता है। का है। __फर वाली टोपियां, घुघरालू सुन्दर बालों कस्तूरी-मृग को गोली से मारकर यह प्राप्त की ये टोपियां भेड़ के बच्चों को पैदा होने के एक- की जाती है । सिवेट जानवर को पिंजरे में डालदो दिन बाद मार कर उसकी खाल से बनाई कर लकड़ियों से उसे खूब तंग किया जाता है, जाती है । दिखने में ये बड़ी चमकीली व खूबसूरत अधिक चिड़चिड़ा होने पर वह अधिक कस्तूरी होती है। देता है। कस्तूरी वाली ग्रन्थी चीर कर निकाली 1/36 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है। हर दसवें दिन यह कार्य किया जाता जस्म और कडापन पैदा करता है। अण्डे के जहर है। इस तरह जल्दी ही वह जानवर जीवन से के कारण दिल की बीमारी, ब्लडप्रेशर, गुर्दे की हाथ धो लेता है। बीमारी, पित्ताश्मरी आदि हो जाते हैं। इस्ट्रोजन-यह गर्भवती घोड़ी के मूत्र से फलों व सब्जियों में कोलस्टोल बिल्कुले बनाई जाती है । इसके प्राप्त करने को घोड़ी को नहीं होता। सदैव गर्भवती रखने का प्रयत्न होता है और गर्भ धारण करने में असमर्थ होने पर इसे मार दिया उपयुक्त प्रकार की यह जानकारी सवको प्राप्त जाता है। यह बस्तु सौन्दर्य प्रसाधन के लिये कराई जा __ कराई जा सके, इस हेतु एक संस्था का गठन हाल बनने वाली सामग्री में प्रयोग की जाती है। अकेले ही में किया गया है, जिसका नाम रखा गया है अमेरिका में कासमैटिक्स का सालाना खचे "पश करता निवारण समिति ।" 5 मिलियन डालर (करीब 4 करोड़ रुपया) है। इंगलैंड में मेकअप पर करीब 100 मीलीयन पौंड इस संस्था का लक्ष्य मूक पशु एवं पक्षियों के खर्च होता है । सारे देश में करीब 1200 कारखाने प्रति होने वाली सभी प्रकार की हिंसा व क्रूरता हैं, जिनमें साज सज्जा और प्रसाधन की ये सब का पता लगा कर उसे रोकना तथा उसके विरूद्ध सामग्रियां तैयार होती हैं, जिनमें न केवल प्राण जागरूक जनमानस बनाना है। सरकारी स्तर हिंसा की जाती है अपितु क्रूरता की चरम सीमा पर भी मांसाहार के कार्य में कमी भावे, इस हेतु भी लांघ दी जाती हैं। राजस्थान सरकार ने वर्ष में 14 प्रमुख दिनों के लिए अगते घोषित किये हैं, जो निम्न अाज प्राकृतिक, स्वाभाविक व वास्तविक लिखित हैं :सुन्दरता का ह्रास होता जा रहा है और उसका स्थान लेने के लिए कृत्रिम साधन खोजे जा रहे हैं 1. 26 जनवरी 2, 30 जनवरी 3. महा शिव जो आमतोर पर हिंसात्मक होते हैं। कृत्रिम रात्रि 4. राम नवमी 5. महावीर जयन्ती 6. बुद्ध साधनों से सुन्दरता बढ़ती है, यह भ्रांति है । सच जयन्ती 7. गणेश चतुर्थी 8. ऋषि पंचमी 9. तो यह है कि स्वस्थ शरीर निविकार मन और अनन्त चतुर्दशी 10. कृष्ण जन्माष्टमी 11. पन्द्रह मधर स्वभाव का सम्मिलित प्रभाव ही सुन्दरता अगस्त 12. गांधी जयन्ती 13. दीपावली 14. बनकर मुख पर चमकता है। गुरू नानक जयन्ती। आज अण्डे का उपयोग भी खूब बढ़ा है । एक इन दिनों में मांस की दुकानें व कत्लखाने अण्डे में कोलस्ट्रोल की मात्रा लगभग 4 ग्रेन होती है । यह एक भयानक जहर है, जो अण्डे खाने बन्द रखने का प्रावधान है। मांसाहारी होटलों में वाले के शरीर में पहुंच कर उसके खून में मिलता कानूनन मांस की व्यवस्था वर्जनीय है । है और अनेक बोमारियों का निमित्त बनता है। साथ ही सरकारी कानून वन्य जीव संरक्षण यह तथ्य अनेक डाक्टरों की खोज का परिणाम है।। हा अधिनियम 1972 के मातहत विभिन्न प्रकार के अण्डे की सफेदी के प्रयोग से लकवा, चमड़ी जीवों का शिकार व हिंसा अपराध है। इनका की सूजन और एक्जीमा होता है । अण्डे के पीलेपन पालन हढ़ता से हो, इसके लिए समिति निरीक्षक में निहित यह जहर यकृत में जमा होकर रगों में नियुक्त करने का कार्य भी हाथ में ले रही है। 1/37 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर इस तरह का साहित्य प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है जिससे अवश्य ही जनमानस का प्राणीमात्र के प्रति दया व करुणा का भाव जागृत होगा । अतः इस सारे निवेदन के साथ आपसे हम निम्न अपेक्षायें करते हैं 1. प्रसाधन या साज सज्जा की ऐसी वस्तुनों का आप स्वयं उपयोग न करें, जिनसे क्रूरता पूर्ण हिंसा को प्रोत्साहन मिलता हो । 3. घोड़ा बेल ऊंट व भैंसे प्रादि वाहन में जोते जाने वाले जानवरों पर जरूरत से ज्यादा भार लादने व बेरहमी से उन पर डंडे बरसाने जैसी क्रूरता को रोकने के लिए अज्ञानी लोगों को समभावें । 4. आपके सम्पर्क में आने वाले ऐसे व्यक्तियों के मानस को शांति और धैर्य पूर्वक बदलने का प्रयास करें जो मांस मछली आदि का उपयोग करते हैं । 2. ऐसी वस्तुओंों के उपयोग के लिये अन्य लोगों 10 निरीह पशु-पक्षियों के क्रूरता के निवारण हेतु को भी निरुत्साहित करें। किये जाने वाले हर तरह के प्रयास में तन, मन और धन का समर्पण करने को सदैव तत्पर रहे । 5. राजस्थान पशु एवं पक्षी निषेध अधिनियम संस्था 21 सन् 1975 ( राजस्थान राज्य पत्र 24 अप्रेल 1975) के तहत सार्वजनिक धार्मिक स्थानों पर बलि करना निषिद्ध है । इस नियम का उल्लंघन करने वाले अपराधी के लिए 3 मास तक की कैद अथवा 500/रु० जुर्माना का प्रावधान है। अपने अपने क्षेत्र में इस कानून का दृढ़तापूर्वक पालन करायें । 6. मुंह के स्वाद मात्र के लिए सुधरों को जिन्दा अग्नि में भून डालने जैसे अमानवीय कृत्यों को रोकने के लिये जनमानस तैयार करें व ऐसे प्रयासों में योगदान करें । 7. आवश्यकता होने पर श्राप स्वयं शुद्ध शाकाहारी होटल की सामग्री का ही प्रयोग करें। इससे शाकाहार को प्रोत्साहन मिलेगा । 8. विदेशी प्रवास में इस सम्बन्ध में अधिक जागरूक रहे तथा भारतीय संस्कृति के गौरव को कायम रखने में मददगार बनें । 9. विदेशों से पाये हुए मेहमानों के लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन के उपयोग को परम्परा बनावें और इस प्रकार माँसाहार को निरूत्साहित करें। 11. राजस्थान राज्य शोप एण्ड अस्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत सप्ताह में एक दिन अन्य दुकानों की तरह मांस विक्री की दुकाने भी बन्द रखी जाने के नियम का दृढ़ता से पालन करायें । माँसाहार पर प्रबुद्ध वर्ग की सम्मतियां मांसाहार से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। डा. टाल्वाट मांसाहार से धमनियां मोटी हो जाती है, बहुमूत्र तथा गुर्दे की बीमारियां हो जाती है। मिशिगन वि. वि. के. प्रो. न्युवर्ग उपान्ना-प्रदाह मांसाहारियों में मिलता है । मासांहार से प्रामाशय और पक्वाश के व्रण भी अधिक होते हैं, ये ही भागे चलकर केन्सर के हेतु बन जाते हैं। 1/38 - डा. त्रिलोकीनाथ यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में मांसाहार भोजन करना सर्वथा वर्जनीय करना होगा। मोरिस. सी. कोपली - - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भूख से नहीं मरेंगे । लाशों को खासना भोजन या बलि के लिए पशु-संहार मनैतिक कितना अनावश्यक व मूर्खतापूर्ण हैं। 70 वर्ष कर्म है। से भी अधिक शाकाहारी रहने के विषय में मुझे - कन्फ्यूशियस कुछ भी नहीं कहना है । परिणाम लोंगों के सामने हैं। मांसाहारी मानव, परतछ राक्षस अंग। तिनकी संगति मत करो,परत भजन में भंग ।। -- जार्ज बर्नार्डशा - संत कबीर शारिरिक, बौद्धिक तथा प्राध्यात्मिक शक्तियों का सम्पूर्ण विकास केवल उसी व्यक्ति का हो मेरे लिए कितने सुख की बात होती, यदि सकता है जो मांस और रक्त से निर्मित वस्तुओं __ मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी लोम का सेवन न करें। मेरे शरीर को खाकर संतुष्ट हो जाते ताकि वे फिर दूसरों को मार कर नहीं खाते। . -राल्फ वालगे ट्राइन - सम्राट छकबर (माइने अकबरी) मांस अथवा उससे निर्मित किसी भी प्राहार में ऐसे कोई भी पोषक तत्व नहीं पाये जाते जो सभी प्राणी चाहें वे मनुष्य हों, पशु हों, बन्धु शाकाहारी भोजन अथवा वनस्पतियों में विद्यमान बान्धवों की भांति और सनातन धर्म विधि के न हो। प्रसंग में प्रांतरिक रूप से जुड़े हैं जैसे एक व्यक्ति अपने सम्बन्धी का मांस नही खायेगा उसी तरह - डा. एच. कलौग मांसाहार से भी परहेज किया जाना चाहिये । यदि दुनियां से युओं को मिटाना है तो मांसा - दलाईलामा लंकावतार हार को मिटाना होगा। शिवमस्तु सर्व जगतः परहित निरता भवतु गणाः - डा. राजेन्द्र प्रसाद दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखी भवंतु लोकाः विभिन्न धर्म क्या उपदेश देते हैं ? ईश्वर ने मनुष्य के लिए विभिन्न खाद्य पदार्थ किसी भी प्राणी को पीड़ा मत दो। उपलब्ध किये हैं मगर अज्ञानता व लालचवश वह - यजुर्वेद जीवित प्राणियों का विनाश करता है। जब हम किसी को जीवन दे नहीं सकते, हमें -सूफी किसी का जीवन छीनने का अधिकार नहीं होता। मैं बलि और रक्त के त्योहार बन्द करने - मनुस्मृति पाया हूं और यदि तुम मांस का उपहार और मांसाहार बन्द नहीं करते हो तो तुम्हारे प्रति वह स्वार्थी है जो यज्ञों अथवा और किसी ईश्वर का क्रोध भी कम नहीं होगा। किसी प्राणी कारण से मांस भक्षण का लोलुप होकर पशुओं की हत्या न करो। का संहार करता है। - जीसस -महा भारत 1/39 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक कारणों से धर्मावलम्बियों के लिए मांस मसाय है, जो प्रत्येक प्राणि को अपनी ही तरह मानते हैं वे मांस कैसे खा सकते हैं, जो पशुओं को मार कर प्राप्त किया जाता है । महात्मा बुद्ध शव अस्पर्शनीय है, वह मनुष्य श्रौर पदार्थ को अपवित्र करता है इसे अग्नि के समीप लाना पाप । कसाई घर पाप की प्राकर्षक शक्ति का केन्द्र है। जिस मनुष्य के हाथ निर्दोष प्राणी के खून से रंगे हों उसे ईश्वर की प्रार्थना कर दया प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं । जोरास्टर पारसी उनसे परमात्मा कभी प्रसन्न नहीं रहता जो जीव हत्या करते हैं । -- गुरु गोविन्दसिंह बिना दया के बड़ा संत भी कसाई के समान होता है। सिख गुरु पूर्ण शाकाहारी रहे हैं । सतगुरु हरीसिंह जो व्यक्ति मांस मछली और शराब का सेवन करते हैं, उनके जप, तप, धर्म, कर्म सब नष्ट हो जाते हैं। गुरुनानक सिख धर्म खुदा के सभी प्राणी एक परिवार है। अल्लाह के पास इस बलि का न सुन ही पहुंचता है न मांस ही, बल्कि वही पहुंचता है जो आपके पास शुद्ध है, पवित्र है । 1/40 मोहम्मद साहब इस्लाम - जोरावर भवन, जौहरी बाजार, जयपुर - 3 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक चारित्र के अपरिवर्तनीय आयाम प्रस्तुत लेख में जानेमाने विद्वान लेखक ने नैतिकता का अपरिवर्तनीय आयाम वस्तु के स्वरूप में देखा है । वस्तु स्वरूप नहीं बदलता तो नैतिकता का मूलाधार भी कभी बदल नहीं सकता, न इतिहास में कभी बदला है । बाह्याचार कदाचित् बदलता रहा है । इस परिवर्तनीय आयाम की भी लेखक ने विस्तार से चर्चा की है । यह श्रायाम युगानुसार ही होना चाहिए और इसका आदर्श समय-समय पर तीर्थंकर, समर्थं प्राचार्य, प्रबुद्ध शासक करते रहते हैं । दोनों प्रायामों के प्रति समुचित न्याय ही नैतिकता को और धर्म को जीवित रखते हैं । -सम्पादक किसी वस्तु का परानपेक्ष निजी 'स्व-स्वाभाव' ही उस वस्तु का धर्म होता है । श्रात्मा या जीवात्मा भी एक वस्तु है, तत् पदार्थ है, अतएवं उसके निजी शाश्वत गुरग ही उसके स्व-भाव या धर्म हैं । अतएवं उसके शाश्वत गुण ही उसके स्वभाव या धर्म हैं। मनुष्य जीवात्मा का ही एक, किन्तु अनेक दृष्टियों से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप या पर्याय है, अतः मनुष्य का वास्तविक धर्म या सहज स्वभाव मनुष्यत्व या मानवता है । जिनवाणी के अनुसार परमार्थ से चारित्र ही धर्म है, और चारित्र से तात्पर्य है समत्वभाव - आत्मा के मोह-ओोभविहीन अपने सहज परिणाम या भाव का। मोह, राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान माया, लोभ श्रादि विविध आत्मिक विकारों से रहित मनुष्यात्मा की जो आकुलता व्याकुलता विहीन, परानपेक्ष, सहज शान्त परिणति या दशा है, वही उनका समभाव विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन है, धर्म है, चारित्र या चरित्र है । यह अन्तरंग की चीज है । इसी अन्तरंग चरित्र की जब व्यक्ति के मन वचन काय की क्रियाओं द्वारा अभिव्यक्ति होती है तो वही उसका बाह्य चारित्र, प्राचरण या शील कहलाता है । इसी के आधार पर व्यक्ति विशेष सच्चरित्र, सदाचारी या चारित्रवान कहलाता है । और यदि वह अपने स्वभाव से च्युत होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों से ग्रस्त होता है तो उसका बाह्य प्राचरण भी उन्हीं के रंग के रंग जाता है, और वह व्यक्ति दुश्चरित्र दुराचारी या चरित्रहीन कहलाता है । उक्त सम्यक् या सुचारित्र की पहली शर्त है वस्तुतत्व तथा जीवन के प्रति समीचीन दृष्टि प्राप्त करना, और ऐसी सम्मग्दृष्टि तभी प्राप्त होती है जब व्यक्ति वस्तुस्वरूप को, स्वयं अपने आपको तथा इतर पदार्थों को यथार्थ रूप में यथोचित जान समझ लिया है, हृदयंगम कर लिया है । इस 1/41 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार सम्यग्ज्ञान एवं विवेक युक्त समीचीन दृष्टि बाला व्यक्ति ही समत्व की साधना कर सकता हैअपने सहज शान्त स्वभाव में स्थिर रहने में सतत - प्रयत्नशील रह सकता है । व्यक्ति का बाह्याचार या चारित्र भी सम्यक् ही होगा । एक बात और है आत्मस्वभाव, अन्तरंग चारित्र या मनुष्यत्व के भी जो मान हैं वे अपरिवर्तनीय, शाश्वत एवं सर्वव्यापी हैं । उनकी साधना और विकास एकान्त में मनन-चिन्तन, मनोनिग्रह, मनोनुशासन आदि स्वकीय अध्यवसाय से फलित होते हैं, किन्तु बाह्यचारित्र, सदाचरण, शील, या सामान्यतया चारित्र ( करेक्टर) दुनिया के संघर्षमय जीवन में, अन्य व्यक्तियों के साथ सम्पर्क एवं आदान प्रदान में प्रस्फुटित एवं चारितार्थ होता है । अन्य जड़ एवं चेतन पदार्थों के प्रति उसका क्या कैसा रुख रहता है, अपने परिवार के सदस्यों के साथ पड़ोसियों के साथ, समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ, राष्ट्र के अन्य नागरिकों के साथ मानव मात्र तथा मानवेतर अन्य प्राणियों के प्रति उसका क्या और कैसा व्यवहार होता है, प्रार्थिक व्यवसायिक सामाजिक राजनीतिक आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ उसका क्या और कैसा व्यवहार रहता है, इन सब तथ्यों के आधार पर ही व्यक्ति के चरित्र का मूल्यांकन होता है । उक्त बाह्याचरण के लोक सम्मत नियमों एवं मर्यादाओं के पालन में ही नैतिकता निहित हैं । जो नियम एवं मर्यादाएं स्वभाव या धर्मसम्मत होती हैं उन्हें ही समाज का प्रबुद्धवर्ग नैतिकता के नाम से स्वीकार कर लेता है और प्रचारित करता है । प्राय: पूरे समाज की स्वकृति प्राप्त होने पर उक्त नैतिक मूल्यों के जनसाधारण द्वारा अनुपालन में समाज भय या लोक भय भी कार्यकारी होता है । जो अन्तरंग चारित्र से अनुप्राणित नहीं है, उन्हें भी इस प्रकार के भय सदाचरण अथवा नैतिकता में मर्यादित रहने के लिए प्रेरित या कभी-कभी बाध्य भी करते हैं। समाज सम्मत नैतिक मूल्यों को राज्य भी अपने विधि विधान द्वारा करणीय बना देता है और उनका उल्लंघन करने वालों के लिए दंड का विधान करता है । बहुधा समाजभय से अधिक राजमय कार्य कारी होता | किन्तु जो धर्मभीरु होते हैं, जिनकी धर्म में आस्था और विश्वास होता है, जो पुण्य पाप का विवेक जानते हैं, वे उक्त धर्म भय, ईश्वरभय, परलोकभय या पाप भय के कारण ही दुष्कर्मों एवं अनैतिक आचरणों से विरत रहते हैं—जन सामान्य में ऐसे व्यक्तियों की अधिक संख्या होती है । इस प्रकार जबकि आत्मधर्म, अन्तरंग चरित्र समदृष्टि या मनुष्यत्व बाह्य प्राचरण शील या चरित्र का आधार है, नैतिक नियम या नैतिकता उक्त लोक सम्मत आचार-विचार से प्रसूत हैं । किन्तु जबकि अन्तरंग चारित्र के मूल्य शाश्वत एवं परविर्तनीय होते हैं, बाह्याचार-विचार के मूल्यों या मान अनेक अंशों में द्रव्य-क्षत्र-काल-भाव के अनुसार अथवा व्यक्ति, समाज, देश, काल, परिवेश एवं परिस्थितियों के अनुसार बहुधातंशोधित-परिवर्तित भी होते रहते है, और तदनुसार नैतिक मूल्य भी कथंचित बदलते रहते हैं । यही कारण है कि चारित्र एवं नैतिकता के प्रायाम विभिन्न युगों तथा विभिन्न देशों या समाजों में अथवा कभी-कभी एक ही काल और समाजवर्ती जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी सर्वथा एक से नहीं रहे, सदैव अल्पधिक अन्तर होते रहे और होने वाले अन्तर या परिवर्तन कभी हितकारी भी हुए तो कभी महितकर भी । उदारहरणार्थ, जब सुदूर का अत्यन्त सरल प्रकृत्याश्रत 1/42 अतीत में भोग भूमि जीवन था तो किसी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते पर राज्य व्यवस्था, शासन या दंड विधान की प्राव- लिए बंध जाती थी। बहधा उसर्क श्यकता नहीं थी । बहुत हुआ तो 'हा' 'मा' "धिक' उसके साथ सती हो जाती थी और यह नैतिक जैसे शब्दों से काम चलता था। जब प्रादि देव था। प्राज सती दाह दण्डनीय है। विवाहऋषभनाथ ने कर्म प्रधान मानवी सभ्यता का उँ विच्छेद अनैतिक नहीं है। विधवा विवाह भी नमः किया तब भी लोग इतने सरल परिणामी विधुरविवाह की भांति ही अनैतिक नही माना एवं मन्दकषायी थे कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जाता। दहेज प्रथा पूर्व काल में नैतिकता की प्रादर्श व्यवस्थाएं पनपी। किन्तु काल की गति के परिधि में थी, किन्तु उसने प्राज जो रुप लेलिया साथ साथ मानव के स्वभाव में विविध कषायों का, है उसे नैतिक स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभावों का, राग द्वेश मद मात्सर्य, इच्छाओं सामन्तवादी युग के अनेक प्राचार विचार आज अाकांक्षानों, कामनाओं, वासनाओं आदि का अनैतिक हो गए हैं। विदेशियों के शासन काल में प्राबल्य होता गया। फलतः द्वन्द्व एवं संघर्ष बढ़ते पराधीन भारतीयों के जो नैतिक मूल्य थे स्वतन्त्र गए और मनुष्य बहुधा मनुष्यत्व के प्रादर्श अल्प- भारत में उनमें अनेक बदल गए हैं। साथ ही, अधिक भ्रष्ट होता रहा। अजितादि महावीर विभिन्न क्षेत्रों में जो अनैतिकता एवं चारित्रिक तेईस तीर्थंकर प्रभुओं ने अपने अपने युग की आव- शिथिलता या चारित्रहीनता द्रुत वेग से घर करती श्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार जा रही है । वह चिंतनीय है। समयोचित सुधार या प्राचार-विचार के नियमों में संशोधन परिवर्तन न होने से समाज और पतनोन्मख ही होते जायेगा। किये। महावीरोपरान्त काल में अनेक स्व-पर . उपकारी दिग्गज प्राचार्यों ने समाज का मार्ग दर्शन एक चिन्तक ने कहा था कि हमें आज नैतिक किया और नैतिक मूल्यों के विषय में समयानुसार महामानवों और भौतिकताग्रस्त बौनों की जरुरत व्यवस्थाएं दी हैं। प्रबुद्ध सामाजिक नेताओं ने भी है, जबकि जिधर देखो भौतिकताग्रस्त दानवों की इस प्रक्रिया में योगदान दिया । और किसी भी बाढ़ है और नैतिकतापूर्ण बौने भी विरल ही दीख प्रगतिशील समाज के लिए यह प्रक्रिया सतत पड़ते हैं। वस्तुतः चरित्र एवं नैतिकता का चलती रहने वाली है, क्योंकि कोई प्रथा यदि सौ मूलाधार धर्म भाव है। जबकि नैतिकता विहीन या दो सौ वर्ष पूर्व नैतिक मान्य की जाती थी धर्म एक आडम्बर, ढोंग, पाखण्ड या अन्धविश्वास तो यह आवश्यक नहीं कि वह आज भी उतनी ही मात्र बनकर रह जाता है। धर्म विहीन नैतिकता नैतिक मान्य की जाय। किसी समय दास-दासी भी निराधार, अस्थिर ढुलमुल और व्यर्थ होकर प्रथा प्रचलित थी, अन्य जड़ सम्पत्ति की भांति रह जाती है। धर्म और नैतिकता का अटट क्रीत दास-दासी भी परिग्रह में सम्मिलित किए गठबन्धन है-एक के बिना दसरे का अस्तित्व जाते थे, किन्तु आज यह प्रथा सर्वथा अनैतिक है। नहीं और कहीं हो भी तो वह निरर्थक रहता है। किसी समय बहपत्नी वाद का इतना प्राबल्य था साथ ही, धर्म के क्षेत्र में सर्वाधिक आवश्यकता कि पुरुष दर्जनों नहीं, सैकड़ों विवाहित पत्नियां विवेक की है, विवेक शून्य धर्म धर्म नहीं होता। रख सकता था और नैतिक बना रह सकता था। चारित्रिक एवं नैतिक मूल्यों के परीक्षण एवं अाज एक समय में एक पत्नि अथवा एक पति से स्वीकरण या अस्वीकरण में विवेक ही सबसे बड़ी अधिक होना अनैतिक ही नहीं, राज्य द्वारा कसौटी है। किन परिस्थितियों में क्या कारणीय दण्डनीय अपराध भी है । किसी समय एक स्त्री है, क्या प्रकरणीय है, क्या आदेश है और क्या हेय एक पुरुष के साथ विवाह द्वारा जीवन भर के है, इस विषय में सन्तुलित एवं समत्वपूर्ण समीचीन 1/43 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि एवं यथार्थ ज्ञान से अद्भूत विवेक ही मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। और फिर जैसा कुछ हमारा आचरण होता है, व्यवहार होता है, मनौवृत्ति एवं प्रवृत्ति होती है वही हमारे व्यक्तित्व का आधार हमारा चरित्र बनता है । और वह क्योंकि नैतिकतापूर्ण, लोक सम्मत एवं धर्मानुसारी होता हैं, अतएव वही सच्चरित्र हैं । इस चारित्र की व्यक्ति को यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए । धन सम्पत्ति तो प्राती रहती है। धन के नष्ट होने से कोई नष्ट नहीं होता, किन्तु चारित्र के नष्ट होने पर मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है— वृत्त यत्नेन संरक्षेत वित्तमेति च यातिच | क्षीरणो वित्तः क्षीणो, वृत्तस्तु हतो हतः ॥ नीति के महान आचार्य चाणक्य के अनुसार इस दुनिया की समस्त भगदौड़ खींचातान और हातोबा के पीछे जो रहस्य है वह सुख की खोज है । किन्तु - 'सुखस्यमूलं धर्मः धर्मस्य मूलं प्रर्थः अर्थस्य मूलं वाणिज्य : वाणिज्यस्य मूलं स्वराज्यं स्वराज्यस्य मूलं चारित्रम्' । अतः चारित्र ही धन है, चारित्र ही धर्म है, और चारित्र ही परमसुख है । महाभारत के अनुसार भी सदाचार हीं धर्म है, वशिष्ठ स्मृति भी प्रचार को परमधर्म घोषित करती है । जिनवाणी की द्वादशांगी में तो प्रथम अंग प्रचरांग है, और 'चारित्रं खलुधम्मो का उद्घोष किया गया है। उर्दू कवि अकबर भी कहता है अगर आमाल अच्छे हैं तो पाओगे बड़े दरजे । समझ लो इम्तेहां इस दौरे फानी में तुम्हारा है । एक पाश्चात्य चिन्तक के अनुसार मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ रत्न है, और उस रत्न की महत्ता उसकी मानवता में निहित है । सुख की कुंजी यही है कि तुम दूसरों को समझो और उससे पहिले स्वयं अपने आपको समझो। यह श्रात्मनुभूति ही श्रात्मोपम्य और समदशित्व का मूलाधार है। श्रेष्ठ विचार ही श्रेष्ठ जीवन के निर्माता हैं ? प्रस्तु पंचपाद व सप्तव्यसन का त्याग, स्वर्थ त्याग, सेवा भाव, परोपकार, दया, संयम और श्रात्मानुशासन आदि धर्माधारित चारित्र एवं नैतिक मूल्यों की जीने या जीवन में उतारने में ही व्यक्ति एवं समष्टि का कल्याण निहित है। मानव इतिहास के विभिन्न युगों में बाह्य नैतिकता एवं चारित्र के आयाम भले ही कुछ भिन्न रहें हो, उनकी आत्मा व उनके मूलाधार नहीं बदले। जब तक वे नहीं बदलते, मानवता का भविष्य आशापूर्ण बना रहेगा । 1/44 ज्योति निकुंज चार बाग, लखनऊ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त जीवन के स्वामी (विचार मुक्तक) Oराजकिशोर जैन शाश्वत अकार्यकारण निष्क्रिय प्रकाश । संसरण निष्क्रान्त सदानन्द वीतराग परम धीर परम वीर न झुके न रुके महावीर स्वामी स्वामी अपने चैतन्य 'स्व' के ज्ञाता निज के पर 'स्व' जिसमें झलकता किन्तु प्रवेश न पाता किंचित् । पर की छाया पर का प्रभाव बाहर रह जाता जिसको न छूता किंचित् । महावीर स्वामी स्वामी अपने अनन्त जीवन के सतत प्रवाह के परम की ओर। कर्म उदय का स्वामी पुद्गल, अज्ञानी तन्मय होता। भैंस का स्वामी भैंस कर्म का स्वामी अज्ञानी भूत वस्तु वर्नमान भावी परिणमन भासित होता क्रम नियमित सुव्यवस्थित टंकोत्कीर्णवत् प्रतएव ज्ञाता मात्र स्थिर रहते। स्वामी महावीर ध्रुव सहज परिणमन चक्र में भैंसे की भांति सींग लगता, चक्र न रुकता । सींग टूटते बहुत दुःख से व्याकुल होकर चिल्लाता, निर्जन वन का रोना धोना कोई न सुनता। 1/45 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का आह्वान 0 अनूपचन्द न्यायतीर्थ, जयपुर महावीर ! तुम्हारी अंतरात्मा ने तुम्हें ललकारा जब तुम इस वंसुधरा पर आये थे झकझोरा और कहा तुम्हें ध्यान है जगत का क्या हाल था ? कि महलों को छोड़कर जंगल में प्रायो चारों ओर हिंसा का ताण्डव नृत्य रागद्वेष की चिनमारियों से धर्म के नाम पर झुलसते हुये प्राणी को बचासो पशु और नर बलियों का पातंक क्योंकि तुम तो विश्व थाती थे । लूट खसोट का नंमा नांच दूसरे ही क्षण पाखण्डी और ढोंगियों का कमाल था। तुम्हारा विवेक जागृत हुआ रुढ़ि और अंधविश्वास और सम्पूर्ण राज्य वैभव को छोड़ माया ओर प्रपंच का जन परिजन से मुंह मोड़ इतना बोल बाला था। संसार की असारता जान कि दानवता के प्रामे मानव बेहाल था। अपने आपको पहिचान सामाजिक दशा खराव थी राजमहलों से उतरकर जंगल में प्रा गये। धनिक और दीन की खायी तुमने शांति की खोज में ऊँच और नीच का जाति भेद अपने आपको खो दिया नारी का अपमान और शोषण राजकुमार से पूर्ण दिगम्बर बन एक मामूली गत थी। कर्म शत्रुओं को हन भाई भाई में परस्पर वैर सत्य और अहिंसा में समा गये घृणा और द्वेष की भावना महावीर ! चोरी, अन्यायी और मिलावट तुम अद्भुत स्वार्थी निकले उस युग की करामात थी । पहिले अपना कल्याण किया तुम कुंडलपुर के राजकुमार ! संयम और साधना के बल पर सिद्धार्थ के पुत्र ! त्रिशला के नन्दन ! अलौकिक दिव्य ज्ञान को पाया तथा महाराजा श्रेणिक के नाती थे । फिर सम्पूर्ण प्रदेश में बिहार कर 1/46 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्राणी मात्र को उद्बोधन दे विश्व मंत्री का पाठ पढ़ाया । तुम्हें देखकर जाति-विरोधी जीव परस्पर मिल गये हदय कमल खिल गये सम्पूर्ण विश्व में शांति छा गई उपदेशा मृत्त की लहर आ गई " किन्तु आज ! जब कि महावीर तुम्हारा ही शासन चल रहा है सत्य और अहिंसा का दिवाला निकल रहा है क्या करें रक्षक ही भक्षक बनकर हाथ को हाथ खा रहा है । चोरी, विश्वासघात और अनैतिकता मुंह बाये खड़ी है तलवार और बंदूक की नोंक पर चाकू छुरे मौंक कर मच्छरों की तरह मनुष्य मारा जाता है नारी की अस्मत लूटी जाकर बूढ़े और बच्चों को अकारण ही मोत के घाट उतारा जाता है भगवान ! तुम्हारे ही शासन में अनुशासन का नाम नहीं है दिन दहाड़े चोरी, डकैती, लूटमार होती है हिंसा और युद्ध की भड़कती ज्वाला में मानवता रोती है । महावीर ! तुम फिर आगो और इस लोहू लुहान भारत भूमि को स्वर्ण-धाम बनायो । 769-गोदीकों का रास्ता, जयपुर-3 JERROS Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर वंदना डा. शोभनाथ पाठक एम. ए. (हिन्दी संस्कृत) पी. एच. डी., साहित्यरत्न महावीर सन्मति वागी से जन-जन का कल्याण हो, वीर जयन्ती के सम्बल से नवयुग का निर्माण हो। सत्य अहिंसा बने सहारा जग का रूप संवारे, त्रिशलासुत के जन्म ग्रहण से जागे भाग्य हमारे । अष्ट सिद्धि, नव निधि का वैभव, कुण्ड ग्राम में पाया, महाराज सिद्धार्थ प्रफुल्लित, अनुपम सुख उफनाया । सचर अचर सब धन्य हो गये, उमड़ा वैभव सारा, वर्द्धमान इसलिए कहाए, युग के लिए सहारा । धन्य हो गई धरती अपनी महावीर को पाकर, उफन पड़ा मातृत्व अलौकित मां का हृदय जुड़ा कर । आशा के अंकुर में उपजी महावृक्ष की महिमा, अनुपम अद्भुत चमत्कार से निखर पड़ी वह गरिमा। भरी जवानी में जिसने जग का वैभव ठुकराया, त्याग तपस्या के आगे त्रैलोक्य जीव सकुचाया। ज्ञान प्राप्ति से गुरुता उमड़ी, गणधर स्वयं समाये, मानवता के महापुरुष को सबने शीश झुकाये । वीर जयंती पर वंदन है; शत शत बार प्रणाम हैं, पांच व्रतो से विश्व संवारे, यही तथ्य अभिराम है। पाकुल युग, अणुपम से पीड़ित, जिसकी ओर निहारे, आज विश्व को वही उबारे, प्रभुवर पूज्य हमारे । 35 शिमला हिल्स, भोपाल, म. प्र. T 1/486 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश सन्मति ने दिये हैं - 0 हास्य कवि - हजारीलाल 'काका' __ पो. सकरार, जिला झांसी (उ.प्र.) सृष्टि के प्रारम्भ से ही जो उपेक्षित हो जिये हैं, आज उन पर सांत्वना के गीत लिख, क्या कर सकूगा? .. दर्द की सौगात ही जिनको विरासत में मिली है, आश जिनकी वेदनाओं की हिफाजत में पली है, पासूओं का ताज मानव ने सदा जिनको लगाया जिंदगी जिनकी व्यथा के विकट सांचों में ढली है । जिनने जन्म से मृत्यु तक अभिशाप के प्याले पिये हैं, आज उन पर सान्त्वना के गीत लिख, क्या कर सकूगा? जिनके लिये श्री कृष्ण ने गोपाल बन गायें चराई, और नंदी साथ ले महादेव ने धूनी रमाई, कच्छ, मच्छ, वाराह के अवतार, सब से कह रहे हैं पीर जैसी तुम्हें होती समझलो वैसी पराई । खुद जीग्रो जीने दो ये उपदेश सन्मति ने दिये हैं, आज उनपर सान्त्वना के गीत लिख, क्या कर सकूगा? अर्थ लिप्सा में हुआ है आज मानव पूण अंधा, काट करके अब पराई देह का करता है धंधा, कलपती 'काका' कराहें शांति पाने बेबसों की हो गया हैवान या अल्लाह तेरा भक्त बंदा । जिनके लिए तूने धरा पर हर सुलभ साधन किये हैं, आज उनपर सान्त्वना के गीत लिख, क्या कर सकूगा? 1/49 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः जरुरत है इस युग को महावीर सन्देश की! 0 ज्ञानचन्द्र ज्ञानेन्द्र, ढाना (सागर) इस जानी हिंसा डायन ने फिर अपना मुंह खोला सत्य ध्वंश करने असत्य ने दाग दिये हैं. गोला व अचौर्य का चीर चीर डाला है जिन चोरों ने नाच रहा है अनाचार हर गांव गली खोरो में क्रूर जमाखोरों से पीड़ित है मानवता देश की पुनः जरूरत है इस युग को महावीर संदेश की ! सज्जनता हो रही तिरस्कृत पर दुर्जन सम्मान पा रहे धार्मिक, सार्वजनिक संस्थानों .... पर ऐसे ही लोग छा रहे जिसकी लाठी उसकी भैंस का प्राज बना माहोल है न्याय, क्षमा, करूणा विवेक का बेड़ा डांवाडोल है छल, फरेब, तिकड़म से वायु दूषित देश विदेश की पुनः जरूरत है इस युग को महावीर संदेश की! कूकर, सूकर, बकरा, मुर्गी भोजन बन गई मछलियां त्राहि त्राहि करुणा क्रन्दन से गूज रही है गलियां चोरी, झूठ, बलात्कार भीषरण विष घोल रहा है नीति अनीति धरम अधरम का एक ही मोल रहा है आवश्यक है'जीयो और जीने दो के संदेश की! पुनः जरूरत है इस युग को महावीर संदेश की! मदिरालय आबाद हो रहे। देवालय सुनसान पड़े हैं हाउस फुल टाकीजें फिर भी डान्स देखने अड़े खड़े हैं भूखों नंगों पर एयर कन्डीशन में खोजे जाते हल परिभाषायें बदल गई है मूत्र हो गया है जीवन जल भक्षक ने ही खाल प्रोढ ली है रक्षक के वेश की पुनः जरुरत है इस युग को महावीर सन्देश की! 1/50 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान आत्मा का गुण 2 सुश्री राजकुमारी जैन, शोध छात्रा विश्व का प्रत्येक पदार्थ ध्र व होते हुए भी प्रात्मा और ज्ञान द्रवणशील है, इसलिए उसे द्रव्य कहते है । द्रव्य की ध्रुवता उसका अपना निश्चित कालिक ___ आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, द्रव्यत्व, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनन्त गुणों का अखण्ड स्वरूप है । वह अपने निश्चित गुरगों का अखण्ड पिण्ड है । एक आत्मा के गुणों में संख्या,संज्ञा,लक्षण पिण्ड है । कुछ दार्शनिक जैसे नैयायिक तथा लॉक और प्रयोजन की अपेक्षा भेद होते हुए भी प्रदेशाद्रव्य का गुरणों का प्राश्रय तथा द्रव्य और गण त्मक तादात्म्य है। इसके सभी गुण समान प्रदेशों को भिन्न-भिन्न मानते हैं। जैन दार्शनिक कहते हैं कि गुण से भिन्न द्रव्य की सत्ता किसी भी प्रमाण में रह रहे हैं तथा कभी पृथक पृथक नहीं किये जा सकते। उनमें से किसी भी गुण का प्रभाव से सिद्ध नही होती। द्रव्य अपने निश्चित गुणों मानना द्रव्य का ही प्रभाव मानना है । की अखण्ड एकता के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।। गुण वह है जो द्रव्य के सम्पूर्ण प्रदेशों तथा उसकी __ ज्ञान प्रात्मा का असाधारण गुण है । कुन्दसभी अवस्थाओं में समान रूप से व्याप्त हो। कुन्दाचार्य कहते हैं :कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं : णाणं अप्प ति मदं वट्टदि गाणं विणा ण अप्पारणं तम्हा गाणं अप्पा अप्पा गाणं व अण्णं वा ।। 27 अत्थो खलु दवाणो दव्वाणिगुणप्पगाणि । तेहि पुरणो पज्जाया पज्जयमूड़ा हि पर समया ।। प्रवचन सार ज्ञान ही प्रात्मा है क्योंकि ज्ञान बिना आत्मा नहीं प्रवचनसार होती तथा प्रात्मा ज्ञान गुण के कारण ज्ञान रूप भावार्थ-पदार्थ द्रव्य स्वरूप है। द्रव्य गुणात्मक भी है तथा अन्य गुणों के कारण अन्य रूप भी है। कहे गये हैं तथा द्रव्य और गणों से पर्यायें होती हैं। ... विश्व का प्रत्येक द्रव्य अपने निश्चित गुणों के चार्वाक ज्ञान की उत्पत्ति के लिए किसी कारण अपने स्वरूप को नहीं छोडते हए तथा अन्य चेतन प्रात्मा की सत्ता स्वीकार नहीं करते । वे सभी सजातीय तथा विजातीय पदार्थों से प्रसंकर __कहते हैं कि जिस प्रकार किण्व प्रादि (मादक रहते हुए निरन्तर परिणमन कर रहा है । गुण ऐसे ___ द्रव्यों) से मादक शक्ति उत्पन्न होती है अथवा पान, चूने, कत्थे आदि के संयोग से लाल रंग सामान्य तत्व हैं जो उस द्रव्य की प्रत्येक पर्याय में पाये जाते हैं तथा उनका कभी अभाव नहीं होता। उत्पन्न होता है। उसी प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के शरीर रूप से विशिष्ट संयोग होने पर उसमें चेतना की उत्पत्ति होती है । 1. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा पृ० 173 2. न्याय दीपिका 3/678 3. सर्व दर्शन संग्रह पृ० 4-5 1/54 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिक ज्ञान को भौतिक द्रव्यो विजातीय पदार्थों में कभी उपादान उपादेय नहीं मानते लेकिन वे प्रात्मा को स्वरूपतः निर्गुण भाव नहीं हो सकता। अचेतन और चेतन विरूद्ध मानते हैं। उनके अनुसार इन्द्रिय और मन के जातीय हैं। इसलिए कितने ही अचेतन पदार्थ प्रात्मा से संयुक्त होने पर उसमें ज्ञान की उत्पत्ति मिल जाये उनसे चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती। होती है तथा इस संयोग के अभाव में प्रात्मा अचे- चेतना या ज्ञान की उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती ज्ञान पर्याय तन होती है। गहन निद्रा तथा मूविस्था इसका युक्त द्रव्य से ही हो सकती है। चार्वाक ने अपने उदाहरण है। रत की सिद्धि हेतु जो दृष्टान्त दिये हैं वे भी उपादान उपादेय की सजातीयता को ही सिद्ध जैनाचार्य कहते हैं कि प्रत्येक कार्य के घटित करते हैं। प्रथम दृष्टान्त में कार्य रूप मादकता करने होने के लिए दो प्रकार के कारण प्रावश्यक हैं - अपने उपादान कारण में स्थित रस गण की ही उपादान कारण और सहकारी कारण उपादान एक अवस्था है तथा द्वितीय उदाहरण में लाल रंग कारण वह है जो स्वयं कार्य रूप में परिणत की उत्पत्ति अन्य रंगों से ही हुई है। दोनों पुद्गल होता है। पूर्वक्षणवर्ती पर्याय युक्त द्रव्य ही के ही गुण है । उत्तरक्षणवर्ती पर्याय का उपादान कारण होता हैं । सहकारी या निमित्त कारण उपादान कारण कारण और कार्य में भेदाभेद सम्बन्ध होता है । को कार्य रूप में परिणत होने के लिए अनुकूल इनमें द्रव्य दृष्टि से अभेद तथा पर्याय दृष्टि से भेद होता परिस्थितियां निमित्त करता है। है। एक ही द्रव्य की पूर्वापर पर्यायों में कारण कार्य __ सम्बन्ध होता है। इन पर्यायों का स्वभाव एक है अपने कारण में पूर्ण रूपेण असत् कार्य की इसलिए ये अभिन्न हैं तथा ये उस एक स्वभाव की कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती, अपितु सदैव कारण दो क्रमिक अभिव्यक्तियां हैं इसलिए भिन्न भिन्न हैं । में द्रव्य दृष्टि से सत् तथा पर्याय दृष्टि से असत् उदाहरण के लिए एक स्वर्ण द्रव्य की हार, कुण्डल कार्य की उत्पत्ति होती है। यदि पूर्णरूपेण असत् कार्य की ही उत्पत्ति हो सकती तो कारण विशेष में कंगन आदि क्रमिक पर्यायें हारादि अवस्थानों की दृष्टि से भिन्न होते हुए भी स्वर्ण को दृष्टि से सभी कार्यों की प्रसत्ता तथा सभी कारणों में कार्य विशेष की असत्ता समान है अतः किसी भी कारण एक ही हैं। से किसी भी कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिये थी। प्रतिनियत कार्य प्रतिनियत कारण से ही क्यों कारण कार्य सम्बन्ध एक सुनिश्चित और अनिवार्य सम्बन्ध है। समर्थ कारण से कार्य की उत्पन्न होता है ? नैयायिकों के मत में ज्ञान का आत्मा में उसी तरह पूर्ण प्रभाव है जिस प्रकार उत्पत्ति अवश्यमेव होती है। द्रव्य की पूर्ववर्ती पर्याय अव्यवहित परवर्ती पर्याय का समर्थ कारण आकाशादि अन्न द्रव्यों में है तथा इन्द्रिय और मन का संयोग प्रात्मा के साथ ही साथ अन्य सभी है और उसे अवश्यमेव उत्पन्न करती है । यह शृखला व्यापक द्रव्यों से भी है । अतः या तो ज्ञान सभी में अनादि अनन्त है। इस उत्पति विनाश में न तो द्रव्य उत्पन्न होना चाहिये या किसी में भी उत्पन्न नहीं का कोई गुण नष्ट होता है और न ही कोई नवीन होना चाहिये । गुण उत्पन्न होता है क्योंकि कारण अपने अनुरूप कार्य को ही उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है और उसे अवश्यमेव उत्पन्न करता है। इसलिए कुन्द4. अष्ट सहस्त्री (हिन्दी अनुवाद)-1/4/284 कुन्दाचार्य कहते हैं : 1152 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावस्स पत्थि नासो पत्थि प्रभावस्स चेव उप्पादो की विचारधारा प्रादि कई बातों को विशुद्ध रूप गुणपज्जयेसु भावा उत्पादवए पकुव्वंति ॥ 15 ।। से जान जाता है। जैन दार्शनिक कहते हैं कि पंचास्ति काय संग्रह इस वैविध्य का कारण उनकी अपनी प्रात्मगत अर्थ-भाव का नाश नहीं होता तथा अभाव की ज्ञान योग्यता है। जैसे-जैसे उनके ज्ञानावरणीय कर्मों उत्पत्ति नही होती । गुण पर्याय रूप भाव वा द्रव्य की हानि बढ़ती चली जाएगी वैसे वैसे ज्ञान की निरन्तर उत्पाद व्यय करते रहते हैं। सूक्ष्म अर्थों में प्रवृत्ति भी बढ़ती चली जायेगी' . ज्ञान प्रात्मा का गुण है। प्रात्मा निरन्तर तथा इनका पूर्ण क्षय होने पर सभी द्रव्यों की पूर्व ज्ञान पर्याय की छोड़ती हुई उत्तर ज्ञान पर्याय त्रैकालिक पर्यायें युगपत् प्रत्यक्ष होने लगेंगी। धारण कर रही है पर वह कभी ज्ञान रहित नहीं मति आदि ज्ञानों का कहीं प्रत्यक्षीभूत ढ़ेर हो सकती। गहन निद्रा तथा सुप्तावस्था में भी नहीं लगा है जिनको ढंक देने से मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किन्तु मत्यावरण प्रादि के संक्लेश अथवा शांत परिणाम उसके ज्ञान के विषय उदय से प्रात्मा में मति ज्ञान रूप पर्याय उत्पन्न रहते हैं। नहीं होती इसलिये इन्हें प्रावरण संज्ञा दी गयी ___ज्ञान प्रात्मा का स्वभाव है। जिस प्रकार है।........ावरण के उदय से प्रात्मा में ज्ञान अग्नि दहन स्वभाव युक्त होनेके कारण प्रतिबन्धकों सामर्थ्य लुप्त हो जाती है। वह स्मृति शून्य तथा के अभाव में सभी वाह्य पदार्थों को जलाती है धर्म श्रवण के प्रति निरुत्सुक हो जाता है। 8 उसी प्रकार प्रतिबन्धकों के अभाव में प्रात्मा सभी संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार शेष पदार्थों को जानता है। ज्ञान की उत्पत्ति में __ अाकाश के स्वच्छ होने पर सूर्य पृथ्वी के सभी विप्रकर्ष और प्रत्यासत्ति बाधक नहीं है, क्योंकि पदार्थों को, जो उसके समक्ष पाते हैं, प्रकाशित इनका परोक्ष ज्ञान होता है। अतः ये प्रत्यक्ष ज्ञान करता है उसी प्रकार प्रात्मा भी शुद्ध अवस्था के विषय भी हो सकते हैं और होते हैं; तथा में होने पर सभी ज्ञेय पदार्थों को जानती है । जिस इन्द्रियां और पदार्थ ज्ञान के कारण नहीं हैं क्योंकि प्रकार सर्य के प्रकाश के मार्ग में सघनतम बादलों इनका ज्ञान के साथ अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं का अवरोध होने पर भी रात जैसा अंधेरा नहीं है। सुप्तावस्था और स्वप्न तथा भ्रम इसके । हो सकता कुछ न कुछ मात्रा में तो प्रकाश अवश्य उदाहरण हैं। ही रहेगा उसी प्रकार आत्मा की अशुद्धतम - प्रश्न उठता है कि जब ज्ञान प्रात्मा का । अवस्था में भी पूर्ण ज्ञानाभाव नहीं हो सकता। स्वभाव है तो उसके समक्ष बहुत से पदार्थ अज्ञात ज्ञान का अन्यतम अंश सदैव अनावृत रहता है। रहते हैं तथा विभिन्न व्यक्तियों के ज्ञान में जमीन ज्ञान के विषय बदलते रहने पर भी प्रात्मा कभी प्रासमान का अन्तर क्यों पाया जाता है ? एक ज्ञान रहित नहीं होती। इसलिये ज्ञान प्रात्मा का व्यक्ति एक श्लोक को सुनकर उसके शब्दार्थ तक । गुण है। ही पहुंच पाता है जबकि दूसरा उसके भावार्थ, उससे निगमित होने वाले सिद्धान्तों तथा श्लोककार 7. क्षायोपशमिक ज्ञान प्रकर्ष परमं ब्रजेत । सूक्ष्म प्रकर्षमाणत्वादर्थे तादिदमीरितम ।।5।। 5. विप्रकर्प - सूक्ष्म, 6. प्रत्यासत्ति-दसा प्रतीत अनागत पदार्थों की 8. तत्वार्थ श्लोक वार्तिक 4/1/28/68 काल प्रत्यासति तथा सदूरवर्ती पदार्थों की देश बिल्टीवाला भवन प्रत्या-सत्रि है। अजबघर का रास्ता, जयपुर 1/53 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौर्य (अस्य) व्रत आधुनिक सन्दर्भ में लेखक ने साहस एवं धैर्य बटोर कर अचौर्य व्रत को जीवन में उतारने की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। आज के ऊँचे जीवन स्तर की चर्चा, प्रदर्शन और प्रदर्शन के वातावरण में जहां व्यक्ति का लोभ सामाजिक, धार्मिक और कानून की मर्यादायें तोड़ रहा है, लेखक की अचौर्य की चर्चा अरण्य रोदन से अधिक अर्थ नहीं रखेगी यह जानते हुए भी लेख हम प्रकाशित कर रहे हैं क्योंकि जीवो और जीने दो का महावीर का नारा बिना अचौर्य के सार्थक नहीं हो सकता -सम्पादक । अचौर्य, चौर्य या चोरी शब्द का प्रतिकारी है । वर्तमान में चोरी की व्यधि से व्याक्ति ही नहीं किन्तु समाज एवं राष्ट्र व्यापक रूप से प्रभावित एवं पीड़ित है । वर्तमान में चोरी का कृत्य सभ्यता एवं आधुनिकता का प्रतीक तथा जीवन का सर्वव्यापी अंग बन गया है । भ्रष्टाचार, चोर बाजारी, मिलावट कर वंचन, शोषण एवं काले धन की समस्याओं से राष्ट्र के समान्य जन जीवन की गति ठित हो रही है । आर्थिक ढांचा चरमरा रहा है, उसकी धुरी कब और कहां टूट जाये कुछ कल्पना नहीं की जा सकती । श्रात्मिक शुद्धता का लक्ष्य तो दूर रहा सामान्य नैतिकता एवं सोजन्य पूर्ण ध्यवहार से हम कोसों दूर भटक गये हैं । DO डा० राजेन्द्रकुमार बंसल कार्मिक अधिकारी हुआ करती थी । सार्वजनिक उपयोग से सम्बन्धित सम्पत्ति जो कि समूह के हितों को प्रभावित करती थी, के प्रति व्यक्तियों का दृष्टिकोण पवित्र रहता था । इसी प्रकार साहित्य, कला, विचार एवं संस्कृति आदि का क्षेत्र चोरी के प्रभाव से अछूता था । किन्तु अब ज्यों-ज्यों आधुनिक सभ्यता का विस्तार एवं प्रसार हो रहा है और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का बोलबाला होता जा रहा है। सार्वजनिक सम्पत्ति कला, साहित्य एवं संस्कृति की चोरी व्यापक रूप से बिना किसी संकोच के की जाने लगी है जिसके दुष्परिणाम अब हमारे समक्ष आ चुके हैं। चोरी आधुनिक जगत की एक प्रमुख समस्या है । इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं जो चोरी के भाव एवं कृत्य से प्रभावित नहीं हुआ हो। पहले चोरी व्यक्तिगत धन सम्पत्ति आदि मूत्तं एवं भौतिक वस्तुओं की ही 1/54 "जीवन की आवश्यकतएं बिना चोरी एवं बेईमानी के पूर्ण नहीं सो सकती" यह कथन प्रायः सुनने में आता है । उद्योग, व्यापार, व्यक्तिगत पेशा या नौकरी प्रादि प्रथपार्जन के समस्त साधन चोरी के पर्यायवाची बन गये हैं। जो जहां कार्यरत है किसी न किसी प्रकार ऐसे साधन खोजने में Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यस्त रहता है जिससे दूसरे के स्वामित्व या भावना जो राग-द्वेष-मोह के सद्भाव में होती है, अधिकार की धनसम्पत्ति उसे प्राप्त हो जावे। दूसरा किसी का वस्तु के प्रति स्वामित्वाधिकार होना अधिकारों के दुरुपयोग, अनुपयोग, न्यून उपयोग या तथा तीसरा प्रदत्त बिना स्वीकृति के वस्तु को अधिक उपयोग आदि के द्वारा धन संग्रह किया जा ग्रहण करने की भावना विचार एवं तदनुसार कार्य रहा है। व्यापारिक निष्ठा एवं ईमानदारी कपूर करना। चोरी के कार्य में इन तीनों तत्वों का बनकर उड़ गयी है। 'जीवन एवं चोरी' दोनो विद्यमान होना बहुत आवश्यक है। हवा पानी 'चोली-दामन जैसे सहगामी हो गये हैं। राष्ट्रीय, जैसी सार्वजनिक उपयोग की वस्तुएं जो किसी के धार्मिक एवं सामाजि गतिविधियां चोरी की स्वामित्वाधिकार के अन्तर्गत नहीं आती हैं उनका व्यापकता के जाल में फंसकर चीत्कार कर रही हैं। बिना स्वीकृति प्राप्त किये उपयोग या ग्रहण करना चोरीकी सर्वव्यापकता का एक महत्वपूर्ण सामाजिक चोरी नहीं है, किन्तु निजी स्वामित्वाधिकार के पहलू यह भी है कि चोरी करने वाला चोर नहीं कुएं से अदत्त या बिना अनुमति के जल ग्रहण कहलाता है। समाज उसे प्रतिष्ठा देती है और भी चोरी है। कानून तथा उसको प्रक्रिया प्रश्रय । सफेद पोश लौकिक दृष्टि से चोरी का दण्ड तभी दिया अपराधों में चोरी के कृत्य को ही प्रधानता जाता है जब व्यक्ति चोरी करने का प्रयास करता प्राप्त है । समस्या यह कि चोरी की भावना एवं । है या जब वह चोरी किये गये माल सहित पकड़ कृत्य के विकास को इतना व्यापक क्षेत्र कैसे प्राप्त में पाता है। वैसे चोरी करने का षडयंत्र यदि हो गया और समाज की इस वृत्ति को कैसे सुधारा सप्रमाण प्रकट हो जावे तो वह भी दण्डनीय होता जा सकता है। है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जैसे हम दूसरे के ___ चोरी का प्रेरणा स्रोत धन सम्पत्ति प्रादि आदि स्वामित्वाधिकार की वस्तु के प्रति ममत्व भाव कर भौतिक पदार्थों के प्रति तीव्र ममत्व भाव है। जब उसे अनधिकृत रूप प्राप्त करने की भावना रखते व्यक्ति बाह्य बस्तुओं में सुख की कल्पना से प्रेरित हैं, हम अपने अविकारी ज्ञाता-दष्टा स्वभाव से होकर तथा न्याय-अन्याय एवं औचित्य-अनौचित्य च्युत होकर राग-द्वेषमय विकारी भावों के अधिके भाव को विस्मृत कर दूसरे व्यक्ति के स्वामित्वा- कारी हो जाते हैं और चोरी के कृत्य के दोषी बन धीन वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार एवं जाते हैं। इस दृष्टि से दूसरे की वस्तु को ग्रहण प्रयास करता है, तब वह चोरी के कृत्य का प्राश्रय करने का कार्य पूर्ण हो या नहीं किन्तु हम भावनालेता है। राग द्वेष मोह एवं प्रभाव से उत्प्रेरित त्मक स्तर पर चोरी के साथ ही साथ हिंसा एवं होकर जब हम दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व की किसी परिग्रह के भी दोषी हो जाते हैं। इस प्रकार भी वस्तु को बिना उसकी स्वीकृति के लेने या ग्रहण भावनात्मक स्तर पर सूक्ष्म विश्लेषण जैन दर्शन करने का भाव रखते हैं और तदनुसार उस वस्तु की प्रमुख विशेषता एवं सार है। को छल कपट, दबाव या अन्य माध्यम का उपयोग कर उसे लेते है या अपने स्वामित्व के अधीन चोरी का कार्य हिंसा एवं परिग्रह दोनों पापों बनाने का प्रयास करते हैं तो वह चोरी कहलाता की पृष्ठ भूमि पर सम्पादित किया जाता है। है। इस प्रकार अदत्त वस्तुओं का ग्रहण करना ही राग-द्वेष-मोह तथा प्रमाद भाव से अदत्त वस्तुओं चोरी है। के ग्रहण करने के विचार से आत्म-स्वभाव का __ चोरी में तीन तत्वों का समावेश है। पहला घात होता है स्वभाव में विकृति आती है अतः दूसरे व्यक्ति की वस्तु को ग्रहण करने की गलत चोरी हिंसा है। दूसरे की धन सम्पत्ति को ग्रहण 1/55 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के उद्देश्य से चोरी की जाने के कारण प्रदत्त वस्तुओं के प्रति मूर्च्छा या ममत्व भाव आदि विद्यमान रहता है। अतः चोरी परिग्रह भी है | वैसे परिग्रह के प्रभाव क्षेत्र में दत्त एवं प्रदत्त दोनों प्रकार की वस्तुए आने के कारण परिग्रह का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हैं । इस प्रकार चोरी करने वाला हिंसा एवं एवं परिग्रह के पाप का भी भागी बनता है । सामान्यतः धन सम्पत्ति के प्रति सामान्य राग होने के कारण वह विधि सम्मत ढंग से अर्जित की जाती है । किन्तु जब उसके प्रति व्यक्ति का तीव्र राग होता हैं तब अन्याय पूर्वक चोरी प्रादि का सहारा लेकर प्रदत्त वस्तु को ग्रहण करता है । चोरी एक व्यक्तिगत बुराई तो है ही क्योंकि दूसरे व्यक्ति के स्वत्वाधिकार की वस्तु छीनने, अपहरण करने या लेने के कारण प्रात्मा अपने ज्ञाता - दृष्टा रूप अविकार स्वभाव से च्युत होकर अन्य वस्तुओं में ममत्व कर उनसे सुख की प्राशा करता है, किन्तु यह एक महान सामाजिक बुराई भी है। धन सम्पत्ति आदि बाह्य वस्तुओं की जिन्हें व्यक्ति अपनी आवश्यकता एवं इच्छानुसार संग्रह करता है, बाह्य प्रारण की संज्ञा दी जाती है। इन वस्तुओं के प्रति व्यक्ति का इतना अधिक अनु राग एवं ममत्व रहता है कि इनके वियोग में प्रायः प्राण त्याग जैसी घटनाएं भी कर बैठता है। एक सुई के गुमने मात्र पर हम व्यग्र एवं ग्राकुलित होजाते हैं तब ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति को कोइ अन्य जब बल, दबाव या छल द्वारा उसकी सम्पत्ति या अधिकार से वंचित करता हैं तब उस व्यक्ति की भावनात्मक स्थिति क्या होती होगी ? इसका अनुभव तो मुक्त भोगी ही कर सकता है। भौतिक वस्तुयें बाह्य प्राण होने के कारण इससे सामाजिक सम्बन्धों पर भी अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे सामाजिक असुरक्षा एवं अशांति का जन्म होता है। पीड़ित या प्रभावित व्यक्ति का आचरण असामान्य हो जाने के कारण वह अनायास बदले की भावना एवं कुन्ठानों से ग्रसित होकर निर्बलों के प्रति अन्यायी एवं क्रूर हो जाता है जिससे समाज का प्रत्येक वर्ग प्रभावित होता है। पूँजीवादी एवं शोषण आज के युग की एक प्रमुख समस्या है । वर्ग संघर्ष के नारों की आड़ में मानवता की हत्या क्रूरता एवं पाशविकता से की गयी है। पाश्चात्य जगत प्राणियों / पशुद्मों के प्रति सम्वेदनशील होने का अभिनय तो करता रहा किन्तु मानव जाति के प्रति कठोर, निर्भय एव असहिष्णु हो गया । रूस, अमेरिका, फांस एवं चीन की रक्त क्रांतियां तथा विश्व के दो महायुद्ध इस बात के प्रमाण हैं कि पश्चिम में मानव जाति के साथ कीड़ा-मकोडा जैसा व्यवहार किया गया है। मानव की चीत्कार एवं क्रंदन के रक्तिम घिनौने प्रमाण इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों को कलं कित कर रहे हैं । पूंजीवाद शोषण की प्रक्रिया पर आधारित अर्थव्यवस्था है जिसमें साधन सम्पन्न वर्ग द्वारा विपन्नों के भौतिक अधिकारों का इस ढंग से अपहरण किया जाता है जिससे कालांतर में समाज स्वतः दो वर्गों में विभक्त हो जाता है जो सामाजिक असमानता एवं वर्ग संघर्ष को जन्म देता है । यह सामाजिक असमानता दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति या अधिकारों की चोरी एवं भौतिक जड़ वस्तुनों के प्रति ममत्व या प्रासक्ति पर आधारित है । अतएव, अंततः चोरी का भाव ही सामाजिक विषमता, शोषण एवं प्रशांति का कारण है । चोरी के भाव का त्याग किए बिना धार्मिक एवं नैतिक जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में भी अचौर्यव्रत उतना ही उपादेय है जितना व्यक्तिगत एवं धार्मिक जीवन में यही कारण है कि तीर्थंकर महावीर । ने एवं उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने आत्म कल्याण 1/56 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रूचि रखने वाली भव्य आत्माओं को अहिंसा, के आचरण हेतु जो धार्मिक आचार संहिता सत्य, अपरिग्रह आदि व्रतों के साथ अचौर्य व्रत अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व उद्घोषित की थी उसमें पालन करने का उपदेश दिया। उन्होंने जहां श्रमण आज के गतिशील विश्व की आर्थिक समस्यों का मुनियों को पूर्ण प्रचौर्यव्रत धारण करने का उपदेश समाधान ठोस रूप से निहित हैं। यह प्राचार दिया वहां गृहस्थ श्रावकों को अचौर्य अणुब्रत पालने संहिता यदि समुचित रूप से सामाजिक जीवन का करने को कहा। तीर्थकर महावीर ने कहा कि जो अंग बन जावे तो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इससे व्यक्ति या समाज वस्तुत: प्रात्मविजेता के पथानु- लाभान्वित, सम्पन्न एवं सुखी हो सकेंगे, साथ ही सरणका आकांक्षी है वह अचौर्यव्रत के परिपालन के शोषण विहीन समाज की स्थापना भी सम्भव हो साथ न तो किसी चोरी करने को प्रेरित करेगा सकेगी। ठीक है सत्य कालातीत एवं लोकातीत और न चोरी करने का उपाय ही बतावेगा। वह होता है वह किसी भी शर्त, बन्धन या परिस्थिति से चोरी की गयी वस्तु का क्रय-विक्रय भी नहीं अप्रभावित होता है। करेगा। न्यूनाधिक माप तौल के बांटों का उपयोग समानरूप से अचौर्य व्रत व्यक्तिगत जीवन को नहीं करेगा । भ्रष्ट क्रिया द्वारा वस्तुओं में मिलाकर उन्हें उच्च कीमत पर विक्रय नहीं करेगा। निस्पृह, शांत, निर्विकल्प एवं आत्म शुद्धि परक तो बनाता ही है, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन को राज्य की आज्ञा या कानून के विपरीत कोई भी स्वस्थ एवं ठोस आधार भी प्रदान करने वाला है। कार्य अर्थात करवंचन एवं कूटलेख आदि चोरी से आवश्यकता है कि भौतिक एवं जड़ वस्तुओं के सम्बन्धित कुकृत्यों से अपने को दूर रखेगा। प्रति ममत्व छोड़कर अचौर्य व्रत का परिपालन अाधुनिक सामाजिक आर्थिक जगत् में व्याप्त करें जिससे कि व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय व्याधियों का प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वदर्शी तीर्थकर आर्थिक ब्याधियां दूर हों और आत्म कल्याण से महावीर को था यही कारण है कि उन्होंने गृहस्थों मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सके। मै० प्रो० पी० मिल्स अमलाई __जि० शहडोल (म० प्र०) 1/57 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मनीषियों को दृष्टि में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त मुझे बहुत पिय हैं । मेरी हादिक इच्छा है कि मैं मृत्यु के बाद जैन परिवार में जन्म लू। -जार्ज बनार्ड शॉ भगवान महावीर अलौकिक महापुरुष थे । तपस्वियों में आदर्श, विचारकों में महान् , अात्मविकास में अग्रसर, दर्शनकार और उस समय की प्रचलित सभी विद्यानों में पारगंत थे। -डा० लाजमन जर्मनी महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान और अहिंसा सिद्धान्त से संसार की भौतिक वादी आस्था और नीति को नष्ट कर दिया। --श्रीमती मेरी बॉन, जर्मनी दुनिया में एक्य और शान्ति चहाने वालों का ध्यान भगवान महावीर की दी हुई शिक्षामों की ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। --डा० बाल्टर, जर्मनी भगवान महावीर ने सर्वागीण सत्य, सम्पूर्ण नैतिक शुचिता एवं अखण्ड बह्मचर्य का जीवन व्यतीत किया जो सभी जीवों को अभयदान देती है। -हरवर्ट वारैन, लदंन भगवान महावीर को जिन और वीर कहना सार्थक है । आज के युग में विश्व को उनके आदर्श व सिद्धान्तों की आवश्यकता है। -डा० फर्नेण्डी वेल्लिनी फिलिप्पी, इटली 1/58 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ने भारत में मुक्ति का ऐसा सन्देश घोषित किया कि धर्म कोई सहज सामाजिक रुडि नही बल्कि वास्तविक सत्य है । वस्तु स्वभाव है ओर मुक्ति इस धर्म में प्राश्रय लेने से ही मिल सकती है। -रविन्द्रनाथ टैगोर भगवान महावीर ने स्त्री जाति का सुधार किया। जिसका भय महात्मा बुद्ध को था उसको महावीर ने कर दिखाया। --प्रार्चाय बिनोबा भावे महावीर ने सिखाया है जरुरत से ज्यादा सचंय ही झगड़े की जड है । महावीर का आदर्श अपरिग्रहवाद ही आज की त्रस्त जनता के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है । - इन्दिरा गांधी भगवान महावीर द्वारा बताये गये सत्य व अहिंसा के माध्यम से ही विश्व में शान्ति एवं सद्भावना स्थापित की जा सकती है । -एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज संकलन कर्ताराकेश कुमार छाबड़ा विधि तृतीय वर्ष २६३६, घी वालों का रास्ता, जयपुर 1/59 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड भगवान बाहुबली इतिहास, पुरातत्व एवं कला 1. बारंबार प्रणाम श्री पं० हीरालाल जैन 'कौशल' 2. भगवान बाहुबली-महामस्तकाभिषेक मंगलानुष्ठान एक पृष्ठ भूमि डा० निजामुद्दीन 3. प्रथम मोक्षगामी व विद्रोही बाहुबली श्री प्रवीणचन्द्र छाबड़ा . मस्तकाभिषेक - महामस्तकाभिषेक श्री रवीन्द्र जैन 11 5. भगवान बाहुबली - महामस्तकाभिषेक एक रिपोर्ताज कुमारी प्रीति जैन 6. श्रवण बेलगोल और नारी डा० श्रीमती शान्ता भानावत 16 7. प्राचीनतम जैन कलारत्न श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी 8. श्रवणबेलगोल का धार्मिक एवं सामाजिक महत्व डा० श्री नरेन्द्र भानावत 24 9. शासन देव पूजा मिथ्यात्व श्री बिरधीलाल सेठी 32 श्री गणेशप्रसाद जैन 34 10. मथुरा के जैन पुरातत्व-अवशेष 11. मंत्र शक्ति कोरी कल्पना श्री फतहचन्द सेठी 40 12. जैन सिद्धान्त और हम पं० श्री राजकुमार शास्त्री 42 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAADAAAAAAAAAAAAAAAAASAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA बारम्बार प्रणाम (विद्वत्ररत्न श्री पं० हीरालाल जी जैन 'कौशल' ) श्रादिनाथ सुत बाहुबली जी, भरत चक्रि को जीत, कठिन तपस्या लीन, कर्म काट बन गये सिद्ध, नृप चामुंडराय बनवाई, करी प्रतिष्ठा नेमिचन्द्र, ( 1 सहस्राब्दि उत्सव मनवाया, विद्यानन्द सिद्धान्त चक्रि, गुण बल गौरव धाम । लिया वैराग्य, बने निष्काम । सर्प बेलों से घिर अविराम || है बारम्बार प्रणाम || ( 2 ) प्रतिमा एक विशाल । सिद्धान्त चक्रि उस काल ।। देश व्यापि अभिराम । को बारम्बार प्रणाम || 3749 गली जमादार पहाड़ी धीरज, देहली - 6 ♡♥♡♥♡♡♡♡♡♡♡♥♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक का मंगलानुष्ठान-- एक पृष्ठभूमि -डॉ. निजामउद्दीन डॉ० निजामुद्दीन ने प्रस्तुत लेख में 1981 में हुए महामस्तिकाभिषेक महोत्सव का, उसकी ऐतिहासिक, पुराऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के साथ धारा प्रवाहयुक्त, प्रोजल भाषा में संक्षिप्त, सुन्दर परिचय दिया है। उन्होंने इस महोत्सव को धार्मिक सहिष्णुता, सर्व-धर्म-समझाव के साथ राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संस्कृति की समन्वयवादी भावना का शुभ दृष्टान्त माना है ।-सम्पादक ग्रेनाइट पत्थर पर खुदी भूरे-सफेद रंग की से उसे मुक्त किया तो उसके हाथ स्वतः खुल गये । 17.50 मीटर ऊँची विशाल, मति का 1008 स्व० नेमिचन्द्र शास्त्री के मतानुसार भगवान मंगल कलशों से अभिषेक 22 फरवरी 1981 को बाहुबली की जो एक ही विशाल चट्टान पर शिल्पकिया गया। यह भव्य मूर्ति कर्नाटक स्थित 5000 कार अरिष्टनेगी ने मनोहर मूर्ति बनाई थी उसकी की आबादी वाले कस्बे श्रवणबेलगोल के सन्निकट स्थापना 13 मार्च 981 में की गई और तभी विध्यगिरि पर स्थित है । लाखों जैनमत के अनु- उसका दूध, केसर, जल आदि से भव्य अभिषेक यायी उस मति की प्रतिष्ठापना के 1000 वर्ष किया गया था। तब से हर बारहवें वर्ष उस महाहोने पर उसके प्रति अपनी अगाध आस्था प्रकट मूर्ति का महामस्तकाभिषेक समारो करने वहां पहुंचे । यह एक ही पत्थर पर बनी भव्य में परिसम्पन्न होता आया है । जिस भगवान बाहुमति भगवान बाहबली की है जो सारे संसार को बली की प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक का समारोह त्याग की अक्षुण्ण ज्योति दिखला रही है । कहा इतनी निष्ठा मोर भक्तिभावना से मनाया जाता है जाता है गंगवंश के नरेश राजमल्ल चतुर्थ के सेना वह बाहुबली कौन थे, उनमें ऐसी कौन-सी विलपति व मंत्री धर्मानुरागी चामुण्डराय ने भगवान क्षण बात थी जिसके प्रति असंख्य लोग अनेक बाहुबली की प्रतिमा उस समय के कुशल शिल्पी कठिनाइयाँ, बाधाएं उठाकर वहां पहुँचते हैं और अरिष्टनेमी द्वारा बनवाई थी। शिल्पी कुछ धन उस महापर्व में शामिल होते हैं । इस रहस्य को लोलुप था, राजा ने जब उसे पुरस्कार व पारि- जानने के लिए हमें हजारों वर्ष पीछे मुड़कर देखना श्रमिक के रूप में असंख्य स्वर्ण मुद्राएदी तो होगा । उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा, जैसे ही उसने अपनी मां के सामने स्वर्ण मुद्राएं उठाकर जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान प्रादिनाथ दिखाना चाही तो उसके दोनों हाथ जुड़ गये। माँ या ऋषभदेव माने जाते हैं। उन्होंने एक राजा के ने उसकी धन-लिप्सा की निन्दा की और लोभवत्ति रूप में जन-कल्याण पर अत्यधिक बल दिया। 2/2 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्राम और नगरों की रचना की थी। मनुष्य की जीविका प्रर्जन के लिए राजा ऋषभदेव ने छः कर्मों का निर्धारण किया— प्रसि मसि, कृषि विद्या, वाणिज्य और शिल्प उन्होंने | कर्म-व्यवस्था के आधार पर मानव समाज का इस रूप में विभाजन किया; ( 1 ) अपने ग्राम, नगर, देश की रक्षा करने वाले को 'क्षत्रिय' कहा गया। (2) जो व्यक्ति व्यापार, कृषि या पशुपालन करते थे उन्हें 'वैश्य' की श्रेणी में रखा और (3) श्रम या निर्माण कार्य में हाथ बटाने वाले को 'शूद्र' की संज्ञा दी गई। भारत में जो वर्ण-व्यवस्था प्राज विराजमान है उसकी जड़ें इस प्रकार सुदूर हजारों वर्ष पीछे जाती हैं। भगवान प्रादिनाथ ने सृष्टि रचना का जो स्वरूप प्रस्तुत किया उसके आधार पर वह 'ब्रह्मा' कहे जाने लगे। वे स्वयं 'इक्ष्वाकु' भी कहलाए गये, क्योंकि उन्होंने इक्षुदण्डों की उपयोग प्रयोग प्राविधि दर्शाई। उनका राज्य प्रयोध्या से हस्तिनापुर तक फैला हुआ था । ऋषभदेव के दो रानियाँ थीं, एक का नाम था यशस्वती और दूसरी का नाम था सुनन्दा | यशस्वती के 99 पुत्र थे और ब्राह्मी नाम की एक पुत्री थी । सुनन्दा रानी के दो संताने हुई पुत्र बाहाबुली और पुत्री सुम्दरी भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी को 'वर्णमाला' का ज्ञान कराया। कहा जाता है ब्राह्मी लिपि तभी की पैदावार है। सुन्दरी को राजा ने 'गणितमाला' का ज्ञान प्रदान किया । राजा ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत थे जो चक्रवर्ती राजा बने और ऐसी धारणा है कि हमारे देश का नाम 'भारत वर्ष' उन्हीं के नाम पर पड़ा। वृतान्त है कि एक बार राजा आदिनाथ अपने रंगमहल में नीलांजना नामक अद्भुत सुन्दर नर्तकी का नृत्य देख रहे थे कि नृत्य करते-करते उसका प्राणान्त हो गया । जो पैर थिरक - थिरक कर घुंघरुषों की झंकार से सभी को विमुग्ध कर रहे थे, जो हाव-भाव लोगों का चित्त मोह रहे थे, जो परम सुन्दर शरीर रसिको के मन को आकृष्ट कर रहा था वह सभी निष्प्राण और निर्जीव थे और लोगों के नेत्र प्राश्चर्य से फटे थे। राजा भी इस दुर्घटना को देखकर दिल थाम कर बैठ गये और अविलम्ब ही उन्हें शरीर की मनुष्य की क्षणभंगुरता का ज्ञान हो गया। अब मुक्ति-मार्ग का पथिक बनने में उन्हें विलम्ब न लगा । भरत को अयोध्या का और बाहुबली को पोदनपुर का राज्य देकर वह सन्यस्त हो गये । भरत बहुत महत्वाकांक्षी राजा था। शीघ्र ही अपने बल पराक्रम से उसने दिग्विजय प्राप्त की, एक चक्रवर्ती राजा के रूप में उसकी धाक सर्वत्र फैल गई। परन्तु जब उसके चक्रवर्तित्व का समारोह अयोध्या में प्रायोजित हुआ तो 'चक्ररल' सिंहद्वार पर ग्राकर रुक गया, अयोध्या नगर में वह प्रविष्ट नहीं हुआ। भरत ने नीति-निमित्त विशेषज्ञों से इसका कारण जानना चाहा। उन्होंने राजा को बतलाया कि छह खण्डों पर अपना पूर्णाधिकार प्राप्त करने के बाद भी कोई स्थान ऐसा है जो अभी तक अविजित है और वह है पोदनपुर का राज्य - बाहुबली का राज्य भरत को तो अपना लोहा सभी से मनवाने के अहंकार का नशा चढ़ा हुआ था उसने तुरन्त बाहुबली के पास अपने दूत भेजे ताकि वह उसकी अधीनता स्वीकार करे नहीं तो युद्ध के लिए तैयार हो जाय। बाहुबली दूत का यह संदेशा सुनकर आश्चर्य और चिता में पड़ गये, भरत को इस अपार बिजय पर, चक्रवर्ती राजा होने पर भी सन्तोष नहीं, लालसाओं, इच्छाओं, तृष्णाओं के सागर में वह डूबता जा रहा है। मेरे छोटे-से इस तुच्छ राज्य पर भी उसकी बुरी नजर पड़ी है। प्रन्ततोगत्वा दोनों भाइयों की सेनाएं आमने-सामने रणक्षेत्र में आ डटीं युद्ध होने ही वाला था. रणभेरी बजने ही वाली थी कि बीच में मंत्रियों ने रक्तपात रोकने के उद्देश्य से दोनों भाइयों को द्वन्द्व युद्ध के लिए तैयार किया और यह तीन प्रकार से लड़ा गया । 2/3 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) जल युद्ध को शांति मिली और फिर वह केवली बन गये। बाहबली की कैवल्य प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति (2) मल्ल युद्ध पर भरत ने उनकी एक मूर्ति बनवाई थी परन्तु (5) दृष्टि युद्ध समय बीतने पर उस पर लता-गुल्म चढ़ते गये और बाद में वह लापता हो गई। इन तीनों युद्धों में बाहुबली को विजय प्राप्त हुई। निःसंदेह बाहुबली बल-शक्ति में भरत से आगे थे, कहा जाता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में उनका शरीर भरत से बहत ऊंचा था। भरत को भारत में घोर अकाल पड़ा, असंख्य लोग उत्तर पराजय का मह देखना पडा, आजतक उसे कोई भारत से विध्याचल के पार दक्षिण की ओर चले पराजित नहीं कर सका था, उसे इसमें अपना घोर गये । उनमें मगध-राजसिंहासन परित्यक्त करने अपमान दिखाई दिया और हिंसा तथा प्रतिशोध वाले सम्राट चन्द्रगुप्त और उनके गुरु स्वामी की धधकती ज्वाला को वह शांत न कर सका, प्राचार्य भद्रबाहु भी थे। उन्होंने 'कलवपू' नामक उसने तुरन्त अपना चक्ररत्न बाहुबली के प्राण लेने स्थान पर कठिन तप किया। चन्द्रगुप्त की याद में के लिए चलाया । परन्तु यह क्या ? चक्ररत्न बाह- एक पहाड़ी का नाम प्राज भी 'चन्द्रगिरि' कहा बली की परिक्रमा करके उसके पास स्थिर खड़ा जाता है और इस स्थान को 'श्रवणबेलगोल' कहते हो गया । भरत अहंकार में अंधे हो गये थे और हैं, इसी श्रवणबेलगोल में यह महामस्तकाभिषेक भूल बैठे थे कि चक्ररत्न परिजनों पर प्रहार नहीं महोत्सव 12 वर्षों में एक बार मनाया जाता है। करता । चारों ओर से भरत पर तिस्कार और निन्दा भरी नजरें पड़ी, वह पानी-पानी होकर रह "श्रवणवेलगोल" कन्नडभाषा का शब्द है। गया, उसका सारा अहंकार-दर्प नष्ट हो गया। कन्नड में "बेल" का अर्थ है सफेद और "गोल" उधर बाहुबली का आत्मज्ञान विकसित हुआ, माया का अर्थ है सरोवर । सफेद मूर्ति और कल्याणी पाश से वह मुक्त हुआ और देखते-देखते उसने सरोवर के मेल से इस स्थान को श्रवणबेलगोल पोदनपुर की सकल राजसम्पदा भरत के चरणों पर कहते हैं । यहीं कार्योत्सर्ग-मुद्रा में भगबान बाहुबली डाल दी, सब कुछ त्याग दिया, प्राज इसी राज- की विशाल मूर्ति उत्तर दिशा की ओर उन्मुख सम्पदा ने भाई को भाई का शत्रु-जानी दुश्मन बना विराजमान है-मानो वह सकल भारत को, मानव दिया था। बाहुबली ने दीक्षा ली और जंगल में जाति को संसार की अनित्यता का मौन संदेश दे जाकर घोर तप-साधना में लीन हो गये । उनकी रही है, हिंसा, अहंकार, माया-लोभ की नि:सारता यह साधना वर्षों चली परन्तु उन्हें कैवल्य की प्राप्ति का उज्ज्वल दृष्टान्त प्रस्तुत कर रही है और वही न हुई । तपावस्था में ही उन्हें ध्यान आ जाता कि लोगों का भक्ति-तीर्थ और मुक्ति-तीर्थ बनी वह भरत की भूमि पर खड़े हैं, यह एक शल्य था हुई हैं। जो उनके मन को मथ रहा था, यही उनके कैवल्यमार्ग में बाधक विचार था। जब भरत को इसकी श्रवणबेलगोल कर्नाटक राज्य के जिला हासन खबर मिली तो वह बाहुबली के चरणों में आ गिरे, का एक छोटा सा गांव है जो बंगलौर शहर से क्षमा याचना करते हुए बोले कि भाई यह भूमि 145 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह हासन मेरी कहां है, यह तो ईश्वर की है, मेरा इस पर से 50 कि.मी. और मैसूर से 89 कि.मी. की दूरी कोई अधिकार नहीं। इस प्रकार बाहुबली के मन पर सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। यहां इस बार 2/4 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस लाख से अधिक तीर्थ यात्रियों का आगमन हुआ आश्चर्य हुआ उसने अपने गुरु नेमिचन्द्र से अपनी है। आज का यह श्रवणबेलगोल भक्ति और मुक्ति चिंता व्यक्त की। वहां भगवान बाहुबली मस्तकाका केन्द्र प्राचीनकाल में भी था। भिषेक महोत्सव में एक वृद्धा भी थोड़ा-सा दूध लेकर पहुंची । गुरु ने उसे पहचाना कि यही बुढ़िया सम्राट चन्द्रगुप्त और स्वामी भद्रबाहु के 1200 पहाड़ के नीचे रहती है और उस पहाड़ी को, इन्द्रवर्ष बाद दो यात्री उधर गये; एक थे तलवनपुर के गिरि को ही बाहुबली मानकर उसकी पूजा करती महामंत्री चामुण्डराय और दूसरे उनकी माता है । बुढ़िया ने ऊपर जाकर मूर्ति पर दूध डालते कालला देवी। उनकी भेंट उनके गुरु नेमिचन्द्र से हुए कहा "बाहुबली स्वामी ! यह तुच्छ भेंट स्वीकार हुई जिनके सामने उन्होंने अपनी समस्या व्यक्त की करो।" देखते-देखते मूर्ति दूध से नहा गई। कि वे भरत द्वारा स्थापित बाहुबली की मूर्ति की खोज में निकले हैं । गुरु को यह बात कुछ अटपटी- इसी मूर्ति के महामस्तकाभिषेक समारोह की सी, विचित्र-सी लगी कि पोदनपुर में स्थापित मूर्ति तैयारी गतवर्ष 29 सितम्बर को जनमंगल महायहां सुदूर दक्षिण में भला कैसे मिल सकती है। कलश के प्रवर्तन से शुरू की गई थी। 124 स्थानों कालला देवी ने चन्द्रगिरि पर चढ़कर प्रार्थना की, का भ्रमण करते हुए 14 हजार कि.मी. की लम्बी कविवर पंपरचित "पादिपुराण" का पाठ किया यात्रा पूर्ण कर यह मंगल महाकलश 19 फरवरी. और कवि द्वारा चित्रित बाहुबली की जीवन-गाथा 81 को श्रवणबेलगोल पहुंचा और वहीं यह स्थायी के आधार पर उसके मनः चक्षयों के सामने रूप से स्थापित किया गया । यह मंगलकलश सौहार्द अयोध्या-सम्राट ऋषभदेव, नीलांजना का नृत्य, और भाईचारे का प्रतीक था । सकल भारत के राजा का वैभव-त्याग, भरत-बाहुबली का युद्ध, राज्यों में इसका भ्रमण हुआ, इसने उत्तरापथ और बाहबली की घोर तपस्या ग्रादि सभी कुछ चलचित्र दक्षिणापथ को मिलाने का काम किया। उत्तर के समान प्रा गये। आज कालला देवी को उसी प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार बंगाल, गुजरात, बाहुबली की मूर्ति के दर्शन करना अभीष्ट था। मध्यप्रदेश, मद्रास केरल सभी जगह वह पहुंचा, लोगों ने उसके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति व्यक्त की। ___ उधर चामुण्ड महामंत्री को स्वप्न में स्वामी इस प्रकार इसने राष्ट्रीय एकता की भावना को भद्रबाहु ने ज्ञान दिया कि गुफा के सामने इन्द्रगिरि उद्बुद्ध किया । सभी धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने की ओर मुंह करके खड़े हो जानो और सामने की इसके प्रति अपना आदर-सम्मान व्यक्त किया, चट्टान पर तीर मारो तो तुरन्त बाहुबली के दर्शन इसका हार्दिक स्वागत किया, बिना किसी जातीय होंगे । चामुण्ड ने ऐसा ही किया, तीर लगते ही भेदभाव के । इस प्रकार यह जनमंगल महाकलश मूर्ति प्रकट हो गई । मां-बेटे बहुत खुश हुए, उनकी भारत की सेक्यूलर भावना का, धार्मिक सहिष्णुता चिरकाल की साध पूरी हुई । का. सर्वधर्मसमभाव का सिंबल (Symbal) था। इसका निर्माण, इन्दौर के मुहम्मद अजीज ने किया महामंत्री चामुण्ड ने मूर्ति की स्थापना का, और इसके वाहन की साजसज्जा में अब्दुल हमीद उसके अभिषेक का समारोह आयोजित किया । अब ने अपना कलात्मक योग दिया। 144 किलो वजन चाममण्ड को अपनी इस भारी सफलता पर काफी के इस मंगलकलश का डाइमीटर 6 फूट और गर्व-धमंड हुआ। जब मूर्ति का दूध से अभिषेक ऊंचाई साढ़े छह फुट थी। ताम्रकलश इस महोकिया जो दूध मूर्ति के नीचे तक नहीं पहुंचा, उसे त्सव का प्रमुख आकर्षण था । इस मंगलकलश के 25 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तन से 40 लाख रु० प्राप्त हुए जिनसे 'गोम्मटेश्वर न्यास' की स्थापना हुई । महामस्तकाभिषेक का पावन समारोह एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में सुसम्पन्न हुआ, वही मानो इस महोत्सव के सूत्रधार थे, रूहेरवां थे । श्रवणबेलगोला के भट्टारक स्वामी श्री चारुकीर्ति ने पुरस्कर्त्ता के रूप में अपना अनुपम योग दिया। समारोह समिति के अध्यक्ष धर्मानुरागी साहू श्रेयांस प्रसाद जैन ने सम्पूर्ण महोत्सव को-आदि से अंत तक सफल बनाने में तन-मन-धन का अभूतपूर्व योग देकर एक अभिनन्दनीय कार्य किया । उन्हें इस महापर्व पर श्रावक - शिरोमणि की उपाधि भी प्रदान की गई, जो उनके यशस्वी व्यक्तित्व और जनमंगलकारी कार्यों का प्रतीक है । प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने महामस्तकाभिषेक के सुप्रवसर पर हेली - कोप्टर से पुष्प वर्षा की, प्रार्थना सभा में भाग लिया जो उनकी सर्वधर्मसमभाव दृष्टि का उज्ज्वल उदाहरण है। मुनि श्री विद्यानन्दजी ने उन्हें सम्राट अशोक के समान धर्मानुराणी एवं धर्मप्रचारक कहा, जो पूर्णतः सत्य है । भगवान बाहुबली की प्रतिमा स्थापना के बाद महामस्तकाभिषेक के विवरण 1398 में उत्कीर्णित एक शिलालेख से आरम्भ होते हैं जिसमें कहा गया कि पहले किसी पंडिताचार्य' ने सात बार महामस्तकाभिषेक कराये थे । अन्य अभिलेखों के अनुसार 17वी शताब्दी में तीन बार, 18वीं शताब्दी में एक बार, 19वीं शताब्दी में चार बार ऐसे समारोह प्रायोजित किये गये । 1887 में कोल्हापुर के श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक ने 14 मार्च को 30,000 रु० व्यय कर यह महोत्सव कराया था । 20वीं शताब्दी में 1900, 1910, 1925, 1940, 1953, 1967 और इस वर्ष 1981 (फरवरीमार्च) में महामस्तकाभिषेक महोत्सव परिसम्पन्न हुए। पहले मिट्टी के घड़े, रंग पुते होते थे, अब सोने, चांदी, तांबे आदि के कलश बनाये जाते हैं जो 1008 कलश महामस्तकाभिषेक में प्रयुक्त होते हैं वे धर्मानुरागी लोग बहुत-सा रुपया देकर खरीदते हैं । 1940 में प्रथम ऐसा स्वर्ण कलश 8001 रु० में बिका था, 1967 में पहला कलश 47500 रु० में खरीदा गया था और इस बार प्रथम 10 एक-एक लाख रु० में खरीदे गये । इतने धन से कलशों को खरीदना जहां धर्मभावना का द्योतक है वहां त्याग और दान की उदारता को भी प्रकट करता है । महामस्तकाभिषेक महोत्सव धार्मिक सहिष्णुता, सर्वधर्मसमभाव की भावना के साथ हमारी राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संस्कृति की समन्वयवादी भावना का शुभ्र दृष्टान्त प्रस्तुत करता है । अतः यह एक राष्ट्रीय महोत्सव था जिसमें विभिन्न प्रान्तों के लोगों ने, विभिन्न भाषा-भाषियों ने सहर्ष हार्दिक योग दिया । इससे जैन धर्म के मानवतावादी स्वरूप और उसकी अनेकान्तवादी दृष्टि का सम्यक् परिचय प्राप्त हो जाता है | भगवान बाहुबली ने जिस श्रहिंसा भाव का, त्याग और उत्सर्ग का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया वह आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए है । वह भारतीय सांस्कृतिकादर्शोंसौंदर्य, शील और शक्ति की सान्द्र और उन्निद्र प्रतिमा हैं । 2/6 इस्लामिया कालेज श्रीनगर (कश्मीर) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम मोक्षगामी व विद्रोही-बाहुबली -प्रवीणचन्द छाबड़ा विद्वान् लेखक ने बाहुबली में कदम-कदम पर विद्रोह के दर्शन किये हैं। विनय जरूर साथ है। बाह्य सत्ताओं के प्रारोप के विरुद्ध विद्रोह बिना आत्मोपलब्धि सम्भव भी तो नहीं है। लेख महामस्तकाभिषेक महोत्सव से पूर्व की रचना है । -सम्पादक दिशानों में वासन्ती खिली है, कूसमोत्सव का के लिये क्या नहीं हो सकता यह स्पष्ट हया। सब तरफ प्रायोजन है। लाखों-लाख लोग सूदूर यह आश्चर्यकारी घटना है कि भगवान आदिनाथ दक्षिण के श्रवणवेलगोला में इस काल के प्रथम की तपोभूमि होते हुए, केवल ज्ञान की प्राप्ति के कामदेव (गौमटेश्वर) की वन्दना को पहुंच रहे हैं। बाद उनके ही पुत्रों भरत व बाहुबली में पहला हजार वर्ष से भगवान बाहबली की यह विशाल युद्ध हया और वह भी राज्य के लिये। भोगभूमि मति दिग-दिगन्त को सत्य-अहिंसा व वीतरागता से कर्मभूमि में प्रवेश युगान्तरकारी घटना थी, और का सन्देश दे रही है। विन्ध्यगिरी का भाग्य जागा- यही समय था, जब समाज के साथ राज्य व्यवस्था "सत्यम्, शिवमू, सुन्दरम्" पाषाण में मूर्तिमान का विधान होना था। युद्ध राज्य के लिए अनिवार्य हो उठा। करुणा, प्राशीष व कल्याण की त्रिवेणी शर्त है, यह मानकर भरत और बाहबली का प्रवाहित हो उठी । धरती ने चतुर्थ काल के प्रथम चिन्तन होता गया और दोनों ही युद्धरत हो गये। मोक्षगामी पुरुष के दर्शन किये। भगवान प्रादि- लेकिन, अभी भोग भूमि का, धर्म क्षेत्र नाथ प्रथम तीर्थङ्कर हुए, भरत चक्रवती और कायम था. आदिनाथ भगवान का अनुशासन कायम बाहुबली मुक्त पुरुष । था और इसलिये युद्धरत होते हुए भी दोनों अपने से निपट लेने को तत्पर थे। एलाचार्य मुनि श्री __ यह युग परिवर्तन का काल था, जब भोग विद्यानन्दजी के शब्दों में "भरत-बाहुबली का युद्ध भूमि से कर्मभूमि का प्रारम्भ हो चुका था। इस धरती पर पहला अहिंसक युद्ध रहा होगा।" कल्पवृक्ष विलुप्त हो कुके थे। आदिनाथ ने धरती को पहली बार धर्म, अर्थ और काम का पुरुषार्थ इतिहास की यह ऐसी अनुपम घटना है, जहां दिया और उन्होंने ही मोक्ष मार्ग का भी प्रतिपादन “अहं" चरम स्थिति पर है। भरत के सामने किया। उनके ही अनुशासन में प्रथम युद्ध की चक्रवर्ती होने का ऊंचा लक्ष्य है, बाहबली के भूमिका बनी, भावी का निरूपण हुआ और राज्य सामने उनका स्वत्व है, स्वाभिमान है और है 217 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वतन्त्रता की पवित्र भावना | बाहुडली के निकट भरत वन्दनीय है, पूज्य है, लेकिन अग्रज के रूप में भरत जब राजा बनकर धाये और अपने बल का प्रदर्शन कर अधीनता की अपेक्षा की तो बाहुबली विद्रोही बन बैठे कर्म भूमि का यह पहला सफल विद्रोह था, जब स्वतन्त्र मन ने सत्ता को नमन करने से इन्कार कर दिया। सत्ता को चुनौती का यह स्वर सदा-सदा के लिये प्रेरणा बन गया, आदर्श बन गया। बाहुबली प्रथम क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने अपने स्वस्थ की रक्षा की और इसके लिये युद्ध को स्वीकार किया। सत्ता विद्रोह को सहन नहीं कर सकती । उसका अपना तोल होता है। भरत एक राष्ट्र, एक शासन, एक व्यवस्था के तले सारी धरती को लाना चाहते थे । उनका अपना लक्ष्य था और इसमें किसी प्रकार की बाधा उन्हें स्वीकार नहीं थी । राज की आधार शिला मजबूत करने के लिये भरत के समक्ष बाहुबली अनुज नहीं रह गये थे, उन्हें चुनौती देने वाले विद्रोही थे और सत्ता विद्रोही को कभी स्वीकार नहीं कर सकती । कर्म भूमि का पहला युद्ध भगवान आदिनाथ के ही दो पुत्रों के बीच हुआ। दोनों ने दृष्टि युद्ध, जल युद्ध व मल्लयुद्ध में उतरना स्वीकार किया। बाहुबली विद्रोही थे, लेकिन यह भी उन्हें अहसास था कि भरत के साथ एक अन्य सत्ता भी जुड़ी हुई है, कि भरत उनके अग्रज हैं, सम्माननीय है। बाहुबली विद्रोही होकर भी विनयनत रहे और शायद यही उनकी विजय का भी कारण रहा। कर्म भूमि में प्रवेश के साथ हुए इस प्रथम विद्रोह में विद्रोही की विजय और उसके बाद चरम भोग्य मुक्ति का वरण इस काल की गौरव पूर्ण घटना हैं। इसने विद्रोही को सदैव पूजित कर दिया, वन्दनीय बना दिया। विजयश्री उन्हें वरण करती रही क्रांति अमर रहे, क्रान्ति सदैव अमर हैं, का उद्घोष किया पहलीबार बाहुबली ने, जो युगों तक के लिये प्रेरणा सूत्र बन गया । बाहुबली विनीत भाव से दृष्टि-युद्ध के लिये प्रस्तुत हुये। भरत बड़े थे, बडप्पन का अहंकार भी वहाँ रहा होगा। उनकी दृष्टि ऊंची थी, आकाश की घोर थी चुनौती में भरत की दृष्टि झुक गयी, उनकी पलकें गिर गयी। प्राकाश धरती पर उतर आया । धरती अपनो जगह कायम रह गयी विनीत विजयी हुआ। पहला युद्ध उनके । हाथ रहा, जो धरती के थे, धरती के लिये थे तथा जिनकी दृष्टि धरती पर थी । दोनों भाई धरती से जल में उतरे। बाहुबली ने जल को नीचे से धजुली में लिया और सामने बौछार की। भरत की अंजुली ऊपर थी और बौछार भी ऊपर से हो रही थी। भरत थक गये, बाहुबली की प्रेम की बौछार बराबर चलती रही । ऊपर का हाथ, नीचे के हाथ से परास्त हो गया । निर्णायक दौर में मल्लयुद्ध हुआ । बाहुबली का ध्यान धरती पर था, बढ़े भाई के चरणों पर था । उन्होंने भरत के चरण कस कर पकड़ लिये । भरत पैर छुड़ाकर अन्य दांव-पेंच करने को हों, तब तक बाहुबली ने उन्हें उठा लिया, शिरोधार्य कर लिया । अग्रज बाहुबली के सिर पर थे, लेकिन सत्ता विद्रोही के हाथ कुशलता चाह रही थी। बाहुबली ने अग्रज को ससम्मान धरती पर खड़ा खड़ा कर दिया। लेकिन सत्ता अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकी, उसका प्राक्रोश तीव्र हो उठा। भरत अपना आपा खो बैठे और सत्ता के प्रतीक चक्ररत्न को बाहुबली पर चला दिया । चक्र तेजीं के साथ बाहुबली के मस्तक तक पहुंच कर मस्तक को बंध करे, इससे पूर्व ही उसकी गति रूक गयी, वह 2/8 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापस हो गया। भरत का पुण्य फलित चक्र अनुज से उतरो।" भाई भरत पहुचे, योगी के चरणों पर नहीं चला। सत्ता का अह्म टूट गया, वह में नत हो गये, प्रांसू पद-प्रक्षालन करने लगे। निस्तेज हो गयी। सत्ता अब विद्रोही के चरणों अश्रुपूरित नेत्रों से भरत ने वाहुबली को निहारा में थी। अग्रज का यह नमन अनुज सहन नहीं कर और देखा कि अनुज अब योगी है, भरत जैसे अनेक सका। विजयी होकर बाहुबली भी स्वयं को चक्रवर्ती हो गये, जो आये और चले गये । यह असहाय अहसास करने लगे। उन्हें लगा कि धरती धरती कायम हैं और कायम रहेगी। बाहुबली और राज्य सत्य नहीं है, शिव भी नहीं है। सत्य, जाग्रत हुए, उनकी अन्तर्चेतना में लगा कि वे शिव और सौंन्दर्य कहीं अन्यत्र है और इसी चरम अहंकार के गज पर बैठे हुए हैं, उन्हें नीचे उतरना भोग्य की खोज में जाने को वे विकल हो उठे। ही होगा । अन्तर के द्वन्द्व से दूर वास्तव में विनयी उन्हें लगा कि यह धरती और राज माया है, होना होगा । यह धरती और आकॉश कब किसका छलना है, भ्रम है । यह अपार परिग्रह, चक्रवर्तित्त्व रहा है, यह तो माया है, छलना है । "अह्म" और स्वामित्व किस अर्थ का, जो स्वयं से युद्ध विकलित होकर "ौम्' हो गया । त्यागी बाहुबली रचा देता है। वाहुबली का विद्रोही व्यक्तित्व वीतराग हो गये, भगवान हो गये। उन्हें अपना उलझा नहीं रह सका और निकल पडा सत्य और चरम-भोग्य मिल गया। शिव की खोज में : बाहुबली चतुर्थ काल के, कर्म भूमि के प्रथम विद्रोही थे, जिन्होंने सत्ता को चुनौती देकर आदिनाथ के इस महान् पुत्र ने दीक्षा नहीं 'स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार" को ली, अपने लिये अपना मार्ग खोजने स्वयं ही निकल उद्घोषित किया और उसकी रक्षा की। वे क्रांतिपड़े। दूर-सुदूर वन प्रान्तर में बाहुबली समाधिस्थ हो गये । चिन्तन, गहन चिन्तन में एक वर्ष व्यतीत कारी थे, जिन्होंने माया के प्रावरणों को छिन्नहोकर प्रतीत हो गया। दीमकों ने देह पर घर कर भिन्न कर दिया । जिन्होंने स्वयं अपना मार्ग खोजा और उस पर चल पड़े । प्रात्मोत्सर्ग का इतना बड़ा लिये। लतायें शरीर पर चढ गयी, सांपों ने बांबिया बना ली । ऐसी तपस्या कि बाहुबली शरीर विस्तार बाहुबली में ही सम्भव था। में होते हुए भी प्र-शरीरी हो गये। लेकिन, एक बाहबली ने भगवान आदिनाथ के समक्ष मोक्षशल्य उन्हें परमज्ञानी होने, मोक्षगामी होने से गामी होकर भगवान के चारों पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, रोके हुए था। उनका यह शल्य दूर नहीं हो रहा काम और मोक्ष को सार्थक कर दिया, चरितार्थ था कि उनके तलवे जिस धरती पर हैं, वह भरत कर दिया। की है। भरत के अमात्य का यह वाक् प्रहार उन्हें साल रहा था कि “कहीं भी जानो; तुम्हें भरत की यह धरती धन्य है कि प्रथम मोक्षगामी धरती मिलेगी, उससे तुम मुक्त नहीं हो सकोगे।" बाहुबली अपने पूर्ण वितरागी वैभव के साथ और बाहुबली इसे सत्य मानकर इसमें उलझ गये विन्ध्य गिरी पर विराजमान है, एक हजार बर्ष से थे, मुक्त नहीं हो पा रहे थे। मूर्तिमान है। दिगम्वरत्व का ऐसा सौंन्दर्य कि त्रिलोकमोहनी भव्य स्वरूप और अमन्द मुस्कान समाधिस्थ बाहबली की सेवा में बहिनें पहची, को सदा के लिये प्रांखों में बसा लिया जाय । वन्दना की और निवेदन किया कि "भइया. गज विशालता म इतना सरलता, कमनायता व शाला -2/9 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नता है कि सौन्दर्य बोध के समक्ष श्रद्धा से, माथा हमारे लिये, इस पीढी के लिये गौरव की बात है झुक जाता है । श्रवणबेलगोला आज हमारी कि हम भगवान बाहुबली की इस मूरत के हजार सांस्कृतिक प्रास्थानों का केन्द्र बन गया है। वर्ष मना रहे हैं, अभिषेक कर रह हैं। जीवन्त रूप से जहां भगवान स्वयं मूर्तिमान हो, भगवान बाहुबली के श्रीचरणों में बारम्बार वह धरती, वह क्षेत्र पूजनीय है, वन्दनीय है। प्रणाम । "हे आत्मन् ! तू ही अपने कर्मों को बाँधता है, उनके फलों को तू ही भोगता है और तू ही उन कर्मों को क्षय करने की क्षमता से सम्पन्न है। इस प्रकार तेरी मुक्ति तेरे हाथ में है, उसके लिये क्यों नहीं चेष्टा करता है ?" -क्षत्र चूड़ामणि 2/10 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक गीत मस्तकाभिषेक महामस्तकाभिषेक - रवीन्द्र जैन (सिने. संगीतज्ञ) बाहुबली भगवान का मस्तकाभिषेक, मस्तकाभिषेक महा मस्तकाभिषेक । धन्य-धन्य वे लोग यहाँ जो आज रहे सिर टेक। बीते वर्ष सहस्त्र, मूर्ति ये तब की गढ़ी हुई, खड़े तपस्वी का प्रतीक बन, तब से खड़ी हुई। श्री चामुण्डराय की माता, इसका श्रेय उन्हीं को जाता, उनके लिए गढ़ी प्रतिमा से, लाभान्वित प्रत्येक ॥१॥ नीर, क्षीर, चन्दन, केशर, पुष्पों की झड़ी लगी, देखन को यह दृश्य, भीड़ यहाँ कितनी बडी लगी। ऐसी छटा लगे मनभावन, फागुन बन बरसे ज्यों सावन, आज यहाँ वो जुड़े, जिन्होंने जोड़े पुण्य अनेक ।।२।। ऐसा ध्यान लगाया, प्रभू को रहा न ये भी ध्यान, किस-किस ने चरणारविन्द में, बना लिया स्थान । बात उन्हें यह भी न पता थी, तन से लिपटी पुष्पलता थी, ये लाखों में एक नहीं, है दुनियां भर में एक ॥३॥ गोमटेश का है सन्देश, धारो अपरिग्रहवाद, सब कुछ होके, सब कुछ त्यागो, वो भी बिना विषाद । आर्थिक बल पर मत इतराओ, दया, क्षमा की शक्ति बढ़ानो, प्रातम हित के हेत हृदय में, जागृत करो विवेक ॥४॥ अपने गुरुवर सहित पधारे, मुनि श्री विद्यानन्द, चारुकीर्ति की सौम्य छवि लखि, हर्षित श्रावक वृन्द । नगर-नगर से घूम घूमकर, प्राया मंगल-कलश यहाँ पर, एक सभी की भक्ति भावना, लक्ष्य सभी का एक ॥५॥ मस्तकाभिषेक महा मस्तकाभिषेक........ (द्वारा-गुरुवाणी प्रकाशन, जयपुर) 2/11 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक : एक रिपोर्ताज लेखिका के महोत्सव का शब्दचित्र हमारे सामने प्रस्तुत किया है । जिन्हें देखने का सौभाग्य नहीं मिला वे भी कल्पना में देख कर अपना मानस पवित्र कर सकते हैं । -सम्पादक प्रथमानुयोग के ग्रंथों के आलोक में इतिहास की ओर झांके तो ज्ञात होगा कि हजारों वर्ष पूर्व इस भारत भूमि पर अयोध्या के राजा ऋषभदेव इस अवसर्पिरिण काल के प्रथम तीर्थंकर हुये । उनके सौ पुत्र व दो पुत्रियां थीं । भरत ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, बाहुबली भरत के छोटे भ्राता थे । निमित्त के संयोग से राजा ऋषभदेव को वैराग्य उत्पन्न हो गया । वे अपना राज-पाट अपने समस्त पुत्रों में विभक्त कर स्वयं शाश्वत सत्य की खोज हेतु साधना में जुट गये। पिता से उत्तराधिकार की प्राप्ति के पश्चात् महत्त्वाकांक्षी भरत छह- खण्ड पृथ्वी विजित कर चक्रवर्ती सम्राट बनने की प्राकांक्षा पूर्ण करने हेतु समर के लिये निकल पड़े । सभी राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु उनके लघु भ्राता बाहुबली ने पूर्ण विनम्रता व सम्मान के साथ अपने बड़ े भ्राता (भरत) का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया । अपने पिता से प्राप्त राज्य पर शासन करना उनका अधिकार था । अपने अधिकार का हनन होना उन्हें स्वीकार्य न हुआ । उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार न कर अपने अधिकारों की रक्षार्थ उन्हें चुनौती दी । परिणामतः होने वाले युद्ध की प्रीति जैन विभीषिका सुयोग्य मंत्रियों की मन्त्ररणा के फलस्वरूप टल गई। दोनों भ्रातानों में सर्वोच्चशक्ति के निर्णय हेतु दृष्टि-युद्ध, जल-युद्ध व मल्ल-युद्ध हुये जिसमें भरत विजयी न हुये, बाहुबली ने उन्हें पराजित कर दिया । पराजय की क्षुब्धता असह्य हो गई । भरत ने बाहुबली पर चक्र-प्रायुत्र का प्रहार कर दिया । पर यह क्या ? चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर पुन: लौट आया। यह देखकर उपस्थित मंत्री गण एवं प्रजा भरत के इस कृत्य को धिक्कारने लगी । बाहुबली सोचने लगे-ओह ! शक्ति की लालसा और शासन का लोभ व्यक्ति का विवेक हर लेता है, वह अपने ही भाई के प्राण हरने के लिये उतारू हो जाता है। उन्हें राज्य की, संसार की, लोक के रिश्ते-नातों की असारता का निश्चय हो आया और इन सब के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने राज-पाट भरत को सौंप दिया और वन में जाकर दिगम्बर दीक्षा धारण करली | साधना में लीन बाहुबली को लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी । मैं, भरत की भूमि पर खड़ा हूं' -भाव का यह एक कण अटक रहा था, शल्य बन कर खटक रहा था। मान की इस तनिक सी 2/12 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बाहुबली विश्व प्रसिद्ध आश्चर्यकारी गोमटेश्वर भगवान बाहुबली की 58.8 फुट ऊँची ग्रेनाइट पत्थर की एक चट्टान से सन् 981 में चामुण्डराय द्वारा निर्मित विशाल प्रतिमा का 22 फरवरी, 1981 को सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक होते हुए । (फोटो : अविनाश मेहता, बम्बई) Jain Education Interational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्य के कारण 'ज्ञान' पर से श्रावरण हट नही पा रहा था। भरत को भगवान ऋषभदेव से इस तथ्य का ज्ञान हुआ। वे साधनारत बाहुबली के पास गये और निवेदन किया- बाहुबली ! भूमि यदि तुम्हारी नहीं है तो मेरी भी तो नहीं है । हम इस धरती पर हमेशा नही रहेंगे तब किसका राज्य ? कैसा राज्य ? स्वात्म से उसका कैसा सरोकार ? आधिपत्य का विचार छोड़ो, अपने सर्वोच्च लक्ष्य की बात सोचो। मान की शल्य गल गई, साधना सफल हुई, कैवल्य की प्राप्ति हो गई और बाहुबली आत्मबली हो गये । आज उनकी जीवन-गाथा जन जन को प्रेरणा दे रही है । उनकी जीवन गाथा सिखा रही है कि कर्तव्यों की सीमा में रहकर अपने अधिकारों की रक्षा करना हमारा धर्म है । स्वाधीन स्वभावी आत्मा को पराधीनता में सुख की प्राप्ति नहीं होती, वह स्वाधीन होकर ही सुख की प्राप्ति कर सकती है । ईस्वी सन् 981 में तलवनपुर के सेनापति चामुण्डराय ने कर्नाटक प्रदेश के श्रवणबेलगोल ग्राम में विंध्यगिरि पर अपनी म कालला देवी की प्रेरणा से प्रतिष्ठाचार्य सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य के सान्निध्य में उन्हीं अजितवीर्य बाहुबली की 58 फिट 8 इंच की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठापना करवाई। यह प्रतिमा लौकिक व पारमार्थिक दोनों ही क्षेत्रों में जन जन के लिये प्रेरणा स्रोत है । प्रतिमा की प्रतिष्ठापना को एक सहस्र वर्ष पूर्ण हुये । चिन्तकों, मनीषियों व एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्द जी को एक सहस्र वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में इस पवित्र व महान् प्रतिमा के महा मस्तकाभिषेक का एक पवित्र विचार, एक पवित्र कल्पना, एक पवित्र भावना उत्पन्न हुई, जिसे हमने साकार रूप में देखा । हम सब इस प्रतिष्ठापना सहस्राब्दी एवं महा मस्तकाभिषेक महोत्सव के अवसर पर एकत्रित हुये थे । इतिहास की पुनरावृति हो रही थी, इतिहास स्वयं को दोहरा रहा था । सन् 981 में प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के अवसर पर अनेकों त्यागी-व्रती. ऋषि-मुनि, विद्वद्गण, श्रावक उपस्थित थे और साथ में थे सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य, जिनके सान्निध्य में ही प्रतिष्ठापना का कार्य सम्पन्न हुआ था और इस सहस्राब्दी एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर पर भी हमारे समक्ष विशाल जन समूह के साथ अनेकों त्यागी, ऋषि-मुनि संघ, विद्वद्गण विद्यमान थे और साथ में थे सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी जिनके पवित्र विचार को, पवित्र भावना को जैनमठ - श्रवरण बेलगोल के भट्टारक स्वस्ति श्री चारुकीति स्वामी जी व समाज के अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने साकार किया तथा जिनके सान्निध्य में यह महोत्सव सम्पन्न हो रहा था । ग्यारह फरवरी - आयुर्वेदिक चिकित्सालय आरोग्य - भारती' श्रवणबेलगोल शाखा का शुभारंभ हुप्रा । पूज्य आचार्य विमलसागर जी, आचार्य आर्यनन्दी जी, स्वस्ति श्री चारुकीति स्वामी जी एवं समस्त साधु-साध्वी संघ के सान्निध्य समाज के गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में पूज्य एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्द जी के शुभाशीर्वाद से इसका शुभारंभ हुआ । वैद्य सुशील कुमार जी साह, जयपुर की देखरेख में इस चिकित्सालय का कार्य चलेगा । इस चिकित्सालय के माध्यम से वैद्य जी द्वारा उपचार रुग्ण, त्यागी - व्रति व साधु संघ की वैयावृत्ति व शास्त्रोक्त विधि से निर्मित शुद्ध ओषधियां प्राप्त हो सकेंगी। बीस फरवरी - इस दिन श्राचार्य देशभूषण का जन्म दिन था, उन्होंने जीवन के 90 बसन्त पूर्ण कर 91 वें में पदार्पण किया। इस उपलक्ष में चामुण्डराय में मण्डप एक प्रवचन सभा का आयोजन किया गया। उसी सभा में प्राचार्य श्री 2/13 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अपने शिष्य एलाचार्य श्री को समस्त त्यागी- रहा था और इधर इस विध्यगिरि क्षेत्र में सब मूनि संघ एवं विशाल जनमेदिनी के समक्ष धर्मो को विश्वधर्म में, आचरण में समन्वित कर 'सिद्धान्त-चक्रवर्ती' पद से सुशोभित किया। सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य मुनिश्री की विश्वधर्म उद्घोषणा प्रथम देशना के रूप में निःसृत हो रही महामस्तकाभिषेक महोत्सव के अन्तर्गत थी। जिनवाणी की यह भव्य आराधना सभी विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इन्हीं सज्जना के श्रुतिविलास में सज्जनों के श्र तिविलास में वास्तविक प्राध्यात्म के कार्यक्रमों की शृखला में एक अनूठा व अवि- स्वरों को गुजायमान कर रही थी। स्मरणीय कार्यक्रम रहा सर्वधर्म सम्मेलन । महामस्तकाभिषेक मंच पर ऐसे सम्मेलन का आयोजन चामुण्डराय सभा-मण्डप के सामने थानिश्चित ही आयोजकों की सूझ बूझ व उदार भद्रबाह मण्डप-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रंगस्थली। दृष्टिकोण के परिचायक था। इस अवसर पर यहाँ प्रतिदिन रात्रि में विभिन्न संस्थाओं द्वारा सनातन धर्म के प्रतिनिधि पेजावर मठ (उडीपी) सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रायोजन हो रहे थे जिनमें के गुरु स्वामी विश्वेशतीर्थ, धर्माचार्य बाल गंगाधर कर्नाटक सरकार, निकलंक मण्डल-इन्दौर, श्रीराम स्वामी, सिख धर्म के अनुयायी मेजर जनरल उबान, भारतीय कला केन्द्र-देहली प्रमुख थे। श्री राम मुनि सुशील कुमारजी,धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े, भारतीय कला केन्द्र द्वारा प्रस्तुत भरत-बाहुबली बैले अत्यन्त मनमोहक व मार्मिक था। साधू संघ आदि उपस्थित थे। चामुण्डराय सभा मण्डप विभिन्न धर्म-धारानों का संगम-स्थल हो ___ इसके कुछ दूरी पर ही एक प्रदर्शनी थी, जहाँ रहा था । विविध धर्मों की धाराये बह रही थीं। भारत के अनेक प्रान्तों की विभिन्न वस्तुओं की जिनकी सतरंगी आभा के बीच एलाचार्य मुनिश्री हाटे लगी थीं। यहीं पर एक धार्मिक-प्रदर्शनी का विद्यानन्द जी सर्य समान पालोकित हो रहे थे। मण्डप था जिसमें निर्जीव गुड़ियों के माध्यम से विविध धर्मों के प्रतिनिधियों द्वारा अपने धार्मिक भरत-बाहबली की जीवन-गाथा को बहत ही विचारों की अभिव्यक्ति के पश्चात् एलाचार्य सजीव-जीवन्त किया गया था। काच की शीशियों मुनिश्री का मंगल-प्रवचन हुआ जिसमें मुनिश्री ने से समवशरण, मानस्तंभ की रचना अत्यन्त भव्य कहा-धर्म प्रत्येक प्रात्मा में विद्यमान है, यह थी। इस मण्डप में श्रद्धा एवं कला का प्रत्यन्त आत्मा का स्वभाव है, प्रात्मा की निधि है। शब्द मनोहारी संगम था। रूपान्तर से शुद्ध आचरण धर्म है-ईश्वर है, Character is God. आचरण की शुद्धता- इक्कीस फरवरी-देश की प्रधान मंत्री श्रीमती पवित्रता ही धर्म का मुख्य उद्देश्य है और जो इदिरा गांधी इस विश्वतीर्थ के दर्शनों हेतु पधारी । धर्म आचरण की शुद्धता की बात कहता है वही उन्होंने विध्यगिरि पर पुष्पवृष्टि की और मध्यान्ह धर्म विश्व-धर्म है। मुनिश्री का प्रवचन सब धर्मों में विशाल जनसमुदाय के समक्ष अपने विचार को एकाकार कर रहा था, समन्वित कर रहा था। प्रस्तुत किये । कार्यक्रम अत्यन्त भव्य था । इन्दिरा वे किसी धर्म विशेष का विवेचन नहीं कर रहे थे, जी अपने भावों व हर्षातिरेक को न रोक सकी वे विश्व-धर्म का विवेचन कर रहे थे, विश्वधर्म ओर उनके मुख से निकल पड़ा कि-कितना अच्छा पर प्रकाश डाल रहे थे। संध्या समय होने जा रहा होता कि मै भी विध्यगिरि पर अपने पावों से था। सूर्य, प्रातः फिर एक नवीन प्राभा लेकर चलकर भगवान बाहुबली के अभिषेक का सौभाग्य उदित होंने हेतु अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर प्राप्त करती। 2/14 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईस फरवरी-श्रवणबेलगोल की छटा ही कलशों द्वारा प्रतिमा का न्हवन किया गया। ऐसा निराली थी। उस दिन भगवान बाहुबली की प्रतीत हो रहा था मानों हम क्षीर-समुह के किनारे विशाल भुवनमोहिनी प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक आ खड़े हुये हैं। प्रतिमा पर उडेला हुअा क्षीर था। जिसमें सम्मिलित होने हेतु देश-विदेश से ऐसा लग रहा था मानों क्षीर-सागर में लहरे उठ लाखों यात्री आये थे। नगर में विशाल जनसमुदाय रही हों। प्रतिमा क्षीर के संयोग से श्वेत-धवल उमड़ रहा था उन चन्द्रवदन बाहुबली के पूनीत प्राभा बिखेर रही थी। तत्पश्चात् चन्दन, इक्षुग्स, दर्शनों हेतु । भगवान बाहुबली की एक सहस्रवर्ष केशर आदि से अभिषेक किया गया। प्रतिमा क्षण पुरातन प्रतिमा आज भी अपने चिर-युवा रूप में क्षण में नवीन वर्ष युक्त हो रही थी, बार बार स्थित है। भक्तगण श्रद्धा-विनय और उल्हास के नवीन आभा युक्त हो रही थी। जीवन में ऐसे साथ प्रतिमा का अभिषेक करने हेतु विध्यगिरि अवसर बार बार नहीं पाते । जीवन में वह दृश्य की ओर गतिमान थे और दर्शकगण चन्द्रगिरि की अपूर्व है और संभव है भविष्य में भी ऐसा सुयोग पोर। शायद ही प्राप्त हो, न भूतो न भविष्यति । जीवन दुन्दुभि-ध्वनि व जयघोषों के मध्य प्रारंभ में कृत कृत्य हुआ बाहुबली के चरण-सान्निध्य में । 1008 जलकलशों द्वारा प्रतिमा का अभिषेक किया मन चाहता है जीवन में इन चरणों का सान्निध्य गया। भक्त अपनी श्रद्धा उडेल रहे थे। एक ओर पुनः पुनः प्राप्त होता रहे। प्रतिमा की मनोज्ञता साधू-साध्वी संघ विराजमान था, दूसरी ओर पारणामा म निमलता ला रहा था जिसस नयन सम्मानीय अतिथिगण व दर्शकगण बैठे थे और सजल हो उठे और मुख से निकल रहा थाअभिषेक के मनोहारी-अविस्मरणीय दृश्य का प्रानन्द ले रहे थे। जल-कलश के पश्चात क्षीर- "तं गोमटेशं पणवामि णिच्यं" 2/15 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवणबेलगोल और नारी -डा० श्रीमती शान्ता भामावत, प्रिसिन्पल, वीर बालिका महाविद्यालय, जयपुर। जैन संस्कृति में नारी पुरुष की दासी नहीं, सहयोगिनी ही है । प्रात्मोद्धार में उतनी ही स्वतन्त्र है जितना पुरुष । श्रवणबेलगोल का पत्थर पत्थर साक्षी है । -सम्पादक स्त्री पुरुष विश्वरथ के दो पहिये हैं। उसमें न मोड़ लेते है, तब राजीमती विरह-विदग्ध होकर कोई छोटा है और न कोई बढ़ा । दोनों की समा- विभ्रान्त नहीं बनती, प्रयुक्त विवेक पूर्वक अपना नता ही रथ की गति-प्रगति है। इतिहास के पुष्ठ गन्तव्य निश्चित कर साधना पथ पर अग्रसर होती उलट कर देखें जायें तो प्रतीत होगा कि नारी है। सीता सावित्री, अन्जना, मैनासुन्दरी, चन्दनजाति ने सदैव मानव जाति को नई ज्योति, नई बाला, द्रोपदी आदि अनेक नारियों ने अपने प्रेरणा और नई चेतना प्रदान की है। सन्तान, तेजस्वी व्यक्तित्व से नारी जाति को गौरवान्वित चरित्र, कुल धर्म और संस्कृति की रक्षा का श्रेय किया है । नारी वर्ग को ही है। जैन दर्शन और साहित्य में नारी के विवध रूपों का चित्रण हया है। यहां समाज की रचना-प्रक्रिया धर्म एवं संस्कृति के नारी के भोग्या स्वरुप की सर्वत्र भर्त्सना की गई है संरक्षण और पोषण तथा राष्ट्रोत्थान के महनीय और साधिका स्वरूप की सर्वत्र वन्दना-स्तवना। कार्यों में नारी के योगदान को कभी विस्मृत नहीं जननी, पत्नी भगिनी, पूत्री रूप में नारी ने सदैव किया जा सकता। भारतवर्ष में पूर्व से लेकर पथभ्रमित मानव को सही रास्ता दिखाया। श्वेता- पश्चिम तक तथा उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी म्बर मान्यता के अनुसार तपस्या में लीन बाहुबली दिशाओं में नारियों ने पुरुषों के साथ कन्धे से कंधा को, उनके मन में निहित अहंभाव को दूर करने मिला कर प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य में योगदान की प्रेरणा देने वाली उनकी बहिनें भगवान् दिया है। ऋषभदेव की दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी ही थीं। राजीमती से विवाह करने के लिये बरात यह संयोग ही है कि जैनधर्म के 24 तीर्थकरों सजाकर पाने वाले नेमिनाथ जब बाड़े में बंधे का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में हुआ पर पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर विवाह से मुंह भगवान महावीर के बाद दक्षिण में जैन धर्म एक 2/16 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य शक्ति के रूप में विशेष रूप से उभरा और अनेक विद्वान जैन प्राचार्यों ने जैन संस्कृति के हर पक्ष को व्यापक रूप से प्रभावित किया । उनकी प्रेरणा के जीवित साक्ष्य हैं— उत्तुंग जैन मन्दिर, भव्य एवं विशाल तीर्थकर मूर्तियां, प्रस्तर अभिलेख, पर्वत - गुफाएँ, अलभ्य जैनग्रन्थ भंडार | दक्षिण भारत के तमिलनाडु, आन्ध्र एवं कर्नाटक प्रदेश में ईसा शताब्दी पूर्व से लेकर हजारों वर्षो तक जैनधर्म खूब फला-फूला। कर्नाटक तो जैनधर्म का घर माना गया है। यहां के गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य एवं होयसल राजवंशों ने जैनधर्म को संरक्षण प्रदान कर उसकी प्रभावना में अद्भुत योगदान किया । राजन्य वर्ग ही नहीं सामान्य जनता भी जैनधर्म के प्रचार-विचार से काफी हद तक प्रभावित हुई । इस धर्म चेतना और श्रात्म जागरण का प्रतीक है श्रवणगोऐलगोल तीर्थ और उसकी प्राकर्षरण केन्द भगवान् बाहुबली की 57 फुट ऊँची भव्य प्रतिमा । धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से नहीं, वास्तु कला एवं पुरातत्व की दृष्टि से भी श्रवरणेवलगोल मानव संस्कृति की अमूल्य निधि है । मानवता का भविष्य किसमें हैं - युद्ध और रक्तपात में या तप और वैराग्य में ? इसका सचोट उत्तर इस तीर्थ के प्रत्येक मन्दिर, अभिलेख, गुफा, प्रतिमा आदि से मिलता हैं । प्राणिमात्र के कल्याण की कामना लिपटी हुई है इस तीर्थ से । जो स्वयं के तिरने में व दूसरों को तारने में सहायक बनता है वही तीर्थ हैं । इस दृष्टि से यह तीर्थ एक ओर अपनी प्राकृतिक छटा और पूर्व कला वैभव से मन को प्राकषित प्रभावित करता है तो दूसरी ओर यहां के पवित्र वातावरण में जिन अद्भूत प्राचार्यो, राजानों सामन्तों, मंत्रियों और अन्य लोगों ने व्रत- प्रत्याख्यान कर तपसाधना की हैं, अपने जीवन को सार्थक एवं मंगलमय बनाया है, उनसे जीवनोत्थान एवं धर्म अराधना की विशेष प्र ेरणा और शक्ति मिलती है । इस तीर्थ के दर्शन मात्र से मानस - तीर्थ छलकने लगता है, उसमें प्रेम, मैत्री, करूणा, तप, त्याग संयम प्रादि सद्भावनाओं की लहरें तरंगित होने लगती हैं । श्रवबलगोल के साथ जहां अनेक पुरुषों तथा प्रतापी नरेशों, वीर सामन्तों, अद्भूत योद्धाओं की स्मृतियां लिपटी हुई हैं वहां नारियां भी पीछे नहीं रही हैं । मन्दिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, पूजा अभिषेक समाधिकरण, व्रत- प्रत्याख्यान दानादि, सब में नारियों ने अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व की विशेष छाप छोड़ी हैं। यहां तक कि गोम्टेश्वर बाहुबलि की विश्वविख्यात मूर्ति के निर्माण के मूल में प्र ेरणास्रोत एक नारी ही रही है । कहा जाता है कि गंगनरेश राचमल्ल चतुर्थ के मंत्री और सेनापति चामुण्डराय की माता काललदेवी ने जैनाचार्य जिनसेन से पोदनपुर में स्थित गोम्मटदेव की सुन्दर एवं भव्य प्रतिमा का वृत्तान्त सुना तो उन्होंने प्रण किया कि जब तक गोम्मटदेव के दर्शन न कर लूंगी, तब तक दूध नहीं लेऊंगी। अपनी पत्नी प्रजितादेवी से जब चामुण्डराय को माता की प्रतिज्ञा के बारे में जानकारी मिली तो वे उन्हें लेकर पोदनपुर की यात्रा पर चल पड़े । पर यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम था । मूर्ति के दर्शन दुर्लभ थे । अतः मां की इच्छापूर्ति के लिए चामुण्डराय ने विध्यागिरि पर ही वैसी मूर्ति स्थापित कराई । मूर्ति स्थापित हो जाने के बाद उसके अभिषेक की तैयारियां शुरू हुई । चामुण्डराय ने मनों दूध अभिषेक के लिए एकत्र कराया पर उस दूध से मूर्ति के जंघा से नीचे का अभिषेक नहीं हो सका । अभिषेक की सम्पन्नता - संपूर्णता में भी एक सामान्य नारी ही सहायक बनी । जब गुरु की सलाह पर एक वृद्धा भक्तिजन गुल्लकायज्जि के कटोरे में निहित अल्प दूध से अभिषेक कराया गया तो वह मस्तक पर छोड़ते ही पूरे शरीर पर सर्वागों तक 2/17 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक पहुंच गया । मनों दूध पर कटोरे के अल्प दूध की यह विजय नारी के सरल मन, निष्काम भक्तिभाव और अगाध वात्सल्य प्रेम की विजय है । यह घटना इस तथ्य की सूचक है कि सत्ता और प्रभुता से नहीं बल्कि सेवा पोर नम्रता से प्रभु रीझते हैं तथा भगवान राजात्रों और सामन्तों के राजसी भोगों के भूखें नहीं है, वे भूखे हैं जनता जनार्दन के प्रेम पौर स्नेह के मूर्ति निर्माता शिल्पी श्ररिष्टनेमि के लोभ कलुषित मन को शुद्ध बनाने में जो प्रेरक बनी, वह भी नारी ही थी। कहा जाता है कि जब चामुन्डराय ने अपने राज्य के प्रधान शिल्पी परिष्टनेमि को मूर्ति निर्माण का कार्य सौंपा तो पारि श्रमिक की राशि क्या मिलेगी, इस लोभ भावना से वह ग्रस्त हो गया । चामुन्डराय ने मुंह मांगा स्वर्ण देने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जब पारिश्रमिक की पहली खेप लेकर शिल्पी परिष्टनेमि अपनी माता के पास पहुंचा और दोनों हाथों से स्वर्ण उठाकर माता के सामने रखने लगा तो उसके दोनों हाथ जड़वत हों गये। वे सोने से चिपक गये। स्वर्ण मोह के विकार भाव ने उसे जड़ीभूत कर दिया। यह स्थिति देखकर मां ने उसे उसके कर्त्तव्य का ज्ञान कराया। तब कहीं लोभ विकार से उसका मन मुक्त हुआ और हाथ मुक्त हुए स्वर्ण से । इस प्रकार ग्रहं धौर लोभ के भावों से प्रस्त पुरुषों को मुक्त कर उन्हें सच्ची धर्म अराधना और भक्ति भावना की ओर उन्मुख करने में नारी ही मूल प्रेरणा रही है । श्रवणबेलगोल से जुड़ा नारी रूप संप्र ेरक होने के साथ-साथ साधनाशील और तपोनिष्ठ भी है। यहां की पुनीत तीर्थभूमि में जहां प्रतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चन्द्रगुप्त " मौर्य जैसे महान् साधकों ने समाधिकरण प्राप्त किया वहां अनेक नारियां भी व्रत प्रत्याख्यान कर संलेखनापूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुई। डॉ. हीरा लाल जैन द्वारा सम्पादित जैनाशिलालेख संग्रह प्रथम भाग के अध्ययन से हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है। जैनधर्म-दर्शन में जीने की कला बारह व्रत - साधना के रूप में प्रतिपादित की गई है तो मृत्यु की कला सल्लेखना व्रत के रूप में । जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही, फिर हाय-हाय करते हुए क्यों मरा जाय। मृत्यु दार्श निकों की दृष्टि में, जीवन का विनाश नहीं वरन् नये जीवन का प्रारम्भ है । अतः मृत्यु मांगलिक हो इसका बराबर ध्यान रखा गया है । श्रवणेवलगोल में उत्कीर्ण शिलालेखों से सूचित होता है कि यहां कई भ्रमणियों और महि लाओं ने व्रतपालन करते हुए तप साधना करते हुए प्राणोत्सर्ग किया। चित्तर के मोनि गुरु की शिष्या नागमति गान्तियर ने तीन मास के व्रत के पश्चात् लेख सं. 2 (20) नाविलूर संघ की अनन्तामति ने बारह तप धारण कर ( लेख सं. 28 98 ), व्रत, ग्राम संघ की चार्या ने प्रात्मसंयमपूर्वक (लेख सं. 20 108, व्रत, शील, गुणादि सम्पन्न साहिमतिगान्ति ने संन्यास ग्रहण कर (लेख सं. 3576 एचिगांक की प्रार्या धर्म परायणा पोचिकब्जे ने शक सं 1043 में संन्यास विधि से (लेख सं 44 118 देह त्याग दिया। दण्डनायक गंगराज की धर्मपत्नी गुण-शील सम्पन्न लक्ष्मीमति ने जो शुभचन्द्राचार्य की शिष्या थी, शक संव 1044 में में संन्यास- विधि से प्राणोत्सर्ग किया (लेख स. 48 128 चाणुण्ड नामक किसी प्रतिष्ठित और राजसम्मानित वारिक की धर्मवती भार्या देमति ने दान-पुण्य के कार्यों में जी व्यतीत कर शक सं. 1042 में संलेखनापूर्वक देह त्याग किया । लेख 2/18 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. 49 (128) होयसल नरेश विष्णुवर्धन की संलेखनापूर्वक प्राणोत्सर्ग करने की भ वना का पटरानी शान्तलदेवी की माता माचिकब्ब ने यहां सम्बन्ध पूरी जीवन-पद्धति और जीवन दर्शन से एक माह से अनशन व्रत के पश्चात् संन्यास विधि है। अतः यहां की नारी ने जहां मृत्यु के समय से प्राणोत्सर्ग किया। उसने अपने गुरू प्रभाचन्द्र अपनी आत्म-वीरता का परिचय दिया है, वहां सिद्धान्तदेव, वर्धमानदेव और रविचनुदेव की साथी मन्दिर निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा, पूजा-अभिषेक आदि से संन्यास ग्रहण किया था लेख सं. 53 (143) प्रसंगों में उसने धर्मवीरता व दानवीरता का भी पंडित देव के शिष्य संनबोव सामण्ण के पुत्र जिन- परिचय दिया है। एचिगांस की आर्या पोचिकब्बे भक्त हिरिमण्ण की पत्नी महादेवी ने गोम्मटनाथ ने अनेक धार्मिक कार्यों के साथ-साथ कई मन्दिर स्वामी के चरणकमलों की वन्दना पर मुक्ति मार्ग भी बनवाये । दण्ड नायक बलदेव के पौत्र बल्लण प्राप्त किया। लेख सं. 117 (259) दोशियगण की स्मृति में उसकी माता और भागिनी ने एक कुन्दकुदान्वय के शिष्य योगी दिवाकर नन्दि की पट्टशाला स्थापित की और उसके चलाव के लिए शिष्या श्रीमती गन्ती (लेख सं. 139 35, एवं कुछ जमीन दान में दी। लेख सं. 56 (32) से साध्वी कालब्बे (लेख सं. 479 (389) ने भी यहीं सूचित होता है कि विष्णुवर्धन की पटरानी शान्तल समाधिकरण प्राप्त किया था। देवी अत्यन्त धर्मप्रारण व्यक्तित्व थी। उसे भक्ति में रुकमणी, सत्य भामा सीता जैसी देवियों के धर्मसाधना और तप-त्याग में वीरता प्रदर्शित समान बताया गया है। उसने सवति गन्धवारण करने वाली नारियों के उल्लेख तो कई भिलते हैं वस्ति का निर्माण कराया और अभिषेक के लिए पर यहां एक ऐसी नारी का उल्लेख भी मिलता है एक तालाब बनवाया तथा एक ग्राम का दान जिसने युद्ध क्षेत्र में भी अपनी वीरता का प्रदर्शन मन्दिर के लिए अपने गुरु प्रभाचन्द सिद्धान्तदेव को किया। यह वीरांगना थी सावियब्बे । इसका पति किया। लेख सं. 229 (137) से ज्ञात होता है कि धोर का पूत्र लोक विद्याधर था। लेख स. 61 होयसल नरेश के प्रसिद्ध सेठी पोयसलसेट्रि और (139) में बताया गया है कि यह स्त्री. रेवती. नेमिसोट्टि की माताओं-माचिकब्बे और शान्तिकब्बे देवकी, सीता, अरुंधती के सदश रूपवती, पतिव्रता ने जिन मन्दिर और नन्दीश्वर निर्माण कराकर और धर्मप्रिया थी। जिन भगवान् में उसकी भानुकीति मुनि से दीक्षा ग्रहण की। शासन देवता के समान भक्ति थे। उसने अपने पति के साथ युद्ध में लड़ते हुए “बगिपुर” नामक लेख सं 494 से सूचित होता है कि होयसल स्थान पर अपने प्राण विसर्जित किये । लेख के नरेश बल्लदेव के मन्त्री चन्द्रमोलि की पत्नी ऊपर जो चित्र खुदा है उसमें यह स्त्री घोड़े पर प्राचलदेवी भक्तिप्रवण महिला थी। उसने बेलगोल सवा • हुई हाथ में तलवार लिये हुए एक हाथी पर तीर्थ पर पार्श्वनाथ मन्दिर निर्माण कराया और सवार वीर का सामना करती हुई चित्रित की गई इसके लिए बल्लालदेव से बम्मेयनहाल्लि ग्राम है। हाथी पर चढ़ा हुया पुरुष इस पर वार करता प्राप्त कर मन्दिर को दान किया। सेनापति गंगहा दिखाया गया है। राज की पत्नी लक्ष्मीमति ने श्रवणबेलगोल में एक जिनालय का निर्माण कराया। अपने पति की इस प्रकार धर्मवीरता और युद्धवीरता का तरह वह चारों प्रकार का दान देती थी-पाहार. अनुपम संगम हुआ है इस नारी-चरित्र में। दान औषध दान, ज्ञानदान और अभयदान । 2/12 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1121 ई. के शिलालेख में लिखा है क्या अन्य उक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रवणेबलगोल स्त्रियाँ चातुर्य, सौन्दर्य और जिनभक्ति में इसकी तीर्थ के साथ पुरुषों की तरह नारी जाति का भी समानता कर सकती है । गंगराज के बड़े भाई की सभी क्षेत्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। नारी अपने मत्नी जक्कणब्बे सेनापति बोप की माता थी। तप, तेज को उद्दीप्त कर स्वयं साधनारत रही है शिलालेख नं. 43 में उल्लेख है कि जैनधर्म में तथा दूसरों के लिए प्रेरणा और शक्ति बनकर उसकी भारी श्रद्धा थी। उसने जिन मूर्ति तथा एक प्रकट हुई है। तालाब का निर्माण कराया। 2/20 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम जैन कलारत्न -शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी साहित्य, धर्म, इतिहास एवं कला जगत में मथुरा नक का रहस्योद्घाटन होता है । नगरी का गौरवमय अतीत रहा है। इसी नगरी से पुरातात्विक सामग्री से ओत प्रोत टीला था अब सिरदल के संयुक्त रूप से जे. जे. 354 तथा जिसे कंकाली टीले के रूप में पहचानते हैं। इस जे. 609 : सात प्राकृतियां नर्तकी एवं वादकों की विशिष्ट स्थली से ई.प. द्वितीय शताब्दी से लेकर हैं। इनमें एक झोपड़ी के खम्बे से बाहर है । बाद सम्वत् 1134 अर्थात 1077 ई. तक की कला. दो बैठी एक खड़ी नीचे और ऊपर चार खड़ी कृतियां प्राप्त हुई है। इनमें विशेष है जैन प्रति- पुरुषाकृतियां नृत्य देखने के तल्लीन बनी है। इन्हीं माए', पायागपट, वेदिका स्तम्भ, इन पर अकित के साथ नीचे अचेलक, कमन्डल और पीछी लिये यक्षियां तथा एकमात्र शंखलिपि में उत्कीणित साधु तदुपरान्त केवल वस्त्रखड व बांयी टांग शिलालेख उल्लेखनीय कलावशेष है । जिसकी शेष है ऐसा एक अर्धफलक का अंकन बचा है। क्योंकि बाद में यहीं पर एक खांचा काटा इस कलाराशि में एक ऐसा स्तम्भ खंड भी था गया था जिससे ऐसा लगता है कि इस सिरदल को जिस पर खपरलों से बनी झोपड़ी के नीचे एक बाद में वेदिका स्तम्भ का रूप दिया गया क्योंकि नृत्यांगना नृत्य कर रही है, इसी के पास नीचे दूसरे खांचे का कुछ अंश अगले भाग पर भी देखा वादक वाद्य बजा रहे हैं। कुछ दर्शक झोपड़ी के जा सकता है । दोनों और इस मोहक नृत्य का प्रानन्द लेते हुए उकेरे गये हैं । कभी इस दृश्य को बुद्ध जन्म से यहां पर निरूपित दो तीर्थकरों की पल्थी जोड़ा गया था। कालान्तर में एक अन्य टुकड़ा ढीली है, भूमि पर बैठे हैं। हाथ भी गोद में रक्खे मेरे पूर्ववर्ती तथा अल्मोडा संग्रहालय के निदेशक हैं। चंवरधारी एक धोती व हार पहने हैं। दूसरे श्री वीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव महोदय को सौभाग्य का हार तो स्पष्ट है किन्तु निचला अंश विनीष्ट से मिला जिस पर दो ढीली पल्थी लगाये बैठी हो चुका है। बादवाली ध्यानस्थ प्रतिमा के वक्ष प्राकृतियां तथा इनके प्रथम वाले के बांयी ओर पर हल्का सा सकरपाला बना है जो आगे चलकर तथा दूसरी बैठी मूर्ति के बांयी ओर चवर लिये श्रीवत्स का रूप धारण कर लेता है. और तीर्थकरों पुरुष खड़े हैं। जब इस टुकड़े को पूर्व वरिंगत की पहचान करने का मुख्य लांछन बन जाता है । टुकड़े से जोड़ने का प्रयास किया गया तो संयोग यहां तीर्थकरों की चौकी : पायागपट्ट जे. 253 : से इसी का भाग निकला। यह खोज उसी प्रकार या सिंहासन पर नहीं बैठाकर भूमि पर बैठे बनाया हई मानो पार्कमीडीज ने गुरुत्वाकर्षण को खोज इनके बालों को मोटी लट के रूप में बांयी ओर लिया हो क्योंकि इससे एक महत्वपूर्ण जैन कथा- धुमाकर दर्शाया गया है। बांयी प्रोर की तीर्थकर 2/21 नोट- माता - s/9 PM Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति के पूर्व भी कोई तीर्थकर प्रतिमा रही होगी सौभाग्य से इस सिरदल पर अंकित कथानक जिसका प्रावक्ष मात्र ही बचा है। क्योंकि कुडल, का वर्णन जैन धर्म के दो ग्रन्थों में उपलब्ध हो उत्तरीय प्रादि का अभाव है। जिससे लगता है कि जाता है। इसमें प्रथम के अनुसार नीलांजना के ध्यानस्थ होने के पूर्व की स्थिति में इसे इस प्रकार मरण से ऋषभ भगवान् में वैराग्य जागृत हुा । दर्शाया गया है। इसी के समीप हाथ जोड़े उत्त- द्वितीय स्रोत से ज्ञात होता है कि ऋषभ के चक्ररीय डाले, कुडल पहने एक पुरुष मूर्ति है जिसका वर्ती सम्राट होने पर इन्द्र उपस्थित हुए और मुख और पेट से नीचे का भाग टूटा है किन्तु मुख उन्होंने नृत्य के लिये इसमें पारगत नीलांजना सामने बैठी ध्यानस्थ तीर्थकर प्रतिमा की ओर है । अप्सरा को नियुक्त किया जिसने अपने लास्यपूर्ण कहीं ऐसा तो नहीं कि यह इन्द्र हों और अर्हन नृत्य से भगवान ऋसभ सहित सभी दर्शकों को भगवान की वन्दना करते बनाये गये हों। इसी मोहित कर लिया था किन्तु इसी नृत्य की अवधि प्राकृति के साथ चार पुरुष बने हैं जो कुंडल, उत्त- में उसकी आयु पूर्ण हो गयी जिसे जानकर भगरीय व अधोवस्त्र पहने खड़े हैं। यहां सभी के वान आदिनाथ को अत्यन्त दुख हुआ और साथ ही मुख नृत्यांगना के नृत्य की ओर हैं। इसके नीचे उनके मन ये वैराग्य का भाव अंकुरित हो गया। दो पुरुष बैठे हैं और नृत्य को देख रहे हैं। एक इसी घटना की नृत्य से उठकर जाते हुए तथा बैठे पुरुष ने बांये घुटने पर वस्त्र बांध रक्खा है ध्यान करते हुए स्थितियों में सिरदल पर उन्हें मानों जमकर नृत्य देखेगा। इसके बाल पीछे को सफलतापूर्वक प्रतिबिम्बित किया गया है । प्रस्तु, हैं। इसी के समीप एक पुरुष धोत्ती पहने खड़ा प्रतिमा विज्ञानीय साक्ष्यों यथा ऋषभ की ढीली है । इसके बाल भी पीछे हैं और बायां हाथ बगल पलथी, श्रीवत्स का सूक्ष्मांकन, मात्रभूमि पर बैठे में बैठे पूर्ववणित पुरुष के कन्धे पर टिकाये हैं। दिखलाना, अन्य प्राकृतियों की बन झोंपड़ी के अन्दर दो वादक एक और नर्तकी है और खम्भों की बनावट आदि अकाट्य प्रमाणों से यह दूसरी ओर ढोल वादक अन्य वादक तथा एक और कलारत्न शुगकालीन अर्थात् दूसरी श प्राकृति है। इसी खम्बे के बाहर भी एक खंडित का प्रतीत होता है जिसका वर्णन आगे चलकर प्राकृति है। नृत्यांगना के वस्त्र, अलंकरण तथा संयोग से साहित्यक स्रोतों में भी उपलब्ध हो जाता वादकों के शिरोवेष्टन, आभूषण, मुखाकृति, शारी- है। इस कलाकृति को जैन संस्कृति एवं कला रिक संरचना तथा दर्शकों को पगड़ी, धोत्ती बांधने मर्मज्ञ डा. ज्योति प्रसाद जैन, यू. पी. शाह एवं की शैली, उत्तरीय धारण करने का ढंग हमें भर- डा. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी प्रभति विद्वानों ने हुत, सांची की प्रतिमानों और शुगकालीन मथुरा नीलांजना नृत्य के रूप में ठीक ही पहचाना है। आदि से उपलब्ध मिट्टी पर बनी मूर्तियों पर अंकित इस प्रकार जहां तक जैन कथानकों के विलेखन का प्राकृतियों से अभिन्न साम्यता लिये प्रतीत होते । सम्बन्ध है यह कलारत्न उक्त प्रमारणों के आधार पर सर्व प्राचीन स्वयं सिद्ध हो जाता है। इसे ऋषभ वैराग्य पट्ट के नाम से कलाविदों ने समीइस सिरदल के नीचे की ओर भी दो खांचे चीन ही अभिहित किया है । अधुना, प्रस्तुत कटे हए हैं, वाकी मोर सपाट है और इस पर । प्राचीनतम जैन कलाकृति, पुरातत्व संग्राहालय, कोई भी लेख आदि नहीं है। लखनऊ के संग्रह की शोभा बढ़ा रही है। 2122 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 1. प्र उसहो नीलंजसाए मरणात्री तिलोयपण्णति । 4-606 इस ग्रंथ को देखने के लिए लेखक महावीर शोध केन्द्र चारबाग लखनऊ का श्राभार स्वीकार करता है । ब इति संसारचक्रे स्मिन् विचित्ररूपरिवर्तने । दुःखमाप्नोति दुष्कर्मपरिपाकादव राक्कः । नारीरूपमयं यन्त्रमिदमत्यन्तपेलवम् । पश्यातामेव न साक्षातकथमेतदगाल्लयम् ॥ 17.36 रमणीयमिदमत्वास्त्री रूपबहिरुज्वलम् । परतन्त्रनश्यन्तिपतङ् इबकामुकाः ॥ 17.37 कूटनाटकमेतत पयुक्तममरेशिना । नूनमस्मत्प्रबोधायस्मृतिमाधायधीमता ॥ 17,38 यथेदमेवमन्यच्चभोगङ्गयत् क्लिङ्गिनाम् । भङ गुरं नियतापायं केवलं तत्प्रलभ्यकम् । 17.39 fi किलाम भीरेः किमलैरनु लेपवः । उन्मत्तचेष्टितैनृत्तिरलं गीचैश्चशोचिते ॥ 17.40 .............आदिपुराण, जिनसेन अनु० पन्नालाल जैन काशी 1963 / राज्य संग्रहालय लखनऊ पुस्तकालय से । 2/23 सहायक निदेशक, पुरातत्व संग्रहालय 27, केसरबाग लखनऊ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवणबेलगोल का धार्मिक एवं सामाजिक महत्त्व .डॉ० नरेन्द्र भानावत एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। बाहुबली में सूरमा और संत का मेल है । चन्द्र गप्त और भद्रबाहु, चामुण्डराय और प्रा. नेमीचन्द्र-श्रवणबेलगोल मानो कह रहा है जैन संस्कृति सूरमाओं और संतों की संस्कृति है। -सम्पादक श्रवणबेलगोला दक्षिण भारत में मैसूर के श्रवणबेलगोला में तीन शब्द हैं 'श्रवण' अर्थात् हासन जिले में एक अत्यन्त प्राचीन, विश्व-विख्यात श्रमण, 'बेल' अर्थात् सफेद, गोला अर्थात् सरोबर । गौरवपूर्ण तीर्थस्थल है। इसके साथ शक्ति और इसका अर्थ हुअा जैन साधुओं का सफेद तालाब । भक्ति का, शूरवीरता ओर अत्मा-जयता का तथा इस अर्थ से इस स्थान की निर्मलता, पवित्रता, संत और सूरमा का प्रेरणादायी इतिहास जुड़ा हुआ शुद्धता और प्रशान्तता सूचित होती है। है। कहा जाता है कि ईसा के तीन सौ वर्ष पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में उत्तर श्रवणबेलगोला की जो विश्वव्यापी ख्याति है, भारत में जब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा तो उसका मुख्य कारण है यहां की गोम्मटेश्वर बाहुअन्तिम क्षुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु (कुछ इतिहास- बली की 57 फुट ऊंची विशाल भव्य प्रतिमा । कारों के अनुसार निमितज्ञ द्वितीय भद्रवाहु) के इसके निर्माण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि बाहुनेतृत्व में बारह हजार जैन साधुओं ने यहां आकर बली तीर्थकर अषभदेव के पुत्र व भरत चक्रबर्ती के तप और ध्यान की साधना की । स्वयं सम्राट भाई थे । राज्य के लिए युद्ध होने पर भयंकर जनचन्द्रगुप्त ने जैन दीक्षा अंगीकृत कर अपने गुरु संहार से बचने के लिए दोनों भाई निर्णायक द्वन्द्व भद्रबाहु की सेवा की और दोनों ने इसी स्थल पर युद्ध करने पर सहमत हो गये। दोनों में दृष्टियुद्ध, समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग किया। दोनों के स्मारक जलयुद्ध, बाहुयुद्ध हुए पर सब में भरत पराजित यहां प्रतिष्ठित हैं। यह स्थान अनेक प्रभावशाली हए । अन्त में उन्होंने बाहबलि पर चक्र चलाया आचार्यों, तपस्वियों, राजाओं, सामन्तों, सेना. और बाहुबलि ने उन पर मुष्टि प्रहार के लिए हाथ पतियों, मंत्रियों, श्रावक-श्राविकाओं और धार्मिकों उठाते हुए सोचा-राज्य जैसी तुच्छ चीज के लिए के तप. त्याग, ध्यान, दान और आत्मजागरण की मुझे भ्रातृवध जैसा दुष्कृत्य नहीं करना चाहिए । भावना से पवित्र और पूजित है। भगवान् अषभ के सन्तानों की परम्परा हिंसा की 2/24 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ऐलाचार्य १०८ श्री विद्यानन्दजी महाराज से श्रवणबेलगोला में विचार मंत्रणा करती हुई Jain Education Interational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह १६८१ के सन्दर्भ में आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता में भाग लेते छात्र/छात्राओं का दृश्य, निरीक्षण करते हुए श्री बुद्धिप्रकाश भास्कर एवं श्री भागचन्द छाबड़ा आचार्य १०८ मुनी श्री विमल सागरजी महाराज एवं ऐलाचार्य १०८ मुनी श्री विद्यानन्दजी महाराज एक ग्रन्थ का अध्ययन करते हुये । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा नहीं, अपितु अहिंसा की है, प्रेम की है। भाग के नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें 500 पर प्रहार के लिए उठा हा हाथ खाली कैसे लेख संगृहीत हैं। इनके अध्ययन से श्रवण-बेलगोला जाए? उन्होंने विवेक से काम लिया। अपने उठे के ऐतिहासिक, राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं हए हाथ को अपने ही सिर पर दे मारा और बालों सांस्कृतिक महत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यहां का लुचंन करके वे श्रमण बन गये । उन्होंने ऋषभ- हम इसके धार्मिक एवं सामाजिक महत्व पर निम्नदेव के चरणों में भावपूर्ण नमन किया, कृत अपराध लिखित बिन्दुओं के आधार पर विचार करने का के लिए क्षमा मांगी और उग्र तपस्या कर कर्मों का प्रयत्न कर रहे हैंक्षय कर मुक्त बने। 1. गौरवपूर्ण भव्य अतिशय क्षेत्र-श्रवणचक्रवर्ती भरत ने वाहुबली की इस प्रात्मवीरता बेलगोला प्राचीन अतिशय क्षेत्रों में अपना विशेष को अपना प्रादर्श मानकर उनके चरणों में पहुंच महत्व रखता है । यहां अनेक पूज्य प्राचार्यो. कर उनकी पूजा एवं भक्ति की तथा उनकी स्मृति साधुओं और साध्वियों ने उपसर्ग सहन कर, अपने में पोदनपुर में उनकी शरीराकृति के अनुरूप 525 प्रात्मबल का चमत्कार प्रकट किया है तथा अगणित धनुष प्रमाण एक प्रस्तर मूर्ति स्थापित करवायी। साधकों ने धर्माराधना और संलेखना व्रत की परि पालना कर अपना उद्वार किया है। यहां पर कई कालान्तर में उस मूर्ति के आसपास का प्रदेश तीर्थकरों, शासन देव-देवियों तथा महान् साधकों कुक्कुट सॉं से आच्छादित हो गया और उसके की अतिशयपूर्ण दिव्य मूर्तियों और मन्दिर स्थित दर्शन अलभ्य तथा दुर्लभ हो गये । इस स्थिति में हैं जिनका शान्तिपूर्ण दिव्य प्रभाव दर्शकों पर पड़ें गंगनरेश राचमल्ल । (रायमल्ल) चतुर्थ के मंत्री बिना नहीं रहता । गोम्मटेश्वर बाहुबली की और सेनापति चामुण्डराय ने अपनी माता की खडगासन मूर्ति संसार की पाश्चर्यकारी वस्तुओं में इच्छापूर्ति के लिए श्रवणबेलगोला में ही एक वैसी से है : डॉ० हीरालाल जैन के शब्दों में सिर के मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया। उन्होंने बाल घुघराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चन्द्रगिरि पर खड़े होकर एक तीर मारा जो लम्बा व चौड़ा, विशाल बाहु नीचे को लटकते हुए विन्ध्य गिरि। इन्द्रगिरि । पर किसी चट्टान में जा और कटि किंचित् क्षीण है । मुख पर अपूर्व कांति लगा। इस चट्टान में उनको गोम्मटेश्वर के दर्शन और अगाध शांति है । घुटनों से कुछ ऊपर तक हुए । चामुण्डराय ने अपने गुरु नेमिचन्द्राचार्य की बमीठे दिखाये गये हैं जिनसे सर्प निकल रहे हैं । देखरेख में सन् 981 में इस भव्य मूर्ति का निर्माण दोनों पैरों और बाहुओं से माध्वी लता लिपट रही कराया। यह उत्तराभिमुखी है और हल्के भूरे रंग है तिस पर भी मुख पर अटल ध्यानमुद्रा विराजके महीन कणों वाले कंकरीले पाषाण को काट कर मान है । मूर्ति क्या है, मानों तपस्या का अवतार बनायी गयी है। इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना से श्रवणबेलगोला कवि बोघण ने शिलालेख संख्या 84 (234) का महत्व राष्ट्रीय सीमा को पार कर अन्तर्राष्ट्रीय में मूर्ति की स्तुति करते हुए लिखा है 'यदि कोई क्षितिज तक व्याप्त हो गया है। श्रवणबेलगोला मूर्ति विशाल हो तो यह आवश्यक नहीं कि वह क्षेत्र के शिलालेखों का एक संकलन डॉ. हीरालाल सुन्दर भी हो, यदि विशालता व सुन्दरता दोनों जैन के सम्पादन में जैन शिलालेख संग्रह प्रथम हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसमें भव्यता भी 2/25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो । गोम्मटेश्वर की मूर्ति में विशालता, सुन्दरता की घटना में भी खोजा जा सकता है। लोकश्र ति और भव्यता तीनों का सम्मिश्रण है। है कि चामुण्डराय ने गोम्मट स्वामी के अभिषेक की बड़ी तैयारी की, परन्तु अभिषिक्षत दूध जांघों मतियों तथा मन्दिरों को भव्य, चमत्कार पूर्ण के नीचे नहीं उतरा, क्योंकि चामुण्डराय के मन में तथा विशाल बनाने का मनोविज्ञान यह है कि कहीं अपने भक्ति-वैभव के प्रति अहं था। जब एक दर्शक या भक्त जब मूर्ति या मन्दिर के निकट जाए वद्धा भक्तिन गोल्लकायी छोटे से पात्र में दूध भर तो उसमें एक और आकर्षणजनित चमत्कृति पैदा कर लाई और भक्ति पूर्वक अभिषेक किया तो वह हो तो दूसरी ओर विशालता से उत्पन्न भयपूर्ण सर्वागों तक पहुंच गया। आज भी इस वृद्धा भक्तिन मनःस्थिति भी। विस्मय युक्त भय की यह भावना की मति इस प्रसंग को चिर स्थायी बनाए व्यक्ति के अहम् को विगलित करने में सहायक हुए है। बनती है । बाहुबलि की यह विशाल भव्य मूर्ति इस दृष्टि से अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक है । डॉ० कृष्ण भक्ति धर्म की रक्षात्मक अनुभूति है। भक्त के शब्दों में 'होठों की दयामयी मुद्रा से स्वानुभूत ___ को अपनी लघुता और अपने आराध्य की महत्ता प्रानन्द और दुखी दुनिया के साथ मूल सहानुभूति __ प्रतिपादित करने में परमानन्द की अनुभूति होती की भावना व्यक्त होती है।' है । इसीलिए सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों ने अपने पापों को बढ़ा चढ़ाकर वणित किया है। अहम् के विगलन का भाव मूर्ति की प्रभाव तथा जैन कवियों ने आत्म निन्दा को महत्व दिया शीलता से ही नहीं, बाहुबलि की तपस्या के कथा है। पूजा और अभिषेक के विधि-विधान भी अपने प्रसंग से भी जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि एक अहं को विसर्जित करने और ऋद्धि-समृद्धि को वर्ष तक कठोर तपस्या करने पर भी उन्हें कैवल्य अनासक्त भाव से भगवान के चरणों में समर्पित की प्राप्ति नहीं हुई । क्योंकि उनके मन में इस बात करने के मनोभाव से बनाए गए हैं। इस दृष्टि से का अहम् था कि वे अपने से पूर्व दीक्षित छोटे गौम्मटेश्वर के अभिषेक-महोत्सवों का विशेष महत्व भाइयों को बन्दन करने कैसे जायें। जब उनकी है । चामुण्डराय द्वारा प्रारम्भ की गई अभिषेकबहनें ब्राह्मणी और सुन्दरी, उनसे कहती हैं, परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही हैं। “गजथकी नीचे उतरो वीरा, गज चढ्यां केवली न ऐतिहासिक दृष्टि से इसके महामस्तकाभिषेकों का होसी।" यह स्वर सुनते ही बाहुबलि चिन्तन करने वर्णन ईस्वी सन् 1598, 1612,1677, 1825 लगे कि मै किस हाथी पर चढा हा हं। बहनें। और 1827 के उत्कीर्ण शिलालेखों में मिलता है क्या कह रही हैं । इस चिन्तन के साथ ही उनका जिनमें अभिषेक कराने वाले प्राचार्य, गृहस्थ, विवेक जागृत हो गया और उन्होंने अपने भाइयों शिल्पकार, बढ़ई, दूध-दही आदि का ब्यौरा दिया को वन्दन के लिए जाने का विचार किया । इस गया है। इनमें कई मस्तकामिषेक मैसर नरेशों और विचार के साथ ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उनके मंत्रियों ने स्वयं कराये हैं । बीसवीं शताब्दी उनका अहम् मिट गया। बे गोम्मट अर्थात् प्रकाश में सन् 1909, 1925, 1940 और 1953 में वान हो गये। प्रकाशवानों के ईश्वर अर्थात् गोम्म महामस्तकाभिषेक हो चुके हैं। अब फरवरी, टेश्वर का यह आदर्श हमारे लिए अनुकरणीय है। 1981 में सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक का विशेष अहं-विसर्जन का प्रसंग बाहुबलि की मूर्ति के मायोजन एलाचार्य पूज्य विद्यानन्दजी म.सा. प्रतिष्ठापक चामुण्डराय द्वारा किए गए अभिषेक के सान्निध्य में विशाल स्तर पर सम्पन्न हुआ है। 2/26 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस प्रकार अतिशय क्षेत्र की दृष्टि से श्रवण- पूर्ण भूमिका रही है । इस दृष्टि से श्रबणबेलगोला बेलगोला अद्वितीय है। के शिलालेख राज्य विस्तार, सत्ता-प्राप्ति और इन्द्रिय भोगों के लिए लड़े जाने वाले युद्धों और 2. प्रात्म-वीरता-जैन धर्म में प्रात्मविजय प्रतिहिंसामों के स्मारक नहीं हैं । ये स्मारक हैंको ही सर्वोपरि विजय माना गया है । इस विजय उस विचार और चिन्तन के जो युद्ध पर प्रेम की, में शारीरिक स्वस्थता और मानसिक दृढ़ता प्राधार हिंसा पर अहिंसा की, इन्द्रियभोग पर जितेन्द्रियता भत बनती है। यही कारण है कि क्षत्रिय कुल में की, लोकिक समद्धि पर लोकोत्तर शान्ति और जन्म लेने वाले बड़े-बड़े प्रतापी नरेश जैन धमानु- प्रानन्द की विजय अंकित करते हैं। इन शिलालेखों यायी बनकर प्रात्म-विजय के पथ पर अग्रसर होते में उन धर्माराधकों और धर्मवत्सला महिलाओं का हुए दिखाई देते है । भरत-बाहुबलि की कथा हमारे वर्णन है जिन्होंने जीवन और समाज में अहिंसा इस कथन की साक्षी है। दक्षिण में जैन धर्म का और शान्ति की भावना फैलाने तथा अपने सुख से जो विकास हुआ, उसके मल में धर्माचार्यों की ऊपर उठकर दूसरों के दुःखों का निवारण करने प्रेरणा के फलस्वरूप राजाओं की विकसित राज- के लिए महान् त्याग किया और तपस्या करते हुए शक्ति ही प्रमुख कारण रही है। कर्नाटक में गंग- समाधिमरण प्राप्त किया। जैन दर्शन में भोग राजवंश के मारसिंह, राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष, भोगते हुए जीवित रहने को महत्व नहीं दिया गया राज तृतीय, होय्यसल वंश के विष्णुवर्धन प्रादि है, यहां महत्व दिया गया है सुख-दुख और राग-द्वेष राजा और उनके सामन्त महान् योद्धा होने के से ऊपर उठकर समताभाव में रमण करते हुए साथ-साथ धर्मपरायण भी थे। जहां युद्धवीर के मृत्यु वरण करने को । क्योंकि मृत्यु का यह वरण रूप में उन्होंने शत्रनों का दमन कर अपने राज्य केवल देह का विसर्जन है। विसर्जन का यह क्षण का विस्तार किया और उसे सुरक्षित बनाया, वहां । जितना अधिक निराकूल, निर्द्वन्द्व और शान्तिपूर्ण धर्मवीर के रूप में उन्होंने लोककल्याणकारी कई होगा, शरीर की अगली पर्याय उतनी ही अधिक कार्य भी किये, और उनमें से कईयों ने अन्तिम चेतना सम्पन्न और संस्कारयुक्त होगी। समय में सल्लेखनापूर्वक देहोत्सर्ग किया । विभिन्न शिलालेखों से उनके व्यक्तित्व की इन विशेषताओं समन्तभद्रकृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में का पता चलता है। उदाहरण के लिए चामुण्डराय संलेखना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया हैको जहाँ 'समर धुरन्धर' 'वीर मार्तण्ड' 'रणरंग- 'जब कोई उपसर्ग व दुर्भिक्ष पड़े, बुढ़ापा व व्याधि सिंग,' 'वैरिकुलकालदण्ड; 'भुजविक्रम; समर-परशु- सतावे और निवारण न की जा सके, उस समय राम कहा है, वहीं सत्यनिष्ठा के कारण 'सत्य धर्म की रक्षा के हेतु शरीर त्याग करने को संलेखना युद्धिष्ठर', भी कहा है । इसी प्रकार विष्णुवर्धन कहते हैं । इसके लिए प्रथम स्नेह व वैर, संग व को त्रिभूवनमल्ल' के साथ 'सम्यक्त्व चूड़ामणि', परिग्रह का त्याग कर, मन को शुद्ध करे व अपने और उनके सेनापति व मंत्री गंगराज को 'महा- भाई बन्धु तथा अन्य जनों को प्रिय वचनों द्वारा सामन्ताधिपति; महाप्रचण्डदण्डनायक; वैरिभय क्षमा करे और उनसे क्षमा करावे । तत्पश्चात् दायक' के साथ-साथ सम्यक्त्व रत्नाकर' भी कहा निष्कपट मन से अपने कृत, कारित व अनुमोदित है। इस तथ्य से सूचित होता है कि युद्ध-वीरता पापों की आलोचना करे और फिर यावत् जीवन को धर्मवीरता और प्रात्मजयता की ओर उन्मुख के लिए पंच महाव्रतों को धारण करे। शोक, करने में जैन आचार्यों और मुनियों की महत्व- भय, विषाद, स्नेह, रागद्वेषादि परिणति का त्याग 2/27 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर शास्त्रवचनों द्वारा मन को प्रसन्न एवं उत्सा हित करे । उपर्युक्त भावपूर्ण वातावरण में मृत्यु का वरण वही कर सकता है जिसे परिवार, राज्य सत्ता और स्वयं अपने से मोह न हो। यह निर्मोही अवस्था वही प्राप्त कर सकता है जिसने अपने कषायों, आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है । श्रवणबेलगोला के लगभग सौ लेख तप और संलेखना से सम्बन्धित हैं। वे शिलालेख इस मादर्श को ध्वनित करते हैं कि सच्ची विजय दूसरों को अधीन बनाने, सत्ता या धन हथियाने में नहीं है। सच्चा वीर वह हैं जो स्वयं बंधन मुक्त होकर दूसरों को भी बंधन मुक्त करता है, जो स्वयं दबता नहीं, घोर न दूसरों को दबाता है। बाहुबलि इस सच्ची वीरता के प्रादर्श हैं जिन्होंने पर-दमन को नहीं, आत्म-दमन को सर्वोपरि माना और जीतकर भी जीत को लौटा दिया। उनकी भव्य और विशाल मूर्ति प्रेरणा देती है कि हिम, वर्षा और आतप रूप कितने ही उपसर्ग और संकट आए. फिर भी निर्द्वन्द्व मुस्कराते रहो, समता में बने रहो । 3. लोक कल्याण - युद्ध वीरता और धर्म वीरता के विवेकपूर्ण समन्वय से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। यदि युद्ध वीरता अपने ही मांग और अहंपूर्ति तक सीमित रहती है तो वह पतन और पाप का कारण बनती है । इसी प्रकार यदि धर्मवीरता अपने ही कल्याण तक सीमित रहती है तो वह वरेण्य और वन्दनीय नहीं बन पाती । समाज से और लोकहित से जुड़ कर हो धर्म शक्तिवान और तेजस्वी बनता है। इस दृष्टि से धर्म के दो स्तर हैं। एक व्यक्ति या आत्मा का स्तर, दूसरा समाज या लोक कल्याण का स्तर । पहले स्तर के धर्म है क्षमा, सरलता, बिनम्रता सत्यनिष्ठा तप, त्याग, संतोष, संयम, ब्रह्मचर्य आदि। इन धर्मों की कसौटी समूह या समाज है । एकान्त में रहने पर न इनका अंकुरण हो पाता है और न परीक्षणा पारस्परिकता में ही ये फलते फूलते हैं। इस दृष्टि से ही 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की उक्ति सार्थक घटित होती है। अपने सुख की चिन्ता न करते हुए दूसरों को सुखी बनाने के लिए उनके दुःखों का निवारण करने में कोई कितना प्रागे बढ़ता है, यही उसके लोक धर्म व लोककल्याण की कसौटी है भगवान् बुद्ध किसी वृद्ध और मृत को देखकर संसार को दुःखपूर्ण मानकर उसे दुख से मुक्त करने के लिए महाभिनिष्क्रमण करते हैं, भगवान् महावीर मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण को देखकर शोषण व शासन विहीन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संन्यस्त होते हैं। महर्षि दाधीच देवताओं के लिए अपना शरीर समर्पित करते हैं, और ईसा यहां तक कह देते हैं कि दूसरों के दुःखों के लिए मैं जिम्मेदार | इसी बिन्दु से लोककल्याण और लोक सेवा का उत्स फूटता है। जैन धर्म आत्मवादी और पुरुषार्थ प्रधान धर्म है। वह व्यक्ति के सुख-दुख के लिए उसके कर्मों को ही उत्तरदायी मानता है । फिर भी यहां सेवा को अत्यधिक महत्व दिया गया है । अभ्यन्तर तपों में उसकी गणना की है । उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' में गौतम स्वामी भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं- 'वेयावच्चे भंते ! जीवे कि जणयइ ।' भगवान ! वैयावृत्ति अर्थात् सेवा से जीव को क्या लाभ होता है। भगवान महावीर उत्तर में फरमाते हैं 'वेयावच्चे तिथ्थरनामगोत्तं कम्मं निबंध्द्ध ।' अर्थात् वैयावृत्त से तीर्थकर नाम गोत्र का कर्म बंध होता है। इससे स्पष्ट है कि तीर्थकर लोकसेवा के लिए मार्ग प्रशत्त करते हैं । इसी भावना से वे धर्मतीर्थ 2/28 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्थापना करते हैं । इन्द्र स्तुति करते हुए उनके संख्या 106(255) से सूचित होता है कि मायण्ण लिए लोकहितकारी, (लोगहियाग) लोक में प्रकाश- ने बेलगुल के गंग समुद्र नामक सरोवर की दो मान दीपक लोगपईवाणं, शरणदाता तरण- खण्डुग भूमि खरीद कर उसे गोम्मट स्वामी के ढयाणं, धर्म के उपदेशक धम्यदेसयाणं, धर्म के अष्टविध पूजन के लिए दान की । लेख संख्या नायक (धम्मनायगाणं), धर्म के सारथी (धम्म- 107 (256) के अनुसार चन्द्रमोलि की पत्नी तारहीणं) रागद्वेष के विजेता और दूसरों को प्राचलदेवी की प्रार्थना पर वीर बल्लाल नप ने जीतने वाले (जिणाणं, जावयारणं), स्वयं तिरने बेक्क नामक ग्राम का दान गोम्मट नाथ के पूजन वाले और दूसरों को तिराने वाले (तिन्नाणं, तार- के हेतु किया। लेख संख्या 137 (345) के .अनयाणं), स्वयं बोध प्राप्त और दूसरों को बोध देने सार होयसल वंशी नारसिंह के मन्त्री हुल्लराज ने वाले) बुद्धाणं, (बोहयारणं), स्वयं मुक्त और दूसरों मन्दिर की रक्षा के लिए सवणेरू ग्राम का दान को मुक्त करने वाले (मुत्ताणं, मोयगाणं) आदि किया। विशेषणों का प्रयोग करते हैं। यह भूमि दान सब प्रकार के करों से मुक्त करके दिया जाता था। लेख संख्या 84 (250) में श्रवणबेलगोला क्षेत्र के शिलालेखों से लोक उल्लेख है कि बेलगूल मन्दिर की जमीन प्रादि कल्याण सम्बन्धी विविध कार्यों का पता चलता बहुत दिनों से रहन थी। महाराजा चामराज है। इनमें मुख्य हैं --मन्दिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, प्रोडेयर ने चेन्नल आदि रहनदारों को बुलाकर दानशाला, वाचनालय, मन्दिर के दरवाजे, परकोटे, कहा कि तुम मन्दिरों की भूमि को मुक्त कर दो । सीढ़ियाँ, रंगशालाएँ, तालाब, कुण्ड, उद्यान, जीर्णो हम तुम्हारा रुपया देते हैं । यह अलग बात है कि द्वार, पूजा, अभिषेक आदि । इन कार्यों के लिए रहनदारों ने बिना कुछ लिए ही भूमि रहन से मुक्त दिए जाने वाले दान-भूमि, ग्राम व अन्य प्रकार की कर दी । लेख संख्या 140 (352) से सूचित होता राशि प्रादि के लेख पर्याप्त संख्या में उत्कीर्ण हैं। है कि आगे के लिए राजा ने ऐसी आज्ञा निकाल विभिन्न धर्माचार्यों और विद्वानों ने ग्रन्थ निर्माण दी कि जो कोई स्थानक दान सम्पत्ति को रहन और ज्ञानदान के जो महान कार्य किये हैं, उनके करेगा व जो महाजन ऐसी सम्पत्ति पर कर्ज देगा, उल्लेख भी यथाप्रसंग मिलते हैं। वे दोनों समाज से बहिष्कृत समझे जावेंगे । जिस राजा के समय में ऐसा कार्य हो उसे उसका न्याय जैन धर्म में दान का बड़ा महत्त्व है। गृहस्थ के करना चाहिए। जो कोई इस शासन का उल्लंघन लिए विधान है कि वह अपनी धन-सम्पत्ति की मर्यादा कर अतिरिक्त धन का सदुपयोग लोकहित करेगा, वह बनारस में एक सहस्र कपिला गायों के लिए करे । इसके लिए चार दानों को विशेष और ब्राह्मणों की हत्या का भागी होगा। महत्त्व दिया गया है। वे हैं- आहार दान, औषध दान में दी गई वस्तु या भूमि का दुरुपयोग दान, ज्ञान दान और अभयदान । श्रवणबेलगोला के करने पर उसके दुष्परिणामों और पाप बंधन का शिलालेखों से सूचित होता है कि यहाँ राजा, कई जगह संकेत किया गया है। लेख संख्या सामन्त और मन्त्री ही नहीं, मध्यम वर्ग और निम्न 486 (397) में उल्लेख है कि गंगराज ने विष्णावर्ग के लोग भी अपने सामर्थ्य के अनुसार धार्मिक वर्धन से गोविन्दवाड़ी ग्राम को पाकर उसे पार्श्वदेव और अन्य लोकहितकारी कार्यों में अपने धन का और कुकटेश्वर की पूजा हेतु दान कर दिया। जो सदुपयोग करते रहे हैं। उदाहरण के लिए लेख इसका विच्छेद करेगा उसे कुरू क्षेत्र व बनारस में 2/29 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात करोड़ ऋषियों, कपिला गायों व वेदज्ञ 11वीं शताब्दी में होय्यसल वंश की स्थापना के पण्डितों की हत्या का पाप होगा। इसी लेख में सम्बन्ध में लेख संख्या 56 (32) में उल्लेख है इसका पुण्य लाभ बताते दुए लिखा है- जो कोई कि इस वंश के सल नामक राजा की एक जैन साधु इस दान का पालन करेगा, वह दीर्घयु होगा और (सुदत्त) ने सहायता की। वैभव सुख भोगेगा। जंगल में पाते हुए एक व्याघ की ओर संकेत भूमि और ग्रामदान के साथ-साथ आहार दान करके उन्होंने राजा से कहा-पोटसल (हे सल, के भी यत्र-तत्र उल्लेख मिलते हैं । लेख संख्या इसे मारो) । सल ने तुरन्त उसे मार भगाया और 99 (224) में उल्लेख है कि अगाणि बोम्भयय के सिंह का चिन्ह अपने मुकुट पर धारण किया। तभी पुत्र काम्मेया ने सदैव एक संघ (तण्ड) को माहार से राजा का नाम पोय्सल पड़ा जो बाद में होयसल देने की प्रतिज्ञा की। इसी तरह का उल्लेख लेख हो गया। संख्या 100 (225) में दोड देवप्प के पुत्र चिकण जैनाचार्यों के धर्मोपदेश से प्रभावित गंग, के लिए हुआ है। राष्ट्रकूट, होयसल आदि वंशों के राजाओं, सामन्तों, सेनापतियों, मन्त्रियों और महिलाओं ने लोकलोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही कल्याणकारी कार्यो में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। जैनाचार्य सिंहनन्दि ने धर्मोपदेश देने के साथ-साथ राज्यों के निर्माण में भी सहयोग दिया। कहा जाता सामान्य जन जीवन पर इसका प्रभाव भी पड़ा। विष्णवर्धन नरेश के मन्त्री गंगराज को दी गई है कि गंगराज वंश की स्थापना ईसा की दूसरी उपाधियां- "बुधजनमित्र" "पाहारभयभेषज्य शताब्दी में इक्ष्वाकु वंश के दो राजकुमारों दडिग शास्त्र दानविनोद," "भव्यजनहृदयप्रमोद," धर्मऔर माधव के उत्तर भारत से दक्षिण भारत में हर्योद्धरणमूलस्तम्भ, द्रोहधरट्ट,-इस कथन की पाने से हई । उनकी भेंट पेरूर नामक स्थान में सूचक हैं । जैन साधुओं का तो सम्पूर्ण जीवन ही जैनाचार्य सिंहनन्दि से हुई। एक पत्थर का स्तम्भ ज्ञानदान और धर्मोपदेश के लिए समर्पित है । उनके साम्राज्य की देवी के प्रवेश के मार्ग को रोके हमा उपदेशों के प्रभाव के कारण ही दक्षिण भारत में था। सिंहनन्दि की आज्ञा से माधव ने उसे काट डाला और वे राज्य के शासक बन गए। एक शाकाहार की प्रवृत्ति, जीवन में सादगी, और संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम की विशेष प्रवृत्ति शिलालेख में लिखा है कि जब उन्होंने सम्पूर्ण दृष्टिगत होती है। राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो है प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी- 4. सार्वजनीनता-जैन धर्म प्रात्म पुरुषार्थ "यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे या जिन को जाग्रत कर चेतना के चरम विकास-परमात्मशासन को साहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का पद की प्राप्ति का धर्म है। यह किसी जाति, वर्ग, अपहरण करोगे, मद्य-मांस का सेवन करोगे, नीचों सम्प्रदाय, लिंग या वर्ग विशेष तक सीमित नहीं की संगति में रहोगे, आवश्यक होने पर भी दूसरों है। इसके अनुयायियों और प्रचारकों में ब्राह्मण, को अपना धन नहीं दोगे और युद्ध के मैदान में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी रहे हैं । जैन साधुओं पीठ दिखायोगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जाएगा। ने सभी को प्रात्मोत्थान का उपदेश दिया है। सिंहनन्दि के इस उपदेश में एक आदर्श राजा के आहार, औषधि और अभयदान की योजना सभी कर्तव्यों की ओर ध्यान इंगित किया गया है। वर्गों के हितार्थ की गई है। शिलालेखों से पता 2/30 . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलता है कि दक्षिण में इसके उपासक राजन्यवर्ग यह कितना अनूठा उदाहरण है । काश ! इस पर के लोग ही नहीं थे, वणिक वर्ग और कृषक वर्ग के अमल किया गया होता। आगे इसी लेख में कहा लोग भी थे। तेली, सोनी, जौहरी आदि वर्ग के गया है जो कोई इसका उल्लंघन करे, वह राज्य लोगों ने भी पूजा, अभिषेक आदि में सक्रिय हाथ का, संघ का, समुदाय का, द्रोही ठहरेगा। यदि बंटाया है और अपनी शक्ति के अनुसार दान आदि कोई तपस्वी, ग्रामाधिकारी इस धर्म का प्रतिघात दिए हैं। धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का करेगा तो वह गंगातट पर एक कपिल गौ और संकेत शिलालेख संख्या 136 (344) से मिलता ब्राह्मण की हत्या का भागी होगा। है। कहा जाता है कि वीर बुक्कराय के राज्यकाल में जैनियों और वैष्णवों में झगड़ा हो गया। तब उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रवणबेलराजा ने जैनियों और वैष्णवों के हाथ से हाथ गोला तीर्थ ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृमिला दिए और कहा कि जैन और वैष्णव के तिक, कलात्मक एवं राष्ट्रीय सभी दृष्टियों से दर्शनों में कोई भेद नहीं है । जैन दर्शन को पूर्ववत् अप्रतिम और अपूर्व है । यह किसी वर्ग या धर्म ही पंच महावाद्य और कलश का अधिकार है। विशेष की सम्पत्ति न होकर अखिल मानवता की यदि जैन दर्शन को हानि या वृद्धि हुई तो वैष्णवों अमूल्य निधि है । इसमें साधना का वह तेज और को इसे अपनी ही हानि या वृद्धि समझनी चाहिए। सामर्थ्य अन्तनिहित है जिसका स्पर्श पाकर मनुष्यवैष्णवों को इस विषय के शासन समस्त राज्य की मनुष्य के ही नहीं, प्राणिमात्र के हृदय प्रेम एवं बस्तियों में लगा देना चाहिए । धार्मिक सौहार्द का मैत्रीभाव से झंकृत हो उठते हैं। -सी-235 ए. तिलकनगर, जयपुर-4 2/31 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन देव पूजा मिथ्यात्व आज जिनेन्द्र की भक्ति छोड़कर ऐहिक चमत्कारों के लोभ में (तथाकथित) शासन देवी देवताओं की पूजा की ओर प्रवृत्ति बढ़ रही है । अन्य देवी देवताओं की पूजा तो जैन धर्म सम्मत है ही नहीं स्वयं जिनेन्द्र की पूजा में भी लौकिक चमत्कार की दृष्टि जैन दृष्टि में मिथ्यात्व है । माननीय सेठी जी जीवन के प्राठवे दशक में किस तत्परता से हमारे धार्मिक जीवन में आये विकारों का शोधन करने में प्रयत्नशील है यह अपने श्राप में प्रेरणास्वरूप है । -सम्पादक जैन धर्मानुसार, हमारी आत्माएं स्वयं ही अपने भाग्य की निर्माता हैं । हम जैसे कर्म करेंगे वैसे फल भोगना ही पड़ेगा । कोई भी बाहरी शक्ति न हमें कुछ दे सकती है, न हमारे दुःख दूर कर सकती है । तीर्थकरों ने वीतराग होकर अपने कषाय रूपी मैल को स्वयं धोकर संसार के दुःखों से मुक्ति पाई थी । अतः उनसे केवल कषाय मुक्ति के लिए प्रेरणा लेने के लिए ही हम उनकी उपासना करते हैं तांकि कषाय तीव्र से मंद व मंदतर हों हममें समता भाव जगे और उसमें वृद्धि हो । पूर्वकृत कर्मानुसार इष्ट वियोग व अनिष्ट संयोग के दुःख तो आते ही हैं, उन्हें कोई देवता दूर नहीं कर सकता । धार्मिक व्यक्ति उन्हें अपने पूर्वकृत कर्मों का फल मानता है, उनके लिए दूसरों को दोष नहीं देता । श्रतः उसमें समताभाव पूर्वक दुःख सहन की शक्ति पैदा हो जाती है, दुःख नहीं प्रतीत होता । अरहंत भगवान की उपासना से दुःख नाश होने का यही आशय है । ★ श्री बिरधीलाल सेठी कथित शासन देवों के समर्थन में कहा जाता है कि वे जिन शासन के रक्षक हैं और धर्म व धर्मात्मा पर आने वाले विघ्न व संकट को दूर करने में सदा तत्पर रहते हैं । परन्तु जैन सिद्धांतानुसार तो सबको अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है । अतः यह कल्पना ही मिथ्या है कि धर्म और धर्मात्मानों के रक्षक कोई शासन देव हैं । जो व्यक्ति यह समझते हैं कि अरहंतों या किसी शासन देव की पूजा भक्ति से उनके दुःख दूर हो जावेंगे या धन या पुत्र प्रादि की प्राप्ति हो जावेगी, वे भ्रम में | जन्म से ही अतुल्य बलशाली तीर्थकरों पर भी मुनि अवस्था में उपमर्ग प्राते रहे हैं, भगवान आदिनाथ को मुनि अवस्था में छः मास तक आहार में अंतराय आया, सुकुमाल मुनि को स्यालनी खाती रही व अन्य अनेक धर्मात्मानों पर संकट आये, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय 12 वर्ष का अकाल पड़ा । तब जैन धर्म व जैन साधुत्रों पर बड़ा भारी संकट आया, बाद में धार्मिक असहिष्णुता 2/32 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय में हजारों जैन मन्दिर व मूर्तियाँ भष्ट करते ही हैं । जिस प्रकार अन्य लोगों के किसी करदी गई । जैन साधु जीतेजी घाणी में पिलवा कार्य में सफलता मिलती और किसी में असफलता दिये गये, वर्तमान समय में कलकत्ता में जैन मुनि मिलती है इसी प्रकार मनोतियां करने वालों को पर उपसर्ग पाया, पुरलिया काण्ड भी हमा, यदा- भी किसी मनोती में सफलता और किसी मनोती कदा अरहंत भगवान की प्रतिमानों की चोरियां में असफलता मिलती है। यदि, देवी देवता वास्तहोती रहती हैं कि जिनके रक्षक वे शासन देव . विक हैं वमूर्तियां चमत्कार पूर्ण हैं तो मनोतियां माने जाते हैं परन्तु कभी किसी शासन देव या देवी करने वालों को, अन्य लोगों के समान अपनी बुद्धि ने पाकर संकट दूर नहीं किया। इससे सिद्ध है का उपयोग व प्रयत्न किये बिना ही तथा जो-जो कि शासन देवों की मान्यता मिथ्या है, धर्म व भी मनोतियां की हैं उन सभी में उन्हें सफलता धर्मात्माओं की रक्षक पद्मावती, क्षेत्रपाल या कोई मिलनी चाहिए । परन्तु ऐसा होता नहीं, मनोती भी और शक्ति नहीं है । शासन देव पूजा तो करने वालों को भी बुद्धि का उपयोग व प्रयत्न मध्यकाल में, भट्टारकों द्वारा चालू की गई थी। करना ही पड़ता है और अशुभ कर्म का उदय होने तेरहवीं शताब्दी से पहले नहीं थी। भट्टारकों ने पर उनकी कई मनोतियां असफल भी होती हैं। हिन्दू देवी देवताओं की नकल पर जैन शास्त्रों में किसी भी देवता या अरहंत प्रतिमा का ऐसा कोई शासन देवों की कल्पना कर उनकी पूजा का विधान भी भक्त नहीं है कि जिसकी सभी मनोतियां पूरी कर दिया कि अरहंत भगवान तो किसी को कछ हो जाती हों। इसीलिए लोग परहंत प्रतिमा को देते नही, परन्तु शासन देव तुम्हारी सब कामनाएं छोड़कर जैन देवताओं की मनोती करने लग जाते पूरी कर देंगे। हैं और उन्हे भी छोड़कर जैनेतर देवताओं की मनोतियां कैसे परी होती हैं-यहां यह प्रश्न मनोती करने लग जाते हैं । परन्तु क्या प्रजन पैदा होता है कि यदि शासन देवों का अस्तित्व ही देवताओं के भक्तों की भी सभी मनोतियां पूरी हो नहीं है, तीर्थंकर प्रतिमाओं में भी अतिशय या जाती है ? नहीं होती। देश के चुनावों के समय चमत्कार नहीं है तो उनकी मनोतियां करने से हम देखते हैं कि कई उम्मीदवार विद्यवासिनी देवी. लोगों की कामनाएं कैसे पूरी हो जाती हैं, अन्य वैष्णव देवी, तिरुपति आदि की मनोतियां करते हैं धर्म वाले देवतायो की मनोतियां भी कैसे पूरी हो फिर भी चुनाव में हार जाते हैं । इस प्रकार देवीजाती है ? इसका उत्तर है कि जो लोग इनकी देवताओं या तीर्थकर प्रतिमा की भी मनोती करने मनोतियां नही करते, क्या उनके काम सिद्ध नही से सांसारिक कामनाएं पूरी होती हैं यह सर्वथा होते ? मनोतियां करने वालों में भी किसी के देवता मिथ्या मान्यता है। अतः जैसाकि प्राचार्य अमित हिन्द हैं, किसी के जैन हैं, कोई पीरजी की मनोती गति ने कहा है "पहले जैसे कर्म स्वयं तुने किये हैं करता है, कोई किसी कब्र की करता है । हिन्दू उनका अच्छा या बुरा फल भोगना ही पड़ेगा।" हता है कि देवता मेरे ही वास्तविक है और सब "इस देहधारी के स्वयं द्वारा किये कर्मों के अतिकल्पित । इसी प्रकार और भी अपने अलावा रिक्त और कोई दूसरा कुछ नही दे सकता।" यह दूसरों के देवताओं को कल्पित कहते हैं, तो सबकी आवश्यक है कि प्ररहंत भगवान की उपासना से ही मनोतियां कैसे पूरी हो जाती हैं ? वास्तविकता इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग जनित सब दुःखों को यह है कि मनोतियां न करने वालों की तरह समता भाव पूर्वक सहने की शक्ति मिलती है, मनोतियां करने वाले लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि वे दुःख ही नहीं प्रतीत होते । का उपयोग करके कार्य सिद्धि के लिए पूरा प्रयत्न 2/33 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मथुरा' की कहानी जैन पुरातत्त्व के जुबानी 'मथुरा' के जैन-पुरातत्त्व-अवशेष गणेश प्रसाद जैन (वाराणसी) -बनारसी माल के व्यापारी, ठठेरी बाजार (बसन्ती कटरा) वाराणसी मथुरा भारतवर्ष के कतिपय उन प्राचीन जैन- जैन-कला पाषाण, धातु, ताडपत्र, कागज धार्मिक-नगरों में है, जो उसके अस्तित्व को प्रादि विविध माध्यमों से विकसित हुई है। इनका प्रागैतिहासिक-काल तक ले जाते है। उत्तर- प्रारम्भ सिन्धु-सभ्यता तक पहुँच गया है । मौर्यभारतीय-प्राचीन-जैन-कला-केन्द्रों में 'मथुरा' का काल से तो निर्विवाद रूप में क्रम-बद्ध सिलसिला पद (स्थान) अग्रगणी था। ईसा पूर्व 7 वीं शताब्दी उपलब्ध है। जिन-शिल्प में पायागपट्ट-चैत्य-वृक्ष. से लेकर ईसाब्दी 11 वीं शताब्दी तक 'मथुरा' चैत्य-स्तम्भ, वेदिका, स्तप. मांगलिक चिन्ह आदि नगरी जैन-धर्म और कला की प्रधान केन्द्र अवश्य प्रतीकों से प्रारम्भ होकर खड़गासन. पद्मासन. थी। कंकाली-टीला एवं अन्य निकटवर्ती-स्थलों से सर्वतोभद्र. (चौमुखी) भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राप्त सैकड़ों जैन तीर्थंकर-प्रतिमाये, मांगलिक- चौवीसी युगल (दो तीर्थंकरों जैसे आदि ती० चिन्हों से अलंकृत पायागपट्ट, देव-किन्नरों आदि से श्री ऋषभदेव और अन्तिम ती० श्री महावीर की) बन्दित स्तम्भ, वेदिकायें, स्तूप, अशोक, चम्पक, त्रिदेव (तीन तीर्थकरों की एक साथ) नन्दीश्वरनागकेसर आदि वृक्षों के नीचे आकर्षक-मुद्राओं में द्वीप, प्रथम ती० श्री ऋषभदेव की जटाजूट वाली, खड़ी शालिमंजिकानों से युक्त सुशोभित वेदिकाओं आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के साथ भरत मुनि के स्तम्भ, कलापुर्ण-शिलापट, शिरदल आदि यह की. सात एवं सहस्राफणी वाली 23 वें तीर्थंकर सिद्ध करने में क्षम्य है कि-'मथुरा के शिल्पियों की श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमायें. 22 व ती० श्री न्य स्थलों के शिल्पियों की क्षमता नेमिनाथ के साथ बलराम एवं श्री कृष्ण की, नगण्य अथबा अत्यन्त न्यून रही है। वहाँ से प्राप्त सहस्रकूट-चैत्यालय तथा नन्दीश्वर-द्वीप की तीर्थंकर अवशेषों से यह सिद्ध है कि तत्कालीन-जनता में प्रतिमाओं के फलक पर उनके अनुशांशिक-यक्ष, जैन-धर्म के प्रति प्रगाढ़-श्रद्धा विद्यमान थी। ये यक्षियों एवं भक्त जनों सहित की तथा यक्ष-यक्षियों अवशेष ई० पूर्व 2 री शताब्दी से 11 वीं तक के की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण हुआ है। जैनतथा 19 वीं शताब्दी के भी कुछ हैं । भारतवर्ष के शिल्प की प्राचीतम् कृतियां आज भी बराबर अतिरिक्त ईरान, यूनान और मध्य एशिया की भू-गर्भ से प्राप्त हो रही हैं । संस्कृतियों से भी इस प्राचीनतम्-धार्मिक-नगरी (मथुरा) का निकटतम् सम्वन्ध होने से यहां की यक्ष-यक्षियों एवं आकाशचारी देवों. किन्नरों वास्तु-कला, मूर्ति-कला, लोक-कला एवं लोक- द्वारा माल्यार्पण, ढोलक वादक सहित ती० जीवन में इन संस्कृतियों के छाप की झलकियां प्रतिमाओं के पश्चात् सरस्वती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, मिलती हैं। पद्मावती आदि देवियों एवं नैगमेष, कुबेर अन्य 2/34 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्ष, क्षेत्रपाल बलभद्र-नारायण आदि की सुन्दर, कंकाली-टीला आगरा-गोवर्धन सड़क (राजकलात्मक, नयनाभिराम मूर्तियों को गढ़ गया है। मार्ग) के एक कोण पर 'मथुरा' नगर के दक्षिणजैन-शिल्प-कला का यह विशाल-भण्डार, पाषाण, पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह सात टीलों धातु और वास्तुकला की अनुपम प्रतिनिधि कृतियाँ का समूह है। इन टीलों से चौरासी के मन्दिर हमें पुरातत्त्व राजकीय-संग्रहालयों में सुरक्षित और उसके आस-पास अनेक टीलों की लम्बी उपलब्ध हैं। शृंखला चली गई है । इस टीले की खुदाई में 47 फूट व्यास का ईटों का एक स्तूप तथा दो प्राचीन भारतवर्ष के विभिन्न-अन्चलों के भू-गर्भ से मन्दिरों के अवशेष मिले है। इसके अतिरिक्त प्राप्त जैन-प्रतिमानों अथवा प्रतीकों में प्रतिमाओं सप्तर्षि-टीला और कृष्ण-जन्म-भूमि प्रादि से भी की मौलिक-मुद्राएँ एक सरीखी होती हैं । परन्तु अनेक जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। ये पुरातत्त्व की उनके परिकर आदि में प्रान्तीयता का प्रभाव प्राप्त बहुत सामग्री मथुरा, लखनऊ, प्रयाग, अवश्यमेव निहित रहता है। जो ध्यान पूर्वक । कलकत्ता, लन्दन आदि विविध पुरातत्त्व-संग्रहालयो परीक्षण करने पर स्पष्ट हो जाता है। नृतत्त्व- में प्रदशित हैं। शास्त्र की दृष्टि से अध्ययन करने पर ये तीन प्रकारों में विभक्त मिलता है। उत्तर-भारतीय. 'मथुरा' से प्राप्त दो प्राचीनतम् जैन-विम्वों पूर्वी-भारतीय, और दक्षिण-भारतीय तीनों प्रकारों (प्रतिमाओं) पर लेख है । एक ई० सन् पूर्व तीसरी की प्रतिमाये भू-गर्भ से प्राप्त हो चुकी हैं। शताब्दी की है। एक रंगरेज महिला ने इस प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया था। (इपीग्रफिया, इण्डिका मथुरा नगर के अन्चलों और विशेष कर 1-384)। और दूसरी ई० सन् 26 की है, कंकाली-टीले की खुदाई में जितनी वहद-मात्रा में एक गंधी-व्यास की पत्नी 'जिनदासी' ने इस अर्हन्त जैन-पूरातत्त्व-अवशेष प्राप्त हये हैं, उतनी भारतबर्ष भगवान की प्रतिमा को निर्माण करा कर स्थापित के अन्य किसी भाग से नहीं। इसी प्रकार देवगढ़। किया था। (जर्नल आफ दी रायल एशिया, सी० भी जैन-कला का एक महान केन्द्र है। यहाँ जैन- भा. 5 पृ० 184)। पुरातत्त्व का वैविध्य प्राप्त है। जैन-प्राचीनप्रतिमानों का बाहुल्य यहाँ है। इतनी प्राचीन भगवान मुनिसुव्रतनाथ की एक प्रतिमा प्रतिमायें सम्भवतः भारतवर्ष के अन्य किसी कोण कंकाली-टीले से वि० सं० 19 को प्राप्त हई है। में नहीं प्राप्त होंगी। देवगढ में पंचपरमेष्ठियों, सिंहासन पर का लेख इस प्रकार से है :-यह तीन तीर्थंकर की माताओं, शासनदेवियों (यक्षियों) यक्षों, पंक्तियों में विभक्त है;युग्म व स्वतन्त्र, प्रतिमायें एवं मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। प्रथम पंक्ति-1. सं० 19 ब्र 4 दि. 20 एतस्यां कंकाली टीले की सन् 1888 से 1891 तक पूर्षायां कोट्टिये गणो वेरायां चार वर्षों की खुदाई में (केवल मात्र इसी टीले से) 737 कलाकृतिर्या जो प्राप्त हुई हैं, वे सभी द्वितीय पंक्ति-2. को अथ वुधहस्ति अरहतो नन्दि दिगम्बर जैन परम्परा से संबंधित हैं। एक भी (प्रा) वर्तस् प्रतिमं निवर्तयति श्वेताम्बर प्राम्नाय की नहीं हैं। इससे सिद्ध होता तृतीय पंक्ति-3. भाविय॑ये श्राविकाये (दिनाये) है कि उस काल तक श्वेताम्बर-धर्म का प्रादुर्भाव दानं प्रतिमा बोद्धे थपेदेवनिर्मित नहीं हुअा था। शाखायां 2135 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् वर्ष 79 की वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास के बीसवें (20) दिन कोट्टिगण की वैर शाखा के आचार्य वृद्धहस्ति ने अर्हत् नन्द्यावर्त की प्रतिमा का निर्माण कराया, और उन्हीं के प्रदेश से भार्या श्राविका “दिना" द्वारा यह प्रतिमा देव निर्मित बोद्ध स्तूप में दान स्वरूप प्रतिष्ठापित हुई । (कुछ विद्वान इसे नद्यावर्तक स्थान पर मुनिसुव्रत पढ़ते हैं जो अधिक संगत लगता है) । ( जैन- शिल्प लेख-संग्रह, भाग 2 पु० 42 ) । बोद्ध-स्तूप के वारे में लिखा है - ' थूपेदेव निर्मिते" अर्थात् यह स्तूप मनुष्यों द्वारा नहीं, श्रपितु देवों द्वारा निर्मित हुआ है । पुरातत्त्वविद विन्सेण्ट स्मिथ का विश्वास है कि यह स्तूप निश्चित रूप से भारतवर्ष के ज्ञात स्तूपों में सर्व प्राचीन है। इस स्तूप के इतिहास और काल निर्णय के लिए, जैन - साहित्य और इतिहास एवं पुरातत्त्व के मर्मज्ञ 14 वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने "विविध तीर्थ कल्प" नामक अपनी रचना में 'मथुरा - कल्प' लिखा | कल्प में स्तूप के विषय में वर्णन है । 7 वे तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थ काल में धर्मरुचि और धर्मघोष दो मुनि विहार करते हुए मथुरा पधारे। भूतरमण बन में वर्षा (चातुर्मास ) योग धारण कर कठिन तपस्यायें करने लगे । उनकी तपस्याओं से प्रभावित उस बन की यक्षी (देवी) कुबेरा ने उनके चरणों में उपस्थित हो उनकी बन्दना की और कहा -- मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कठिन तपस्याओं की आराधना से प्रभावित हो मैं आपको वरदान देने के लिए उपस्थित हुई हूं । मुनिराजों ने कहा --: "हम निर्ग्रन्थ हैं, हमें कुछ भी नहीं चाहिये ।" तभी कुबेरा ने अपनी भक्ति प्रगट करने के लिये रात्रि के पिछले प्रहर में स्वर्ण-पत्रों के वेष्ठन पर रत्न जड़ित उक्त स्तूप का निर्माण किया । तोरणमालानों से अलंकृत, शिखर पर तीन छत्रों से शोभित, चारों दिशाओं में पंचवर्ण रत्नों से निर्मित जैन प्रतिमायें विराजित, तथा मूलनायक 7 वें तीर्थंकर श्रीं सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा सहित इस स्तूप की स्थापना यक्षी कुबेरा ने की। दोनों मुनियों को उसी भूमि पर निर्वाण प्राप्त हो गया । 23 वें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ में मथुरा के राजा ने प्रादेश दिया कि स्तूप का स्वर्ण-पत्र और उसमें जड़ रत्न स्तूप को ध्वस्त कर के राज- खजाने में जमा किया जाय । सैनिक स्तूप तोड़ने के लिये उस पर घात करने लगे । धात का असर स्तूप पर न होकर सैनिकों के शरीर पर होता था । वे त्रस्त हो गये। तभी उन्होंने सुना यक्ष ने घोषित किया । दुष्टों ! राजा और तुम सब प्रधम पापी हो, तुम सब इस पापकृत्य से तो मरोगे ही तुम्हारा पूरा परिवार भी समाप्त हो जायेगा । राजा भी परिवार सहित नष्ट होगा । वही बचेगा जिसे जैन-धर्म में, जिन विम्वों में अचल-श्रद्धा होगी, राजा और प्रजा जैन-धर्म की अनुगामी हुई । ने भगवान पार्श्व का समवसरण 'मथुरा' पधारा, तीर्थंकर का उपदेश हुआ । पश्चात् भगवान ने कहा- दुःषमाकाल आने वाला है, इस काल में राजा प्रजा सभी लोभी होंगे; उनमें धमं प्रवृत्ति कम होगी । यक्ष स्तूप के रत्नों ओर स्वर्ण-पत्र की रक्षा के लिये उसने स्तूप को चारों ओर से ईटों की भीत ढक दिया। मुख्य स्तूप के बाहर एक पाषाण से निर्मित जैन मन्दिर का निर्माण हुआ। 24 वें तीर्थंकर महावोर के निर्धारण हो जाने के 1300 वर्ष पश्चात् वप्पभहसूरी ने 8 वीं शताब्दी में इस स्तूप का जीर्णोद्धार कराया । कूप श्रौर कोट बनवाया । भींत की सरक रही थीं, उन्हें हटा कर पाषाण खण्डों में नई चार दीवारी का निर्माण कराया । जिनप्रभसूरि के इस वर्णन से इतना तो निर्णीत होता ही है कि सूरिजी के काल तक एक प्राचीनतम् स्तूप मथुरा में स्थित था । 2/36 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इसके पूर्व इस स्तूप की कथा प्राचार्य सोमदेव इस विवरण से यह सिद्ध है कि-16वीं ई. ने 'यशस्तिलक चम्पू' में की है। इनके पौने तीन शताब्दी के अन्त और 17वीं शताब्दी के प्रथम सौ वर्षों के पश्चात् हुए कवि राजमल्ल ने अपनी पाद में मथुरा नगर में 514 स्तूप थे, और उनका रचना "जम्बूस्वामी चरित्र' में लिखा है कि-- जीणौद्धार साहू टोडर द्वारा हुआ । जैन एवं वैदिक "राजमल्ल सिद्ध क्षेत्र मथुरा (चौरासी) की वन्दना ग्रंथों में मथुरा में 84 वन होने का कथन है । के लिए साहू टोडर के साथ गये । साहू टोडर कोल 12 बड़े और 72 उपवन थे। कुल चौरासी होने (अलगढ़) जिले के रहने वाले थे और टकसाल के से इसका नाम चौरासी पड़ गया। इसमें एक वन काम में दक्ष थे। जब वह वहां वन्दना कर रहे जम्बू (जामुन) वृक्षों से भरा था। इसलिए वह थे, तब उन्होंने देखा कि बीच से जम्बू स्वामी का वन जम्बू वन के नाम से प्रसिद्ध था । इसी जम्बू स्तूप (निः सही) स्थान पर बना हुआ है, उनके ही वन में केवली भगवान श्री जम्बू स्वामी ने योग निकट विद्य च्चर मुनि का, तथा पास पास में अन्य निरोध धारण कर अपने चार अधातिया कर्मों को मुनियों का है। मुनियों के स्तूप कहीं पांच, कहीं समाप्त कर मोक्ष प्राप्त किया, तभी से यह चौरासी आठ, कहीं दस और कहीं बीस की संख्या में पास का जम्बू वन जैन तीर्थ बना। कुछ विद्वानों की पास निर्मित है। जम्बस्वामी चरित्र की गाथाओं मान्यता है कि केवली भगवान ने 84 वर्ष की प्राय में इन स्तुपों का वर्णन मिलता हैं: में मोक्ष प्राप्त किया इस लिए इस स्थल का नाम चौरासी विख्यात हुआ। विद्यु तचर प्रादि 500 "तत्रापश्यत्स धर्मात्मा निः सहीस्थानमुत्तमम् । मनियों की भी यह सिद्धि भूमि है। अतः नगर के अन्त्य केवलिनो जम्बूस्वामिनो मध्यमादिदम् निकट की निर्वाण भूमियों पर स्तूप एवं निषिधि।। 81॥ काए बनाई गयी थीं। ततो विद्यु च्चरो नाम्ना मुनिः स्यात्तदनुग्रहात् । ___'मथुरा' में दूसरा तीर्थ केन्द्र सप्तर्षि टीला है। अतस्तस्यैव पादान्ते स्थापितः पूर्व सूरिभिः ।। जहां पर सात-मुनिश्वरों ने चातुर्मास की तपस्या ॥82॥ तपी थी, उसे ही सप्तर्षि टीला कहते है । श्री राम चन्द्रजी के अनुज महाराज शत्रुघ्न ने मथुरा पर क्वचित्पञ्च क्वचिच्चाष्टी, क्वचिद्दश ततः परम । विजय प्राप्त करके अपने पुत्र शूरसेन के नाम पर क्वचिद्विशतिरवे स्यात् स्तूपानां च यथायथम् ।। इस नगर का नाम शूरसेन रखा। शूरसेन नगर में ॥ 87॥ देवी प्रकोप से महामारी रोग प्रसरा। जन जन्तु क्षण क्षण में मर रहे थे । सप्त मुनिश्वरों ने प्रागस्तूपों की दुर्दशा, जीर्णावस्था देखकर साहू मन कर वहां वर्षावास किया। यक्ष ने भयभीत हो टोडर ने उनके जीर्णोद्धार का संकल्प लिया और कर मरी रोग को समेट लिया। प्रजा धन्य हो 501 स्तूपों का एक समूह, और 13 स्तूपों का उठी। मुनियों की बहु विधि अर्चना-पूजा हुई। दूसरा समह, इस प्रकार 514 स्तूपों का उद्धार महाराज शत्रुध्न भी अयोध्या से मथुरा पाये । किया , इन स्तूपों की निकटवर्ती भूमि पर 12 उन्होंने उस भूमि पर तथा अन्य स्थलों में जिन द्वारपालों आदि की स्थापना कराई। इस जीर्णो- मन्दिर निर्माण कराये । सप्तर्षि टीले की भूमि से द्धार का कार्य वि. सं. 1630 ज्येष्ठ शुक्ला 12 प्राप्त प्राचीनतम जिन प्रतिमाएं प्रमाणित करती बुधवार को पूर्ण हुआ। हैं कि-इस टीले के स्थल पर अवश्य जैन मन्दिर -2/37 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 प्राचीनकाल में विद्यमान था। विविध तीर्थ-कल्प एक दूसरे प्रायागपट्ट के लेख के अनुसार (चतुरशीति महातीर्थ-संग्रह-कल्प) में कथित है कि लवण शोभिका नाम की गणिका की पुत्री 'वसु' ने 'यमुना-तट' पर भगवान अनन्तनाथ एवं नेमिनाथ इस पायागपट्ट का दान किया था। इस पर स्तूप के मन्दिर थे । श्री सिद्धसेन सरि (12-13 वी. तथा वेदिकानों सहित तोरणद्वार बना हुआ है । श.) रचित 'सकलतीर्थ-स्तोत्र' में वर्णित है कि- यह पायागपट्ट ईसा की दूसरी शताब्दी का अनुमथरा नगर में श्री पार्श्वनाथ और नेमिनाथ भग- मान किया जाता है । लेख छह पंक्तियों में हैं:वान के मन्दिर थे। 1. नमो आरहतो वध मानस दण्दाये गणिका । जैन-पूजा पद्धति में प्रतीकों का पूर्व स्थान है। प्रतिमानों के निर्माण से पूर्व प्रतीक ही पूजे जाते 2. ये लेणशोभिकायेचितु शमण साविकाये। थे। प्रतीकों में पायाग पड़ों का प्रथम स्थान था, 3. नादाये गणिकाये वासये अरहता देविकुला । अन्य प्रतीकों में धर्मचक्र स्तुप, त्रिरत्न चैत्य स्तम्भ चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थ वृक्ष, पूर्णघट, श्रीवत्स, शराब प्रायगसमां प्रपा शीला पटा पतिष्ठापि तं सम्पुट, पुष्प पात्र. पुष्प पडलग, स्वस्तिक, मत्स्य निगमा। युग्म और भद्रासन । 5. ना अरहतायतने स (ह) मातरे भगिनियेधितरे प्रायागपट्ट एक चौकोर शिला पट्ट होता है, पत्रेण । उस पर मध्य में तीर्थकर-प्रतिमा का चित्रण होता 6. सविन च परिजनेन अरहत पुजाये। है। प्रतिमा के चित्रण के चारों ओर स्वस्तिक, 6. नन्द्यावर्त, श्री वत्स, भद्रासन, वर्धमानक्य, मंगलघट, अर्थात्-अर्हत वर्धमान को नमस्कार हो । दर्पण, और मत्स्य-युगल अंकित रहते है । ये चिन्ह श्रमणों की उपासिका (श्रविका) गणिका नन्दा, (प्रतीक) प्रष्ट मंगल के नाम से प्रख्यात हैं। एक गणिका नन्दा की बेटी 'वासा', लेणशोभिका ने परपायागपट्ट पर पाठ दिशामों में पाठ नर्तकियां हन्तों की पूजा के लिये व्यापारियों के अहत नत्य करती उकेरी गयी हैं, वेदिका सहित तोरण मन्दिर में अपनी मां, अपनी बहन, अपनी पुत्री, और अलंकरण अंकित हैं । कुछ प्रायागपट्टों पर अपने पुत्र के साथ और अपने सम्पूर्ण परिजनों के ब्राह्मी लिपी में लेख भी खुदे हैं। लेखों से ज्ञात साथ मिलकर वेदी एक पूजा-गृह, एक कुण्ड और होता है कि-ये पूजा के उद्देश्य से स्थापित किये पाषाणासन निर्माण कराया । (जैन शिलालेख गये थे। संग्रह. भाग 2 पृष्ठ 15)। 'मथुरा' से कुषाण-कालीन कई मायागपट्ट कंकाली टीले से प्राप्त एक (दूसरे) शिलापट्ट पर मिले हैं । एक पूर्ण पायागपट्ट है और दूसरा कोने जो संवत् 72 का ब्राह्मी लेख प्रकित है-इसके से खण्डित है जिस पर तीर्थंकर प्रतिमा अंकित है। अनुसार स्वामी महाक्षत्रप शोडास (ई. पू. 80पर विशेष महत्वपूर्ण है। समूचेवाले पर जन स्तूप, 50) के राज्य काल में जैन मुनि की शिष्या अमोउसका तोरणद्वार, सोपान-मार्ग और दो चैत्य-स्तम्भ हिनी ने जैन आयागपत्र की स्थापना की। लेख इस कुरेदे है । क्रमशः धर्म-चक्र और सिंह की प्राकृति । प्रकार चार पंक्तियों में है:खुदी हैं । सिंह ती. महावीर स्वामी का लांछन 1. नम अरहतो वर्धमानस । 2/38 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. स्त्र (!) मिस महक्षत्रपस शोडासस संवत्सरे राम के हाथ में चषक और मस्तक पर नाग फण 40 (1) 2 हेमन्तमासे 2 दिवसे 9 हरिति- है। इसमें श्रीकृष्ण को चर्तुभुज बना विष्णु का पुत्रस पालस मयाये समसाविबाये। अवतार और बलराम के मस्तक पर नाग फण उनके शेष नाग के अवतार को स्मरण दिलाने 3. कोछिये अमोहिनि ये सहा पुत्रेहि पालघोषेन वाला दिखलाया है। अन्य प्रतिमाओं में बलराम पोठ घोषेन, धन घोषेन, प्रायवती प्रतियापिता और कृष्ण द्विमुखी है। . प्राय (म) यहां से यक्ष यक्षी की भी अनेक मूर्तियां मिली हैं । ये सभी कुषाणकालीन है। इसमें एक नेगमेश 4. आर्यवती अरहर पूजाये । की है, जो बच्चों से घिरा है। देवी रेवती की (जैन शिलालेख भाग 2 पृ. 12)। प्रतिमा का मख भी बकरे का है, इस यक्षी का उपरोक्त दो पायागपट्टों के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध भी बच्चों से ही है। तीसरी मूर्ति जैन देवी सरस्वती की है। यह इस समय लखनऊ भक्तों ने भी आयागपट्ट स्थापित कराकर पुण्य लाभ लिया है । गौती पुत्र की पत्नी कौशिक कुलोद्भूत पुरातत्व संग्रहालय की धरोहर है । यह भी कंकाली टीले से ही प्राप्त है। सम्भवतः संसार की यह शिवमित्रा, फल्गुयश नर्तक की पत्नी शिवयशा, प्रथम सरस्वती देवी की प्रतिमा है । वैदिक सरस्मथुरा निवासी लवाड़ की पत्नी, कोशिकी पुत्र वती देवी की प्रतिमा 5-6 ई. से पूर्व की एक भी सिंह नन्दिक, भद्र नन्दी की पत्नी अचला, ओर त्रैवणिक नन्दी घोष ने भी पायागपट्ट स्थापित नहीं है । अन्य मूर्तियों में अम्बिका, चक्रेश्वरी प्रादि यक्षियों की हैं। कराया था। कंकाली टीले से प्राप्त जैन प्रतिमाओं के पाषाण की दो सर्वतोमद्र प्रतिमा यहां से प्राप्त विषय में अभी तक यह निर्णय नहीं हो पाया है कि हुई हैं-ये दोनों ही कुषाणकाल की है। एक के उनमें कितनी कुषाण-कालीन है और कितनी लेख के अनुसार मुनि जयभूति की प्रशिष्या 'वसूला कुषाण काल के पूर्व की है । किन्तु प्रासादों के की प्रेरणा से वेणीनामक सेठ की पत्नी 'कुमार- तोरणों के उपान्त भागों के टूटे खण्ड अवश्य ही मिता' द्वारा दान हुई है, और दूसरी सर्प फण शुग कालीन ज्ञात होते है। संयक्त 23 वे ती. श्री पार्श्वनाथ की है । इसे यहां एक विचारणीय बात यह है कि-मथरा स्थिरा नामक महिला ने दान किया था। मथुरा में में पायागपट्ट, प्रतिमाएं, शिलास्तम्भ आदि स्थापुरातत्व संग्रहालय में एक शिलापट्ट पर प्रादि पित कराने वालों में सभी वर्ग (जाति, अथवा तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव की प्रकित प्रतिमा व्यवसाई) लोग सम्मिलित थे। उनमें उच्चवर्ण के कुषाण नरेश शाही वासुदेव (138-196 ई.) के अतिरिक्त गणिका, नर्तक, लुहार, सार्थवाह गन्धी राज्य के 24 वे वर्ष में एक मठ में विराजमान की पूजारी सुनार घाटी (नाविक) आदि सभी जाति गई थी। वाले थे । ऐसा अनुमान होता है कि शक कुषाण काल से गुप्त काल और उसके बाद के काल तक मथरा से बाइसवे तीर्थकर श्री नेमिनाथ की। मथरा में जैन धर्म जन साधारण तक फैला था। प्रतिमाएं भी मिली हैं, जिनमें भगवान नेमिनाथ के यह तथ्य वहां से उपलब्ध अभिलेखों से सिद्ध होता अगल बगल श्री कृष्ण और बलराम की मूर्तियां है। उत्कीर्ण हैं । एक में श्री कृष्ण चतुभुजी और बल 2139 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र शक्ति - कोरी कल्पना श्री फतह चन्द सेठी, अजमेर लेखक महोदय ने मंत्र शक्ति के नाम पर चल रहे भुलावे की ओर हमारा ध्यान खींचा है। गत वर्ष इसी स्मारिका में छपे श्री विरधीलालजी सेठी के अष्ट द्रव्य पूजा पर लेख और उनकी पुस्तिका से पंचामृताभिषेक, अष्ट द्रव्य पूजा आदि विषयों पर जैन पत्र पत्रिकाओं में पक्ष विपक्ष में काफी ऊहापोह हुआ है। इस लेख में उस ही क्रम में मंत्र और उसकी शक्ति के सम्बन्ध में प्रश्नचिन्ह लगाया गया है। -प्र. सम्पादक "वीर" के अंक 7 (ता. 1 नवम्बर 1980) किस प्रकार मूर्तियों को तोड़ा तथा जब उनके में श्रीमान पं0 नाथूलालजी शास्त्री इंदौर का एक उपासकों व पंडे पुरोहितों ने उसे द्रव्य आदि देकर लेख “मूर्ति और उसके पंच कल्याणक' शीर्षक फुसलाना चाहा तो उसने साफ कह दिया किप्रकाशित हुआ है जिसमें विद्वान् लेखक महोदय ने मै मूर्ति तोड़ने वाला हुं, मूर्ति बेचने वाला नहीं। जगह जगह मंत्र शक्ति के प्रभाव का जिक्र किया यदि मंत्र प्रतिष्ठित मूर्तियों में कुछ भी चमत्कार है और एक स्थल पर तो यहां तक लिखा है कि होता तथा उसके प्रभाव से आक्रमणकारी अधा "अनेक मंदिरों और मूर्तियों पर आक्रमण करने हो गया होता तो मंदिरों में या वेदियों में मूर्तियों वाले अंधे हो गये हैं और भयान्वित हो कर भाग ब कीमती उपकरणों की रक्षा व चौकीदारी के गये हैं क्योंकि दे मंदिर और मतियाँ मंत्र प्रतिष्ठित लिये चौकीदारों की प्रावश्यकता नहीं होतीथीं।" मंत्रशक्ति से स्वथं ही उनकी रक्षा हो जाती। आये दिन जैन व अजैन मंदिरों में चोरियां श्री भक्तामर स्तोत्र के विषय में यह किंवदंती होती हैं जहां ठाकुरजी को, यदि वे अष्ट धातु के प्रचलित है कि उसके रचयिता श्री मानतुगाचार्य या पीतल के हों तो उन्हें एक ओर डाल कर उनके को अड़तालीस ताले लगा कर एक कोठरी में चांदी के सिंहासन व छत्र आदि को चोर चुरा ले बंद कर दिया गया था, लेकिन उन्होंने जब उक्त जाते हैं, तथा यदि मूर्ति सोने की, चांदी की या स्तोत्र की रचना की तो वे सब अड़तालीस ताले कीमती धातु आदि की हो तो उसे गला कर पिंड टूट गये और श्री मानतुग स्वामी कोठरी से बाहर बना कर बेच दिया जाता है। इतिहास का प्रा बिराजे। भक्तामर स्तोत्र सुंदर व भाबपूर्ण विद्यार्थी जानता है कि महमूद गजनी आदि ने काव्य है; कई कवियों ने इसके हिंदी अनुवाद 2/40 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये हैं लेकिन क्या कोई विद्वान बंधु यह बताने की कृपा करेंगे कि उसका कौनसा ऐसा श्लोक हैं जो ताला तोड़ने की क्षमता रखता हो। यदि कोई महानुभाव अड़तालीस तो क्या, मंत्र द्वारा या श्लोक पाठ द्वारा पाँच-सात ताले भी तोड़ कर यह चमत्कार बता सकें तो वह महान प्रभावना होगी । गुजर अपनी करीब सौ सवासौ वर्ष पहिले राजस्थान के एक प्रमुख नगर में भट्टारकों की मंत्र शक्ति के चमत्कारों के विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित थी। उनमें एक यह भी थी कि भट्टारक जी जब । पालकी में बैठ कर दरगाह के सामने से रहे थे तो दरगाह में बैठे एक पीर साहब ने करामात से भट्टारक जी के कमंडलु में मछलियाँ पैदा कर दीं, यह दिखाने के लिए कि ये कैसे अहिंसावादी हैं। इस पर भट्टारकजी ने मंत्र शक्ति के प्रभाव से कमंडलु को उलटा किया तो वे मछलियाँ फूलों में परिवर्तित हो गई। पीर साहब ने इस पर पैंतरा बदला जिससे पालकी उठाने वाले "भाईयों के पाँव जमीन पर चिपक गये। इस पर भट्टारक जी की पालकी उनकी मंत्र शक्ति के प्रभाव से बिना भोइयों के हवा में उड़ती हुई चली भट्टारक जी ने यह भी करामात दिखाई कि पीर साहब पेट के दर्द के मारे तड़फने लगे और उन्होंने आकर भट्टारक जी को सिर झुकाया तथा ताम्रपत्र अंकित किया कि आगे किसी जैन साधु या भट्टारक की सवारी दरगाह के धागे से बिना रोक टोक के गुजरेगी। भक्त लोग मंत्र शक्ति के चमत्कारों के विषय में इस कदर प्राश्वस्य थे तथा इसका वर्णन इतने तपाक से करते थे जैसे यह घटना उनकी आंखों के सामने घटित हुई हो । कई वर्ष पहिले मैने तत्कालीन भट्टारक जी से इम घटना का उल्लेख करते हुए उन्हें उक्त ताम्रपत्र दिखलाने के लिये निवेदन किया । इस पर भट्टारक जी महाराज बोले- "बाबू साहब, जिशा न आप सुणता माया हो, विज्ञान ही म्हे भी सुणता श्राया हाँ | जद म्हे ही बै ताम्रपात्र श्राँख्याँ से नहीं देख्या तो थाने कठाऊँ बतावाँ ।" (" जैसे आप सुनते श्राये हो वैसे ही हम भी सुनते प्राये हैं । जब हमने ही वे ताम्रपत्र घाँखों से नहीं देखे तो आपको कहीं से बतावें । ) शास्त्रीजी महोदय ने एक स्थल पर लिखा है कि "यदि जैन मंत्रों से धर्मायतनों और धार्मिक जनों की रक्षा होती है तो दूमरे मांत्रिकों की शरण में जाने के बजाय तो अपने मंत्रों की शरण क्यों न की जाये ?” दूसरे शब्दों में शास्ली जी स्वीकार करते है कि जैनेतर मंत्रों में भी शक्ति है । बम्बई के एक सुप्रसिद्ध अनुसंधान रत संस्थान ने कई वर्ष पहिले मांत्रिकों को ग्राहवान किया था कि वे जहरीले सर्पों से विष निकाल कर बंदर को उसका इंजैक्शन लगा कर मूर्छित करते हैं झौर मांत्रिक उस बंदर को अपनी मंत्रशक्ति से निर्विष किया। कर दें । लेकिन इसे किसी मांत्रिक ने स्वीकार नहीं हम लोगों में अतिशय, चमत्कार, मंत्रशक्ति, व्यंतर जाति के देव आदि के विषय में कल्पित किंवदंतियाँ इस कदर भरी हुई हैं कि हम सहसा उन पर विश्वास कर बैठते हैं और यही कारण है कि जैनियों में भी पीरूलाल, मीरूलाल खाजूलाल, भैरूलाल, गणेशीलाल, बालावस्थ प्रादि व्यक्ति मिल सकते है जिनके बुजुर्गों ने किसी समय पीर साहब, मीर साहब, ख्वाजा साहब, भैरूजी, गणेशजी, बालाजी आदि की मिन्नत मानी थी । स्पष्ट ही यह जैन मान्यता के विपरीत है | 2/41 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त और हम -प. राजकुमार शास्त्री नवाई प्रसिद्ध समाज सेवी विद्वान की कलम से लिखा एक एक शब्द जैन सिद्धान्त की गरिमा को पाठक के हृदय में उकेरता है। पर हमारे युवक और युवतियां इससे बेखबर है । दोष हमारा ही है। हम उन्हें धार्मिक शिक्षा से संस्कारित करने हेतु क्या कर रहे है ? लेखक ने बड़े दर्द के साथ हमें हमारे कर्त्तव्य की याद दिलाई है. पर क्या हम अपने कर्तव्य को कुछ ठोस साकार रूप देंगे ? प्र. सम्पादक जैन धर्म एक विश्व कल्याण परक सर्वोदयी देवी देवताओं के समक्ष पशु बलि चढ़ाना अमानधर्म है। विश्व की सभी आर्थिक, राजनैतिक और वीय कृत्य की संज्ञा दी थी। सामाजिक समस्याए सुलझाने में पूर्ण सक्षम है। न इसमें हठवाद को स्थान है और न एकान्तवाद श्री ऋषदेव जो इस युग में प्रथम तीर्थकर थे। को। इसके सभी सिद्धान्त, तर्क शक्ति एवं प्रागम उनके योग व तपस्याधारण की भरि-भरि प्रशंसा से सम्मत हैं। इसके अधिकांश सिद्धान्त व मान्य- और गुणानुवाद श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में और ताये प्राधनिक वैज्ञानिकों ने सिद्ध व सही साबित वेदों में किया गया हैं। इन्हीं के परंपरा में 23 कर दिया है। यह हम ही नहीं, विश्व के सभी तीर्थकर हुये हैं। अन्तिम तीर्थकर भगवान महाबीर विचारकों एवं प्रबुद्ध विद्वानों ने एक मत से स्वी- 24 वें तीर्थकर तो अभी अभी ढाई हजार वर्ष पूर्व कार किया है। जैनधर्म के विषय में अनेकों पूर्ण ही हुए हैं, जिनका 2500 वां निर्वाण दिवस 5 विद्वान अपने अपने विचार प्रगट कर जैनधर्म की वर्ष पूर्व ही सारे देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने सार्वभौमिकता एवं सर्वोदयता और प्राचीनता मक्त और सभी वर्ग की जनता ने बिना भेद भाव के स्वर से मान ली हैं। (देखो जैनधर्म के सम्बन्ध में जिस श्रद्धा, भक्ति और लगन के साथ मनाया था, प्रजैन विद्वानों को सम्मतियां) विश्व में आज वह अभूत पूर्व ही था, जो अब ऐतिहासिक श्रृंखला समाजवाद, समन्वयता की आवश्यकता महसूस की में जुड़ गया है। जा रही है । जैनधर्माचार्यों ने उन्हें प्राज से लाखों वर्षों पहले अनेकान्तवाद, व अपरिग्रहवाद सिद्धान्तों अभी इसी वर्ष 1981 की 9 फरवरी से 15 का प्ररूपण कर उद्घोषित कर दिया था। इसी मार्च तक कर्नाटक राज्य स्थित श्रवणबेलगोला में तरह यज्ञों में पशुओं का होमना, धर्म के नाम पर अद्भुत विशाल अनोखी प्रशान्त मूर्ति (जिसे विश्व 2142 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का 8 वां आश्चर्य माना गया है) भगवान बाहुबलि की विशालता देख अपनी गलती स्वीकार करते का सहस्रवि समारोह कर्नाटक राज्य के पूर्ण सहयोग है । जैनधर्म में पृथ्वी, जलादि की तरह पेड से विशाल पैमाने पर महामस्ताभिषेक मनाया गया पौधों को भी वनस्पतिकायिक जीव माना गया है । ये तीर्थकर ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र थे। इसमें है। लेकिन उनकी ज्ञान चेतना बहत ही अविकबीस लाख से भी अधिक श्रद्धालु भक्त सम्मिलित हुए सित है । इसीसे उसे अन्य सब जड़ ही हैं । समारोह का उद्घाटन भारत देश की प्रधानमन्त्री मानते थे । किन्तु वैज्ञानिक परम प्रबुद्ध प्रो. श्रीमरी इन्दिरा जी ने किया है । यह समारोह भी वसु ने पेड़ों में होने वाली प्रक्रिया प्रत्यक्ष अपने आप में अभूतपूर्व और ऐतिहासिक ही हुआ दिखाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि पेड़ है। इस समारोह में हजारों अजन बन्धु भी सहर्ष पौधों में जीवत्व है। और उनमें हर्ष विक्षाद सम्मिलित होकर श्रद्धा के सुमन समर्पित किये। का अनुक पन होता है । रात्रि भोजन करने ये सब बातें जैनधर्म के प्रति आस्था के प्रतीक और जल अनछना पीने का निषेध जैनधर्म में है । ये दोनों चीजे जहां अधर्म है वहां अब पाइये, हम अपने खुद के प्रति और अपने स्वास्थ्य के लिये भी महान हानिकर हैं तथा जैन भाइयों का भी लेखा जोखा लें कि हम ऐसे अनेक अधिव्याधियों के जनक है। इस बात परम पावन धर्म के सिद्धान्तों के प्रति कितने को अनेक प्रबुद्ध वैज्ञानिकों से डाक्टर वैद्यों आस्थावान हैं ? से धर्माचारियों ने अनेक तर्क देते हुए प्रत्यक्ष दिखाकर सही मान लिया है । किन्तु कुछ हमें सौभाग्य से ऐसी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई बन्धु अब भी इनका उपयोग कर रहे हैं और है, जिसके प्रकाश में हम अपने को भी देख सके हैं अपने को प्रगतिशील मान रहे है । मद्य, मांस और दूसरों को भी दिशा बोध दे सके हैं। यह का सेवन, अभक्ष्य, अनिष्टकर एवं अनुपसेव्य सब तभी संभव है जब उस दिव्य ज्योति से सर्व- कंदमूलादि का भक्षण-करना, हिंसक, प्रमादकर्ता, प्रथम हम स्वयं आलोकित हो । आज थोडे अक्षर ऋरता जनक है, वहां अस्वास्थ्कर भी है। ज्ञानी होने पर या किसी भाषा या विषय के पढ़ने इसीलिए जैनवाङ्गमय में जैन संस्कारों के सृजन या डिग्री ले लेने मात्र से ज्ञानी या पंडित नहीं हो में सहायक अष्ठमूल गुण बच्चों को 8 वर्ष सकते है। किन्तु वे अपने सीमित ज्ञान के मद में की आयु में ही धारण कर दिये जाते थे ताकि सभी विषयों के पारगामी अपने को समझ लेते वे संस्कार निरंतर ही बुद्धिगत होते रहे और है। उन्हें पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञदेव के कहे हुए वचनों में आदर्श जीवन के निर्माण में सहायक बन अप्रमाणिकता दीखती है और भगवान के द्वारा सकें । जैनों को प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों से प्रतिपादित प्रमाणों को भी अप्रमाणिक ठहराने की संस्कारित करने की प्रक्रियाए वनाई जाती चेष्टा करते है। याने अपने अल्प ज्ञान को उस रही है ताकि उनका प्राचार, विचार, और दिव्य परिपूर्ण केवल ज्ञान से तोलते है. जैसे बोना आहार शुद्ध. सात्विक एवं संयमित रहे और आदमी अाकाश को छुने का प्रयत्न करे। उनका जीवन पवित्र और प्रादर्श बने । मगर ये सब कहां है प्राज? पहले शास्त्रों में वरिणत 500 धनुष लम्बे शरीर के होने की प्ररुपणा पढ़ कह गप्प समझते थे। प्राचार और विचारों में पवित्रता लाने और किन्तु वर्तमान में प्राप्त शरीर के अस्थि कंकालों प्रात्मबोध कराने में हमें नित्य प्रायः सायं जिन 2/43 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर जी में जाने का आदेश दिया गया है। क्योंकि मन्दिर प्रात्म बोध कराने में साधन है। जिन मन्दिर जी में तीर्थंकरों की प्रति मूर्तियां दृष्टिगोचर होती हैं जिन्होंने अपने आचरणों से और महान साधनाओं से महानतम परमात्य पद प्राप्त किया है। उनकी वीतराग प्रशान्त मुद्रामय मूर्ति को देखते ही श्रद्धा से मस्तिष्क झुक जाता है और प्रात्मा से परमात्मा बनने तक की उनकी सम्पूर्ण साधना प्रणाली पाँखों में घूम जाती है और मुंह में एकाएक निकल उठता है। तुम गुण चिंतन निजपर विवेक, प्रगटे विधटें आपद अनेक | जैसा प्रदर्श सामने होता है, वैसे ही बनने की हमें प्रेरणा मिलती है। वहीं उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित जैन शास्त्र उपलब्ध हो जाते हैं, जिन्हें पढ़ कर हमें संसार की सभी स्थिति और उसका सही रूप का बोध होता है। जीवन की सभी गतिविधियों और उनका परिणाम सब समझ में आने लगता है। भोगी और उनके भोगने का परिणाम भी ज्ञात हो जाता है। उनकी निःसारता देख उन्हें छोड़ने की प्रवृत्ति हो जाती है । मन्दिरों में जिनप्रतिमा-जिनवाणी के देखने व सुनने से पढ़ने से भ्रात्मविश्वास व श्रात्मबोध प्राप्त होता है । विश्व के अनेकों मनीषियों ने कहां है कि जैसी चीजें हम देखते हैं व जैसी बातें हम नित्य प्रति सुनते हैं हम वैसे ही बन जाते हैं। जैसा हम आदर्श अपने सामने रक्खेंगे हम वैसे ही बनेंगे । यह ध्रुव सत्य है । जैन मन्दिर प्रदर्श स्थल हैं । वहां का कण-कण हमें सुख शान्ति का संदेश देता है । आज हमने वहां जाना आना समय को नष्ट करना समझ लिया है । इसलिये अनेक वहां जाते नहीं है और महान संस्कृति की उपलब्धियां एवं गरिमानों से वंचित रह जाते हैं । यह सब धार्मिक शिक्षा के प्रभाव में होता है । जीवन के उत्कर्ष के लिये जीवन को सफल व आदर्श बनाने के लिये धार्मिक शिक्षा बहुत जरूरी है। इससे ही नैतिकता आयेगी, व्यावहारिकता आवेगी। आज हम जब लड़की देखने जाते हैं, तब यह तो पूछते हैं कि उसने बी. ए. पास किया है, या एम. ए. । मगर यह नहीं पूछते हैं, ि धार्मिक शिक्षा कहां तक ली है। यही कारण है कि लड़कियां भौतिक शिक्षा के प्रति तो आकर्षित हैं, धार्मिक शिक्षा की ओर नहीं क्योंकि उसकी पूछ नहीं है। धार्मिकता ही नैतिकता पैदा करती है। वर पक्ष दहेज की मांग कर अपना घर भरने की दृष्टि रखता है। वह कन्या पक्ष की स्थिति पर कब ध्यान देता है। दहेज के कारण ही हजारों सुयोग्य कम्याऐं वयः प्राप्त होने पर भी प्राज कुमारी जीवन बिता रही हैं और समाज की व्यवस्था पर धांसू बहा रही हैं। युवकगरण भी अपने नाम के साथ जैन शब्द तो लिखता है, किन्तु यह नहीं जानता है कि जैन किसे कहते हैं । मैंने महाराजा कालेज के छात्रावास में एक छात्र की कापी पर प्रदीप जैन लिखा हुआ देखा तो बड़ी खुशी हुई। सोचा बच्चों में धर्म के प्रति रुचि व आस्था तो है, जभी उसने अपने नाम के पीछे जैन लिखा है । मैं भी अपने वहीं रहने वाले बच्चों से मिलने गया था मैंने वहीं बैठे-बैठे प्रदीप जैन से पूछा, प्रदीप जैन से पूछा, भैय्या तुम्हारा नाम तो बहुत सुन्दर है, किन्तु अपने नाम के साथ 'जैन' शब्द क्यों लिखा है ? उसने जवाब दिया कि 'मेरे फादर भी अपने नाम के साथ जैन लिखते हैं । इसीलिये मैं भी लिखता हूं । 'जैन' क्यों लिखते थे और जैन क्या है यह मैं नहीं जानता हूं। मैंने उसे और टटोलने की दृष्टि से कहा, भैय्या जैन शब्द जैनधर्म का अनुयायी होना बताता है और जैनधर्मं बड़ा ऊंचा और सही धर्म है । तो उसने तपाक से जवाब दिया कि मैं धर्म को ढकोसला समझता हूं। 2/44 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और यह कहकर वह बाहर चला गया ? यह है होने पर ही यह फैली हुई धारणा साकार होगी हमारी भावी पीढी का हाल । कि जैन बन्धु, सहिष्णु, समताभावी और संयमी होता है । वह तत्त्ववेत्ता और संतोषी होता है । धर्म के सिद्धान्त कितने भी महान हों, मगर गुणग्राही होता है । पर निंदा दुसग्रह से बहुत दूर उन्हें समझाने वाले और इन पर चलने वाले पैदा प्राणी मात्र का मित्र होता है। दुखी और पथभ्रष्ट हो । तभी तो उनकी महानता प्रकट होगी। हम लोगों को देखकर वह द्रवीभूत हो जाता है । इसका सिद्धान्तों की महानता की डींग भले ही मारते प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जनसंख्या के औसत से फिरे, जव तक जन ही उनपर नहीं चलेंगे तब दूसरे जैन अपराधी कम ही होते हैं। इसीलिये एक बार लोग उन पर कैसे चलेंगे और कैसे हमारा अनुकरण राष्टपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि "जन करेंगे । ईसाइयों में कितनी सेवा की भावना है। जीवन एक अादर्श और पवित्र जीवन है।" उनके द्वारा संचालित अस्पतालों में जाकर देखें; बीमारों के प्रति उनका कितना मधुर और दयाद्र अत: मेरा सुझाव है कि वृद्ध जन प्रेम के साथ व्यवहार होता है। ईसाई बन जाने पर वे किस युवकों को आगे लावें । उनको और बच्चों को कदर उनके जीवन और जीविका के साधन जुटाते जैन धर्म की शिक्षा का महत्त्व समझावें और जैन हैं, यही कारण है कि उनकी संख्या निरन्तर बढ़ धर्म को पढ़ने की उनमें रुचि पैदा करें। रही है। वे अपने यीशु के प्रति कितने प्रास्थावान (2) अखिल विश्व को जैन बनाने का आदर्श है 'प्रार्थना के समय गिरजाघरों में कितनी तल्लीनता से शामिल होते हैं। मुसल्मानों को तो कायम रखें, परन्तु फिलहाल जैनियों को तो - जैम बनाये रखें। देखिये, वे सरकारी मुलाजिम है या व्यापारी है। नवाज के टाइम पर सब काम छोड़ उसमें शरीक (3) रात्रि भोजन करने, अनछने जल पीने की होंगे। शुक्रवार के दिन तो वे बडी लगन से नमाज बुराइयों को-एवं अण्डा शाकाहार है, इस क्रान्ति अदा करते ही हैं। तभी सरकार भी झुकती है को दर करने को जिन-दर्शन नित्य प्रति करने के और उन्हें उस समय का सवेतन अवकाश महत्त्व को प्रकट करने वाले छोटे-छोटे किन्तु सुन्दर देती है। ट्रेक्ट छपवाकर सर्वत्र वितरण करावें। अभी ऐसे कई प्रदेश हैं, जहां महावीर जयन्ती (4) जहां मन्दिर है, वहां मन्दिर निर्माण न और अनंत चतुदर्शी का सार्वजनिक अवकाश राज्य करे, लेकिन जहां नहीं है, वहां अवश्य एक जिन स्तर पर नहीं होता है, ऐच्छिक अवकाश रहता मन्दिर चाहे छोटा ही हो मगर भव्य व आकर्षक है । उस दिन भी जैन अपनी धर्म निरपेक्षता दिखाने निर्माण करावें। कार्यालयों में जाते हैं, व्यापारी व्यापार प्रतिष्ठान (5) एक जैन बैंक बनाया जावे। जहां से बन्द नही करते हैं ? कहां है धर्म के प्रति वह पुरुषार्थी व्यक्तियों को जो धनाभाव के कारण प्रास्था और प्रेम, कहां है, परोपकार की भावना ___ अभावों में जीवन निर्वाह कर रहे हैं उन्हें अत्यल्प और सहधर्मी के प्रति वात्सल्यता । व्याज में ऋण दिये जावें। व्यापार में एवं नौकरी ___ इन स्थितियों के होने का एकमात्र कारण दिलाने में उनको सहयोग दें। धार्मिक शिक्षा का न होना है । अत: गांव-गांव में (6) दहेज दानव की समाप्ति के लिये जन धामिक शिक्षा का प्रसार होना चाहिये । शिक्षित अान्दोलन करें। -. 2145 . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बाहुबली के सहस्त्राब्दि महामस्तकाभिषेक के पुण्य अवसर पर लघु विद्यानुवाद ग्रंथ का प्रकाशन ( यंत्र मंत्र और तन्त्र विद्या का एक मात्र संदर्भ ग्रन्थ ) ग्रन्थ के संग्रहकर्ता श्री 108 आचार्य गणधर कुथु सागर जी महाराज व श्री 105 गणनी प्रायिका विजयमती माताजी हैं। जिन्होंने जन कल्याण की भावना से श्री 108 आचार्य महावीर कीति जी की निधि को इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रकट किया है। श्री दिगम्बर जैन कुथु विजय ग्रन्थ माला समिति द्वारा इसका प्रकाशन किया गया हैं। प्रकाशन संयोजक श्री शांति कुमार गंगवाल है और ग्रन्थ के प्रबन्ध सम्पादक श्री लल्लूलाल जैन (गोधा) हैं। इस ग्रन्थ का विमोचन श्रवणबेलगोल में दिनांक 24-2-1981 को श्री 108 प्राचार्य विमल सागर जी महाराज के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ । A लघु विद्यानुवाद ग्रन्थ के विमोचन का दृश्य - इससे पूर्व दिनांक 23-2-81 को श्रवणबेलगोल मैं सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य मुनि 108 श्री विद्यानन्द जी महाराज द्वारा बाहुबली खण्ड काव्य जिसके रचियता पं. अनुपचन्द न्यायतीर्थ जयपुर का विमोचन हुआ। इस काव्य का प्रकाशन श्री महावीर दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जो के साहित्य शोध विभाग द्वारा किया गया है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड साहित्य और संस्कृति 1. कूटस्थ श्रुत केवली आचार्य कुन्द कुन्द प्रो० श्री रंजन सूरिदेव 22. अमृतचन्द्र की देन श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री असद्भूत व्यवहार नय वस्तु धर्म का प्रतिपादन श्री रतनचन्द जैन 4. प्राकृत भाषा एवं आधुनिक भाषा डा० प्रेमसुमन जैन 5. संस्कृति की दो धारायें डा० बी० सी० जैन 6. प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य का सूफीवाद और रहस्यवाद पर प्रभाव डा० दामोदर शास्त्री 7. अपभ्रश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल 8. उत्तर पुराण कालीन सामाजिक जीवन डा० प्रेमचन्द जैन 9. क्षपक का समाधिकरण क्षपक व आराधक की समानार्थकता पं० बालचन्द शास्त्री 10. भारतीय दर्शनों में मोक्ष चितन डा० उदयचन्द्र जैन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमार काला जन समुदाय सम्बोधित करते हुये जाय विशिष्ठ अतिथि माननीय श्री जगन्नाथ पहाड़िया तत्कालीन केन्द्रीय राज्य वित्त मंत्री, सभा को सम्बोधित करते हुये . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापन पर्व महोत्सव 1980 क्षमापन पर्व महोत्सव स्थान जैन सभा जयपुर भूतपूर्व मुख्य मंत्री माननीय श्री हरिदेव जोशी समुदाय को सम्बोधित करते हुये न बडे दीवानजी के मन्दिर प्रांगण पर दशलक्षण पर्व समारोह में पं० उत्तमचन्द भारिल्ल प्रवचन करते हुये Jain Education Intemational www.jainelibrary.or Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापन पर्व महोत्सव राजस्थान जैन सभा जयपुर क्षमा वीरस्य भूषणम् 00 मनुष्य जासे नहीं कम महान बनता है मंच पर बैठे अतिथि एवं गणमान्य व्यक्ति मित्र अरु दे आमा भारत जन क्षमापन पर्व महोत्र राजस्थान जैन सभा जयपुर क्षमा वीरस्य भूषणम् 3 कृषि मंत्री श्रीमती कमला, जन समुदाय को सम्बोधित करती हुई Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन समुदाय की उपस्थिति क्षमापन पर्व महोत्सव बाजरथान जैन सभा जयपुर R क्षमावीरस्य भूषण मुनि श्री १०८ मल्लिसागरजी जन समुदाय को सम्बोधित करते हुये www.jainelibraryoga Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटस्थ श्रुतकेवली प्राचार्य कुन्दकुन्द 0प्रो० श्री रंजनसरिदेव विद्वान् लेखक ने प्रस्तुत लेख में प्राचार्य कुन्दकुन्द के जीवन की घटनाओं और जैनधर्म में संघभेद पर शोधपूर्ण ऊहापोह किया है तथा 'श्रमण परम्परा के सिद्धान्त-साहित्य के प्ररूपक के रूप में कटस्थ स्थान स्वीकार किया है। -सम्पादक ब्राह्मण-परम्परा के प्राध्यात्मिक चिन्तकों प्राचार्यों की परम्परा में अद्वितीय हैं। श्रुतधर तथा भक्ति-साहित्य के सर्जकों में आदिशंकराचार्य प्राचार्य जैनवाङमय के मौलिक चिन्तक होने के का जो स्थान है, श्रमण-परम्परा में वही स्थान कारण आद्याचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं । आचार्य प्राचार्य कुन्दकुन्द का है। प्राचार्य कुन्दकुन्द युग- कुन्दकुन्द ने अपने जीवन में दिगम्बर आचार्यों के चिन्तक ही नहीं थे, युग-प्रवर्तक भी थे। इसलिए, चारित्र और गुरणों का सम्यक निर्वाह करते हए जैनों की उत्तरवर्ती परम्परा 'कन्दकन्द प्राम्नाय' अध्यात्म और भक्ति-साहित्य की सर्जना की। के नाम से विख्यात हुई। इतना ही नहीं, अपनी इसलिए, वे केवलियों या श्रुतकेवलियों की सारस्वत पुरुषार्थ-साधना के सिद्धिबल से वे, परम्परा में अंगों या पूर्वो के एकदेशज्ञता प्राचार्यों मंगलमयता के निमित्त नित्य स्मरणीय भगवान् में वरेण्य हैं । महावीर, गौतम गणधर और जैन धर्म के प्रतिरूप बन गये। मंगलस्तवन का लोकप्रथित पद्य इस श्रुतधराचार्य कुन्दकुन्द युगसंस्थापक और प्रकार है: युगान्तरकारी प्राचार्य हैं; क्योंकि उन्होंने सामान्य जनजीवन की औसत प्रतिभा के क्षीण होने पर मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गोतमो गणी । नष्ट होती हुई श्रुतपरम्परा को न केवल सुरक्षित मंगलं कुन्दकुन्दायो, जनधमाऽस्तु मगलम् ॥ रखा, अपितु उसे मूर्त रूप देने का ऐतिहासिक कहना न होगा कि गहन आध्यात्मिक चिन्तन कार्य किया । ज्ञातव्य है कि जिनवाणी की सुरक्षा और द्रव्यानुयोग के सूक्ष्मतर विवेचन के क्षेत्र में के लिए जितने प्रयत्न हुए हैं, उनमें श्रुतधर कुन्दकुन्द जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्य की द्वितीयता प्राचार्यों का प्रयास ततोऽधिक मूल्यवान् है । नहीं है। ___ प्राचार्य कुन्दकुन्द ईसवी-सन् की प्रथम शती प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर-माम्नाय के श्रुतधर के प्राचार्य थे । दिगम्बर-साहित्य के महान् 1. श्रुतधर आचार्यों के विषय में विशेष विवेचन-विवरण के लिए द्रष्टव्यः तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा': डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, प्रथम परिच्छेद । 3/1 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणेताओं में उनका मूर्द्धन्य स्थान है । उनकी सभी रहते थे। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हीं कुन्द श्रेष्ठी रचनाएं प्रायः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हैं। के पितृत्व को धन्यता और कृतार्थता प्रदान की 'प्रवचनसार', 'समयसार' और 'पंचास्तिकाय', थी। वे शैशव से ही गम्भीर, चिन्तनशील तथा उनके ये तीन ग्रन्थ तो जैनसिद्धान्त की प्रस्थानत्रयी प्रतिभा सम्पन्न थे। ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही के रूप में स्वीकार्य हैं। इनके अतिरिक्त, 'प्राभूत' वे किसी मुनिराज का उपदेश सुनकर विरक्त हो (पाहुड) और 'भक्ति'-संज्ञक रचनाएं उनके गये थे और दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन सिद्धांत प्रतिष्ठापक शास्त्रीय ग्रंथों में शिखरस्थ हैं। गये। जिनचन्द्र नाम के गुरू ने उन्हें तैतीस वर्ष की कुल मिलाकर, उन्होंने बाईस ग्रन्थों की रचना की अवस्था में प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया। है । ब्राह्मण परम्परा में 'श्रीमद्भगवद्गीता' को कथाकार द्वारा कुछ इतिहास, कुछ कल्पना जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान श्रमण परम्परा में और कुछ मिथक या अभिप्राय का सहारा लेकर 'प्रवचनसार' को दिया जा सकता है। गीता में। अपनी कथा को विस्तार दिये जाने की चिराचरित जिस प्रकार ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का प्रथा रही है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की जीवन कथा निरूपण किया गया है, उसी प्रकार 'प्रवचनसार' भी इस वैशिष्ट्य से संबलित है । एक दिन आगममें ज्ञान, ज्ञेय (भक्तियोग) और चारित्र (कर्मयोग) ग्रन्थों के स्वाध्याय के क्रम में आचार्य कुन्दकुन्द का पुखानुपुख प्रतिपादन उपलब्ध होता है। सहसा शंकाग्रस्त हो उठे । तत्क्षण ध्यान मग्न होकर, प्राचार्य कुन्दकुन्द का समग्र जीवन बराबर विदेह-क्षेत्र के समवशरण में अवस्थित सीमन्धपरस्मैपदी बना रहा, कभी आत्मनेपदी नहीं हया, रस्वामी का एकाग्र भाव से स्मरण किया । सीमन्धइसलिए उन्होंने प्रात्मपरिचय को गोपन ही रखा। रस्वामी ने भी 'सद्धर्मवृद्धि रस्तु' कहकर उन्हें प्राशीचुकि वे निग्रन्थ कोटि के महापुरुष थे. इसलिए वर्वाद दिया। समवशरण में उपस्थित श्रावकों को प्रात्मगप्ति उनकी सहज अनिवार्यता थी। उनका बड़ा विस्मय हुआ कि सीमन्धरस्वामी ने किसे यह रचनाकार, उनकी रचनाओं में ही विजित हो अयाचित आशीर्वाद दिया। पूछने पर स्वामीजी ने गया। किन्तु, गवेषणपटु मनीषियों ने उनके जीवन बताया कि भरत क्षेत्र स्थित कुन्दकुन्द मुनि के परिचय के सन्दर्भ में जिन बहिरन्तः साक्ष्यों को पूर्व भव के दो मित्र थे। वे आकाश-संचरण की उपन्यस्त किया है, उनसे इतना स्पष्ट है कि ऋद्धि से सम्पन्न थे । वे दोनों बारांपुर गये और प्राचार्य कुन्दकुन्दु का समग्र जीवन परीषह या आकाशमार्ग से कुन्दकुन्द मुनि को विदेह क्षेत्र में संघर्ष प्रधान था। तप या संल्लेखना ने ही उन्हें ले आये। पल्योपम की प्रतिष्ठा प्रदान की। उनके जीवन आकाश मार्ग में जाते समय कुन्दकुन्दमुनि परिचय के क्रम में दो कथाएं उपलब्ध होती हैं। की मयर पिच्छी गिर गई, तो उन्होंने गृद्धपिच्छी पहली कथा ब्रह्मनेमिदत्त विरचित 'अाराधना कथा से काम लिया लिया। इसलिए, उन्हें 'गृद्धिपिच्छ' कोष' में शास्त्रदान के फल निर्देश के क्रम में पाई है। भी कहा गया है। शक-सं. 1307 के विजयनगर दूसरी कथा 'ज्ञानपबोध' नामक ग्रन्थ में वरिणत है। अभिलेख में प्राप्त एक श्लोक से ज्ञात होता है __ 'ज्ञानप्रबोध' की कथा में उल्लेख है कि मालव कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पाँच नामों से विख्यात थे : देश में अवस्थित किसी बारांपुर नगर के राजा प्राचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । कुमुदचन्द्र के राज्य में कुन्द नाम के एक श्रेष्ठी एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पंचधा ।। 1. पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा 'जनहितैषी' (भाग 10, पृ० 369) में प्रकाशित । 3/2 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'महामुनि' नाम के स्थान पर 'पद्मनन्दी' नाम इसी सन्दर्भ का पूनरुल्लेख शुभचन्द्र की भी प्रचलित हैं। प्रसिद्ध 'तत्वार्थसूत्र के रचयिता 'गुर्वावलि' के अन्त में निबद्ध दो पद्यों में भी प्राप्त तथा कुन्दकुन्द के समकालीन शिष्य उमास्वामी को होता है । भी 'गृद्धपिच्छाचार्य' कहा गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के और तीन नाम तो उतने प्रचलित नहीं पद्मनन्दी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।। हुए, किन्तु पद्मनन्दी और कुन्दकुन्द नामों की उज्जयन्तगिरी तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । मावृत्ति प्रायः मिलती हैं। अतस्तस्मै मुनीन्द्रायनमः श्रीपद्मनन्दिने ।। । प्राचार्य कुन्दकुन्द अपने उक्त दोनों आकाशचारी शिष्यों के प्राग्रह पर एक सप्ताह तक विदेह अर्थात् बलात्कारगरणाग्रणी पद्मनन्दी गुरु ने ऊर्जयन्त गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की क्षेत्र में रहे और सीमन्धरस्वामी के सान्निध्य में मति को बोलने के लिए विवश कर दिया। उसी पागम ग्रन्थों के स्वाध्याय के क्रम में उत्पन्न अपनी से दिगम्बरों की 'सारस्वत गच्छ' शाखा का उद्शंकाओं का समाधान किया। वहाँ से भरत क्षेत्र में लौटते समय वे अनेक तन्त्रग्रन्थ भी अपने साथ भव हुआ। अत: उन पद्मनन्दी मुनिवर को नमस्कार है। "ला रहे थे, किन्तु वे सभी ग्रन्थ लवरणसमुद्र में गिरकर नष्ट हो गये । आचार्य कन्दकन्द भरत-क्षेत्र कवि वृन्दावन के उल्लेख से भी ज्ञात होता में लौटकर धार्मिक उपदेश देने लगे। उनके सहस्रों है कि कुन्दकुन्द स्वामी संघ सहित गिरिनार की अनुयायी हो गये। एक बार गिरनार पर्वत पर यात्रा पर गये । वहाँ उन दिनों श्घेताम्बर संघ भी श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया। किन्तु ठहरा हया था। दोनों संघों में वाद-विवाद हया, उन्होंने वहाँ की प्रसिद्ध श्वेताम्बरी देवी ब्राह्मणी जिसकी मध्यस्थता पाषाण देवी अम्बिका ने की। के मुख से कहलवा दिया कि 'दिगम्बर निग्रन्थ उस देवी ने साक्षात् प्रकट होकर कहा कि 'दिगम्बर मार्ग ही सच्चा है।' कहते हैं, अन्त में उन्होंने निग्रन्थ पन्थ ही सच्चा है।' अपना प्राचार्य-पद उमास्वामी को सौंप कर समाधि मरण अगीकार किया। इन सब अभिप्रायों से इतना तो सत्य है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रबल-प्रखर शास्त्रार्थ विद्वान थे। ब्राह्मी देवीवाली घटना का पुनराख्यान भी यहाँ तक कि उन्हें शास्त्रार्थियों में 'बलात्कारगणाउपलब्ध होता है। दिगम्बर श्वेताम्बर विवाद में ग्रणी' तक कहा गया । पुण्यश्लोक डॉ. आदिनाथ प्राचार्य कुन्दकुन्द की विजय प्राप्ति के सन्दर्भ में नेमीनाथ उपाध्ये ने 'प्रवचनसार' की प्रस्तावना शुभचन्द्राचार्य के 'पाण्डवपुराण' में उल्लेख है कि में अपने महार्ध विचारों का पल्लवन करते हुए ऊर्जयन्त गिरि पर कुन्दकुन्द गरणी की ऋद्धि-साधना कहा है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर-श्वेताम्बर के प्रभाव से पाषाण-निर्मित सरस्वती या ब्राह्मी संघभेद उत्पन्न होने के बाद ही हुए हैं। यदि वे देवी की प्रतिमा मुखर हो उठी थी। पहले हुए होते, तो अचेलकत्व का समर्थन और कुन्दकुन्दगणी येनोर्जयन्त गिरिमस्तके ॥ स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं करते, क्योंकि संघभेद सोऽवताद् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ ।। की उत्पत्ति चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन श्रतकेवली (पाण्डव पुराण) भद्रबाहु, जो कुन्दकुन्द के गुरु भी माने जाते हैं, 1. द्र० पाण्मासिक 'जैनसिद्धान्तभास्कर' (पारा, बिहार 1, किरण 4 । 3/3 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय में हो चुकी थी । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में श्वेताम्बर प्रवृतियों का निषेध किया है । डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के जीवन-परिचय का पुनराख्यान 2 इस प्रकार किया है कि वे दक्षिण भारत के निवासी थे । उनके पिता का नाम 'करमण्डु' और माता का नाम 'श्रीमती' था । उनका जन्म 'कोण्डकुन्दपुर' नामक स्थान में हुआ था | कहा जाता है कि बहुत दिनों तक करमण्डु-दम्पति के कोई सन्तान नहीं हुई । अनन्तर एक तपस्वी ऋषि को दान देने के प्रभाव से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम गाँव के नाम के आधार पर कुन्दकुन्द हुआ । जैसा पहले कहा गया, कुन्दकुन्द बाल्यावस्था से ही अत्यन्त मेधावी थे । अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति और कुशाग्रबुद्धिता के कारण अल्प समय में ही उन्होंने अनेक ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था । युवावस्था प्राप्त होते ही वे विरक्त हो श्रमणदीक्षा धारणकर मुनि बन गये और उनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनन्दी' हुआ | इस प्रकार, कल्पान्तकारी आचार्य कुन्दकुन्द के जीवन के सम्बन्ध में अनेक रूपान्तर उपलब्ध होते हैं । रचनाकार की सार्थकता या सफलता इसी अर्थ में है कि वह अपनी रचनाओं में जीवित होता है । भले ही श्राचार्य कुन्दकुन्द की जीवनी विवादास्पद हो, किन्तु उनकी कृतियों से यह स्पष्ट है कि आत्मज्ञान का प्रयास ही उनका जीवन-दर्शन था । कहना न होगा कि नित्यस्मररणीय सिद्ध आचार्यों की गुणलब्धि से सम्पन्न ऊर्ध्वचेता आचार्य कुन्दकुन्द प्राकृत भाषा के चूड़ान्त विद्वान् और 'षट्प्राभृत, के निर्माता एवं 'षट्खण्डागम' के ज्ञाता थे । श्रमण परम्परा के सिद्धान्त साहित्य के प्ररूपक के रूप में उनका नाम, जैसा प्रारम्भ में कहा गया, ब्राह्मण परम्परा के सिद्धान्त 'निरूपक प्राचार्य शंकर की भाँति, शाश्वत श्रौर कूटस्थ है। 1. 'जैन सिद्धान्त भास्कर' ( वही ), भाग 1, किरण 4, पृ० 58 2. द्र० प्राकृत भाषा और साहित्य का प्रालोचनात्मक इतिहासः, डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री पृ० 2211 3/4 सम्पादक, 'परिषद पत्रिका' बिहार - राष्ट्रभाषा परिषद् आचार्य शिवपूजन सहाय मार्ग, पटना-800004 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृतचन्द्र की देन समाज के शीर्ष विद्वान् श्री कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। आचार्य अमृतचन्द्र के मन्तब्य का निर्भ्रान्त लेख के अन्त में प्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धि अध्यात्म प्रेमियों को प्रेरणा दी गई है। अमृतचन्द्र केवल टीककार ही नहीं है, ग्रन्थकार भी हैं। उनका पुरुषार्थ सिद्ध पाव धीर तत्वार्थसार प्रतिप्रसिद्ध है । उनका एक नवीन ग्रन्थ लघु तत्व स्फोट कुछ समय पूर्व ही प्रकाश में आया है । यहां उनके पुरुषार्थ सिद्धयपाय को लेकर जिन शासन को उनकी देन का विवेचन किया जाता है पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - सबसे प्रथम हम उनके पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक श्रावकाचार को लेते हैं। कालक्रम की दृष्टि से रत्नकरण्ड श्रावकाचार के पश्चात् ही इसका स्थान प्राता है। शेष सब श्रावकाचार उसके बाद के हैं । किन्तु हमें रत्नकरण्ड का उस पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता । सबसे प्रथम तो इसका नाम ही अपनी विशेषता को लिये हुए है | श्रावकाचार का नाम पुरुषार्थ सिद्धि उपाय कम से कम प्राज के अध्यात्म की दृष्टि से तो विचित्र ही लगता है। उसकी दृष्टि में तो पुरुषार्थं की सिद्धि का उपाय मात्र श्रात्मचितन है, आवक का व्रतादिरूप प्राचार नहीं, वह तो बन्ध का कारण है । बोध उपाय केलाशचन्द्र शास्त्री प्रस्तुत लेख पढ़कर हमें । प्राण है, प्राप्त हो सकेगा । ग्रन्थ के सतत स्वाध्याय की -संपादक | ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्होंने परमागम के बीजभूत अनेकान्त को नमस्कार किया है और अन्त में जैनी नीति की जयकामना की है जो वस्तुतत्व की नयों की गौणता और मुख्यता से विवेचना करती है। प्राचार्य समन्तभद्र और उनके व्याख्याता अकलंक देव, विद्यानन्द आदि महान दार्शनिकों ने अनेकांत, स्वाद्वाद और सप्तभंगी का विवेचन बड़े विस्तार से अपने ग्रन्थों में किया है किन्तु निश्चय धौर व्यवहार नय को प्राधार बनाकर अनेकान्त दृष्टि का विवेचन प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं में ही परिलक्षित होता है। यहां भी वे कहते हैं कि व्यवहार और निश्चय को जानने वाले ही जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। जो केवल व्यवहार को ही जानता है वह तो उपदेश का भी पात्र नहीं है । किन्तु जो व्यवहार श्रौर निश्चय को जानकर मध्यस्थ रहता है, वही देशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है । इस प्रकार व्यवहार धौर निश्चय के विवेचन के द्वारा भूमिका बांधने के बाद ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए कहा है-रूप रस गन्ध स्पर्श से रहित, गुण पर्याय से युक्त, उत्पाद व्यय धौव्यात्मक, अमृतचन्दजी मनेकान्त के बड़े भक्त हैं। इस 315 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य स्वरूप पूरुष (आत्मा) है। वह सदा भार परिण मनशील है और अपने परिणामों का कर्ता बीज है। इसको दूर करके अपने स्वरूप का सम्यक् भोक्ता है। उसके परिणामों का निमित्त पाकर रीति से निश्चय करो और उससे भ्रष्ट न होकर अन्य पुदगल स्वयं ही कर्मरूप परिणमन करते हैं। उसी में लीन रहो, यही पुरुषार्थ की सिद्धि का इसी प्रकार जीव अपने चैतन्यस्वरूप रागादि उपाय है। भावरूप से स्वयं ही परिणमन करता है किन्तु पौदगलिक कर्म निमित्त मात्र होते हैं। इस प्रकार श्रावकाचार को प्रारम्भ करने से पूर्व अमृतचन्द्रजी ने श्रावकाचार पालन करने वाले की पुदगल कर्म में निमित्त जीव के रागादिभाव हैं और दृष्टि को स्वच्छ किया है। उसके बिना श्रावकाचार रागादिभाव में निमित्त पुदगल कर्म हैं। अतः भाव का पालन फलदायक नहीं हो सकता। इसके आगे कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्म का निमित्त पाकर उन्होंने एक मौलिक बात यह कही है कि जो जीव भाव कर्म होते हैं। उपदेश सुनने की रुचि रखता हो उसे सर्वप्रथम प्राशय यह है कि जीव के रागादिभाव स्वद्रव्य मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिये। यदि वह मुनि के पालम्बन से नहीं होते। यदि स्वयं होवे तो पद स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करे तभी ज्ञान दर्शन की तरह जीव के स्वभाव भावरूप उसे श्रावक धर्म का उपदेश करना चाहिए । जो ठहरेंगे । और ऐसा होने पर उनका नाश नहीं हो उपदेशक प्रथम मुनि धर्म का उपदेश न देकर सकेगा। अतः ये भाव औपाधिक होने से अन्य का श्रावक धर्म का व्याख्यान करता है उसे परमागम निमित्त पाकर होते हैं। वह निमित्त पुद्गल में प्रायश्चित रूप दण्ड देने का विधान है। कर्म है। ये सब उपयोगी बातें अन्य किसी भी श्रावकाइस प्रकार कर्मों का निमित्त पाकर ग्रात्मा चार में नहीं हैं। रागादि रूप परिणमन करता है किन्तु वे रागादि आगे क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रात्मा के निज भाब नहीं हैं। प्रात्मा तो अपनी सम्यक्चारित्र का कथन है । उसमें भी एक विशेषता स्वच्छता रूप चैतन्य गुरण में विराजमान है। यह है कि इन तीनों को प्रात्मरूप कहा है। यथा रागादि तो जीव के स्वरूप में प्रविष्ट हए बिना सम्यग्दर्शन विपरीत, अभिनिवेश से रहित आत्मऊपर-ऊपर ही झलकते मात्र हैं। जैसे स्फटिक मणि रूप है । सम्यग्ज्ञान संशय विपयर्य अनध्यव साय से लाल फूल का निमित्त पाकर लाल रंग रूप रहित आत्मरूप है। सम्यक्चारित्र सकल कषाय से परिणमन करती है। किन्तु वह लाल रंग स्फटिक रहित उदासीन यात्मरूप है। यद्यपि रत्नत्रय का निज भाव नहीं है। स्फटिक तो अपने श्वेत आत्मरूप ही हैं, फिर भी लिखे बिना अभ्यासी भी वर्ण रूप से विराजमान है, लाल रंग स्फटिक के समझता नहीं है। उन्हें वह प्रात्मा से भिन्न ही स्वरूप में प्रविष्ट न होकर अपनी झलक मात्र समझ बैठता है। अन्य श्रावकाचारों में इस प्रकार दिखलाता है। इस बात को रत्न का पारखी से प्रभेदात्मक कथन नहीं पाया जाता। जौहरी जानता, है किन्तु अज्ञानी तो स्फटिक को लाल समझता है। यही बात प्रात्मा और कर्मकृत सम्यकुचारित्र के कथन के प्रारम्भ में अहिंसा रागादि भावों के सम्बन्ध में भी जानना। किन्तु का जो निरूपण है इस प्रकार का निरूपण अन्यत्र अज्ञानी जीव को रागादि भावरूप ही जानता है। नहीं पाया जाता। इसी प्रसंग में श्लोक 49 में इसी का नाम विपरीत अभिनिवेश है कि कर्मजनित कहा है-'परवस्तु के कारण सूक्ष्म भी अर्थात् 3/6 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासी भी हिंसा नहीं होती फिर भी परिणामों आभा वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितकी विशुद्धि के लिये हिंसा के स्थान रूप परिग्रह - पेशीम् । प्रादि का भी त्याग करना चाहिये।' इससे आगे स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटीनाम् श्लोक 50 में कहा है 1681 - जो जीव यथार्थ निश्चय के स्वरूप को तो पांचों अणुव्रती का वर्णन बहुत ही सांगोपांग आनते नहीं। और जाने बिना मात्र निश्चय के है। उसके पश्चात् रात्रि भोजन त्याग का सयुक्तिक श्रद्धान से कि हिंसा अन्तरंग से ही होती है ऐसा विवेचन है । सागारधर्मामृत आदि में रात्रि भोजन ने हैं वे अज्ञानी बाह्य क्रिया में प्रालसी होकर त्याग को अहिंसाव्रत में लिया है। किन्तु यहां उसे बाह्य क्रिया रूप प्राचरण का नाश करते हैं। पांचों अणुव्रतों के पश्चात् लिया है। सर्वार्थसिद्धि टीका में सातवें अध्याय के प्रथम सत्र की टीका में अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय की अपनी टीका के यह प्रश्न उठाया है कि रात्रि भोजन त्याग छठा अन्त में (गा. 172 में) जो गाथा केवल निश्चयाव व्रत है उसे क्यों लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि लम्बियों को लक्ष करके उद्ध त की है उसी का यह उसी का प्रभाव है । अस्तु : संस्कृत रूपान्तर है । यथा सात शील व्रतों का उनके अतिचारों का "णिच्चय मालवंता णिच्चयदो गिच्चयं प्रयाणंता। और सल्लेखना का कथन करने के पश्चात् इसमें णासंति चरणकरणं बाहरि चरणालसा केई ।। मुनि प्राचार-तप, षट, अावश्यक, गुप्ति, समिति, * दस धर्म, बारह भावना, बाईस परीषह, का भी निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । कथन है जो अन्य किसी भी श्रावकाचार में नहीं नाश यति करणचरण स बहिःकरणालसो बालः ।।50 है। तथा लिखा है-जिनागम में मुनीश्वरों का जो आचरण कहा है, अपनी पदवी और शक्ति को इस तरह इस ग्रन्थ में अनेक प्राचीन गाथायों अच्छी तरह से विचार कर गृहस्थ को उसका भी का संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है । जयसेनाचार्य पालन करना चाहिये ।।2001 ने अपनी टीका में मांस के निषेध में नीचे की दो गाथाएं प्रवचनसार की मल गाथा के रूप में ग्रन्थ के अादि की तरह इसका अन्तिम भाग भी चारित्राधिकार में दी हैं। बहमूल्य है। इस प्रकार का कथन अन्यत्र नहीं है। पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । श्लोक 209 में कहा है--इस प्रकार पूर्वोक्त सत्ताचियमुववादो तज्जादीण णिगोदाण ॥ एक देश भी रत्नत्रय को अविनाशी मुक्ति के अभिजो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदिव।। लाषी गृहस्थ को निरन्तर प्रति समय पालना सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमण गकोडीग ॥ चाहिये । अमृतचन्द्र की टीका में ये गाथाएं नहीं हैं, आगे कहा हैकिन्तु इन दोनों का संस्कृत रूपान्तर पुरुषार्थसिद्धयु- असमग्र भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । पाय में है। यथा स विपक्ष कृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥२११।। प्रामास्वापि पक्वास्वापि विपच्यमानासु मांसपेशीषु। इस श्लोक का अर्थ विद्वान भी यह करते हुए सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥67॥ देखे जाते हैं 3/7 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अपूर्ण रत्नत्रय धर्म को धारण करने वाले पुरुष के जो कर्मबन्ध होता है वह विपक्षी रागकृत है, रत्नत्रयकृत नहीं है । अतः वह परम्परया अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, कर्मबन्धन का उपाय नहीं है।' - इस तरह वे विद्वान् पुण्यबन्ध को परम्परा से मोक्ष का कारण सिद्ध करते हैं किन्तु यह कथन अत्यन्त भ्रमपूर्ण है । यदि अमृतचन्द्रजी का ऐसा अभिप्राय होता तो सबसे प्रथम तो वे 'कर्मबन्धों' के स्थान में 'पुण्यबन्धों का प्रयोग कर सकते थे । किन्तु उन्होंने 'कर्मबन्धों पद रखा है। दूसरे उसे वह रत्नत्रयकृत न मानकर उसके विपक्षी रागद्वेष कृत मानते हैं। रागद्वेष से होने वाला कर्मबन्ध यदि अवश्य ही मोक्ष का उपाय हो तो फिर उसे नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। असल में श्लोक का चतुर्थ अन्तिम चरण अलग है। कर्मबन्ध रत्नत्रय कृत क्यों नहीं है उनके विपक्षी रागादिकृत ही क्यों है ? इस शंका का समाधान अन्तिम चरण में है - जो मोक्ष का उपाय होता है वह बन्धन का उपाय नहीं होता। अतः रत्नत्रय मोक्ष का उपाय है अत: वह कर्मबन्धन का उपाय नहीं है और इसलिये एक देश रत्नत्रय का पालन करते हुए जो कर्मबन्ध होता है वह अवश्य ही विपक्षी रागादिकृत है । आगे के श्लोकों में भी अमृतचन्द्रजी अपने इसी कथन की पुष्टि में युक्तियां देते हुए लिखते हैं 3/8 जितने अंश में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान श्रौर सम्यक्चारित्र हैं उतने अंश में बन्ध नहीं है, जितने अंश में राग है उतने अंश में बन्ध हैं। आत्मा के विनिश्चय का नाम सम्यग्दर्शन है, श्रात्मा के परिज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है और श्रात्मा में स्थिति का नाम चारित्र है, इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ? मागे कहते हैं रत्नत्रय तो निर्वाण का ही कारण है, बन्ध का नहीं। किन्तु उसका एक देशपालन करते हुए जो पुण्य कर्म का प्राश्रव होता है वह शुभोपयोग का अपराध है - दोष है ।।22011 जो ग्रन्थकार कहता है वह उसे कह सकता है । Y इस प्रकार अमृतचन्द्रजी के इस श्रावकाचार में भी उनके अध्यात्म की स्पष्ट छाप है और इस तरह यह श्रावकाचार अन्य भावकाचारों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । अध्यात्म प्रेमी श्रावकों को इसका सतत स्वाध्याय करना चाहिये । इसके प्रारम्भिक 15 और अन्तिम 15 श्लोक तो नित्य पाठ पूर्वक अनुचिन्तन करने लायक हैं। पुण्यबन्ध को अपराध शब्द से अवश्य ही मोक्ष का उपाय कैसे स्याद्वाद महाविद्यालय, भर्दनी, वाराणसी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असद्भूत व्यवहारनय वस्तुधर्म का प्रतिपादक डॉ० रतनचन्द्र जैन निश्चय व्यवहार दृष्टियों को लेकर वर्तमान में खूब चर्चा मंथन चला है । लेकिन तब भी अधिकतर यह विषय प्रस्पष्ट है । डा० जैन ने जहां पर सापेक्ष विकारी परिणमन को तद्गुरणारोपी उपचार कहकर वस्तु के अपने ही गुणों को व्यवहार में डाल दिया है वहां ही प्रतद्गुरणारोपी निमित्त नैमितिक सम्बन्धाधीन उपचार को भी नयाभास न कहकर लक्षरण द्वारा वस्तु के वास्त विक धर्म का ही कथन करने वाला माना है । हां, यदि लक्षणा रूप कोई उसे न समझ अभिधारूप समझले तो नयाभास ही है । लेख वस्तुतः मनन करने योग्य है । निश्चय व्यवहार को भली प्रकार समझे बिना सम्यग्दर्शन का उधाड़ सम्भव नहीं है । -सम्पादक श्रागम में किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का आरोप करने को उपचार या असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । जैसे 'यह बालक सिंह है' इस कथन में बालक पर सिंह के धर्म का श्रारोप किया गया है | अतः यह कथन उपचार या असद्भूत व्यवहारनय है । किन्तु जैन अध्यात्म में 'अन्य वस्तु का धर्म' व्यापक अर्थ रखता है । उसकी व्यापकता में न जाकर और उसका सीमित अर्थ लेकर कुछ विद्वान् यह प्रतिपादित करते हैं कि सद्भुत व्यवहारनय किसी भी तरह वस्तु के वास्तविक धर्म का निरूपण नहीं करता, अपितु जिस धर्म का उसमें सर्वथा अभाव है उसका उसमें कथन करता है । किन्तु यह मत समीचीन नहीं है । असद्भूत व्यवहारनय भी वस्तु के वास्तविक धर्म का ही कथन करता है । यह निम्नलिखित विवेचन से स्पष्ट हो जाता है । . किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का श्रारोप करना उपचार या असद्भूत व्यवहारनय है, किन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है, जैन अध्यात्म में अन्य वस्तु का धर्म व्यापक अर्थ रखता है । उसमें अन्य वस्तु के धर्म को तो अन्य वस्तु का धर्म कहते ही हैं, वस्तु का अपना परसापेक्ष ( पर द्रव्य के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखने वाला) धर्म भी अन्य वस्तु का धर्म या पर धर्म कहलाता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में जीव के शरीरगत वर्णादि धर्मो से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भावों को, जिनमें रागादि अशुद्धभाव तथा वीतरागत्वादि शुद्धभाव समाविष्ट हैं, परधर्म अर्थात् अन्य वस्तु पुद्गल का धर्म कहा है, क्योंकि ये पुद्गल कर्म निमित्तक हैं । निम्नलिखित गाथाओं से यह बात स्पष्ट होती है— जीवस्स सात्थि रागो रवि दोसो व विज्जदे मोहो रंगो पच्चया र कम्मं गोकम्मं चावि सेरात्थि 1151 319 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणेव य जीवट्ठाणा रण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। प्रवृत्त होता है (वस्तु के परसापेक्ष भावों को वस्तु जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।। 55 का कहता है) अतः वह परभाव का परद्रव्य पर ___अर्थात् जीव में न राग है, न द्वष है, न मोह आरोप करता हैं (विदधाति)। इसलिए वर्ण से है, न प्रयत्न हैं, न कर्म हैं, न नोकर्म हैं। उसके लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहारनय से जीवस्थान भी नहीं हैं, गणस्थान भी नहीं है, (परभाव का परद्रव्य पर आरोप करने की दृष्टि क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। से) जीव के हैं, निश्चयनय से नहीं । नियमसार (गाथा 13) में भी प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रौदयिक, प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्रजी ने वस्तु के प्रौपातथा क्षायिक इन चार भावों को परभाव कहा है, धिक भावों को परभाव कहते हुए उन्हें वस्तु का क्योंकि ये कर्मों के उदय या उपशमादि की अपेक्षा कहना बस्तु पर उनका आरोप करना मना है। रखने से परसापेक्ष हैं। केवल परम पारिणामिक प्रोपाधिक भाव वस्तु के निज परसापेक्ष भाव हैं। प्रतः स्पष्ट है कि प्राचार्य श्री ने वस्तु में उसके ही है । यह बात टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव के परसापेक्ष धर्म अर्थात् तद्गुण के कथन को प्रारोप परसापेक्ष धर्म अर्थात 'प्रौदयिकादिचतुर्णा विभावस्वभावपरभावानाम्' या उपचार कहा है, दूसरे शब्दों में तदगणारोपी इन शब्दों से प्रकट होती है । उपचार को व्यवहारनय (प्रसद्भूत व्यवहारनय) इस प्रकार अध्यात्म में दो प्रकार के धर्म अन्य बतलाया है। वस्तु के धर्म कहलाते हैं -एक तो अन्य वस्तु का पंचाध्यायीकार पडित राजमल्लजी तो तद्ही धर्म, दूसरा अपना परसापेक्ष धर्म। चूँकि ये दोनों अन्य वस्तु धर्म की परिभाषा में आते हैं गुगारोपी उपचार को ही प्रसद्भूत व्यवहारनय अतः इन दोनों को वस्तु का कहना उस पर इनका का वास्तविक लक्षण मानते हैं। उनकी दष्टि में पारोप या उपचार करना कहलाता है। परधर्मों ___ अतद्गुणारोपी नय, नय नहीं, नयामास हैं । वे की इस द्विविधता के कारण उपचार के भी दो कहते हैं-'जीव वर्णादिमान् है' इस प्रकार एक भेद हो जाते हैं -प्रतद्गुणारोपी तथा तदगणा- वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म का प्रारोप करने से रोपी । अन्य वस्तु के धर्म को किसी वस्तु का धर्म । कोई लाभ नहीं होता, इसके विपरीत उनमें एकत्व का भ्रम होने से हानि होती है। अतः ऐसे नय को कहना अतद्गुणारोपी उपचार है तथा वस्तु के अपने ही परसापेक्ष धर्म को वस्तु का कहना ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्रोधादिभाव वर्णादितद्गुणारोपी उपचार कहलाता है। अन्तिम के भावों के समान अन्य वस्तु के धर्म नहीं हैं। वे उपचार कहलाने में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्न जीव से ही उत्पन्न होते हैं अतः उन्हें जीव का लिखित कथन प्रमाण है कहना अतद्गुणारोप नहीं है, अपितु तद्गुणारोप है। इसलिए यह नयामास नहीं है, नय ही है । "व्यवहारनयः किल ..."औपाधिकं भावमव यह बात पंचाध्यायी की निम्नलिखित कारिकायों लम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य विदधाति ।........ से ज्ञातव्य हैततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति, निश्चयेन तु न सन्ति ।" तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभासंज्ञकाः सन्ति । (समयसार/प्रात्मख्याति, 56) स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहारा विशेषतो न्यायात् अर्थात् व्यवहारनय औपाधिक भावों को लेकर 11/55311 3/10 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्वादोऽथ यथा स्याज्जीवो वर्णादिमानिहास्तीति तद्गुणों का ही अर्थात् वस्तु के वास्तविक धर्म का इत्युक्त न गुणः स्यात्प्रत्युत दोषम्तदेकबुद्धित्वात् ही कथन करता है। ॥1/5551 तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोपः ।। हाँ, अतद्गुणारोपी उपचारमूलक असद्भूत इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीवः व्यवहारनय मुख्यरूप से (अभिधा द्वारा) वास्तविक 11/5631 धर्म का कथन नहीं करता, अपितु वस्तु में किसी नैव यतो यथा ते क्रोधाद्या जीवसम्भवा भावाः । अन्य वस्तु के धर्म का आरोप करता है। किन्तु न तथा पुद्गल वपुषः सन्ति च वर्णादयो हि उसका उद्देश्य वस्तु के वास्तविक धर्म को ही जीवस्य ।।11555 लक्षणा द्वारा लक्षित करना होता है। जैसे 'यह बालक सिंह है' इस कथन में बालक पर सिंहत्व असद्भूत व्यवहारनय का उदाहरण देते हुए का आरोप किया गया है। इसका प्रयोजन बालक पंचाध्यायीकार कहते हैं में यथार्थतः विद्यमान करता एवं शूरता धर्मों को अपि वाऽसद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति लक्षित करना है। इसी प्रकार जीव पुद्गल कर्मों यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेद का कर्ता है, इस वक्तव्य में जीव पर पुद्गल कर्मो का कत्ता (उपादान) होने का आरोप किया गया बुद्धिभवाः ॥11546 है जो कि जीव का अपना धर्म नहीं है, अपितु उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति । यथा। पुद्गल द्रव्य का धर्म है। किन्तु जीव पुद्गल कर्मों क्रोधाद्याः प्रौदयिकाश्चितश्चेद् बुद्धिजा विवक्ष्याः । का निमित्त होता है। यह उसका वास्तविक धर्म है। इसे ही लक्षित करने के लिए उस पर प्रतद्स्युः ।।11549 गुणारोप (पुद्गल द्रव्य के उपादानरूप धर्म का अर्थात् अबुद्धिपूर्वक होने वाले (सूक्ष्म) प्रारोप) किया जाता है, क्योंकि उपादान और क्रोधादि भावों को जीव के भाव कहना अनुपचरित निमित्त में हेतुत्वरूप सादृश्य है। सादृश्यसम्बन्ध के असद्भूतव्यवहारनय है तथा बुद्धिपूर्वक होने वाले कारण जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता (उपादान) (स्थूल) क्रोधादि भावों को जीव के कहना उप- कहने से उसका पुद्गल कर्मों के प्रति जो निमित्तत्व चरित असद्भूत व्यवहारनय है। है वह लक्षित होता है। प्राचार्य अमृतचन्द्रजी ने क्रोधादिभाव जीव के निज परसापेक्षभाव हैं भी समयसार गाथा 312-313 की टीका में अतः उपर्युक्त कारिकामों में तद्गुणारोप (तद्- कहा हैगुणारोपी उपचार) को ही प्रसद्भूत व्यवहारनय "अनयोरात्मप्रकृत्योः कर्त कर्मभावाभावेऽप्यकहा गया है। न्योन्यनिमित्तनैमित्तिक भावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्ट: ___ यद्यपि केवल तद्गुणारोपी उपचार को ततः संसारः तत एव च तयोः कर्त कर्मव्यवहारः ।" असद्भूत व्यवहारनय का लक्षण मानने से हम अर्थात् आत्मा और कर्म में कर्त कर्मभाव सहमत नहीं हैं, तथापि प्राचार्य अमृतचन्द्रजी के (उपादानोपादेयभाव) का अभाव है तो भी दोनों पूर्वोद्धृत वचनों तथा पंचाध्यायीकार के कथन से में निमित्तनैमित्तिकभाव होने से परस्पर बन्ध इतना तो प्रमाणित है ही कि असद्भूत व्यवहार- दृष्टिगोचर होता है । यह निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध नय तद्गुणारोप भी होता है । इससे सिद्ध है कि ही संसार का हेतु है और इसके कारण ही आत्मा तद्गुणारोपी उपचार मूलक असद्भूत व्यवहारनय कर्म में परस्पर कर्ता-कर्म का व्यवहार होता है । 3/11 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे यह बात स्पष्ट होती है कि निमित्तनैमित्तिकभाव के कारण कर्त्ता - कर्मव्यवहार ( प्रारोप ) होता है अतः कर्त्ता - कर्म-व्यवहार से निमित्तनैमित्तिकभाव ही लक्षित होता है । लिए इस प्रकार अतद्गुरणारोपी उपचारमूलक श्रसद्भूत व्यवहारनय वस्तुधर्म के निरूपण की एक शैली है जिसे व्याकरणादि शास्त्रों में सारोपा लक्षणा कहते हैं । यह शब्द की ही अभिधा, लक्षणा, व्यंजना इन तीन शक्तियों में से एक है । इसमें अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म के अन्यत्र समारोप द्वारा वास्तविक वस्तु धर्म ही लक्षित किया जाता है । इसका प्रयोजन है ज्ञात द्वारा अज्ञात का बोधन, दृश्य से दृश्य की स्थूल से सूक्ष्म की पहचान कराना । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है— 'प्रबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्' श्रज्ञानी को के वस्तु वास्तविक धर्म का ज्ञान कराने के ही मुनीश्वर वस्तु में किसी अवास्तविक ( अन्य वस्तु के ) धर्म का कथन करते हैं । अतः तद्गुणारोपी उपचारमूलक प्रसद्भूत व्यवहारनय का विषय तो वस्तु का वास्तविक धर्म है, किन्तु निरूपण शैली उपचारात्मक (अतद्गुरणारोपात्मक ) है । इसका प्रबल प्रमाण यह है कि उसके द्वारा जीव को अपने परसापेक्ष रूप का ज्ञान होता है और परसापेक्ष रूप से ज्ञान द्वार अपने परमार्थस्वरूप का बोध होता है । इसीलिए आचार्य श्रमृतचन्द्रजी ने कहा है- 'व्यवहारनयोऽपि परमार्थ प्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः ' अर्थात् परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय ( जिसमें प्रतद्गुरणारोपी उपचारमूलक प्रसद्भूत व्यवहारनय भी सम्मिलित हैं) के द्वारा भी वस्तुस्वरूप का निरूपण करना चाहिए । वस्तु के वास्तविक धर्म का निरूपण ही तो प्रतद्गुणारोपी उपचार का प्रयोजन है । यदि उसका प्रयोजन न हो तो भ्रान्ति उत्पन्न करने के अतिरिक्त उसका क्या फल होगा ? इसी शंका से तो पंचाध्यायीकार ने उसे नयाभास कहा है । वह 'नय' संज्ञा का पात्र तभी हो सकता जब उससे वस्तु के वास्तविक धर्म की प्रतीति संभव हो । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने समयसार गाथा 46 की टीका में अतद्गुरणारोपी उपचार कथनरूप व्यवहारनय इसलिए श्रावश्यक माना है कि उससे जीव को अपनी संसारी अवस्था का बोध होता है जिससे उसकी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति होती है । माननीय पंडित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र की प्रस्तावना ( पृष्ठ 13 ) में कहते हैं- " किंचित् मात्र कारण पाकर अन्य द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य में आरोपित करना पराश्रित कथन कहलाता है । इसे उपचार कथन कहते हैं । इसके जानने से शरीर आदि के साथ सम्बन्धरूप संसारदशा का ज्ञान होता है । उसका ज्ञान होने से जीव संसार के कारणभूत आस्रव बन्ध को त्याग कर मुक्ति के कारणभूत संवर और निर्जरा में प्रवृत्ति करता है ।" यहां विचारणीय है कि यदि संसार दशा यदि परसापेक्ष धर्म तद्गुणारोपी उपचार के विषय न होते तो उससे इनका बोध कैसे होता ? किसी भी वचन से सर्वथा असम्बद्ध अर्थ का बोध नहीं हो सकता । अतः सिद्ध है कि प्रतद्गुणारोपी उपचार मूलक असद्भूतव्यवहारनय का विषय भी वस्तु का वास्तविक धर्म है । इस प्रकार तद्गुणारोपी उपचारमूलक तथा तद्गुणारोपी उपचार मूलक दोनों ही प्रसद्भूत व्यवहारनय वस्तु धर्म के प्रतिपादक है— पहला अभिधा द्वारा वस्तु के वास्तविक धर्म का कथन करता है, दूसरा लक्षणा के द्वारा । संस्कृत विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल 3/12 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा एवं आधुनिक भाषाएं लेख के शीर्षक से विषय स्पष्ट है । विद्वान् लेखक ने भाषा के साम्य परस्पर प्रभाव जैसे कठिन विषय को साधारण पाठक के लिये भी रुचिकर बना दिया है । इस साम्य को समझने से निश्चय ही राष्ट्रीय भावना पुष्ट होती है, और विश्व को भाषाओं के बीच साम्य को समझे तो एक विश्व का भाव पनपता है । जहां तक प्राकृत भाषा का प्रश्न है, प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो. रिचर्ड पिशेल तो इसे स्पष्ट संस्कृत से पूर्व की स्वीकार करते हैं । लेखक ने इसे वैदिक संस्कृत की सहोदरा माना है । कैसे भी, प्राचीनकाल से ही भारत के भाषायी इतिहास से यह गहराई से जुड़ी है । भारत में प्राचीन समय में जो भाषाएं प्रचलित थीं उनमें प्राकृत भाषा का स्थान महत्वपूर्ण है । अनेक भाषाविदों ने प्राकृत भाषा को प्राचीन एवं आधुनिक भाषात्रों के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्वीकार किया है । प्राकृत भाषा एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिये प्राकृत के स्वरूप एवं भाषाओं के विकास पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। भारतीय भाषाओं का विकास तीन प्रमुख कालों में हुआ है । ईसा से 600 वर्ष पूर्व तक जो भाषाएं यहां प्रचलित थीं उन्हें प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं कहा जाता है । इनमें वैदिक भाषा एवं संस्कृत प्रमुख थीं। इसके साथ-साथ जो जनभाषाएं प्रचलित थीं उन्हें प्राकृत कहा गया है । भगवान् बुद्ध एवं महावीर के समय से 1000 ईस्वी तक जिन भाषाओं का विकास हुआ है उन्हें ० डा० प्रेमसुमन जैन सम्पादक मध्यकालीन आर्यभाषाएं कहते हैं। दसवीं शताब्दी के बाद विकसित भाषाओं को आधुनिक आर्यभाषाएं नाम दिया गया है। प्राकृत का सम्बन्ध इन तीनों कालों में विकसित भाषाओं के साथ बना रहा है । 3/13 वैदिक भाषा का विकास उस समय की लोक भाषाओं से हुआ है । उनमें जो प्राच्य नाम की जन भाषा थी उसने प्राकृत को विकसित किया है । अतः विकास की दृष्टि से वैदिक भाषा एवं प्राकृत तत्कालीन लोकभाषा से उत्पन्न सहोदरा है । इसलिये इन दोनों में कई साम्य है । विभक्तियों के प्रयोग की कमी, लिंग की अनियमितता तथा शब्द अथवा धातु रूपों में विकल्प की बहुलता इन दोनों में पायी जाती है। देशी शब्दों के प्रयोग भी दोनों में मिलते हैं । अतः वैदिक भाषा और प्राकृत का ज्ञान एक-दूसरे को समझने में पूरक है 1 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के साथ प्राकृत का घनिष्ठ सम्बन्ध है । क्योंकि इन दोनों भाषाओं के विकास का समय एवं क्षेत्र प्रायः समान रहा है । प्राकृत भाषा में संस्कृत के जितने शब्दों का प्राकृतिकरण किया गया है, लगभग उतनी ही मात्रा में संस्कृत के लोक भाषा के शब्दों का संस्कृतिकरण किया गया है । कोई भी भाषा अन्य भाषा के शब्दों एवं स्वरूप के प्रभाव से वंचित नहीं रह सकती । संस्कृत में महाकाव्य, कथा, नाटक, गद्य प्रादि की जितनी विधाएं हैं, प्राकृत में भी लगभग उन सभी विधाओं पर पर्याप्त रचनाएं हैं । संस्कृत के नाटकों का अधिकांश कथोपकथन प्राकृत में होता है । संस्कृत के अलंकार ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में प्राकृत की गाथाएं प्रस्तुत की जाती रही हैं। अतः विद्वत्जगत् में संस्कृत के अध्ययन के लिए प्राकृत अपरिहार्य है । उसी तरह प्राकृत शिक्षण के क्षेत्र में संस्कृत से परिचित होना जरूरी है । भारतीय भाषाओं में मुक्तक काव्य की परम्परा का शुभारम्भ प्राकृत भाषा से ही होता है । पहली शताब्दी में महाकवि हाल ने गाथासप्तशती नामक प्राकृतग्रन्थों में प्राकृत की 700 गाथाओं का संकलन किया है, जिनके विषय भारतीय भाषाओं के मुक्तक काव्यों के लिए उपनीव्य रहे हैं । संस्कृत का अमरुशतक, अपभ्रंश भाषा का पाहुडदोहा, मराठी की ज्ञानेश्वरी, राजस्थानी भाषा की सतसइयां तथा हिन्दी में बिहारी की सत्सई प्रदि रचनाएं प्राकृत की गाथा सप्तशती से बहुत प्रभाfan हैं । एक उदाहरण द्रष्टव्य है गाथाकार कहता है कि लोगों में सुना जाता है कि मेरा कठोर हृदय प्रियतम कल प्रवास को चला जायगा । अतः हे भगवती रात्रि, तू इतनी बढ़ जा कि जिससे वह कल कभी हो ही नहीं । यथा--- कल्लंकिरखर-हियो पवसिहिई पिम्रो सुइ जगम्मि । तह बड्ढ भयवइ निसे, जह से कल्लं चिय न होइ ॥ इस बात को बिहारी अपने शब्दों में कहता हैसजन सकारे जायेंगे नैना मरेंगे रोय । या विधि ऐसी कीजिए फजर कबहूं न होहि । इस प्रकार के अनेक उदाहरण प्राकृत साहित्य एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में भरे पड़े हैं। उनकी सही व्याख्या के लिए प्राकृत भाषा का अनुशीलन आवश्यक है । मध्ययुगीन आर्य भाषाओं में पालि एवं अपभ्रंश भाषाओं की भी स्वतन्त्र परम्परा है । इनका विशाल साहित्य है । प्राकृत भाषा का इन दोनों भाषाओं के साथ निकट का सम्बन्ध है । पालि भाषा यदि प्राकृत के पूर्व रूप को प्रगट करती है तो अपभ्रंश भाषा उसके उत्तरकालीन रूप को । प्राकृत एवं आधुनिक भाषाओं के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए अपभ्रंश बीच की महत्व - पूर्ण कड़ी है । ईसा की छठी शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का युग था । इसके बाद प्रान्तीय भाषाओं की विशेषताएं उभरकर सामने आने लगती हैं । आधुनिक भाषाओं ने संस्कृत पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश से बहुत कुछ ग्रहण कर अपने स्वरूप को निर्मित किया है। यहां एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा । हिन्दी में "कौन" शब्द का व्यवहार होता है । इस शब्द की विकास-यात्रा को यदि हम देखें तो पता चलता है कि किस प्रकार एक ही शब्द विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त होता है । प्राकृत का कोउरण शब्द अपभ्रंश में कउरण, गुजराती में कवरा, राजस्थानी में कूरंग तथा हिन्दी . में कौन के रूप में प्रयुक्त होता है । किन्तु संस्कृत में इसे कः पुनः कहना होगा। इसी प्रकार राजस्थानी एवं हिन्दी में एक बहुत प्रचलित शब्द हैजौहर । जौहर का अर्थ मरना कैसे हो गया, यह प्राकृत की परम्परा से पता चलता है। प्राकृत साहित्य में मृत्यु के लिए जमहर शब्द का प्रयोग 3/14 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता है अर्थात् यमराज का घर। अपभ्रंश मुह के लिए प्राकृत तुड मराठी तोंड में यही जउहर के रूप में प्रयुक्त है तथा वही सीदी के लिए प्राकृत दद्दर मराठी दादर राजस्थानी में जौहर हो गया। ___ इसी तरह भारत की अन्य आधुनिक भाषाओं - राजस्थानी एवं गजराती भाषाओं पर प्राकृत- के साथ प्राकृत का केवल विकास की दृष्टि से ही अपभ्रश का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्राकृत के शब्दों का वर्तकई विद्वानों ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है। मान में उनमें प्रयोग भी होता है। भोजपूरी, कुछ उदाहरण यहां द्रष्टव्य है। मेवाड़ी में कई है, मैथली, बंगला, उड़िया, सिंधी एवं पंजाबी भाषाओं मारवाड़ी में कंइ हो, ढढ़ाड़ी में कांई छ आदि ने भी प्राकृत-अपभ्रश से अनेक प्रभावों को ग्रहण प्रयोगों में कई शब्द प्राकृत कानि एवं अपभ्रंश किया है । अतः प्राकृत भाषा का वर्तमान युग में कांइ का रूपान्तर है प्राकृत की कई क्रियाएं शिक्षण एवं अध्ययन होने से भारतीय संस्कृति की राजस्थानी में थोडे परिवर्तन के साथ प्रयुक्त होती। विरासत का तो पता चलेगा ही, साथ ही देश में हैं। यथा भाषायी समन्वय का वातावरण भी बनेगा। देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बनाता है के लिए प्राकृत घड़इ राज० धड़े प्राकृत का शिक्षण दृढ़ भूमिका तैयार कर मांगता है के लिए प्राकृत जांचइ राज० जांचे सकता है। होगा-के लिए प्राकृत होसइ राज० होसी हिन्दी में प्राकृत के अनेक शब्द एवं क्रियाएं प्रसिद्ध विद्वान् एल० पी० टेसीटरी ने राज यथावत आज भी प्रयुक्त होती हैं। प्राकृत के कुछ स्थानी एवं गुजराती भाषाओं के स्वरूप पर प्राकृत शब्दों के हिन्दी अर्थ प्रस्तुत हैं । जैसेके प्रभाव को विशेष रूप से स्पष्ट किया है। गुजराती में प्राकृत के किम एवं इम सर्वनाम अक्खाड़ =अखाड़ा डोरे डोरा केम छ, एम छै आदि रूप में प्रयुक्त होते हैं। कई उक्खल=ोखली बप्प बाप गुजराती शब्द सीधे प्राकृत से ग्रहण किये गये कोइला---कोयला बइल्ल-बैल हैं। जैसे स्नान के लिए प्राकृत अंगोहल गज० खड्डा खड्डा बड्डा-बड़ा चोक्ख-चौखा पत्तल-पतला छइल्लो=छैला साडी=साड़ी गहरा के लिए-प्राकृत उण्डा गज० उण्डा लड़का के लिए प्राकृत छोयरा गुज० छोकरा यही स्थिति हिन्दी क्रियाओं की है। जैसेमुर्गी के लिए -प्राकृत कुक्कड़ी गुज० कूकड़ी । कड्ढ= काढ़ना खेल-खेलना मराठी भाषा का प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध चुक्क= चूकना छुट्ट=छूटना है। जो शब्द 5-6वीं शताब्दी में प्राकृत-साहित्य देख-देखना बोल्ल=बोलना में प्रयुक्त होते थे वे आज भी मराठी भाषा में न केवल हिन्दी भाषा और प्राकृत में कई बोले जाते हैं । जैसे समानताएं हैं, अपितु प्राकृत साहित्य और हिन्दी करधनी के लिए प्राकृत कच्छोट मराठी कासोटा साहित्य की कई विधानों में भी घनिष्ठ सम्बन्ध पत्थर के लिए प्राकृत गार मराठी गार है । प्राकृत कवियों की कई अनुभूतियां हिन्दी में कीचड़ के लिए प्राकृत चिक्खल मराठी चिखल देखने को मिलती हैं। प्राकृत गाथा सप्तशती की अंघोल 3/15 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहिन नायिका अपनी बांयी अांख से कहती इस तरह प्राकृत भाषा एवं साहित्य जितना है कि-हे वामाक्षि, यदि तेरे फर- कने से ग्राज भारत की भाषाओं के साथ जुड़ा हुआ है, उतना मेरे प्रियतम आ जाय तो मैं दाहिने नेत्र को ही उसकी संस्कृति के साथ भी। प्राकृत-काव्य बन्द करके तुझसे ही उनका दर्शन करूंगी। यथा- की इसी महिमा को ध्यान में रखते हुए एक कवि ने कहा हैफुरिए वामच्छि तुए जइ एहिइ सो पिनोज्ज ता पाइय-कव्वस्स णमो पाइयकव्वं च णिम्मियं जेरण। संमीलिप दाहिणनं तई अवि एहं पलोइस्सं॥ ताणं चिय पणमामो पढिऊरण जे विजागन्ति ॥ बिहारी की नायिका यही सौभाग्य अपनी (प्राकृत काव्य को नमस्कार है और उनको बांयी भुजा को देती है भी जिन्होंने प्राकृत काव्य की रचना की है । उनको 'बाम बाहु फरकत मिले जो हरि जीवनमरि। हम नमस्कार करते हैं जो प्राकृतकाव्य को पढ़कर 'तो तोही सों भेटहों राखि दाहिनी दरि। उसका ज्ञान प्राप्त करते है ।) अध्यक्ष-जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय उदयपुर - सिकन्दर से भारतीय संत ददमिस ने कहा था, "स्वाभाविक इच्छायें जैसे प्यास को पानी द्वारा दूर किया जा सकता है, भूख को भोजन द्वारा, किन्तु धनादि की लालसा कृत्रिम होने से बढ़ती ही जाती है और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती।" ---डॉ. राधाकृष्णन + + + "जितनी कम हमारी इच्छायें होती है उतने ही हम देवताओं के समान हो जाते हैं।" 3/16 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति की दो धाराएं । सस्कृत का दा धाराए0डॉ. बी. सौ. मैन एम०ए०पी०एच०डी० श्रमण ब्राह्मण के बहु चचित प्रश्न को लेखक ने यहां उठाया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इनमें शाश्वत विरोध माना है। यह विरोध व्यक्तियों के बीच नहीं दो सांस्कृतिक धारणात्रों में रहा है। पर विरोध ही क्यों ? क्या सम्नवय नहीं रहा ? लेखक महोदय ने इस पक्ष पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। ___--सम्पादक जिस समय भगवान महावीर का इस लोक अनागरिक होते थे, और ब्रह्मचर्य का कठोरता से में जन्म हुआ, उस समय देश में अनेक वाद प्रचलित पालन करते थे। ब्राह्मण जातिवाद के पौषक थे। थे। विचार-जगत में उथल-पुथल हो रहा था। श्रमण जातिवाद के विरोधी थे। ये चारों वर्षों वैदिक एवं अवैदिक दोनों ही प्रकार की विचार के लिये मोक्ष का द्वार खुला मानते थे। ब्राहामा धाराएं भारतीय जीवन को पालोकित कर रही थी। विषमता को प्रोत्साहन देते थे। श्रमण समताधर्म विचार का केन्द्र नया स्वरूप धारण कर चुका के प्रचारक थे। ब्राह्मण देववाणी संस्कृत के था। परलोक है या नहीं, मरणान्तर जीव का पक्षधर थे, श्रमण लोक भाषा में अपने विचार का अस्तित्व रहता है या नहीं, कर्म है या नहीं, प्रचार करते थे। श्रमरणों की शिक्षा में सार्वकर्म विपाक है या नहीं, इस प्रकार के अनेक भौमिकता थी, ब्राह्मण वर्ग विशेष से अपनी शिक्षा प्रश्नों में लोगों का कुतूहल था। इन प्रश्नों का को जोड़ते थे । श्रमरण सत्यान्वेषण के लिये किसी उत्तर पाने के लिए लोग उत्सुक थे। इन विचार- शाखा के अधीन होते थे, उनके गण या संघ में धाराओं को सामान्यतः ब्राह्मण और श्रमण विचार प्रवेश करते थे । ब्राह्मण वैदिक धर्म के अनुसार धारानों से विभक्त किया जाता था। दोनों में मन्त्र, जप, दान, होम, मंगल प्रायश्चितादि अनउक्त प्रश्नों पर विचार चर्चा होती थी। श्रमण ष्ठान का विधान करते थे। स्वर्ग की कामना से अवैदिक थे । ये वेद प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते या अन्य लौकिक भोग की कामना से ये विविध थे । ये वैदिक यज्ञ-यागादि क्रिया-कलापों को महत्व अनुष्ठान होते थे। श्रमरण आत्मसाधना में लीन नहीं देते थे । इनकी दृष्टि में या तो इनका फल रहते थे । यज्ञों में पशुवध भी होता था। धर्म क्षद्र है या ये निरर्थक और निष्प्रयोजनीय है। कर्मकाण्ड प्रधान था। वैदिकी हिंसा हिंसा नहीं श्रमण प्रास्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के थे। समझी जाती थी। श्रमण अहिंसा-धर्म को परम इनके कई सम्प्रदाय तपस्या को विशेष महत्व देते धर्म मानते थे और प्राणिमात्र पर दया-धर्म का थे। जो प्रास्तिक थे वे भी जगत का कोई दृष्टा, प्रचार करते थे। श्रमण अपरिग्रही, निस्पृह, सरल, कर्ता नहीं मानते थे। निराडम्बर, एवं निःस्वार्थी होते थे। वैदिक ये श्रमण-ब्राह्मण रूपी धाराएं यद्यपि प्राचीन संस्कृति के उन्नायकों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। काल से चली आई है, लेकिन इस काल में ये दोनों श्रमण संस्कृति के उन्नायक प्रधानतः क्षत्रिय थे। अधिक प्रखर एवं मुखर होकर उपस्थित होती है। ब्राह्मण संस्कृति का हृदयस्थल मध्य-प्रदेश था। इनमें नैसर्गिक वर था। ब्राह्मण मुण्डदर्शन को श्रमण संस्कृति का केन्द्रस्थल पूर्व था। मध्यप्रदेश अशुभ मानते थे। ब्राह्मण सांसारिक थे, श्रमण में राजतंत्र की प्रधानता थी, पूर्व में गणतंत्र की। 3/17 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर एवं बुद्ध ने इन्हीं गण राज्यों में जन्म अपनी कठोर मर्यादाओं के कारण न राजधर्म बन लिया था। गणतंत्र के आधार पर इनने अपने- बन सका और न भारत के बाहर जा सका। अपने धर्म-संघ की स्थापना की थी। दोनों ही सम्राट अशोक का पाश्रय पाकर बौद्धधर्म भारत क्षत्रिय कुल में जन्मे बे। क्षत्रिय, ब्राह्मण-पुरोहित से बाहर जा पहुंचा तथा समस्त भू-खण्ड पर फैल के प्रतिपक्षी थे। वे ब्राह्मणों को अपने से ऊंचा गया। मानने को तैयार नहीं थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रति- श्रमण और ब्राह्मण परम्परा का जो उपरोक्त वादी के वचन को ब्राह्मण 'क्षत्रिय के शब्द' कहते परस्पर भेद बताया गया, वह वैदिक परम्परा के थे। पाली निकाय में क्षत्रियों को वर्णों की गणना प्रारंभ की दृष्टि से है। उसका यह रूप मुख्यतया में प्रथम स्थान प्राप्त है। ब्राह्मणकाल में रहा है। किन्तु शनैः शनैः उसने ब्राह्मण-श्रमण के स्थान पर "श्रमण-ब्राह्मण" भी आध्यात्मिक रूप ले लिया और वह बाह्य ऐसा समास पाता है। यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड को क्रियाकाण्ड से निकलकर आत्मलक्षी बन गया। न मानने वाले इन क्षत्रियों को ब्राह्मण "व्रात्य- उपनिषद-काल में उसका वही उदात्त रूप मिलता क्षत्रिय" कहते थे। किसी ब्राह्मण-पुत्र के चौकी है। उपनिषदों में यज्ञ रूपो नौका को अदढ़ बताया पर बैठ जाने पर क्षत्रिय द्वारा उस चौकी को दूध गया है, अर्थात् उसे जीवन के चरम लक्ष्य तक से धोकर साफ करने के उल्लेख मिलते हैं। इसी पहुंचाने में असमर्थ बताया गया गया है। उपकारण जैनाचार्य हेमचन्द सूरि ने इस विरोध को निषदों में ब्राह्मण-परम्परा के विरुद्ध बीज मिलने को शाश्वत-विरोध के उदाहरणों में सम्मिलित पर भी उसका खुला विरोध नहीं किया गया । किया है। श्रमण-संस्कृति जाति या राष्ट्र की अधिकारी-भेद से उसे प्रश्रय दिया गया । दृष्टि सीमाएं नहीं बनाती । उसमें मानव ही नहीं, में भेद होने पर भी नामपट्ट वही रहा। किन्तु समस्त प्राणी समान है। ब्राह्मण-संस्कृति मानब श्रमण परम्परा ने खुला विरोध किया। अब तक तथा मानव में जन्मगत भेद मानती है। उसने विचार शास्त्र उच्च वर्ग के विद्वानों तक सीमित भौगोलिक सीमाओं को भी महत्व दिया है। उसके था, परन्तु इग युग में इन श्रमणों ने इसका प्रचार, द्वारा स्वीकृत पवित्र नदियां, पवित्र पर्वत, पवित्र जनता-जनार्दन में कर उन तक उतारकर रख स्थान तथा पवित्र वन सभी भारत तक सीमित दिया । स्थान-स्थान पर घूम-घूम कर अपने है। किन्तु जन्मकाल में जातीय धर्म होने पर भी विचारों के प्रचार करने के अान्दोलन का सूत्रपात ब्राह्मण परम्परा ने विकास करते हुए विश्वधर्म भी इन्हीं श्रमणों ने किया। संघ, गण, तीर्थकर, का रूप ले लिया, जिसका परिचय उपनिषदों में जिन, महंत, बिहार चर्या, याम आदि शब्द भी मिलता है। वहां समस्त विश्व की आधारभूत व्यवहार में इसी युग में प्रचलित होते दिखाई देते एकता पर बल दिया गया है और इसे ही सत्य हैं। मत-वादों की संख्या की अधिकता भी इस बताया गया है । समस्त बाह्य भेदों को निराधार युग की विलक्षणता है। मतवादों की परस्पर तथा कल्पित बताया गया है। वर्तमान हिन्दू धर्म भिन्नता भी सहसा हमारा ध्यान प्राकृष्ट करती दोनों का मिश्रण है । यह सिद्धांत में विश्वधर्म है, है। धर्मसंस्था, समाज संस्था, दर्शन एवं अध्यात्म पर व्यवहार में जातीय धर्म । श्रमण परम्परा में सभी उथल-पुथल से प्रभावित थे। जैन धर्म सैद्धांतिक दृष्टि से विश्वधर्म होने पर भी अवकाश प्राप्त प्राचार्य, बिलासपुर (म० प्र०) (स्वतंत्रता सेनानी) 3/18 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य का सफीवाद और रहस्यवाद पर प्रभाव - डा० दामोदर शास्त्री प्रथम सदी के प्रा. कुन्दकुन्द की प्रात्मरसिकता से 12 वीं 13 वीं सदी में पल्लवित सूफीवाद की बिन्दु दर बिन्दु समानता लेख में हमारे सामने रखी गई है । इसी प्रकार थोड़े प्रकारान्तर से गौड़पाद और शंकर के प्रवत वेदान्त, महायानी शून्यवाद को ध्यान परम्परा, वास्तव में बाह्य क्रिया-काण्ड से हटकर चलने वाली सारे भारतीय-प्रभारतीय रहस्यवादी अध्यात्म-चिन्तन के प्रकारों पर शोधार्थी, प्राचार्य कुन्दकुन्द का सम्भवतया स्पष्ट प्रभाव या समानान्तरता पा सकते हैं। स्मारिका के पाठकों को चिन्तन का नया दिशा-बोध देने हेतु लेखक धन्यवाद के पात्र हैं। सम्पादक मानव की मनोवृत्ति एक त्रिवेणी है जो धारण करता है । परमात्म-तत्त्व ही उस भक्त के जिज्ञासा, चिकीर्षा और सौन्दर्यानुराग-इन तीन लिए 'सुन्दर तत्त्व' बन जाता है । भक्ति-काल के रूपों में प्रवाहित होती है। इन तीनों वृत्तियों की हिन्दी कवियों ने सांसारिक प्रेम को परमात्म-तत्त्व तृप्ति, क्रमशः ज्ञान, कर्म और उपासना के माध्यम के साथ जोड़ कर प्रेम का उदात व दिव्य रूप से मानव करता है । सौन्दर्यानुराग सभी प्राणियों स्यानुराग सभा प्राणियो प्रस्तुत किया है । आध्यात्मिक क्षेत्र में पाई भक्ति में, विशेषकर सहृदय व्यक्तियों में, रहता है। की प्रबल लहर ने देश की धार्मिक व सांस्कृतिक सौन्दर्यानुरागी व्यक्ति अपनी ही तन्मयता का, तथा नव-चेतना को, एक आन्दोलन के रूप में जन्म अनुराग का, बाह्य पदार्थ के माध्यम से, भोग दिया। तत्कालीन हिन्दी साहित्य में प्रवाहित करता है । जब व्यक्ति अपने अनुराग को, किसी भक्ति की अजस्र धारा के प्राधार पर, हिन्दी साहित्य अलौकिक दिव्य सत्ता-प्रात्मतत्त्व या परमात्म- का एक युग (भक्ति-काल के रूप में) निर्मित हो तत्त्व के प्रति समर्पित करता है, तो उसका यह गया। यह प्राध्यात्मिक भक्ति-धारा-सगुण व अनुराग या प्रेम आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्ति का रूप निर्गुण, इन दो उपधारामों में विभाजित हो गई। (3/19 ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दोनों ही धारामों पर प्राचीन वैदिक, तथा का ध्यान इस तथ्य की प्रोर दिलाया जाय कि वैदिकेतर, दोनों प्रकार के साहित्य का प्रभाव 12-13 वीं शती ई० में पल्लवित सूफी या रहस्यपड़ा है। वादी इन दोनों भक्ति-धारामों में जो मूलभूत तत्त्व हैं, वे करीब एक सहस्राब्दी पहले ही, ई० प्रथम किसी साकार या सगुण व्यक्तित्व के प्रति, शती के प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित शौरसेनी उसके सौन्दर्यादि गुणों पर रीझ कर, प्रेम या भक्ति- प्राकृत साहित्य में, तथा उस पर आधारित या उससे भाव का प्रदर्शन तो स्वाभाविक प्रतीत होता है, प्रभावित परवर्ती प्राकृत साहित्य में पूर्णतः अंकुरित किन्तु सन्त या सूफी कवियों ने निराकार परमात्मा व पल्लवित हो चुके थे। के प्रति अपने प्रेमभाव का निरूपण जिस प्रकार किया, और जिस प्रकार की प्रेममयी साधना-पद्धति साधना में जाति प्रादि का बन्धन न मानना, प्रस्तुत की, उनका प्राध्यात्मिक क्षेत्र में अनूठा मानव में ही ईश्वरत्व प्राप्ति की सम्भावना, आत्मा स्थान है । इन निर्गुणोपासक कवियों ने परमात्म व परमात्मा में अन्तर न मानना, गुरु की महत्ता, तत्त्व को पत्नी, पति या किसी प्रिय सम्बन्धी के ___ईश्वरत्व-प्राप्ति में माया (शैतान) को बाधकतारूप में कल्पित कर, निराकार सौन्दर्य को साकार रूप प्रदान किया तथा लौकिक प्रेम-पात्रों व वस्तुओं . । ये कुछ सूफीमत के सामान्य सिद्धान्त हैं जो प्राचार्य के प्रतीकों के माध्यम से अपनी सौन्दर्य व प्रेम की , - कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में स्पष्टतया प्रतिपादित अनुभूति को व्यक्त किया। परमात्म-तत्त्व को पाने । की निर्गुण भक्ति-साधना की भी दो शाखाएं हैं, जो ज्ञानाश्रयी या रहस्यवादी सन्तों की काव्य सफी साधना में (1) शरीअत (शास्त्रानुसार धारा तथा प्रेममार्गी या सूफी काव्य-धारा में प्रार्थना, दान आदि कर्माचरण), (2) तरीकत क्रमशः पृथक-पृथक् पुष्पित, पल्लवित व वधित हई। (बाह्याचार या कर्मकाण्डजैसी शुभ प्रवृत्ति का त्याग, इन दोनों ही शाखामों पर जितना प्रभाव प्राचीन (3) हकीकत (उपासना के दौरान तत्त्व-ज्ञान की स्थिति),4 (4) मारिफत (प्रात्मा व परमात्मा की संस्कृत साहित्य का है, उससे कम प्रभाव प्राकृत साहित्य का नहीं। वस्तुतः तो प्राकृत साहित्य का एकता) ये चार अवस्थाएं हैं जो प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रभाव सर्वाधिक है। के साहित्य में शुभोपयोग, शुद्धोपयोग, निर्विकल्प समाधि में प्रात्म-साक्षात्कार, प्रखंड चिद् तत्त्व मात्र के रूप में स्थिति इन अवस्थानों के माध्यम से सामान्यतः रहस्यवादी विचार-धारा पर प्राचार्य प्रस्फुटित हुई हैं। शंकर (8वीं शती) के अद्वैतवाद का तथा बौद्धदर्शन की महायान (मंत्रयान) शाखा का प्रभाव ___ यद्यपि जनों ने बुद्ध के सगुण व निर्गुण-दोनों माना जाता रहा है। किन्तु वास्तविकता यह है रूपों को मान्यता दी है, तथापि उन्होंने निर्गुण रूप कि प्राचार्य शंकर से, तथा बौद्ध साधना-पद्धति के को अधिक ग्राह्य माना है ।' प्राचार्य कुन्दकुन्द ने विकास से सैकड़ों वर्ष पूर्व जैनों का प्राकृत साहित्य शुद्ध नयगम्य, निःशरीरी चिन्मात्र निराकार रूप समृद्ध रूप में था, जिसकी अोर इस प्रसंग में विद्वानों की उपासना का सूत्रपात किया। प्रा. कुन्दकुन्द का ध्यान नहीं गया। रचित साहित्य के व्याख्याकार प्रा. अमृतचन्द्र प्रादि प्रस्तुत निबन्ध का उद्देश्य यह है कि विद्वानों ने भी उसी निराकार रूप की उपास्यता को ( 3/20 ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकारा है । कविवर बनारसीदास जी ने भी (अष्टांगयुक्त), प्रात्मतृप्ति के रूप में प्रतिपादित इसी पथ का अनुसरण किया है।10 पद्मनन्दि हैं। पंचविंशतिका ने भी नि:शरीर, निरुपाधि चिन्मात्र ज्योति को ही उपास्य बताया है|11 अकलंक स्त्रोत सूफी कवि जायसी के 'पद्मावत' काव्य का में भी निरञ्जन (निराकार) की प्रार्थना है 112 नायक रत्नसेन जैन साधक की भूमिका पर चलता हुमा प्रतीत होता है। नायक रत्नसेन अपनी नागसूफी साहित्य का नायक परमात्मा रूपी नायिका मनी पत्नी के रहते हुए भी, पद्मावती की पोर की प्राप्ति के लिए कठोर श्रम, संग्राम आदि करता प्राकृष्ट होता है और उसे हस्तगत करने में प्राणों आकृष्ट हाता ह ार उस हस्तगत कर है, उसी प्रकार प्रा. कुन्दकुन्द का साधक 'मुक्ति- की बाजी लगा देता है ।28 पद्मावती प्राध्यात्मिक कान्ता' को हस्तगत करने के लिए कर्म-शत्रों से रूप से विश्वव्यापी महा ज्योति है ।29 प्रा० कुन्दजूझता है ।13 वह शिव श्री को वरण करता है, कुन्द द्वारा प्रतिपादित साधना के अनुसार, 'नागत्रिभुवन-जय लक्ष्मी को सीने से लगाने में सफल मती' शुभोपयोग की प्रतीक है, तो पद्मावती शुद्धोहोता है,15 निर्वाण-वधू के स्तनों के आलिङ्गन का पयोग की 10 साधक का लक्ष्य शुभोपयोग नहीं, सुख प्राप्त करता है,16 सिद्धि-रमणी के मुख-कमल शुद्धोपयोग है ।31 शुभोपयोग से हटते हुए, शुद्धोपपर भ्रमर की तरह रस-पान करता है।17 इस तरह योग के प्रति अधिक प्रादर,39 प्रेम, रुझान ही जिन-धर्म साधक को मुक्ति-ललना के साथ सम्भोग साधक का सम्बल है,33 व्यवहार नय की अपेक्षा का सौभाग्य प्रदान करता है ।18 ऐसे ही जैन साधक शुद्ध नय का पालम्बन अधिक श्रेयस्कर हैका चरित 'मयणपराजय चरिउ' (अपभ्रश) काव्यों इत्यादि तथ्यों का निरूपण प्रा. कुन्दकुन्द के प्राकृत में वर्णित है, जो मोहादि शत्रुनों का नाश कर साहित्य । साहित्य में विशेषतः हुआ है 134 चिद्रूप महाज्योति सिद्धि-कान्ता को हस्तगत करता है । से एकता, तदाकारता स्थापित करना ही जैन साधक का लक्ष्य है । यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि प्राचार्य कन्दकन्द के मत में परमात्म तत्त्व की ईश्वर, या पद्मावत काव्य का नायक जब दिवंगत होता है तब उसके साथ उसकी दोनों पत्नियां-नागस्वामी (पति) रूप में उपासना का रहस्यवादी पक्ष मणि व पद्मावती सती हो जाती हैं (जल कर भस्म प्रस्फुटित हुपा है,19 किन्तु उनके व्याख्याकारों ने, हो जाती हैं)। यह घटना प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा तथा परवर्ती अन्य ग्रन्थकारों ने प्रायः जीव को प्रतिपादित उस स्थिति का प्रतीक है जब जीव की मुक्ति-कान्ता, सिद्धि-सीमन्तिनी प्रादि स्त्री रूप का सांसारिकता के नाश के साथ ही, उसके उपयोगउपासक20 निरुपित किया है, जो सूफी विचार-धारा गुण गत भेदों का,38 संवेद्य-संवेदक भाव के दैविध्य का पोषक है। का, तथा समस्त द्विविध (पाप-पुण्य) कर्तव्यता का37 विलय हो जाता है, और शुद्ध व व्यवहार नय-इन अनुताप,22 प्रात्म-संयम,23 वैराग्य, दारिद्र्य, दोनों दृष्टियों से प्रतीत, एवं प्रबद्ध-अस्पृष्ट, प्रखण्ड धैर्य, विश्वास,28 संतोष7 ये सात सोपान सूफी शुद्ध चिन्मात्र स्थिति रह जाती है 138 साधना में माने गये हैं । ये सभी सोपान प्रा० कुन्दकुन्द के साहित्य में प्रशरणानुप्रेक्षा, संयम या सतीत्व तन्मयता का प्रतीक है । -सती नारी विरति, विरक्ति, अपरिग्रह या प्रकिञ्चन्य, सभ्यक्त्व का मन अपने प्रियतम में एकनिष्ठ भाव से तन्मय (3/21 ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाता है, वैसे ही साधक व साध्य-दोनों एकाकार से 'पीर' तक जाता है, पीर उसे ज्ञान देता है, तथा हो जाते हैं ।39 जैन दृष्टि से भी बूद और दरिया रसूल, खुदा या मुहम्मद तक पहुंचाता है। निर्गुण की तरह जीवात्मा व परमात्मा की एकता ही मुक्ति ज्ञान मार्गी शाखा के प्रतिनिधि कबीर ने भी गुरु है ।40 प्रात्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है 141 को गोविन्द से बड़ा घोषित किया है । जैन साधना ब्रद और दरिया की एकता की भावना को प्रिय में भी गुरु की महिमा स्वीकृत है,54 कहीं पंचपरमेष्ठी में सर्वांग प्रवेश की कामना के रूप में व्यक्त करती आदि इतर बाह्य पदार्थ गुरु हैं, तो कहीं साधक की हुई प्रात्मा कहती है-यदि मैं प्रिय को पा जाऊं स्वयं प्रात्मा ही 'गुरु' हो जाती है ।5। तो उसमें सर्वांग-प्रवेश उसी प्रकार करू, जैसे नए सकोरे में पानी।42 यही अभिन्नरसता, एकाकार सूफी साधक की तरह जैन साधक के लिए, स्वरसभरता की स्थिति कही जाती है।43 प्रात्मातिरिक्त किसी अन्य वस्तु में प्रेम (रति) नहीं रहता 156 सूफी साधक साधना की प्रारम्भिक सूफी कवि तथा प्रा. कुन्दकुन्द-दोनों ही परम अवस्था में परमात्मा के अप्रतिम सौन्दर्य की एक तत्त्व ब्रह्म को परम सौन्दर्य व परम निर्मलता झलक मात्र प्राप्त करता है जो उसे आकृष्ट कर का कोष मानते हुए, सृष्टि में बिखरे प्रकाश का लेती है। साधक द्वारा साध्य को प्राप्त करने की निरूपण करते हैं।46 जिनेन्द्रप्ररूपित मोक्ष-मार्ग भी उत्सुकता इतनी तीव्र हो जाती है कि वह विरहा'सुन्दर' है 147 वस्तुतः तो जैन दृष्टि से सम्पूर्ण भिभूत हो उठता है ।57 जैन साधक (सम्यग्दृष्टि) संसार के समस्त द्रव्यों का कण-कण प्रतिक्षण की भी कुछ इसी तरह की स्थिति हो जाती है, नवीन (चित्र-विचित्र) अवस्था (पर्याय) धारण जब वह निःसंग होकर, अनन्य भावना से ओतप्रोत करते रहने के कारण, स्वाभाविक सुन्दरता- होकर, एकमात्र प्रात्मा के ही ध्यान में लीन रहता चारूता लिए हुए है ।48 है।59 प्रा. कुन्दकुन्द साधक को प्रेरणा देते हैं कि वह सुन्दर प्रात्मा (परमात्मा) के सिवा किसी अन्य जिस प्रकार प्रा. कुन्दकुन्द परम सौन्दर्यमय में प्रीति (रति) न करे ।60 जैन दृष्टि में भोगरति परमात्मा के साथ रति,49 विहार (क्रीड़ा) के लिए (सांसारिक) से प्रात्म-रति का नाश होता है, किन्तु प्रेरणा देते हैं,50 उसी प्रकार सूफी काव्य के नायक अध्यात्मरति से परम लाभ 161 अध्यात्म रति के रत्नसेन को शुक (आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरू का समान कोई अन्य रति नहीं ।62 प्रतीक) नायिका पद्मावती (शुद्धोपयोगयुक्त प्रात्मतत्त्व) के सौन्दर्य का वर्णन कर उसे प्राप्त करने के आ० कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में प्रतिपादित लिए उसकी लालसा जागृत करता है।51 जैन साधक राज-लक्ष्मी की अपेक्षा दीक्षा-लक्ष्मी (संयम सूफी काव्यों में प्रेम "इश्केमजाजी" का सर्वत्र प्रभाव श्री) के प्रति अधिक प्रमातुर रहता है। है ।63 सूफी साधक चिलमन, "पर्दे" से परे दिव्य ज्योति का दर्शन करता है, तो प्राचार्य कुन्दकुन्द के सूफी साधना में गुरु की अनिवार्यता है । सूफी साहित्य में कर्मावरण से परे "कर्मरूपी बूंघट के साधना में ज्ञान के लिए गुरु (पीर) की शरण लेनी भीतर छिपे" शुद्ध प्रात्मा की अनुभूति की प्रेरणा पड़ती है, नहीं तो साधक इश्क (प्रेम) में सफलता दृष्टिगोचर होती है ।64 जैन साधक व सूफी साधक नहीं प्राप्त कर सकता ।53 साधक शेख के माध्यम -दोनों की निधि है-लक्ष्य "मुक्ति" का अनुराग, ( 3/22 ) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा सम्बल है-सांसारिक विराग और द्वार तक पहुंच सकता है ।70 जैन दृष्टि से इसकी हिष्णुता। व्याख्या इस प्रकार है :-चार बसेरे हैं ।1 (1) सम्यकत्व, (2) विरति, (3) अप्रमाद, सूफी साधना में साधक अपने साध्य के प्रति (4) अकषाय-जो क्रमिक आत्मिक उन्नति के अधिक संवेदनशील होकर अपनी संज्ञा "चेतना" सूचक है। खो बैठता है-मूच्छित हो जाता है । सूफी कवियों ने इसे बड़े ही विलक्षण ढंग से निरुपित किया है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह-ये पांच या संघावती का नायक रत्नसेन पद्मावती के रूप, पाँच इन्द्रियां, या मिथ्यात्व, अतिरिक्त प्रसाद, गुण की चर्चा सुनकर ही मूच्छित हो जाता है ।65 कषाय व योग--ये पाँच कोतवाल हैं। नौ खण्डों जैन साधक भी चैतन्यमात्र परमात्मा के प्रति स पर, दसवां द्वार वस्तुतः बारहवें गुणस्थान की मूच्र्छाभाव "प्रासक्ति" धारण करता हमा, मोक्ष- प्राप्ति का सूचक है । प्रथम गुण स्थान में सभी मार्ग की मंजिल तय करता है 168 सन्त रविदास प्राणी स्थित है अतः उससे आगे द्वितीय गुणस्थान ने ऐसे भक्त को सच्ची सुहागन की उपमा दी है। को पहली सीढ़ी मान कर72 गणना करने पर दसवां जैसे सुहागन ही प्रिय का वास्तविक परिचय प्राप्त गुणस्थान नवां द्वार होता है। दसवें गुणस्थान में करने का रहस्य जानती है, क्योंकि वह अपने तन- क्षपक श्रेणी वाला साधक सीधा 12वें गुणस्थान मन सभी कुछ प्रिय पर न्यौछावर कर देती है और में पहुंच जाता है जहाँ सर्वज्ञाता, अर्हद्भाव प्राप्त अभिमान या मान का अंश तक नहीं माने देती, होते हैं । अपने अन्दर भेद-भाव को भी प्रश्रय नहीं देती,67 अथवा, सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान को मूल वैसे ही सच्चा साधक परमात्मा के प्रति सर्वस्य सीढी मानकर73 चलने से उससे आगे नवद्वार यानी समपित कर व्यवहार-रत रहता है। नौ गुणस्थान और अधिक पार करने पर, चौदहवां गुणस्थान सिद्धि-प्राप्ति ही दसवां द्वार सिद्ध जायसी का रत्नसेन जब लौटता है तो जो होता है। पवन पहले नागमती के शरीर को भूने डाल रहा था वह अब शीतल होकर बहने लगता है, सारा अथवा, नौवे द्वार को पार कर दसवां द्वार, का सारा वातावरण सुखदायी हो जाता है ।68 यह ग्याहरवां या बारहवां गुणस्थान है, जहां वीतराग स्थिति प्रा० कुन्दकुन्द के अनुसार वह है, जब सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होती है, क्योंकि सराय साधक शुभोपयोग “सम्यकत्वयुक्त" से शुद्धोपयोग सम्यग्दर्शन की स्थिति दसवें से आगे नहीं मानी की ओर उन्मुख हो जाता है 169 जाती 174 जायसी का सिंहलगढ़ का वर्णन मुक्ति या जायसी द्वारा सिंहलगढ़ के अन्दर "अमृतकुण्ड" अर्हत्व-प्राप्ति की स्थिति से साम्य रखता है। का निरूपण हैं, वह जैन दृष्टि से मुक्ति-स्थिति सिंहलगढ़ में चार बसेरों का द्वार, नौ खण्ड, और में प्राप्त होने वाला शान्त रस का अजस्र स्रोत है । नौ खण्डों में पांच कोतवालों से सुरक्षित बज्रमय द्वार बताए गए हैं। कवि के अनुसार कोई विरला रहस्यवादी सन्तों के काव्यों में, प्राडम्बरपूर्ण साधक ही चक्र-भेदन कर नौ खण्डों के पार-दसवें कर्मकाण्डों (अज्ञानयुक्त क्रियामों की निन्दा,) तथा ( 3/23 ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्याचरण की अपेक्षा प्रात्मानुभूति व वैयक्तिक के लिए शब्द नहीं मिलते। भाषा से मूक हो जान साधन एवं मानसिक पवित्रता व भाव-शुद्धि की पर साधक सांकेतिकता की ओर उन्मुख हो जाता श्रेष्ठता, ध्यान की उपयोगिता-आदि विषयों का है, और संवेगों के प्रकाशनार्थ प्रतीकों का सहारण जोरदार ढंग से प्रतिपादन हुआ है। ये सब विषय लेता है। यह एक प्रकार से साधना की चरम प्रा० कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में प्रतिपादित परिणति है, जहां शब्द शून्य हो जाते हैं, भाषा मोम हुए है । प्रात्मा तथा परमात्मा का परमार्थतः हो जाती है, जहाँ जीवन-मृत्यु कोई अर्थ नहीं रहा। प्रभेद रहस्यवादी कवियों और प्रा० कुन्दकुन्द जाता। जैन प्राकृत ग्रन्थों में भी इस रहस्यानुभूति दोनों को मान्य हैं। को झलक प्राप्त होती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी समयसार आदि में प्रात्मा को प्ररस, अगन्ध, रहस्यवादी साधक, जैन साधक की भाँति अशब्द बताते हुए, उसे किसी चिन्ह द्वारा अग्राह्य प्र तावस्था प्राप्त करता है, जहां समग्रतता तथा सभी नव-दृष्टियों से प्रतीत बताया है 180 विलीन हो जाती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का, तथा सूफी व रहस्यवादी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन रहस्यानुभूति अनिर्वचनीय होती है। रहस्या- शोधार्थी विद्वानों के लिए एक नवीन मायाम प्रस्तुत नुभूति की स्थिति में साधक को, उसे व्यक्त करने करेगा-ऐसी मुझे प्राशा है । ORATE aihindi ८.45 सन्दर्भ 1. गीता में मित्र, पिता-पुत्र, प्रिय-कान्ता-इन सम्बन्धों का संकेत भी है :-पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः, प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् (गीता-11 भागवत-10/21/11 में जार बुद्धि से परमात्माउपासना वरिणत है-"तमेव परमात्मानं जार बुद्धयापि संगताः । जहुगुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीण बन्धनाः।" 2. बहिरंग धर्मध्यान से तुलना करें। द्रष्टव्यः बृहद् द्रव्य संग्रह 48 पर ब्रह्मदेव कृत टीका; प्रवचन सार-2/64-65, समयसार-12, 3. द्र. समयसार-153, 306-7, 383-86, 150, 152, समयसार-कलश-109, 112, 110, द्र. प्रवचनसार-80, समयसार-403-4,31-32, समयसार-कलश-126, प्रात्म-ख्याति-समयसार 187-89 गाथा पर टीका, द्र. समयसार-6,200,314.315,प्रवचनसार-1/15, 6. पुरुषाकार प्रात्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः (व. द्रव्यसंग्रह-51 की संस्कृत छाया)। शुद्ध स्वभावेन निराकारोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयेन किञ्चदून चरम शरीराकारेण ""पुरुषाकारः (वहीं, टीका, ब्रह्मदेवकृत)। निर्गुण रूप निरंजन देवा, सगुण स्वरूप कर विधि सेवा (शिवपच्चीसी, पं बनारसीदास कृत, 7 वां पद्य)। एक ही चेतना निराकार व साकार (अकूल-निष्कल, सकल) इन द्विविध रूपों को धारण करती है-"चेतना अद्वैत, दोउ चेतन दरब मांहि, सामान्य विसेस सत्ता ही को गुरपसार है" (-नाटक समयसार, मोक्षद्वार, पद्य-10)। (3/24 ) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. समयसार, गाथा-14, 15, 27-29, 9. नमः समयसाराव स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय, भावाय, सर्वभावान्तरच्छिदे ।। (मंगलाचरण, प्रात्मख्याति) । 10. अलख अमरति, प्ररूपी अविनासी अज निराधार, निगम निरंजन निरंध है-(नाटक समयसार, बंध द्वार,54)। कवि निजनाथ निरंजन सुमिरौं, तज सेवा जन जन की-(अध्यात्म पद पंक्ति, 13 वां पद्य, बनारसी-विलास)। निरंजन-निराकार (द्र. परमात्म प्रकाश-1/19)। 11. निः शरीरं निरालम्बं नि:शब्द निरूपाधि यत । चिदात्मकं परं ज्योतिः, प्रवाङ्मनसगोचरम् ।। (पद्मनन्दि पंचठिंशतिका, 4/60) प्रास्तां तत्र स्थितो यस्तु चिन्तामात्र परिग्रहः । तस्यात्र जीवितं श्लाघ्यं देवैरपि स पूज्यते ।। (वहीं, 4/62) सिद्धज्योतिरमूर्तिचित्सुखमयं के नापि तल्लक्ष्यते ॥ (वहीं, 8/13)। 12. तोऽस्मान्पातु निरजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः (प्रकलंक स्तोत्र-10)। निरञ्जन से तात्पर्य निरकार से ही है-जासु ण वण्णु ण गंधु न रसु जासु ण जम्मं णु मरणु ण वि गाउ निरंजणु तासु (परमात्म प्रकाश--1/19)। वष्ण विहूणउ णम्णमउ जो भावइ सब्भाउ । संत णिरंजणु सो जि सिउ नहिं किज्जइ अणुराज (रामसिंहकृत पाहुड दोहा, 61)। 13. भगवती पाराधना--185 5-56, एगं जिणेज्ज अप्पारणं एस से परमो जनो-(उत्त. सू. 9/34) भावपाहुड-154, उत्त. सू. 1/2C-22, 14. ज्ञानार्णव-1125 15. त्रिभुवनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे. (प्रादि पु. 35/241) । प्रशम शास्त्र के बल पर साधक मुक्ति नायिका के स्वयंवर-गृह में प्रविष्ट हो पाता है (मुक्त : स्वयंवरागारं वीर व्रज शनैः शनै:-ज्ञानार्णव-1143)। 16. ये निर्वाणवधूटिका स्तन भरा श्लेषोत्यसौख्याकराः""तान् सिद्धानभिनौम्यहं (नियमानुसार कलश-224)। 17. मुक्ति श्री वनितामुखाम्बुजरवीन् (नियमानुसार कलश-225)। सिद्धाः सुसिद्धिरमणी रमणीय वक्त्रपंकेरुहोरुमकरन्दम धुव्रताः स्युः (वहीं, 226) । 18. ज्ञानर्णव--4122 (धर्मः किं न करोति मुक्तिललनासम्भोगयोग्यं जतम्)। 19. समयसार, 17-18, कविवर बनारसीदास (17वीं शती के जैन कवि) की प्रात्मा रूपी पत्नी परमात्मा रूपी पति के वियोग में इस तरह तड़फ रही है, जैसे जल बिना मछली-मैं विरहिन पिय के प्राधीन । यो तलफों ज्यों जल बिन मीन (अध्यात्मगीत, 3, बनारसीविलास)। नायिका सुमति का चिदात्मा पति के साथ अटूट, एकनिष्ठ प्रेम का निरूपण बनारसीविलास में हुआ है (द्र. बनारसी. विलास में हुअा है (द्र. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 10 वांराग-विराग, पृ. 228) । कवि बानतराव की आत्मा रूपी दुलहिन ज्योंही ब्रह्म का दर्शन करती है, चारों ओर बसन्त का सुखमय वातावरण छा जाता है (द्यानतपदसंग्रह, 58 वां पद्य)। 20. [मात्मा रूपी राधिका में रमण करने के कारण ही कृष्ण को 'आत्मारामता' प्राप्त होती है मात्मा तु राधिका प्रोक्ता--भागवत-माहात्म्य--1/22) । गोपियां कृष्ण की पतिरूप में भक्ति ( 3/25) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती हैं । कृष्ण 'सुरत-नाथ' हैं (भागवत--10/31/2)। चूकि यह प्रेम प्राध्यात्मिकता से अोतप्रोत है, अतः इसमें 'काम' 'काम' नहीं रह जाता, वह परमात्मत्व-प्राप्ति में 'प्रेरणा', तीव्र उत्कण्ठा बन जाता है (न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते-भागवत--10/23/26)।] नियमसार कलश--16, एकीभाव स्तोत्र-19, मुक्ति श्री संगनिःस्पृहता को ध्यान की अपात्रता कहा है -(ज्ञानावर्णव-336)। जैन शासन मुक्ति-कन्या से परिचय कराने वाला हैसंसेव्यं मुक्ति कन्यापरिचयकरणप्रौढमेतत् त्रिलोक्याम् (चन्द्रगिरि पर्वत पर शिलालेख, क्रम सं. 41, शक सं. 1235, जैन शिलालेख संग्रह, भा--I, श्लो. 1)। 21. द्र. नियमसार कलश-86, 87, 292, 291, 280, तीर्थंकर शान्तिनाथ का शिवरमणी के साथ विवाह का निरूपण कवि बनारसीदास जी ने (बनारसी विलास, श्री शान्ति जिनस्तुति, प्रथम पद्य) किया है । अभयराज पाटणी कृत 'शिवरमणी विवाह' में (अप्रकाशित) भी प्रात्मा रूपी नायक का शिवरमणी से होने वाले प्रेम-मिलन का निरूपण है (शिवरमणी मन मोहियो जी जैठे रहे जी लुभाय-शिवरमणी विवाह-16)। जैन साधक मुक्ति-ललना की सखियों-बारह भावनाओं से मित्रता करता है ताकि मुक्तिप्रेयसी से उसका संगम हो सके। "एता द्वादश भावनाः खलु सखे सख्योऽपबर्गश्रिचयः, तस्याः संगमलाल सैर्घटयितु मैत्री प्रयुक्ता बुधैः।" (ज्ञानार्णव-4/244), अन्त में उसे मुक्ति रूपी प्रेयसी स्वयं वरण करती है-स्वयमवृत च मुक्ति-प्रेयसी यं......."सोऽयमहन् (प्रादि पु. 35/241)। मुक्ति-वल्लभाः (प्रादि पु. 43/105) और दोनों मालिंगनबद्ध हो जाते हैं । 'सिद्धिश्रियालिङ्गितः' (उत्तर पु. 50/68)। प्रा. अमृतचन्द्र ने दीक्षा को कान्ता के रूप में स्वीकारा हैं (नियमसार कलशं-89, 141, 142) दीक्षा या संयम श्री के साथ प्रात्मा के विवाह का आध्यात्मिक निरूपण जैन ऐतिहासिक काव्य-संग्रह सम्पादित-श्री अगरचन्द नाहटा, वि. सं. 1994 में प्रकाशित) में कई जगह हमा है। [भागवत में जार-वृद्धि से भगवान की उपासना कही गई हैतमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि संगताः । जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धना: (भागवत 10/29/11] 22. द्र. प्रवचनसार-2/99, नियमसार-50, 23. द्र. प्रवचनसार--3/40, मूलाचार--879, भगवती पारा. 1861, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-399, 24. विरक्ति या निर्वेद हेतु देखें--प्रात्मख्याति टीका-समयसार गाथा 196 पर, समयसार कलश--136 समयसार-318, प्रवचनसार-2/104, प्राचारांग--4/3, 25. द्र. समयसार गाथा--209, कलश 145, 148, निमयसार कलश-282, समयसार कलश--123, 173, प्राचारांग--2/56, 26. द्र. समयसार--234 (सम्यक्त्व के अंग)। 27. समयसार कलश-132. 28, सीस उतारै भुई धरै, तब पैठे घर मांहि (कबीर)। 29. द्र. जायसी ग्रन्थावली, (जन्म खंड--पृ. 19)। ( 3/26 ) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. 'नागमती यह दुनिया धन्धा', तथा 'हिय सिंहल बुधि पदमिनी कीन्हा' से प्रकट है कि नागमती . सांसारिक प्रवृत्ति है । "बांचा सोइ, न एहि चित बंधा" (जो इस सांसारिक प्रवृत्ति में नहीं बंधा है वही बच सका है । पमिनी को ऐसा शुद्ध दर्पण कहा है जिसमें पुरुष अपने स्वरूप को, संस्कारानुसार, देख सकते हैं (द्र. सिंहल द्वीप का वर्णन करते हुए प्रारम्भिक पंक्तियों में कवि जायसी द्वारा निरूपण)। 31. कर्म-प्रकृति (शुभ या अशुभ) को भोग्या स्त्री कहा गया है (समयसार--174-175)। यह दुश्च रित्रा स्त्री की तरह त्याज्य है (समयसार गाथा 148-49 पर प्रात्मख्याति टीका, समयसार-- 150)। संसार-रमणी प्रिय व्यक्ति को अन्तरात्मता प्राप्त नहीं हो सकती (नियमसार कलश-261)। 32. समयसार गा. 154 पर आत्मख्याति टीका देखें । 33. प्रवचनसार 3/70 पर तत्त्वदीपिका टीका देखें। 34. पद्मयन्दि पंचविंशतिका--4/75, प्रवचनसार-69, 79, 11 (तथा इनकी टीकाएं), समयसार-- ___148-149, 153, 151, 156, 97 (तथा इनकी टीकाएं), 35. शुद्धोपयोगयुक्त प्रात्मा परमार्थतः समस्त तत्त्वों में चिद्रूप महाज्योति है-(द्रष्टव्य-समयसार 38 पर प्रात्मख्याति, समयसार कलश--135, 124, 185)। चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं निमग्नं वर्णमालाकलाप । अथ सततविविक्त दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्म ज्योतिरुद्योतमानम् (समयसार कलश-8) 36. यह द्वधता ही 'प्रसिद्धि' है-बन्धमोक्षी रतिद्वषो कर्मात्मानौ शुभाशुभौ । इति द्वताश्रिता बुद्धिः प्रसिद्धिरभिधीयते (पद्मनन्दि पंच-4/33)। पूर्णतः अद्व तावस्था ही साध्य-सिद्धि है-'भाति नद्व तमेव' (समयसार कलश--9)। विकल्पजालच्युत शान्तिचित्ताः त एव साक्षादमृतं पिवन्ति (समयसार कलश--69)। पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम् (समयसार 163 पर प्रात्मख्याति टीका)। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते (गीता--2/50) न पुण्यपापे मम (कैवल्योप--2/4)। विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरज्जनः परमं साम्यमेति (मुडकोप 3/3) साम्बरा दिगम्बरा वा । न तेषां धर्माधमी, न हि तेषां लाभालाभकल्पनास्ति । शुद्धाशुद्धद्व तवजिता:......"सर्वत्रात्मैवेति पश्यन्ति (भिक्षुकोप--5), दग्धे पुण्यपापे सदाशिवः (हंसोप-21)। न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्धतभवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषात् (प्रवचनसार 1/77 पर तत्वदीपिका टीका)। 38. समयसार--37, 15, 37, 142, समयसार कलश-14-15, 30-31, 246, 278, नियमसार कलश-278. 39. सती जलन कूनीकली, चित धरि एकब मेख । तन मन सोप्या पीव कू, तब अंतर रही न रेख । (कबीर ग्रन्थावली, सूरा तन को मंग, सा. 37, पृ. 56) ( 3/27) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hinitiatan a .. k ... .. .. 40. पिय मोरे घर, मैं पिय मांहि । जल तरंग ज्यों द्विविधा नांहि (बनारसी विलास, अध्यातम गीत--19) । होहुं मगन मैं दरसन पाय । ज्यों दरिया में बूद समाय (बनारसीविलास, अध्यातम गीत--9)। 41, उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा (समाधि शतक--98)। 42. रामसिंह कृत पाहुडदोहा, 177 (उद्धृत-हैमव्याकरण) । प्रात्मा व परमात्मा-दोनों समरस हैं विणि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चद्रावडं कस्स (पाहुडदोहा--49)। इसी भाव को शंकराचार्य समर्थन देते हुए कहते हैं -विज्ञानमात्रमेव भूत्वा प्रज्ञानघने परे ब्रह्मण्याप द्रव समुद्रे प्रलीयते (वृहदा. उप. 2/4/11 पर शांकर भाष्य)। 43. द्र. समयसार कलश--141, 192, 138, 14, समयसार 15 पर तात्पर्यवृत्ति, समयसार गाथा-- 9 पर आत्मख्याति । 44. कार्तिकेयानुप्रेक्षा--204 (तच्चारण परमतच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो)। 45. 'सुन्दर' पद का अर्थ होता है-'प्रसन्न करने वाला' (सुष्ठु नन्दयति सुन्दरः) । चित्र को प्रार्द्र करने वाला (सुष्ठु उनत्ति, प्रार्दीकरोति चित्तम्, उन्दी क्लेदने)। चित्त को सरसंता से भर देने वाला (हलायुध कोष)। 'सुन्दर' के पर्यायवाची हैं-सुन्दरं रुचिरं चारु, सुषमं चारु शोभनम् कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञ मञ्जु मञ्जुलम् (अमरकोश)।' 46. कविवर बनारसीदास के आराध्य सिद्ध परमरस के धाम हैं, सर्वांगसुन्दर हैं, मनमोहन हैं ('अवि नासी अविकार परम धाम रस धाम है, समाधान सरवंग सहज अभिराम हैं'-नाटक समयसार, 4 थी स्तुति)। जिनेन्द्र देव की कान्ति से दसों दिशाएं निर्मल हो जाती हैं (समयसार कलश-24, 216)। वे अपनी मुक्ति स्त्री के मुख को भी दीप्त-सुशोभित करते हैं—(नियमसार कलश-275)। तुलना-'देखो भाई सुन्दरता को सागर' (सूरसागर-सभा), सोभा 'सिन्धु न अन्त रही ही' (वहीं)। अर्हदेव के केवल-ज्ञान से समस्त लोकालोक प्रकाशित होता है (नियमसार कलश-291, 14, भाव पाहुड-150, 152, प्रवचनसार-1/26, 1/23, 1/31, लोयप्पदीवयरा (प्रवचनसार-1/33)। सूर्यवत् जिन (उत्त. सू. 23/78, भगवती आरा. 768, षट्खण्डागम 4/2 कार्तिकेयानु. 176)। द्रष्टव्य-नियमसार कलश-291, 177, प्रवचनसार 54 पर तात्पर्यवृत्ति, समयसार-3, समयसार कलश-11 (द्योतमानं समन्तात्), नन्दी सूत्र-स्थविरावली-3, भगवती पारा. 768, 47. द्र. नियमसार-186 48. प्रवचनसार-2/11, सभावो हि सहावो गुणेहिं सह पञ्जरहिं चित्तेहिं । दव्वस्सं सव्वकालं उप्पादव्वय धुवत्तेहिं (प्रवचनसार-2/4)। क्षणे क्षणे यन्नवतामुपेति तदेव रूपं रमणीयतायाः (माघ-4/17)। (3/28) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. यदुदयाद् विषयादिषु प्रौत्सुक्यं सा रतिः (सर्वार्थसिद्धि, 8/5, तत्त्वार्थवार्तिक-8/9/4, मनोज्ञेषु परमा प्रीति: रतिः (नियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका-गाथा-6), चिदानन्दमये रूपे योजितः प्रीति मुत्सृजेत् (ज्ञानार्णव, 1547)। 50. द्र. समयसार, ग्रा. 206, 412, तथा उन पर प्रात्मख्याति टीका मोक्षपाहुड-12; 51. सहजानन्दैकस्वभावे निजात्मनि रतिः कर्तव्या (समयसार-1/20 पर तात्पर्यवृत्ति)। 52. राजलक्ष्म्या स्वतन्त्रोऽपि दीक्षालक्ष्म्या वशीकृतः (उत्तर पु, 48/11)। दीक्षाकामिनी मुक्ति कामिनी की दूती कही गई है (उत्तर पु. 73/120) । तपोलक्ष्मी भी मुक्ति की दूती है—(उत्तर पु. 77/15)-मुक्तिश्रिया पटुतमा प्रहितेव दूती प्रीत्या महागुणधनं समशि श्रियद् यम् । 53. गुरुपदेश शास्त्रार्थविना चात्मा न बुध्यते (योगवाशिष्ठ-6/41/16) । 54. जैन मत में गुरु प्रसाद से भी प्रतिबोध होना स्वीकारा गया है-(द्र. समयसार गाथा 37 पर तात्पर्यवृत्ति) सुगुरु की शिक्षा को शिव (परमात्मा) के गण 'शृगी' से समता की गई है (शिव पचीसी, पद्य-12-16-बनारसी विलास)। पद्मनन्दिपंचविंशतिका-4/22 (गुरूपदेशतोऽभ्यासाद् वैराग्यादुपलभ्य यत्) । आदि पु. 9/173 (गुरूणां यदि संसर्गो न स्यान्न स्याद् गुणार्जनम् । बिना गुणार्जनात् क्वास्य जन्तोः सफलजन्मता)। 55. गुरुरात्मात्मनः (समाधिशतक-75)। 56. स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः (समाधि श-49)। आदा हु मे सरणं (मोक्ष प्रा. 104)। अप्पा अप्पमि रो सम्माइटी होइ फडू जीवो (भाव पा. 31)। तुलना-गीता 3/17, जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे (प्राचारांग-2/173), 57. रत्नसेन पद्मावती-सौन्दर्य के वर्णन को सुनते ही विरह-सागर में गोते खाने लगता है-परा सो पेम समुद्र अपारा, लहरहिं लहर होइ वि संभारा (पद्मावत, प्रेम खण्ड, दो. 1, पृ. 40)। 58. प्रात्मानुभव या प्रात्म-वेदन की स्थिति । द्र. ज्ञानार्णव-1559, रयणसार-140 आदि, प्रवचन सार-1/78 पर तत्त्वदीपिका । 59. अप्पारणं झायंतो दसणणाणमयो अणण्णमनो। लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मविप्पमुक्क समयसार, 189)। सहजचेतयितृत्वाद् एकत्वमेव चेतयते (समयसार-187-189 पर प्रात्म ख्याति)। 60. द्र. समयसार 206, मोक्ष प्रा. 16, 12, 13, 69, 83, भाव पा. 56, 85, 57, 87, बृ. द्रव्य संग्रह-56, सूत्र प्रा. 16, प्रवचनसार-3/21, समयसार कलश-191, नियमसार कलश-38, नियमसार-50, प्रशमरतिनित्यतृषितः प्रशमरति प्रकरण-307)। 61. द्र. भगवती आराधना-1270, 62. भगवती पारा. 1268, कामभोगादि से तृप्ति असम्भव है, अतः त्याज्य है-द्र. प्रवचनसार 1/63.66, मूलाचार-2/67, भगवती आरा. 1143, 1264, 1263, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-300, महान् ऐश्वर्य-विभूति तथा विषय-सुख की सामग्री वाले चक्रवर्ती भी अतृप्त रहे-(प्रश्नव्याकरण सू. चतुर्थाध्यन) तो सामान्य जन की बात ही क्या ? (3/29 ) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. मूफियों की इश्कमजाजी तथा जैनों की 'प्रतिभक्ति' दोनों समान हैं -- इत्थं भवन्तमतिभक्तिपथथं निनीषोः, प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति ( आदि पु० 44 / 362) | 64. द्र० समयसार - 11वीं गाथा पर श्रात्मख्याति टीका । 65. सुनतहि राजा गा मुरछाई । जानो लहरि सुरुज के भाई ( पद्मावत - प्रेमखण्ड, दो० 1 ) 66. सन् चिन्मात्रे महसि विशदे मूच्छितचेतनोऽयम्, स्थास्यत्युद्यत्सहज-महिमा सर्वदा मुक्त एवं ( प्रवचनसार, अमृतचन्द्र कृत तत्त्वदीपिका गाथा - 2 / 34 पर ) । 57. सह की सार सुहागिन जाने, तजि अभिमानु सुख रलीना मानं । । प्रभाषै ।। ( सन्न रविदास ) सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्याप तन-मन देह न अन्तर राखे, श्रवरा देखि न सुनै तुलना - " रैदास कहै जाके हृदै, रहै रंन दिन राम । काम । " (सन्त रैदास) । 68. द्र० पदमावत (चितौर श्रागमन खण्ड, तीसरी चौपाई ) । 69. स्वच्छस्वच्छन्दोछदमन्दान्त ज्योतिष ( समयसार - 270 पर श्रात्मख्याति | संज्ञानिजीवस्य शान्त रसे स्वामित्वम्, अज्ञानिनस्तु शृंगाराधष्टरसानां स्वामित्वम् ( समयसार - 242 - 46 पर तात्पर्भवृत्ति ) | श्रानन्दामृतनित्य भोजि सहजावस्थायां स्फुटुं नाटयद निरूपविज्ञान समुन्मज्जति (समयसार कलश - 163) प्रवचनसार 1 /78 पर तत्वदीपिका, रयणसार 140, ज्ञानार्णव 1559, समाधिशतक - 52, तुलना - वहि: (सर्वसमारम्भा अन्तः सर्वार्थशीतला ) ( योगवाशिष्ठ - 6 / 985) । शुभाशुभकर्म मोक्षकारणं न भवति इति मत्वा हेयं त्याज्यम् (समयसार - 161--163 पर तात्पर्यवृत्ति) । ( द्र० समयसार गाथा 270, 276-77 तथा उन पर तात्पर्यवृत्ति टीका ) । तुलना - " नाम एक त्रिभुवन आधार । प्रावे पवन पदमसर होय । ग्रीष्म तपन निवार सोय ।" ( कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा, 8वां पद्य, बनारसी - विलास ) । 70. नवो खण्ड नव पोरी, नौ तहं बज्र केवार । चारि बसेरे सौ चढे, संत सौ उतरे पार ॥ ( पद्मावत, 2, 17 ) । 71. सूफी दर्शन में चार बसेरे इस प्रकार हैं - ( 1 ) झालमे नासूत, ( 2 ) घालमे मलकृत, ( 3 ) श्रालमे जबख्त, और (4) श्रालमे लाहूत । ये क्रमशः भौतिक जगत्, श्रात्म जगत्, श्रानन्दमय जगत् तथा सत्य जगत् के प्रतीक है । 72. यद्यपि प्रथम गुणस्थान से सीधे चौथे में जाना होता है, किन्तु वहां कषायोदय हो ( वहां का काल समाप्त होने में 6 आवली शेष रहे तो ) नीचे गिर कर द्वितीय गुणस्थान में आना होता है। 73. दर्शनप्रामृत - 21, भावप्राभृत 147, 74. वीतरागसम्यक्त्वे जाते साक्षादबन्धको भवति ( समयसार -- 166 पर तात्पर्यवृत्ति) । श्रध्यात्म क्षेत्र में इसे “शुद्धात्मभावना" कहते हैं ( समयसार 145 पर तात्पर्यवृत्ति) | 75. और कुण्ड एक मोतीचूर । पानी प्रमृत, कीच कपूर । श्रोहिक पानि राजा पं पीया । विद्या होह नहिं जो लहि जीया ॥ ( पद्मावत - 2 19 ) । ( 3/30 ) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76. भावविरदो दु विरदो (मूलाचार 995), भावविमुत्तो मुतो (भावपा 43), समयसार 154, 306 307, स्वरूपोपलब्धि रूपवीतराग चरित्र रहितानां स्वर्गादिसुखनिम्मित्तभूतः पुण्यवन्तो भांति, न च मोक्षः (समयसार 288-89 पर तात्पर्यवृत्ति)। जेतः किं शुद्धिरात्मनः (उत्तर पु० 74-63)। 77. समयसार 6 7, शुद्धनिश्चयनयेन तु शुद्धात्मनो भिन्नत्वात् भेदो नास्ति (प्रवचनसार 1-77 पर तात्पर्यवृत्ति)। समाधि शतक 98, 78. ज्ञानिनां पुनः प्रखण्ड केवल ज्ञानस्वरूप एव (समयसार 15 पर तात्पर्यवृत्ति) अनादिनिधनानवरत स्वदमाननिखिल रसान्तर विविक्तात्यन्त मधुर चैतन्यकरसो यमात्मा, भिन्नरसाः कषायाः तैः सह यवेकत्वविकल्पकरण तद् अज्ञानात् (समयसार 97 पर प्रात्मख्याति)। उत्तरंग निस्तरंग त्वात्मान मनभवनात्मानेयेक मेवानुभवन प्रतिभाति, न पुनरन्यद् (समयसार 83 पर प्रात्मख्याति) । द्र० समयसार 215 पर तात्पर्यवृत्ति, तद्विज्ञानधनौंधर्मधुना किन्चिन्न किन्चिन्न किन्चित्सतु (समयसार कलश 277), एकं ज्ञानम्-नात्रद्वितीयोदयः (समयसार कलश 160)। 79. मायारो-1.5 (6) 123 125 (सब्बे सरा रिणयटति)। 80. समयसार 49, 142-43, नियमसार कलश 69 70, 9, (3/31) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल . विद्वान लेखक ने अपभ्रंश और हिन्दी के अनेक महत्वपूर्ण कवियों की मोर शोधाथियों का ध्यान प्राषित किया है जो एकाधिक कारणों से अब तक प्रकाश में नहीं पा सके, पर जिनका प्रकाश में पाना देश के सांस्कृतिक अतीत को जानने हेतु प्रावश्यक है । -सम्पादक विगत 40 वर्षों में अपभ्रंश का विशाल भण्डार (जयपुर) के ग्रंथों का एक प्रशस्ति संग्रह साहित्य प्रकाश में आया है। इस साहित्य को प्रकाश प्रकाशित हुआ हैं जिसमें लगभग 50 अपभ्रंश ग्रंथों में लाने की दृष्टि से जिन विद्वानों ने सर्व प्रथम की प्रशस्तियां संग्रहीत है। इनमें से कुछ का तो खोज कार्य किया उनमें पं० नाथूराम प्रेमी, डा० विद्वानों को पहिले से भी पता था, कुछ नई हैं । हीरालाल जैन, महापंडित राहुल सांकृत्यापन, मुनि इनमें स्वयम्भू, पुष्पदत्त, पदमकीर्ति, वीर, नयनन्दि, जिनविजय जी, डा. ए. एन. उपाध्य एवं डा. श्रीधर, श्रीचन्द, हरिषेण अमरकीति, यशकीर्ति, परशुराम वैद्य के नाम उल्लेखनीय है। सन् 1950 धनलाल, श्रुतकीर्ति और माधिक्कगज, रहधर आदि में श्री महावीर जी क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की कृतियां हैं । अधिकांश रचनाएं 13वीं शताब्दी की ओर से प्रकाशित प्रशस्ति संग्रह में सर्वप्रथम के बाद की बताई गई हैं व उसके बाद भी 16वीं 50 अपभ्रंश ग्रंथों की एक साथ प्रशस्तियों को शताब्दी तक अपभ्रश में रचनाएं होती रही। इस देखकर हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० हजारी प्रशस्ति संग्रह के रहधर, यशकीर्ति धनलाल, श्रुतप्रसाद द्विवेदी ने अपनी "हिन्दी साहित्य का आदि कीर्ति, और माणिक्कगज चौदहवीं और उसके बाद काल" नामक कृति में जो विचार व्यक्त किये थे वे की शताब्दियों के कवि हैं । निम्न प्रकार हैं ये ग्रन्थ अधिकतर जैन ग्रंथ भण्डारों से ही सन् 1950 में श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल प्राप्त हुए हैं और अधिकांश जैन कवियों के एम. ए. शास्त्री के संचालकत्व में आमेर शास्त्र लिखे हुए हैं। स्वभावतः ही इनमें जैन धर्म को ( 3/32 ) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिमा गाई गयी है और उस धर्म के स्वीकृत सिद्धान्तों पूरा कार्य नहीं हो सका है। फिर भी जितनी संख्या के आधार पर ही जीवन बिताने का उपदेश दिया में अपभ्रशं साहित्य सामने आया है वह अपने प्राप गया हैं । परन्तु इस कारण से इन पुस्तकों का में महत्वपूर्ण हैं। डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने महत्व कम नहीं हो जाता। परवर्ती हिन्दी साहित्य अपभ्रंश के 150 कवियों की तीन सौ रचनाओं के काव्य रूप से अध्ययन करने में ये पुस्तकें बहुत और विभिन्न भण्डारों में संग्रहीत उनकी एक सहस्त्र सहायक हैं।" प्रतियों का विवरण संकलित किया है। साथ ही में इन्होंने अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित और प्रकाशित डा० द्विवेदी जी की उक्त धारणा के पश्चात सामग्री का उल्लेख "अपभ्रश भाषा और साहित्य अपभ्रश साहित्य की ओर विद्वानों का और अधिक की शोध प्रवृत्तियां" पुस्तक में किया है । ध्यान जाने लगा और सर्व प्रथम इतिहास के रूप इधर विश्वविद्यालयों में अपभ्रंश साहित्य पर । में डा० हरिवंश पोछा ने "अपभ्रंश साहित्य" जो शोध कार्य हो रहा है इसकी गति बहुत ही शीर्षक से शोध कार्य किया और पामेर शास्त्र धीमी हैं । इसलिए अपभ्रश साहित्य पर शोध कार्य भण्डार के प्रशस्ति संग्रह को ही अपनी खोज का के लिये विशाल क्षेत्र शोधार्थियों के समक्ष पडा मुख्य आधार बनाया। यही नहीं डा० रामसिंह। हुमा है । अभी तो अधिकांश उपलब्ध कृतियों का तोमर, डा० देवेन्द्र कुमार इन्दौर, डा० देवेन्द्र कुमार सामान्य अध्ययन भी नहीं हो सका हैं क्योंकि जो नीमच, एवं पं० परमानन्द शास्त्री देहली एवं डा० कुछ अध्ययन सामने पाया है वह सब प्रायः ग्रंथ नेमीचन्द शास्त्री, डा० राजाराम जैन ने अपभ्रंश प्रशस्तियों के आधार पर लिखा हुआ है। अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाना अपने जीवन का साहित्य चरित प्रधान साहित्य है । उसमें अधिकांश मुख्य लक्ष्य बनाया। और समय समय पर अपभ्रंश रचनाएं नायक के समग्र जीवन को प्रस्तुत करती हैं कृतियों पर लेख लिखकर विश्वविद्यालयों में शोध इसलिये उसमें प्रबन्ध काव्य अधिक है खण्ड काव्य छात्रों का इस ओर ध्यान आकृष्ट किया। अब तक कम हैं। 8वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक अपभ्रश की जिन कृतियों का प्रकाशन हो चुका है अपभ्रश में साहित्य निर्माण की जो धारा बही और उनमें महा कवि पुष्पदंत के महापुराण, जण्सहर उसमें महाकवि स्वयम्भू, पुष्पदंत, वीर, नयनन्दि, चरिय, कुमार चरिय, स्वयूभू का पउमचरिय, वीर धवल, धनलाल, गरिगदेवसेन, यशकीर्ति एवं रइधू का जम्बू सामिचरिउ, धनलाल का भवियन्तचरिउ, जैसे महाकवि हए जिनके काव्यों की तुलना, किसी अमरकीति का छकम्मोपएस । महाकवि रइधू की भी अन्य भाषा के काव्यों से की जा सकती है लेकिन रइधू ग्रंथावली आदि के नाम उल्लेखनीय है । ये अभी तक इन महाकवियों में से 2-3 को छोड़कर सभा अपभ्र श भाषा का उच्च स्तराय रचनाय हशेष का अभी पूरा मूल्यांकन भी नहीं हो पाया जिनके अध्ययन एवं मनन से भारतीय संस्कृति एवं में विशेषतः श्रमण संस्कृति का परिज्ञान होता है । अपभ्रंश साहित्य एवं काव्यों की विशाल संख्या को अभी तो हम प्रशस्ति संग्रहों के आधार पर देखते हुए ये सभी प्रकाशन आटे में नमक बराबर उनकी कृतियों के नाम मात्र जान सके हैं । इसलिये हैं । वास्तव में देखा जावे तो अपभ्रंश भाषा की अपभ्रंश साहित्य में शोधार्थियों के लिये विपुल क्षेत्र कृतियों का अभी तो पूरा सर्वे भी नहीं हो सका हैं पड़ा हुआ है जिनमें कवियों का विस्तृत जीवन वृत्त क्योंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं इनका काव्य निर्माण की दृष्टि से मूल्यांकन, अन्य देहली के शास्त्र भण्डारों की सूचीकरण का अभी कवियों से तुलनात्मक अध्ययन उनके काव्यों का ( 3/33) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक, एवं भाषागत अध्ययन, रस, अलंकार, नगरों के शास्त्र भण्डारों की खोज होना आवश्यक छन्द की दृष्टि से काव्यों का महत्य मादि विविध हैं। इन भंडारों में सम्भवतः अपभ्रंश की कुछ और रूपों में काव्यों का अध्ययन होना शेष हैं। वास्तव भी कृतियां संग्रहीत हों जिनकी प्राप्ति के पश्चात में अपभ्रश साहित्य का जितना गहन अध्ययन शोध के और भी नये क्षेत्र खुल सकते हैं। होगा, भारतीय साहित्य में जैन साहित्य को उतना ही अधिक स्थान प्राप्त होगा। अपभ्रंश साहित्य के प्रकाशन एवं उस पर शोध कार्य की अत्यधिक आवश्यकता हैं। एक एक . यहाँ मैं एक बात की और आपका ध्यान ग्रन्थ के सम्पादन को लेकर एक एक शोध प्रबन्ध प्राकृष्ट करना चाहता हूं कि अभी तक राजस्थान, लिखा जा सकता है । क्योंकि अपभ्रंश हिन्दी की मध्य प्रदेश, देहली एवं उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रन्था- पूर्ववर्ती जननी मानी जाती है इसलिये विश्वगारों का भी पूरा सूचीकरण का कार्य नहीं हो सका विद्यालयों के प्राकृत, संस्कृत, एवं हिन्दी विभागों में हैं। राजस्थान का प्रसिद्ध ग्रंथागार नागौर का अपभ्रंश भाषा साहित्य पर शोध कार्य हो सकता भट्टारकीय शास्त्र भण्डार, कुचामन एवं अन्य कुछ हैं। शोध के लिये कतिपय विषय 1. महा कवि स्वयम्भू व्यक्तित्व एवं कृतित्व 2. रिठुनेमिचरिउ का सांस्कृतिक अध्ययन 3. पउमचरिय का सांस्कृतिक अध्ययन 4. अपभ्रंश का प्रथम और अन्तिम महाकाव्य 5. अपभ्रंश के प्रमुख महाकवि 6. अपभ्रश के प्रतिनिधि कवि और उनके काव्य 7. महाकवि पदमकीति-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 8. हरिषेण की धम्म परिक्खा का पालोचनात्मक अध्ययन 9. वीर एवं शृंगार रस प्रधान जम्बूसामि चरिउ का सांस्कृतिक अध्ययन 10. महाकवि यशःकीर्ति-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 11. महाकवि धवल के हरिवंशपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन 12. अपभ्रंश का ऐतिहासिक काव्य-अमरसेन चरित 13. महाकवि श्रुतकीर्ति की अपभ्रंश साहित्य को देन 14. अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्य 15. अपभ्रश के खण्ड काव्य 16. महाकवि नयनन्दि-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 17. गरिण देवसेन के सुलोचना चरित का सांस्कृतिक अध्ययन 18. हिन्दी भाषा के विकास में अपभश की देन 9. महाकवि धनलाल एवं उनका अपभ्रंश साहित्य ( 3/34) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. महाकवि रइधू के काव्यों का सांस्कृतिक अध्ययन 21. महा कवि जयमित्रहल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 22. छक्कम्मोपएस का सांस्कृतिक अध्ययन 23. अपभ्रंश काव्यों में संयुक्त छन्दों का तुलनात्मक अध्ययन 24. 14वीं शताब्दी के प्रतिनिधि अपभ्रंश काव्य अपभ्रंश की तरह हिन्दी में भी जैन विद्वानों समय ने पलटा खाया । जैन ग्रंथागारों के ताले ने उस समय लिखना प्रारम्भ किया जब उसमें खुलने लगे और विद्वानों का उस ओर ध्यान जाने कलम चलाना पांडित्य से परे समझा जाता था लगा। शनैः शनैः विद्वानों का जैन विद्वानों द्वारा तथा वे भाषा के पंडित कहलाते थे। यह भेदभाव रचित जैन कृतियों की ओर ध्यान जाने लगा। तो महाकवि तुलसीदास एवं बनारसीदास के बाद मिश्रबन्धु विनोद में कुछ जैन रचनाओं का परिचय तक चलता रहा । हिन्दी में सर्व प्रथम रास संजक दिया गया लेकिन स्वयं जन विद्वान् भी अपने रचनाओं में काव्य निर्माण प्रारम्भ हुआ। जब विशाल साहित्य से अपरिचित रहे । सर्व प्रथम अपभ्रंश भाषा का देश में प्रचार था तब भी जैन स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमी ने हिन्दी जैन साहित्ग कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। सन भी लेखनी चलाई और साहित्य की सभी विधानों 1947 में कामताप्रसादजी ने हिन्दी जैन साहित्य को पल्लवित करते रहे। जिनदत्तचरित (सं० का संक्षिप्त इतिहास और सन् 1956 में 1354) एवं प्रद्युम्नचरित (सं० 1411) जैसी डा० नेमीचन्द्र शास्त्री का हिन्दी जैन साहित्य परिकृतियां अपने युग की प्रथम पुस्तक हैं। महापंडित शीलन (दो भागों में) प्रकाशित हुए। इसी बीच राहुल सांकृत्यापन ने प्रद्युम्न चरित को ब्रज भाषा । महापंडित राहुल सांकृत्यापन ने स्वयम्भू के का प्रथम महाकाव्य बतलाया है। जैन कवियों ने पउमचरिय को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य घोषित हिन्दी की सबसे अधिक एवं सबसे लम्बे समय तक करके जैन हिन्दी साहित्य के महत्व को स्वीकार सेवा की और उसमें अबाध गति से साहित्य निर्माण किया और हिन्दी जगत को उसे स्वीकार करने का करते रहे। लेकिन हिन्दी के विद्वानों को जैन आग्रह किया। लेकिन इतना होने पर भी अनेकान्त, ग्रन्थागारों तक पहुंच नहीं होने के कारण वे उसका जैन सिद्धान्त भास्कर, वीरवाणी, सम्मेलन पत्रिका, मूल्यांकन नहीं कर सके और जब हिन्दी साहित्य परिषद पत्रिका प्रादि में विभिन्न लेखों के प्रकाशन का क्रमबद्ध इतिहास लिखा जाने लगा तो जैन के अतिरिक्त जैन विद्वानों द्वारा रचित काव्य कृतियां ग्रंथाकारों में संग्रहीत विशाल हिन्दी साहित्य को यह सुसम्पादित होकर हिन्दी जगत के समक्ष प्रस्तुत लिवकर साहित्य की परिधि से बाहर निकाल दिया नहीं की जा सकी। इस दृष्टि से साहित्य शोध गया कि वह केवल धार्मिक साहित्य है और उसमें विभाग ने सर्व प्रथम सन् 1960 में प्रद्युम्नचरित साहित्यिक तत्व विद्यमान नहीं है। रामचन्द्र शुक्ल एवं सन् 1966 में जिन दत्तचरित का प्रकाशन की इस एक पंक्ति से जैन विद्वानों द्वारा निर्मित कराकर इस क्षेत्र में पहल की। प्रद्युम्न चरित हिन्दी साहित्य को राष्ट्रीय धारा में समाहित होने के प्रकाशन में हिन्दी जगत ने उसके महत्व को के दरवाजे बन्द हो गये और उसे आज तक भी स्वीकार किया और सूरपूर्व ब्रज भाषा का उसे राष्ट्रीय साहित्य में सम्मिलित नहीं किया जा प्रथम काव्य स्वीकार किया गया तथा डा. वासुदेव सका है। सिंह ने अपने शोध प्रबन्ध में उस पर विस्तृत ( 3/35 ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन प्रस्तुत किया। इधर सुप्रसिद्ध साहित्य सेवी मेरे उक्त इतिहास प्रस्तुत करने का अर्थ स्वयं श्री अमरचन्द जी नाहटा ने जैन हिन्दी साहित्य पर के कार्य पर प्रकाश डालने का नहीं है लेकिन अपने पचासों लेखों में विस्तृत प्रकाश डाला और विद्वानों को हिन्दी जैन साहित्य की विशालता के उससे भी हिन्दी जैन साहित्य के प्रति विद्वानों का दर्शन कराने का है। ध्यान प्राषित करने में सफलता मिली। श्री महावीर क्षेत्र की ओर से ही राजस्थान के हिन्दी जैन साहित्य की विशालता में किसी जैन सन्त एवं महाकवि दोलतराम कासलीवाल को सन्देह नहीं हो सकता लेकिन प्रश्न उठता है व्यक्तित्व एवं कृतित्व इन दो पुस्तकों के प्रकाशन से उसके मूल्यांकन एवं प्रकाशन का। इसके अतिरिक्त हिन्दी जैन साहित्य की विशालता को देखने का यह साहित्य किसी विधा विशेष पर लिखा हया नहीं विद्वानों को अवसर प्राप्त हया और विश्वविद्यालयों है किन्तु वह साहित्य के विविध रूपों में निबद्ध है में जैन हिन्दी साहित्य एवं कवियों पर पी० एच० जो अनुसंधान के महत्वपूर्ण विषय हो सकते हैं । डी० की उपाधि के लिये विषय स्वीकृत होने लगें। यह साहित्य स्तोत्र, पाड, संग्रह, कथा, रासो, रास, अब तक महाकवि बनारसीदास, भूधरदास, बुधजन, पूजा, मंगल जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, अष्टक, भगवतीदास, ब्रह्म जिनदास जैसे कुछ कवियों पर सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपई, त्रिसानी, शोध प्रबन्ध विश्वविद्यालयों द्वारा स्वीकृत हो चुके जकडी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, आरती, हैं । लेकिन हिन्दी जैन साहित्य की विशालता को बोल, चरचर, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, देखते हुए हमारे प्रयास पाटे में नमक बराबर है। छंद, छप्पय, भावना, विनोद, काव्य, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चौठालिया, चौमासिया, बारासन् 1977 में जयपुर में सम्पूर्ण हिन्दी जैन मासा, बटोई, बेलि, हिंडोतणा, चूनडी, सन्झाय, साहित्य को 20 भागों में प्रकाशित करने के लिये बाराखडी, भक्ति, वन्दना, पच्चीसी, बत्तीसी, श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की स्थापना हिन्दी पचासा, बावनी, सतसई, सामायिक, सहस्यनोम जैन साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नामावली, गुरुवावली, स्तवन, संबोधन, मोडलो, कदम हैं जिसकी सफलता के लिये सभी विद्वानों आदि विभिन्न रूपों में मिलता है। इन विविध का सहयोग अपेक्षित हैं। अकादमी की ओर से साहित्य रूपों में किसका कब प्रारम्भ हुआ और करीब 500 जैन हिन्दी कवियों के व्यक्तित्व एवं किस प्रकार विकास और विस्तार हुआ ये शोध कृतित्व पर प्रकाश डाला जावेगा तथा 50 प्रमुख के लिये रोचक विषय हो सकते हैं और इन सबकी कवियों का विस्तृत अध्ययन एवं उनकी कृतियों का सामग्री जैन ग्रंथागारों में मिल सकती हैं। प्रकाशन किया जावेगा। अकादमी की ओर से अब तक प्रकाशित तीन भाग-महाकवि ब्रह्म राय विभिन्न विषयों के अतिरिक्त अभी तो सैकड़ों मल्ल एवं त्रिभुवनकीति, कविवर बूचराज एवं उनके ऐसे कवि हैं जो विद्वानों के लिये अज्ञात बने हुए समकालीन कवि तथा महाकवि ब्रह्म जिनदास- हैं । ऐसे कवि 14 वीं शताब्दि से लेकर 19वीं व्यक्तित्व एवं कृतित्व-प्रकाशित हो चुके हैं जिनका शताब्दि तक इतनी अधिक संख्या में हैं कि यहां सभी ओर से स्वागत हुआ है । अकादमी का चतुर्थ पर उनका नाम मात्र उल्लेख करना भी सम्भव भाग भट्टारक रत्न कीति एव कुमुन्दचन्द होगा जिसमें नहीं हैं। सबसे अधिक कवि 17 वीं, 18 वीं एवं 70 अन्य कवियों का भी परिचय रहेगा। 19 वीं शताब्दि में हए। इसके अतिरिक्त जितने ( 3/36) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध कवि हुए वे भी 17वीं कबीर पर एक एक नहीं किन्तु पचासों शोध निबन्ध एवं 18वीं शताब्दि को ही अधिक सम्बन्धित हैं। लिखे जा सकते हैं तो इन जैन कवियों पर भी इन एक एक जैन कवि को शोध का विषय बनाया पचासों नहीं तों एक से अधिक शोध निबन्ध तो जा सकता है। यही नहीं ब्रह्म जिनदास, यशोधर, लिखे ही जा सकते हैं जैसे-जैसे ये कवि विश्वब्रह्म रायमल्ल, बूच राज, छीहल, ठक्कुरसी, बनारसी- विद्यालयों में पहुंचेंगे विद्वानों का ध्यान उनकी दास, रूपचन्द, भगौतीदास, भधरदास, दौलतराम रचनाओं पर जावेगा। अब मैं पचास ऐसे शोध के कासलीवाल, द्यानतराय, जैसे पचासों कवि तो ऐसे विषयों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना हैं जिनका विविध दृष्टियों से अध्ययन किया जा चाहता हूँ जिन पर विश्वविद्यालयों में शोध प्रबन्ध सकता है । जब सूर, तुलसी, मीरा, जायसी एवं प्रस्तुत किये जा सकते हैं : 1. हिन्दी के आदिकाल के जैन रास काव्य . कविवर राजसिंह-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ब्रज भाषा का प्रथम कवि सधारु एवं उनका प्रद्युम्नचरित 4. महाकवि ब्रह्म जिनदास के काव्यों का भाषागत अध्ययन 5. ब्रह्म जिनदास का रामसीता रास-एक अध्ययन दास काव्य शिरोमणि ब्रह्म जिनदास 7. 16 वीं शताब्दि के हिन्दी जैन कवि 8. हिन्दी के जैन रूपक काव्यों का पालोचनात्मक अध्ययन 9. कविवर बुचराज-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 10. हिन्दी जैन कवियों की बावनियों का उद्भव एवं विकास 11. कविवर ठक्कुरसी-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 12. ब्रह्म रायमल्ल की रचनाओं का सांस्कृतिक अध्ययन 13. भट्टारक रतन कीर्ति-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 14. जैन संत कुमुदचन्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 15. नेमि राजुल साहित्य-एक अध्ययन 16. भट्टारक यशोधर-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 17. महाकवि बनारसीदास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 18. समयसार नाटक का आत्म दर्शन 19. कविवर रूपचन्द-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 20. हिन्दी गद्य लेखक-पाण्डे राजमल्ल 21. 17वीं शताब्दि के हिन्दी गद्य निर्माता 22. बनारसीदास एवं उनके समकालीन कवि 23. भैया भगवतीदास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 24. पंडित भगौतीदास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 25. कविवर प्रानन्दद्यन-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 26. महाकवि समय सुन्दर के काव्यों का अध्ययन ( 3/37) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. पाश्वपुराण का सांस्कृतिक एवं तात्विक अध्ययन 28. महाकवि भूधरदास के पदों का सांस्कृतिक विवेचन 29. कविवर द्यानतराय-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 30. बारहखडी साहित्य 31. गद्यपद्य निर्माता-महाकवि दौलतराम कासलीवाल 32. दौलतराम कासलीवाल के काव्यों का सांस्कृतिक अध्ययन 33. हिन्दी गद्य साहित्य के विकास में महाकवि दौलत राम का योगदान 34. किशनसिंह-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 35. कविवर खुशालचन्द काला-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 36. जैन हिन्दी पुराण साहित्य-सांस्कृतिक अध्ययन 37. कविवर नेमिचन्द -व्यक्तित्व एवं कृतित्व 38. जोधराजगोदिका - व्यक्तित्व एवं कृतित्व 39. जैन कवियों के पदों का सांस्कृतिक अध्ययन छघय छन्द के विकास में जैन कवियों का योगदान 41. चूनडी साहित्य के विकास में जैन कवियों का योगदान 42.. पंडित जयचन्द छाबडा-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 33. पंडित सदासुख कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 4. पारसदास निगोत्या-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 45. बस्तराम साह के काव्यों का अध्ययन 46. भक्ति एवं दर्शन प्रधान जैन पूजा साहित्य 47. पं० दौलतराम-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 48. महापंडित टोडरमल एवं उनके समकालीन कवि 49. कविवर बख्तावरलाल एवं उनका हिन्दी साहित्य 50. पाण्डे जिनदास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व । उक्त शीर्षकों के अतिरिक्त प्रभी इतने ही शोध के लिये और विषय गिनाये जा सकते हैं लेकिन समयाभाव के कारण एवं पाठक विषय पढ़ते पढ़ते थक जावें इसलिये मैं यहीं विराम लेता हूँ। (3/38) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपुराण कालीन सामाजिक जीवन 0 डा० प्रेमचन्द जैन जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर प्रत्येक युग का सच्चा साहित्यकार, कवि या ब्राह्मण-ब्राह्मण यज्ञ-यगादि करते और महाकवि स्वयं अपने समय की सामाजिक राज- वैदिक साहित्य का अध्ययन अध्यापन करते थे। नैतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक परिस्थितियों के राजा और श्रीमंतो का पौरोहित्य भी उनकी परिप्रेक्ष्य में एवं पृष्ठभूमि के पट पर ही अपने आजीविका का साधन थ। सेना के प्रयाण के वर्ण्य विषय के काल की अमूक स्थिति के चित्र की समय ब्राह्मण साथ जाते थे, जो स्नानोपरान्त टीका रेखायें अंकित करता है। वह किसी भी काल की लगाकर गले में फूलों की माला डालकर शरीर पर स्थितियों का वर्णन करे, परन्तु उसके अनुमान का चन्दन का लेप करके दर्भ से संध्यावंदन किया करते प्राधार तो उनका वर्तमान ही होता है। इसी थे। पुराण में एक स्थल पर गौतम गोत्रीय वर्तमान के पट पर, उसकी कल्पना रूपी तूलिका इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण का वेद वेदांग में पारंगत मनमाने रंग भर-भरकर नये-नये चित्र बनाती है। होने का उल्लेख पाया है। समाज के अन्य वर्गों उसका सजागरुक यत्न रहता है कि वह पाठक को में ब्राह्मणों की क्या स्थिति थी, इस सम्बन्ध में वर्तमान से उठाकर उसके मानस को अपने वर्ण्य- उत्तरपुराण से कोई अनुमान नहीं लगता। काल के स्तर पर ले जाये और इस यत्न में उसे जितनी सफलता मिलती है, वही उसके साहित्यक क्षत्रिय-क्षत्रियों का मुख्य कार्य युद्धों में लड़ना साफल्य का मापदंड बनती है। पर सम-सामायिक एवं अन्य वर्गों की सेवा करना था। केवल राजानों युग की स्थितियों का सही-सही चित्रण भी उसके को ही उत्तरपुराण में क्षत्रिय कहा गया है। साफल्य की उतनी ही महत्त्वपूर्ण कसौटी है बनारस नामक नगरी में क्षत्रिय सुप्रतिष्ठ महाराज जितनी कथा-वस्तुगत वर्ण्य काल के चित्रण की। राज्य करते थे, इनका जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ इस दृष्टि से उत्तर-पुराणकार ने तत्कालीन सामा- था। जिक जीवन, व्यापार, कृषि, शिक्षा, साहित्य एवं सामाजिक रीति-रिवाज आदि के सम्बन्ध में प्रभूत वैश्य-वैश्य जाति के उल्लेख वणिक् गोत्र, व प्रामाणिक जानकारी प्रदान की है। वणिक या बनिये के नाम से उत्तरपुराण में अनेक बार आये हैं । व्यापार-वाणिज्य बनियों का प्रमुख वर्ण-उत्तरपुराण में वर्ण-व्यवस्था से सम्ब- व्यवसाय था। विधुच्चर के देश दर्शन के बहाने से न्धित निम्न जानकारी प्राप्त होती है कवि ने बताया है कि व्यापारी जल और थल दोनों ( 3/39 ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागों से व्यापार करते थे। अन्य वर्गों की अपेक्षा अर्थात ब्राह्म, देव, पार्ष, प्राजापत्य, प्रासुर, वैश्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी. यह अनुमान गान्धर्व, राक्षस और पैशाच-ये आठ प्रकार के लगाना उचित है। विवाह होते हैं। शूद्र---शूद्रों का उत्तरपुराण से कोई उल्लेख उपर्युक्त आठों विवाहों में प्रथम चार ब्राह्म, नहीं मिलता। देव, प्राजापत्य एवं पार्ष को धर्म सम्मत एवं अच्छे अन्य जातियाँ एवं प्राजीविका के साधन-- प्रकार के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रासुर पुराण में नाई, चाण्डाल, भील, मलेच्छ, विवाह में कन्या का पिता वर पक्ष से धन ग्रहण प्रादि का भी उल्लेख पाया है । ये उल्लेख जातियों करता है, इसलिये यह विवाह धर्म सम्मत नहीं है। के नहीं बल्कि अमुक-अमुक आजीविका के साधनों गान्धर्व और राक्षस विवाह इतने प्रशस्त न होते के सूचक हैं । समाज में इन्हें कोई स्थान प्राप्त हए भी क्षत्रियों के लिए अधर्मकारक नहीं थे। नहीं था। पैशाच विवाह सर्वथा निन्दनीय माना गया है । पारिवारिक जीवन--इस समय संयुक्त परिवार एवं एकाकी परिवार, दोनों ही प्रकार के परिवार उल्लिखित पाठो विवाहों में से तत्कालीन थे । संयुक्त परिवार जिसमें दादा-दादी, माता-पिता, समाज में कोई भी एक बिल्कुल विशुद्ध रूप में चाचा-चाची सम्मिलित रूप से एक परिवार में प्रचलित नहीं था । अनेक विवाहों में एकाधिक रहते थे। परिवार का मुखिया विवाह विधियों का समावेश देखा गया है। दो इस प्रकार के परिवारों में श्रीकृष्ण का परिवार विवाह विधियों के मिश्रित रूप में रुक्मिणी का भी था । एकाकी परिवार में विवाहित पति-पत्ति विवाह राक्षस व गान्धर्व विधियों का मिश्रित रूप और उसके अविवाहित बच्चे होते थे। इस प्रकार है। इसी प्रकार सुभद्रा के विवाह में राक्षस व के परिवार के रूप में अभयघोष एवं उसकी पत्नी. प्राजापत्य विधि तथा सुसीमा के कृष्ण के साथ दो पुत्र (विजय एवं जयन्त) का उदाहरण है। विवाह में प्राजापत्य व राक्षस विधियों का विवाह-विवाह व्यक्ति के जीवन का एक समिश्रण था। महत्त्वपूर्ण अध्याय है । गृहस्थाश्रम की भित्ति और पारिवारिक ढांचे की आधारशिला है। मनु ने स्वयंवर विवाह-उत्तरपुराण में स्वयंवर विवाह को पुरुषों के सम्बन्धों को मर्यादा में रखने द्वारा विवाह के अनेक उल्लेख हैं। जिनसेनाचार्य ने वाली कल्याणकारी लौकिक प्रथा माना है :- स्वयंवर शब्द को स्पष्ट करते हुए बताया है कि एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा ।। "स्वयंवर में कुलीन अथवा अकुलीन का कोई __ क्रम नहीं होता । इसलिए कन्या के पिता, भाई __(मनुस्मृति, 9125) अथवा स्वयंवर की विधि जानने वाले किसी अन्य विवाहों के प्रकार-विष्णु-पुराण में पाठ महाशय को इस विषय में प्रशान्ति करना योग्य प्रकार के विवाहों का उल्लेख इस प्रकार किया नहीं है । कोई महाकुल में उत्पन्न हो कर भी दुर्भग गया है स्त्री के लिए अप्रिय होता है और कोई नीच कुल ब्राह्मोदेवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । में उत्पन्न हो कर भी सुभग स्त्री के लिए प्रिय गान्धर्व-राक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्ट मे मतः ॥ होता है । यही कारण है कि इसमें कुल और - विष्णुपुराण; 3110124 सौभाग्य का कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।"9 (3/40) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वयंवर से विवाहों में कनकमाला का हरिवाहन है। इसी प्रकार जयकुमार,25 वसुदेव,26 कृष्ण,7 के साथ विवाह,10 बलभद्र की पुत्री सुमती का वलदेव28 तथा देवकी के छहों पुत्रों के अनेक स्त्रियों विवाह1, विद्युतप्रभा का विवाह,12 द्रौपदी का के उल्लेख हैं । अर्जुन के साथ विवाह,13 सुलसा का सागर के साथ विवाह.14 पद्मावती से श्रीकृष्ण का विवाह15 भोजन-पुराणकार ने लिखा है कि लोग तृणमय प्रासनों पर बैठे। ग्रीष्म ऋतु होने से उल्लेखनीय है। तालपत्र निर्मित और सुगन्धित जल से भीगे हए अन्य प्रकार के विवाहों में वाग्दान से, पंखों से हवाएं की जाने लगी तथा नाना प्रकार के भविष्यवाणी से, साटे से विवाह 16 विधवा विवाह17 मीठे खट्ट, चरपरे व मिश्रित व्यञ्जन परोसे गये । एवं विधुर विवाह आदि भी प्रचलित थे। चावल से बनाया हुआ तथा खूब घी से सिक्त भात, खट्टे प्राचार, चटनी तक्र और मूग से बने ___ मातुल कन्या से विवाह-उस काल में मामा हए नाना प्रकार के व्थजन बहत-सी कटोरियों भुपा के पुत्र पुत्रीयों में विवाह सम्भव थे। धनदेव में रखकर परोसे गये । अन्य भोजन सामग्रियों में के पुत्रों ने कुलवरिणज नामक मामा के पुत्र से पूये,29 बूदी आदि भी उपयोग में प्रचलित थे ।30 अपनी बहन का विवाह किया।18 राजा ज्वलनजटी __ भोजन से तृप्त हो कर जल से मुख शुद्धि कर लेने ने राजा प्रजापति को पत्र लिखा कि मेरी पत्री पर सुगन्धित द्रव्य ताम्बुल सुपारी आदि दी जाती स्वयंप्रभा मेरे भानजे त्रिपृष्ठ की स्त्री हो; प्रजापति आत थी 131 ने इसे स्वीकार कर लिया 119 इसी तरह सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति ने अपने मामा की लड़कियों इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति मांसाहारी भी क्रमश: धनश्री. मित्रश्री और नागश्री से विवाह थे । यद्यपि इस प्रकार के प्राहार को अखाद्य किया ।20 हरिवाहन का धनश्री के साथ,21 बताया गया हैं फिर भी कुछ राजा-महाराजा आदि चारुवत्त का मित्रवती के साथ,22 सोमशर्मा का बड़े-बड़े लोग उसका उपयोग करते थे। राजा चन्द्रानना के साथ23 इसी प्रकार के मातुल कन्या कुम्भ मांस का बड़ा शौकीन था 12 पशुओं में के साथ विवाह थे। सिंह, व्याघ्र, हरिण, बकरे आदि का तथा पक्षियों बहपत्नित्व-प्राचीनकाल में सामान्यतया में कौने का तथा मछली का मांस अधिक प्रिय एक ही पत्नी रखने की परम्परा थी, पर पौराणिक होता था 133 पेयों में दूध, छाछ के अतिरिक्त मद्य काल में हम पाते हैं कि राजा-महाराजा एवं श्रेष्ठि (मदिरा)34, शिरका का उपयोग किया जाता वर्ग कई सारी पत्नियां रखते थे। अन्तःपुर की था । एक स्थल पर राजा विश्वनन्दी को मदिरा रानियों की संख्या अधिकाधिक रखने में गौरव का का व्यसनी होना बताया है । अनुभव करते थे और यह अन्तःपुर अनेक राजाओं के साथ उनके मित्रतापूर्ण सम्बन्ध हो जाने के मसालों में सोंठ, हरड़, आंवला37 एवं दालचीनी का भी उपयोग होता था 138 कारण उनको राजनैतिक क्षेत्र में शक्तिशाली बनाने ने सहायक होता था। पुराण में एक स्थान पर24 पुराण में भोजनशाला में प्रयुक्त पात्रों के कुमार के वसुन्धरा, सुन्दरी एवं अन्य 32 वैश्य बारे में भी विस्तृत जानकारी मिलती है। उस कन्याओं के साथ विधिपूर्वक ब्याह करने का उल्लेख समय चाकी, चुल्हा,39 उत्खल,40 कडाही,41 थाल ( 3/41 ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटोरी,42 मीट्टी के कलश43 प्रादि का प्रयोग भी प्रचलित था। राजा सुकेतु जुए में देश, धन, बल, प्रचलित था। रानी सब कुछ हार गये थे ।56 राजा रानियां भी आमोद-प्रमोद--इस समय प्रामोद-प्रमोद के परस्पर द्यूत-क्रीड़ा करती थी। अनेक साधन प्रचलित थे। राजाओं की विलासिता शिक्षा एवं साहित्य-समकालीन भारत में ने विभिन्न कलानों को जन्म दिया। राजानों के शिक्षा और साहित्य के सम्बन्ध में निम्न जानकारी मनोरंजन के मुख्य साधन मृगया, जल विहार,45 प्राप्त होती हैसंगीत-नृत्य,48 साहित्यिक गोष्ठियां, द्यूत क्रीडा47 (i) ब्राह्मणों की शिक्षा-दीक्षा प्राचीन पाश्रम आदि थे । पुराणकार ने उस समय के प्रचलित पद्धति पर निर्भर थी। परन्तु प्राश्रमों का कोई जल विहारों का सुन्दर वर्णन किया है । उल्लेख नहीं है । विद्यार्थी गुरु के घर पर ही शिक्षा सामन्त लोग अपने मनोरंजन के लिए पानी ग्रहण करते थे । कुछ स्थानों पर कन्याओं के लिए की भांति धन व्यय करते थे। उनके स्नान कुण्डों घर पर शिक्षा करने के उल्लेख भी हैं। श्रति, की भितियों तथा स्तंभों को रत्नादि से अलंकृत स्मृति, वेद, कथा, व्याकरण और ज्योतिष आदि किया जाता था। राजा वज्रायुध अपनी रानियों की पारम्परिक शिक्षा शिष्यों को प्रदान की के साथ सुदर्शन सरोवर में जलक्रीड़ा किया जाती थी। करते थे ।48 ___ (2) जैन-बालकों की शिक्षा गुरुत्रों के घर पर ___ राजदरबारों में कलाकार नर्तकियां, कवि, जैन साहित्य में होती थी। परन्तु व्याकरण, चित्रकार, संगीतज्ञ तथा विदुषक रहते थे । किसी- निघण्टू, काव्य, छन्द तथा दर्शन एवं तर्कशास्त्र किसी राजा को शिकार का भी शौक होता था। की शिक्षा सबके लिए समान रूप से प्रचलित थी। वे शिकार सामान्यतः धनुष वाण से किया करते बड़े घरानों के युवकों को हस्तिशिक्षा, अश्वशिक्षा, थे।49 युद्ध-कलादि विद्याओं का अभ्यास कराया जाता था। उस काल में संगीत प्राज की भांति विकसित (3) धनवान, कुलीन घरानों में कन्याओं को था । नगरों में संगीत शालाएं होती थीं। संगीत भी शिक्षा दी जाती थीं और सामान्य शिक्षा के शालाओं में नृत्य-गान होते थे 150 स्त्रियों को नृत्य अतिरिक्त उन्हें वाद्य-वादन, गायन, नृत्य की भी की शिक्षा दी जाती थी।51 मन्दिरों में नर्तकियां शिक्षा प्रदान की जाती थी। होती थी। नाट्य शालाओं में नाटक हुआ करते धार्मिक स्थिति-वस्तुतः इस युग में तीन थे । वाद्य प्रतियोगिताएं भी होती थी।52 उस मुख्य धर्म थे-ब्राह्मण, जैन तथा वौद्ध । इनमें समय के वाद्य यन्त्रों में नंगाड़े,58 चार प्रकार की ब्राह्मण तथा जैन दक्षिण भू-भाग में विशेष महत्त्व वीणा, तम्बू, तन्त्री एवं तुम्बा,54 मृदंग विशेष के थे। राज्य की ओर से सभी धर्मों को अपना रूप से प्रचलित थे। स्वाभाविक विकास करने की स्वतन्त्रता थी । उनके शतरंज तथा चौपड़ के खेलों द्वारा भी लोगों अपने अपने मन्दिर थे। साधू-महात्मा स्वतन्त्रता से का बड़ा मनो-विनोद होता था। घृत-क्रीडा भी घूम-घूम कर अपने मतों तथा सिद्धान्तों का प्रचार प्रचलित थी परन्तु यह केवल समृद्ध लोगों में ही किया करते थे। ( 3/42 ) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. उत्तरपुराण; 741357-358 2. वही; 53116 3. वही ; 721249 4. वही ; 73127 5. वही 73137 6. वही ; 681656-57 7. वही; 631168-170 8. वही ; 71158 9. हरिवंशपुराण; 31153-58 10. उत्तरपुराण; 11. वही; 6318 12. वही; 62 1 82 13. वही; 72। 202-211 4. वही; 67214-222 15. वही; 71। 443-459 6. हरिवंशपुराण; 33 10-29 17. (क) नारद स्मृति 12/97 (ख) वाल्वलकर, हिन्दू सोसल इन्स्टीट्यूशन्स बम्बई, 1939. (ग) विवाह सम्बन्धी अध्याय, अल्टेकर; पोजीशन आव दा वुमनस् इन इन्सियेन्ट इण्डिया, पृष्ठ 181-183 । 18. उत्तरपुराण; 75/205 19. वही 74 / 152 20. वही ; 72/227--230 21. हरिवंशपुराण - 33 / 137 22. वही; 21 / 38 23. वही; 62 / 192 सन्दर्भ 24. उत्तरपुराण; 76/344 25. हरिवं पुराण -12 / 32 26. वही; 24/9 27. उत्तरपुराण - 71 / 126-128; हरिवंशपुराण - 44 / 3 - 50 28. उत्तरपुराण; 71/126-128; 29. वही 65 / 119 30. वही ; 65 / 156 31. वही; 42 / 343, हरिवंशपुराण - 37/27-28 32. उत्तरपुराण, 34/392 (3/43) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. वही, 34/394 34. वही; 76/364 35. वही; 96/26 36. वही; 74/112 37. वही; 75/373 38. वही; 76/253 39. वही; 65/119 वही; 70/420 41. वही; 65/119 42. वही; 62/195 43. वही; 68/659 44. उत्तरपुराण ; 67/258 45. वही; 63/81 46. वही; 50/23-24 47. वही; 59/73-74 48. वही; 63/80-84: 76/140 49. वही; 67/258 50. वही; 50/23-24 51. वही; 60/102 52. वही; 70/302 53. वही; 62/223 54. वही; 70/265 55. वही; 54/191 56. वही; 59/73-74 57. वही; 59/167 ( 3/44 ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपक का समाधिमरण क्षपक व प्राराधक की समानार्थकता जो कर्मक्षपरण में उद्यत होता है उसे सामान्य से क्षपक कहा जाता । षटखण्डागम में विशेष रूप से चारित्र मोह के क्षय में उद्यत श्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म सांपराय संयतों को क्षपक कहा गया है । श्राराधना सार में कालादिलब्धियों को पाकर कारण कार्य विभाग के जान लेने वाले क्षपक को प्राराधन के लिये प्रेरणा की गई है । यहीं पर आगे उसे पुनः प्रेरित करते हुए कहा गया है कि क्षपक संसार के जो बहुत से कारण हैं उन्हें छोड़कर अपने शुद्ध श्रात्मा का श्राराधन करे । कारण यह कि ज्ञान स्वरूप श्रात्मा के अराधन को न प्राप्त करने वाला जीव सदा चतुर्गति स्वरूप संसार में परिभ्रमण करता है 2 प्रस्तुत लेख 1980 की स्मारिका में छपे श्रावक का समाधिमरण का पूर्वार्द्ध है । विद्युत समस्या के कारण से तब लेख पूरा नहीं छापा जा सका था । इस प्रराधनासार की वृत्ति में श्राराधक: पुरुष विशेषः क्षपक : इस प्रकार से क्षपक को ही प्राराधक कहा गया है । " इस प्रकार सामान्य से, विशेष D पं० बालचन्द शास्त्री कर समाधिमरण के प्रसंग में, इन दोनों शब्दों को समान समझना चाहिये । -सम्पादक ( 3/45 ) दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के भेद से आराधना चार प्रकार की है । यह चारों प्रकार की आराधना व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार की है । उनमें व्यवहार आराधना कारण और निश्चय श्राराधना कार्य रूप है। 5 मररण की अनिवार्यता - क्षपक व अराधक अभिप्राय के द्योतक यह एक प्रकृति का अकाट्य नियम है कि जो जन्मता है वह मरता अवश्य है । इस वस्तुस्थिति को जानकर जो जीव साहसी होते हैं वे उस मरण से भयभीत न होकर उसे समाधि के साथ प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त करते हैं । यदि जीव एक ही भव में उस समाधि मरण को प्राप्त करता है तो वह सातमाठ भवों में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । " Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार में इस मरण को अनिवार्य बतलाते मरण भेव-- कहा गया है कि धीर भी मरता है और अधीर भी भगवती आराधना में सामान्य से प्रावीचि मरता है, जब दोनों ही अवश्य मरते हैं तो धीरता प्रादि 17 मरण भेदों का निर्देश किया गया है।11 के साथ मरना कहीं श्रेयस्कर है। इसी प्रकार पर प्रकृत में प्रयोजनभूत होने से वहां उनमें से शीलवान् भी मरता है और निःशील भी मरता है, पण्डित-पण्डित मरण, पण्डित-मरण, बाल-पण्डित जब दोनों का ही मरण अवश्य भावी है तब शील मरण, बालमरण और बाल-बालमरण इन पांच की के साथ मरना ही हितकार है।' . सके विपरीत जो ही प्ररूपणा की गई है । जो आत्मानुभूति रूप परम अज्ञानी प्राणी उस मरण से भयभीत रहते हैं वे समाधि में स्थित होकर शरीर से भिन्न ज्ञानमय सदा दुखी रहते हुए ही उस मरण को नियम से परमात्मा को जानता है उसका नाम पण्डित (अन्तप्राप्त होते हैं । प्राचार्य समन्तभद्र भगवान् सुपार्श्व रात्मा) है ।12 भ० अाराधना की मूलाराधनादर्पण नाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन् ! टीका के अनुसार रत्नत्रयस्वरूप बुद्धि का नाम पंडा आपने यह ठीक ही कहा है कि प्राणी मृत्यु से तो है, वह जिसके प्रादुर्भूत हुई है वह पण्डित कहलाता डरता है, पर उसे उससे मुक्ति मिलती है । वह सदा है।13 जिसका पाण्डित्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सुख की अभिलाषा तो करता है, पर वह भी इच्छा अतिशय को प्राप्त है उसे पण्डित-पण्डित कहा जाता नुसार उसे प्राप्त होता नहीं है । इस यथार्थ स्थिति है ।14 उपर्युक्त पण्डित के मरण को पण्डित-पण्डित के होने पर भी वह अज्ञानी प्राणी उस मृत्यु के भय मरण समझना चाहिये । जो स्थूल असंयम से भी और सुख की अभिलाषा के वश सदा व्यर्थ में विरत नहीं होता है ऐसा असंयत सम्यग्दृष्टि पूर्वोक्त सन्तप्त रहता है । पाण्डित्य से रहित होने के कारण बाल कहलाता प्राराधक है । इस बाल के मरण को बाल मरण कहा जाता है ।15 जो सम्यग्दृष्टि देशतः देश विरत होता है उसे इस यथार्थ परिस्थिति को जानकर प्रात्महितैषी बाल-पण्डित कहते हैं ।16 अभिप्रय यह कि बालस्वभव्य जीव कर्मक्षपण के लिये सम्यग्दर्शन ज्ञान, रूप के साथ पण्डित्य भी जिसके रहता है उसे बालचारित्र और तप रूप चार प्रकार की आराधना में पण्डित समझना चाहिये । इस बाल-पण्डित उद्यत होता है । मरण समय में इस प्राराधना का (संयता संयत) के मरण का नाम बाल-पण्डितआराधक कौन होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा मरण है।17 जो व्यवहार पण्डित्य, सम्यत्त्म्ब पाण्डित्य गया है कि जो धीर पुरुष ममकार, अहंकार और ज्ञान पण्डित्य और चारित्र पाण्डित्य इन सबसे कषाय से रहित होकर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त रहित होता है उसे बाल-बाल और उसके मरण को करता है तथा सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होता हुआ बाल-बाल मरण कहा जाता है।18 प्रागागी भोगाकांक्षा रूप निदान से दूर रहता है वह मरण के समय आराधक होता है ।' सम्थग्दर्शन व मूलाचार में उक्त पांच मरण भेदों में बालज्ञान से सम्पन्न ऐसा साधक दोनों प्रकार के परिग्रह बालमरण और पण्डित-पण्डितमरण इन दो को रहित होता हुआ सांसारिक सुख से विरक्त होता है, छोड़कर मरण के बालमरण, बाल-पण्डित मरण वह परम उपशम को प्राप्त होकर विविध प्रकार के और पण्डितमरण ये तीन ही भेद निर्दिष्ट किये गये तप से शरीर को तपाता है, तथा राग-द्वेष से हैं। इन भेदों का निर्देश करते हुए यहां यह भी निर्मुक्त होकर प्रात्मस्वभाव में निरत होता है ।10 कहा गया है कि तीसरा पण्डित महण वह है जिसके (3/46 ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्रित होकर केवली-शुद्ध ज्ञानी संयत-मरा अरहन्तों को नमस्कार करता हुआ पाप प्रत्याख्यान करते हैं 119 टीककार आ वसुनन्दी के अभिप्राय- के साथ सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप रूप जुसार असंयतसम्यग्दृष्टियों को बाल, एकेन्द्रियों के संस्तर को अथवा पृथिवी-पाषाणादि रूप संस्तार वेष से अविरत और द्वीन्द्रियादि के वध से विरत स्वीकार करता है । इस प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिये ऐसे संयता-संयतों को बाल-पण्डित तथा संयतों को वह आत्म निन्द व गर्दा करता हा यह प्रगट करता पण्डित पण्डित समझना गहिये । इस टीका में बाल है कि मैंने जो कुछ भी दुराचरण किया है उस बालमरण को अप्रयोजनीभूत बतलाते हुए पण्डित- सबका मैं मन, वचन, काय से परित्याग करता हूं पण्डित-मरण का अन्तर्भाव पण्डितमरण प्रकट किया तथा मन, वचन काय और कृत, कारित, अनुमत गया है। स्वरूप से निर्विकल्प समाधि को करता हैं। इस प्रकार से वह बाह्य व अभ्यन्तर उपाधि, शरीर और मलाचार में आगे इन मरणों के प्रसंग में यह भोजन सबका मन, वचन, काय और कृत, कारित विशेष कहा गया है कि जो जिनवचन (जिनागम) अनुमत रूप से परित्याग करता है। वह पांचों को नहीं जानते हैं वे बेचारे भविष्य में बहुत प्रकार पापों का प्रत्याख्यान करता हया समस्त प्राणियों में के बाल-मरणों और प्रकाममरणों को प्राप्त होने समता भाव को प्राप्त होकर किसी से भी मेरा वाले हैं। शस्त्रग्रहण से, विषभक्षण से, अग्नि से, वैरभाव न रहे. इसकी भावना भाता है व समस्त जल प्रवेश से और अनाचार के सेवन से होने वाले प्रशानों को छोडकर समाधि को स्वीकार करता मरण का यहां बालमरण के रूप में निर्देश किया है। इसे सफल बनाने के लिये वह स्वयं सब जीवों गया है तथा उसे जन्म-मरण की परम्परा का कारण के प्रति क्षमाभाव को धारण करता हा सब से कहा गया है। इस परिस्थिति में क्षपक विचार क्षमा कराता है और रागानुबन्ध द्वेष, हर्ष, दीनता, करता है कि मैंने ऐसे मरण ऊर्ध्व, अधः और उत्सूकता, भय, शोक एवं रतिभरति का परित्याग तिर्यग्लोक में बहुत प्राप्त किये हैं। अब मै दर्शन करता है। वह ममत्वभाव को छोड़कर निर्ममत्व होता और ज्ञान से समन्वित होकर पण्डित मरण से है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान संवर और मरूंगा । इसी प्रकार वह उद्वेगसे-इष्टवियोग और योग में एक मात्र आत्मा का पालम्बन लेता है व अनिष्ट संयोग से जनित पीडा से होने वाले मरण शेष सब को छोड़ देता है । वह एकत्व की भावना को जन्म लेते ही अथवा गर्भ में प्राप्त होने वाले भाता हा विचार करता है कि जो वह अकेला ही मरण का (अकाममरण का) तथा नरकों में अनुभव उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है, इस प्रकार में पाने वाले अनेक प्रकार के दु-खों का स्मरण क के ही जन्म-मरण है और एक ही कर्म से निर्मक्त करता हुआ पाण्डत मरण से मरने का विचार करता होकर सिद्धि को प्राप्त करता है । ज्ञान-दर्शन स्वरूप है । कारण यह कि वह पण्डित मरण ही एक ऐसा एक प्रात्मा ही शाश्वत है, शेष सब संयोग को प्राप्त मरण है जो बहुत से जन्मों को---उनकी परम्परा बाह्य पदार्थ हैं। दुखों की परम्परा का मूल कारण को-नष्ट करता है। इसलिये जिस मरण से सुमरण जीव के साथ उनका सयोग है, ऐसा दृढ़ निश्चय होता है उसी मरण से मरना योग्य है ।20 करके वह उसे मन, वचन व काय से छोड़ देता है। प्रमद के वश होकर उसने जिन मूल व उत्तर गुणों निन्दा, गहरे वालोचना का पाराधन नहीं किया है उस सब की वह निन्दा इस प्रकार संसार, शरीर और भोगों से विरक्त व प्रतिक्रमण करता है । वह असंयम, अज्ञान, हुना क्षमक पाराधना में उद्यत होकर सिद्धों, और मिथ्यात्व और जीवाजीव विषयक समस्त ममत्व ( 3/47) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाब की निन्दा व गहरे के साथ सात भय, पाठ मद, 1. अहं-जो पाराधक घर के व्यापार और चार संज्ञाओं, तीन गारव, तेतीस प्रासादनाओं और स्त्री-पुत्रादि कौटुम्बिक जनों साथ सम्बन्ध को छोड़राग-द्वेष के विषय में गर्दा करता है। वह बाह्य व कर जीवित व धन की प्राशा से मुक्त हो जाता है अभ्यन्तर उपाधि के विषय में निन्दनीय-अपने वह अयोग्य के परिहार और योग्य के ग्रहण स्वरूप पाप प्रगट करने योग्य-की निन्दा और गर्हणीय- संन्यास में अर्ह (योग्य) होता है। जब तक जरा प्राचार्य प्रादि अन्य के समक्ष प्रकाशित करने के प्राकर शरीर को जर्जरित नहीं करती है, इन्द्रियां योग्य-की गर्दा तथा पालोचना करता है। जिस शिथिल नहीं होती है, बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती हैं। प्रकार बालक सरलता से अपने कार्यप्रकार्य को कर प्राहार प्रादि पर विजय प्राप्त करने में समर्थ रहता देता है उसी प्रकार से यह आलोचना माया और है, प्रायु क्षीण नहीं होती है, स्वयं निर्यापक होकर असत्य को छोड़कर की जाती है । अात्मोद्वार में समर्थ रहता है, अंग-उपांग शिथिल नहीं होते हैं, मृत्यु का भय नहीं रहता है; तथा प्राचार्य का स्वरूप संयम, तप, ज्ञान, ध्यान और योग में उद्यम विफल जिसके समक्ष आलोचना की जाती है वह नहीं होता है। तब तक ही वह पुरुष उत्तम स्थान के श्राचार्य भी कैसा होना चाहिये, इसे स्पष्ट करते हुए योग्य सम्भव है। यह योग्य सम्भव है। यह व्यवहार 'अहं' का लक्षण कहा गया है कि उसे स्वयं ज्ञान, दर्शन, तप और प्रगट किया गया है। निश्चय नय की अपेक्षा उस चारित्र इन चारों में स्थिर रहते हुए धीर व पागम श्रमण को ही संन्यास में अहं कहा गया है जो अपने में कुशल होना चाहिये । साथ ही उसमें इतनी को अात्मस्वभाव में स्थापित करता है 125 गम्भीरता होनी चाहिये कि जिसके प्राश्रय से वह पालोचित दोषों को सुनकर उन्हें कभी किसी अन्य 2. संगत्याग... क्षपक को निरालम्ब प्रात्मा की के समक्ष प्रगट न करे 122 भावना के लिये क्षेत्र-वस्तु प्रादि रूप बाह्य और मिथ्यात्वादि रूप अभ्यन्तर दोनों प्रकार की परिपाराधक की योग्यता के परिचायक लिग ग्रह का परित्याग करना अनिवार्य होता है। कारण भगवती प्राराधना में भक्त प्रत्यास्यान केनेड. यह कि प्रात्मस्वरूप में जीव तभी स्थिर हो सकता भूत सविचार भक्त प्रत्याख्यान के प्रसंग में मारा है जब वह परिग्रह की ओर से निमर्मत्व होकर की योग्यता के परिचायक अहं लिंग प्रादि 40 पदों रागादि के परिहार स्वरूप उत्कृष्ट उपशमभाव को का विवेचन अन्य कितनी ही प्रासंलिक चर्चायों के प्राप्त हो जाय । चित्त की निर्मलता भी तभी संभव साथ बहुत विस्तार से किया गया है (गा० 71. है जब दोनों प्रकार की परिग्रह को छोड़ दे। वस्तुतः 2010)123 तो शरीर बाह्य परिग्रह और इन्द्रियों की विषया. भिलाषा अभ्यन्तर परिग्रह है, इन दोनों का परिपाराधनासार में भी उक्त अर्हादि पदों में संक्षेप त्याग कर देने पर ही क्षपक यथार्थ में निर्ग्रन्थ से इन सात की प्ररूपणा की गई है-प्रह, संगत्याग, होता है।26 कषायसल्लेखना, परीषहजय, उपसर्ग सहन, इन्द्रिय विजय और मनःप्रसरसंयमन । वहां इनके प्राश्रय से 3. कषायसल्लेखना--इन्द्रियमय शरीर अपनेक्षपक को दीर्घ काल से अनेक भावों में उपार्जित अपने स्पर्शादि विषयों में प्रवृत्त होने का इच्छुक कर्मों के क्षपण (क्षीण करने ) की प्रेरणा की रहता है, अतः क्षपक को उनकी ओर से निमर्मत्व गई है ।24 होकर मन्द कषायी होना आवश्यक है। जब तक (3/48 ) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपक कषायों की सल्लेखना-उनको कृश नहीं 5. उपसर्ग सहन-आराधक को यदि कष्टप्रद करता है तब तक उसके द्वारा शीत-पातप आदि के उपसर्गों का सामना करना पड़ता है तो उन्हें विवेक सहन रूप बाह्य योगों के आश्रय से की गई शरीर- पूर्वक समताभाव से सहना चाहिये । कितने ही शूरविषयक सल्लेखना निरर्थक ही रहती है। चतुर्गति वीर पुरुषो ने ज्ञानमय भावना से चार प्रकार के स्वरूप संसार में परिभ्रमण कराने वाली ये प्रबल उपसर्गों को सहा है। जैसे-शिवभूति राजकुमार कषायें दुर्जेय है, उनका जब तक दमन नहीं किथा ने अचेतन-चेतना शून्य अग्नि, जल एवं पाषाण जाता तब तक जीव संयमी नहीं हो सकता और प्रादि की वर्षा जनित-उपद्रव को; सकमाल और उस संयम के बिना उसके अतिशय विशुद्ध सम्य. सूकोशलने तिर्यंचकृत उपद्रव को; गुरुदत्त राजा, ग्दर्शनादि गण सम्भव नहीं हैं। इसलिये प्राधिक यधिष्ठिर प्रादि पाण्डवों, गजकूमार एवं अन्य कितने को प्रथमतः उन कषायोको कृश करना चाहिय, ही महानभावों ने मनष्यकत उपद्रव कोः तथा श्रीभद्र जिससे वह ध्यान में स्थिर हो सके । कार्यों के कृश और सुवर्णभद्र प्रादि ने देव कृत उपद्रव को प्रात्मकर देने से मुनि के चित्त में क्षोम नहीं होता, इससे । ध्यान पूर्वक समभावना से सहा है । इस प्रकार यहां वह उत्तम धर्म स्वरूप प्रात्म स्वभाव को प्राप्त कर क्षपक को प्रेरणा की गई है कि हे मुनिवर ! जैसे इन लेता है ।27 महापुरुषों ने तथा दूसरों ने भी स्थिर चित्त होकर 4. परीषहजय-पात्म स्वरूप में स्थित होने उपसर्गों को सहा है वैसे ही तुम भी प्रात्मस्वभाव के लिये क्षुधा-तृषादि बाईस परिषहों पर विजय में मग्न होकर उनको सहन करो ।29 प्राप्त करना आवश्यक है । कारण यह कि प्राराधक यदि उन परीषहों पर विजय नहीं प्राप्त करके स्वयं 6. इन्द्रियजय-जिस प्रकार व्याध के वाणों उनके द्वारा विजित होता है तो वह संन्यास से च्युत से विद्व हुए हिरण व्याकुलमन होकर कहीं नहीं रमते होकर शारीरिक बाधा के प्रतिकार स्वरूप भोजनादि हैं और इधर-उधर वन में भागते हैं उसी प्रकार की पुनः शरण लेता है। इससे परीषहों के उपस्थित इन्द्रियों से अभिहत होकर प्राणी व्याकुल चित्त होते होने पर उसे प्रात्मसंबोधन करना चाहिये कि हे हुऐ प्रात्मध्यान अथवा शास्त्र क्षवण आदि किसी प्रात्मन् ! तूने जब परवश होकर संसार में परिभ्रमण भी उत्तम व्यापार में नहीं रमते हैं और विषयों की करते हुए अनेक दुःखों को सहा है तब इस समय और दौड़ते हैं । इस परिस्थिति में सब कुछ छोड़कर तू स्वाधीन होकर आत्म स्वभाव में मन को स्थिर और संन्यास को ग्रहण करके भी यदि विषयों की करता हुआ उन दुःखों को क्यों नहीं सहता ? स्वा- अभिलाषा बनी रहती है तो क्षपक के दर्शन, ज्ञान धीनता पूर्वक उनके सहन करने से तू शीघ्र ही सब और तप व्यर्थ रहते हैं । जब तक इन्द्रिय विषय रूप प्रशभ कर्म को नष्ट कर सकता है। जो कातर विकार मन में अवस्थित रहते है तब तक क्षपक पुरुष उन परीषह रूप योद्धाओं से भयभीत होकर राग-द्वेषादि दोषों को दूर नहीं कर सकता है । यदि चारित्र रूप रणभूमि को छोड़ देते हैं वे मार्गभ्रष्ट होकर लोक में उपहासको प्राप्त होते हुए दुःखों को विचार किया जाय तो पर द्रव्यों के समागम से भोगते हैं । यदि तुझे परीषहों से सन्ताप होता है तो प्राप्त होने वाला इन्द्रिय जन्य सुख यथार्थ सुख न तू ज्ञान रूप सरोवर में प्रविष्ट हो, जिससे निर्विकल्प होकर दुःख ही है । इसलिये सम्यग्ज्ञानी को इन्द्रियों होकर निर्वाण को प्राप्त कर सके 128 की ओर से विरत होना चाहिये ।30 ( 3/49 ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. मन: प्रसर संयमन-इन्द्रियां चूकि मनकी रहित प्रात्म स्वरूपावस्थान रूप समाधि को शून्य प्रेरणा पाकर ही विषयों में संचार करती हैं, इस ध्यान समझना चाहिये । इस प्रकार को जो शुद्ध लिये क्षपक को उस मन के ऊपर ही नियंत्रण करना भाव है उसे ही जीव, चेतना, ज्ञान, दर्शन और चाहिये। जिस प्रकार राजा के मर जाने पर सेना चारित्र कहा जाता है । निश्चय नय से दर्शन, ज्ञान सब इधर-उध बिखर जाती है उसी प्रकार मन के और चारित्र भी भिन्न नहीं है, आत्मा का जो शुद्ध मर जाने पर उसके स्वाधीन हो जाने पर-इन्द्रियां स्वभाव है उसी को रत्नत्रय जानना चाहिये। इस भी मर जाती हैं-विषयों की ओर से वे विमुख हो अवस्था में रत्नत्रयस्वरूप ध्याता आत्मा शेष सभी जाती हैं इस प्रकार इन्द्रियों के मर जाने पर समस्त पालम्बनों से मुक्त हो जाता है, इसलिये उसे शून्य कर्म भी मर जाते हैं - बन्ध के अभाव पूर्वक क्षय को कहा गया है । इस प्रकार से यहां शून्य ध्यान की प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार शाश्वत सुख का प्रशंसा करते हुए उसे ध्याता के समस्त कर्मों के स्थान भूत मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसलिये इंद्रिय क्षय का कारण व शाश्वतिक सुख का हेतु कहा विषयों से विरत होने के लिये क्षपक को उनके मूल गया है 182 कारणभूत मन को वश में करना चाहिये । इस प्रकार यहां मन के पाश्रय से होने वाले अनेक दोषों असमाधि व समाधिपूर्वक मरण का फलको दिखलाकर उस मन को नियन्त्रित करने की जो दुर्बुद्वि मायाचारी आहारादि संज्ञानों में प्रेरणा की गई है।31 आसक्त रहते हए समाधि के बिना मरण को प्राप्त होते हैं वे आराधक नहीं हो सकते । इस प्रकार से शून्य ध्यान मरण की विराधना करने पर वे दुर्गति को प्राप्त क्षपक को मन, वचन काय के विषय में तो होते हैं-मर करके कन्दर्प, आभियोग्य, किल्विष, शून्य-उनके व्यापार से बहिर्भूत--होना चाहिये, सम्मोह और असुर इन कुदेवों में उत्पन्न होते हैं। पर आत्मा के शुद्ध स्वरूप के सद्भाव में शून्य नहीं इस प्रकार मिथ्या दर्शन में अनुरक्त रहकर निदानहोना चाहिये-उसमें सदा जागृत रहना चाहिये. पूर्वक अशुभ परिणामों के साथ मरने पर उन्हें क्योंकि आत्मस्वभाव में शून्य होने पर सब आकाश बोधिसम्यक्त्व सहित शुभ परिणाम-दुर्लभ होता कुसुम के समान शून्य हो जाता है-उसका अन्य है । साथ ही गुरु के प्रतिकूल होकर प्रचुर मोह से सब आचरण मिथ्या होता है । शून्य ध्यान में प्रविष्ट अभिभूत होते हुए असमाधि से मरने के कारण वे अनन्तसंसारी भी होते हैं 138 हुमा योगी स्वाभाविक सुख से सम्पन्न होकर प्रविनश्वर सुखरूप अमृत से परिपूर्ण होता हुआ परम इसके विपरीत जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन में प्रानन्द में अवस्थित होता है । यह शून्य ध्यान कैसा है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस ध्यान अनुरक्त होकर शुक्ललेश्या पर आरूढ होते हुए में न प्रात-रौद्रादि किसी ध्यान का विकल्प रहता निदान के बिना मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिये है, न अर्हत्-सिद्धादि रूप ध्येय का विकल्प रहता है, वह बोधि सुलाभ है 134 साथ ही वे जिन वाणी में न ध्याता का विकल्प रहता है, न कुछ चिन्तन रहता अनुरक्त रहते हुए कि गुरु की आज्ञानुसार प्रवृत्ति है, न धारणारूप संस्कार रहता है, और न कुछ भी करते हैं व संक्लेश से रहित होते हैं, इसलिये वे विकल्प रहता है। इस प्रकार समस्त विकल्पों से परित संसारी-परिमित संसार वाले होते हैं । 35 जो ( 3/50 ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराधनासार म समापन पाराधक सम्यग्दर्शनादिरूप आराधना में उपयुक्त से यदि अकस्मात् मरण उपस्थित होता है उस समय होकर समीचीन अनुष्ठान से युक्त होता हुआ मरण पाराधक यतिका कैसा परिणाम होना चाहिये, इसे को प्राप्त होता है वह अधिक से अधिक तीन भावों स्पष्ट करने के लिये उक्त मूलाचार में 'संक्षेप प्रत्यामें निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । 36 इसके अतिरिक्त ख्यान' नामक तीसरा अधिकार रचा गया है । जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, यदि जीव एक ही भव में समाधि-मरण को प्राप्त करता है तो उक्त प्रकार से यदि अकस्मात् मरण उपस्थित वह सात-पाठ भावों में निर्वाण को प्राप्त हो जाता होता है तो पाराधक यति जिनवरवृषभादि को है, ऐसा भी आगम में कहा गया है 137 प्रणाम करके यह स्थिर करता है कि मैं समस्त प्राणारम्भ (हिंसा), अलीक वचन, अदत्तादान, मैथन सार में समाधि-मरण के फलका निर्देश और परिग्रह इन पाचा पापा का प्रत्याख्यान करता करते हुए कहा गया है कि प्राराधना में उद्यत भव्य हूँ । मेरा सब जीवों में समताभाव रहे. वैर किसी (प्रासन्न भव्य) जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और से न रहे, मैं समस्त प्राशानों को छोड़कर समाधि भाव रूप सामग्री को पाकर प्राठ कर्मों के बन्धन से को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त प्राहार विधि, मुक्त होते हुए केवल ज्ञान से युक्त होकर उसी भव - संज्ञाओं, आशाओं, कषायों और सब ममत्व को में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं : कितने ही भव्य छोड़कर सभी से क्षमा कराता हूँ। इस देश-काल जीव अाराधना में सारभत परमात्मतत्त्व का पारा- में यदि मेरे जीवित का उपक्रम है तो यह प्रत्याख्यान धन करके कुछ पुण्य कर्म के शेष रहने से सर्वार्थ है तथा उससे निस्तार होने पर पारणा सम्भव है । सिद्धि को प्राप्त करके वहां निवास करते हैं । जिन इस प्रकार का विचार वह मरण के विषय में संदेह क्षपकों की वह चार प्रकार की आराधना जघन्य रहने पर करता है । पर मरण यदि निश्चित है होती है वे भी सात-आठ भावों में निर्वाण को प्राप्त तो वह स्थिरता करता है कि मैं पानी को छोड़कर कर लेते हैं 138 सब प्राहार विधि का, बाह्य व अभ्यन्तर दोनों प्रकार की उपधि में जो भी मेरे पास है उसका, संक्षेप प्रत्यख्यन शरीर का और सावध कर्म का बन, वचन और काय तीनों प्रकार से जीवन पर्यन्त के लिये परित्याग मूलाचार में 'बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव' नामक करता है। दुसरे अधिकार के प्रारम्भ में टीकाकार प्रा. वसूनन्दीने उत्थानिका में यतियों के छह कालों का अन्त में वह जिस जैन शासन का प्राश्रय लेकर निर्देश करते हुए उनमें प्रात्म-संस्कार, सल्लेखना सब जीव अनन्नत संसार रूप समुद्र से पार होते हैं और उत्तमार्थ इन तीन कालों का निर्देश पाराधना सब जीवों के शरणभूत उस परमागम का अभिनन्दन में तथा दीक्षा, शिक्षा और गणपोषण इन शेष तीन करता हुआ यह प्रार्थना करता है कि जो गति का निर्देश प्राचार के विषय में किया है। अरहन्तों की, कृत कृत्य हुए सिद्धों की और बीतइनमें से यदि प्रथम तीन कालों में मरण उपस्थित मोहों-क्षीण कषायों की है वह गति सर्वदा मेरी होता है तो उस समय आराधक यतिका जैसा परि- हो ।39 णाम होता है उसका विवेचन पूर्वोक्त दूसरे अधिकार में किया गया है । पर यदि सिंह-व्याघ्रादि के उपद्रव प्रतिक्रमण-सामान्य से माराधना में जिन तीन अथवा असाध्य किसी रोग आदि के निमित्त प्रतिक्रमणों का विधान है वे इस संक्षेप प्रत्याख्यान ( 3/51 ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी सम्भव हैं । प्रथम प्रति-क्रमण में तपकाल के अभिप्राय (3-13) के अनुसार तीन प्रकार के योग के आश्रय से लेकर जो दोष हुए हैं उनका, दूसरे में निग्रह रूप योग प्रतिक्रमण, पांच इन्द्रियों के पान को छोड़ शेष तीन प्रकार के प्राहार के विषय निग्रह रूप इन्द्रिय-प्रतिक्रमण, शरीर के त्याग अथवा में जो दोष उत्पन्न हुए है उनका, तथा तीसरे में उसके कृशीकरण रूप शरीर-प्रतिक्रमण, सोलह उत्तम अर्थ मोक्ष के लिए पानक (पेय) के विषय में कषायों और नौ नोकषायों के निग्रह रूप कषाय भी जो दोष हुए हैं उनका परिहार जीवन पर्यन्तके प्रतिक्रमण, और हाथ-पांवों के प्रतिक्रधरण को भी लिये किया जाता है । साथ ही वह टीकाकार के करता है । इसका कारण यह है । संदर्भ 10. षट्खण्डागम पु. 1, सूत्र 16-18. आराधनासा गा. 13-15. 3. अाराधनासार वृत्ति 13. __ भगवती आराधना 2., मूलाचार (4-2) में इन चारों को वीर्याचार के साथ 'पंचाचार' रूप में ग्रहण किया गया है। संक्षेप में इन चारों आराधनाओं व उनके व्यवहार एवं निश्चय स्वरूप के जानने के लिये आराधनासार की 2-10 गाथायें द्रष्टव्य हैं। 6. मूला. 3-11. मूला. 2, 64-65. स्व्यम्भू स्तोत्र 34. मूला. 2-67. आराधनासार 17-19. 11. परमात्मा प्रकाश 1-14. भ. प्रा. मूला. टीका 26. 13. भ. प्रा. विजयों, टीका 26. 14. भ. प्रा. मूला, टीका 26; भ. पाराधना 2078. उत्तरा. चूणि पृ. 128; भ. प्रा. विजयों टीका 26; समेवा. अभय वृत्ति 17. भ. प्रा. विजयों टीका 26. 19. मूला. 2-23. 20. मूलाचार 2, 37-41. मूला. 2, 1-20. 22. मूला. 2-21. 23. इन अ दि 40 अवस्थाओं का निर्देश अनगारर्मामृत (7-99) में करते 12. (3/52 ) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए वहां स्वो. टीका भ. प्रा. के अनुसार उन्हें स्पष्ट भी किया गया है आराधमासार 22-23. प्रा. सार 24-29. प्रा. सा. 30-33. 27. प्रा. सा. 34-39. प्रा. सा. 40-46. 29. प्रा. सा. 47-52 (गा.49-51 की टीका में क्रम से उन शिवभूति आदि की कथायें भी दे दी गई हैं)। 30. प्रा. सा. 53-57. 31. प्रा. सा. 58-75 32. प्रा. सा. 76-86. 33. मूला. 2, 24-33 व 2-35. 34. मूला. 2-34. 35. मूला. 2-36. 36. मूला. 2-61. 37. मूला. 3-11. 38. आराधनासार 107-9. 39. मूलाचार 3, 1-9 मूलाचार 3, 13-14 ( 3/53) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनों में मोक्ष चितन डा० उदयचंद्र जैन वेद और उपनिषद में मोक्ष विज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से होता है। पुरुष वस्तुतः शुद्ध-चैतन्य रूप है। "मोक्षः बन्धविच्छेदाद्भवति" वेदों में दुःख निवृत्ति के नाम को मोक्ष कहा मोक्ष बंध के नष्ट होने से होता है। पुरुष प्रकृति है । यह ही परमपद है। इस परमपद की प्राप्ति से अपने को भिन्न न समझने के कारण संसार में होते ही सुख-दुःख, ज्ञान, अज्ञान, कुछ भी नहीं रह परिभ्रमण करता रहता है । सुख-दुःख एवं मोह को जाता है । पवित्र कर्म और शुद्ध प्राचार पर वेदों प्राप्त होता रहता है । परन्तु प्रकृति को पुरुष शुद्धमें विशेष जोर दिया है। परमपद की प्राप्ति के चैतन्य रूप देखने लगता है, तब प्रकृति की प्रवृत्ति लिए पवित्र पाहार, शुद्ध पान एवं निश्चल पवित्र अ विचार प्रावश्यक माने गये हैं। "पात्मन्येव लयं रुक जाने के कारण पुरुष अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप मुक्तिमाचक्षते" अर्थात् ब्रह्म में लय हो जाना ही में स्थित हो जाता है। पुरुष का शुद्ध चैतन्य में मुक्ति है। स्थित हो जाने का नोम मोक्ष है । "बंधाच्च प्रेत्यसंसरणरुपः संसारः प्रवर्तते ।" उपनिषदों में ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया , बंध से परलोक में जन्म लेना आदि से संसार का गया है। ज्ञान योगाभ्यास एवं तपस्या से उत्पन्न जन्म-मरण का चक्र चलने लगता है। पुरुष न तो होता है । ज्ञान से विषय-वासना नष्ट हो जाती है कारण रूप है, न कार्यरूप ही है। अतः उसका न और विषय-वासनाओं के नष्ट होने के उपरांत तत्त्व- बंध होता है, न मोक्ष है और न संसार है। ये सब ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। और तत्त्वज्ञान के बंधादि तो प्रकृति के ही होते है । सांख्यकारिका में प्राप्त होते ही एवं शरीर के छूटते ही मुक्ति की कहा हैप्राप्ति हो जाती है। तस्मान्न बध्यते नैव मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । सांख्यदर्शन में मोक्ष-- संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति ।।62।। "प्रकृतिवियोगः मोक्षः" प्रकृति के वियोग का अर्थात् पुरुष न बंधता है, न मुक्त होता है, न नाम मोक्ष है । यह मोक्ष प्रकृति तथा पुरुष में भेद- संसार ही होता है । प्रकृति ही बंधती है, छूटती है (3/54) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा संसार में परिभ्रमण करती है। बंधादि तो को आधिदैविक, आधिभौतिक, एवं प्राध्यात्मिक पुरुष में प्रकृति के संयोग से कहे जाते है। इसलिए दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। इसके बाद पुरुष प्रकृति के वियोग का नाम मोक्ष है। वियोग से पूर्ण रहित हो जाता है । इस वियोग से रहित अवस्था का नाम ही योग दर्शन में 'कैवल्य' . सांख्य तत्त्व कौमुदी की यह कारिका दृष्टव्य (मोक्ष) है । ऐसी अवस्था में पुरुष स्वच्छ ज्योतिर्मय है, जिसमें पुरुष के कैवल्य (मोक्ष) की सिद्धि की स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। गई है न्यायदर्शन में मोक्षसंघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादि विपर्ययादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थं प्रवृतेश्च ।।17।। ____ जीवात्मा जब दुःख और दुःख के कारणों से रहित हो जाता है, तब वही जीवात्मा मुक्त कहइस कारिका पर विचार करने पर 'मुक्त' के लाने लगता है। इस मुक्त अवस्था (दुःख की पूर्ण निम्न अवयव सामने आते हैं-अनाश्चितत्व, अलि निवृत्ति) को अपवर्ग (मोक्ष) कहा है । शरीर, मनस् गत्व, निखयवत्व, स्वतन्त्रत्व, अत्रिगुणत्व, विवेकित्व, को लेकर छः इन्द्रिया तथा इन्द्रियों के छः रूप, रस प्रविषयत्व, असामान्यत्व, चेतनत्व, अप्रसवमित्व, प्रादि विषय एवं उनके रूपज्ञान, रसज्ञान प्रादि छः साक्षित्व, कैवल्य, माध्यस्थ, औदासीन्य, दृष्टुत्व ज्ञान तथा सुख-दुःख का प्रात्यन्तिक नष्ट हो जाने तथा अकर्तृत्व, ये सभी धर्म निर्लिप्त पुरुष में हैं। का नाम मोक्ष है । जैसा न्यायसूत्र में कहा है-- योगदर्शन में मोक्ष "प्रात्यन्तिको दुःखवियोगोऽपवर्गः।" 'चित्तवृत्तिनिरोधः योगः' चित्तवृत्ति के निरोध प्रर्थात् आत्यंतिक दुःख के वियोग का नाम का नाम मोक्ष है। इसी का नाम कैवल्य या मुक्ति अपवर्ग (मोक्ष) है। आत्यंतिक दुःख की निवृत्ति (मोक्ष) नाम है । अभ्यास के द्वारा संस्कारों का क्षय होने के साथ भविष्य के दुःखों की निवृत्ति भी हो हो जाने से प्रात्यंतिक लय में प्राप्त होकर 'विदेह- जाती है । इस अपवर्ग अवस्था में प्रात्मा अपने बुद्धि कैवल्य' को प्राप्त करता है। निरोध समाधि में आदि सभी विशेष गुणों से शून्य होकर शुद्ध प्रात्मलय । लय हो जाना ही योगियों की मुक्ति है। स्वरूप में स्थित हो जाता है। इस संसार में सुखवृत्तियों के निरोध से तत्त्वज्ञान होता है और दुःख। दुःख को पृथक कर त्याग करना असम्भव है। प्रतः की प्रात्यन्तिकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिए यह । दुःख छोड़ने की इच्छा से दु खमिश्रित सुख को भी कहा जा सकता है कि दुःख की प्रात्यंतिकी निवृत्ति छोड़ना ही पड़ता है । 'तस्मात्परमपुरुषार्थोऽपवर्ग:।' ही मोक्ष है । मुक्ति के विषय में पातज्जलि ने यह सच तत्त्व ज्ञानादवाप्यते (न्यायक पृ. 8) अर्थात् बात कही है इस संसार का उच्छेद करना परमपुरुषार्थ है, यही सत्त्वपुरुषंयोः शुद्धिसाभ्ये कैवल्यमिति ।" अपवर्ग है। इस अपवर्ग की प्राप्ति तत्त्वज्ञान से होती है। अर्थात् विवेकज ज्ञान प्राप्त होने पर बुद्विसत्त्व , वैशेषिक दर्शन में मोक्षतथा पुरुष की जो शुद्धि एवं सादृश्य है, वही कैवल्य ' है । विवेकज्ञान उत्पन्न होते ही क्लेशों के कारण "बुद्धिसुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्नभानाख्य संस्कारनष्ट हो जाते हैं । इन सबका लय हो जाने से पुरुष द्वेषाणां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः ।" ( 3/55) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, भावना नामक संस्कार और द्वेष इन श्रात्मा के नो विशेष गुणों का प्रत्यंत उच्छेद होना मोक्ष है । मीमांसक दर्शन में मोक्ष मीमांसक मत में भी दुःख की निवृत्ति को मोक्ष कहा गया है । शरीर इन्द्रियां और विषय बंधन के कारण हैं । इनका प्रात्यंतिक नाश होने से ही मुक्ति मिलती है । इसलिए दुःख के प्रात्यंतिक नाश होने का नाम 'मोक्ष' कहा गया है। ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार से रहित पुरुष अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । वैशेषिक इन्द्रियज और योगज इन दो प्रत्यक्ष प्रमाणों को मानता है । योगज प्रत्यक्ष के द्वारा अतीन्द्रिय तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है। कहा भी है। कि ये चात्यंतयोगाभ्यासोचित धर्मातिशयाद समाधि प्राप्ता यतीन्द्रियमर्थं पश्यंति, ते वियुक्ताः ।" अर्थात् जो योगी समाधि - उपयोग लगाये बिना ही चिरकालीन तीव्र योगाभ्यास के कारण सहज ही श्रतीन्द्रिय पदार्थों को देखते जानते हैं, वे वियुक्त कहलाते हैं । योगाभ्यास से विशिष्ट शक्ति की उपलब्धि हो जाती है, जिससे दुःखों की प्रात्यंतिक निवृत्ति भी हो जाती है और प्रतीन्द्रिय तत्त्वज्ञान की उपलब्धि भी हो जाती है । प्रतीन्द्रिय पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह वियुक्त योगज प्रत्यक्ष है । और इसी ज्ञान से बुद्धि, सुख, दुःखादि नौ गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जाता है । प्रतः आत्यंतिक दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है । पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है और इन्हीं कर्मों के फल भोगने के उपरांत वेद-विहित कर्मों पर चलने से सुखदुःखादि के नाश को प्राप्त हो जाता है । इसलिए तस्मात् निःसम्बंधो निरानंदश्च मोक्षः " अर्थात् सुख दुःख के सम्बंध से रहित, निरानंद मोक्ष कहा गया है । श्रतः " त्रिविधस्यापि बन्धस्यात्यंतिको विलयो मोक्षः " या " प्रात्यंतिकस्तु देहोच्छेदो मोक्षः ।" श्रर्थात् देह का प्रात्यंतिक उच्छेद का नाम मोक्ष है । संसार में परिशुद्ध सुख नहीं है । इसलिए जीव संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए कठिन तपस्या की ओर प्रवृत्त होते हैं । कठिन तपस्या से तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जाता है । श्रात्मज्ञान से धर्माधर्म संस्कारों का नाश हो जाता है, जिससे जीव 'मुक्त' होता है तथा संसार में उसे कभी नहीं आना पड़ता है । वेदांत दर्शन में मोक्ष चित्तवृत्ति को वेदांत में 'अज्ञान' कहा गया है । इस ज्ञान के समाप्त होते ही जीव और ब्रह्म का एक्य हो जाने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है । ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार करने पर साधक अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है और दुःख से सर्वदा के लिए छुटकारा भी प्राप्त कर लेता है । वेदांत में 'ब्रह्म' को श्रानन्द-स्वरूप कहा है । इस आनंद को पाकर साधक 'आनंदमय हो जाता है । यह प्रानन्द का साक्षात्कार नित्य है । मुक्तावस्था में सभी प्रकार की उपाधियों से रहित होकर 'ब्रह्म' के आनंद को प्राप्त कर लेता है । इस आनंद की उपलब्धि प्रारब्ध कर्मों के क्षय किये बिना नहीं मिलती है । इसलिए जीव जब तक पूर्वकर्म और किये जाने वाले कर्मों का क्षय करके तत्त्वज्ञान को प्राप्त नहीं हो जाता है, तब तक मुक्त नहीं कहलाता है । अत: अज्ञान, अविद्या, माया आदि के सर्वथा छूट जाने का नाम ही मोक्ष क्षय होने एवं शरीर के नष्ट सर्वथा मुक्त होता है । 1 प्रारब्ध कर्मों का होने पर ही जीव ( 3/56 ) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाक दर्शन में मोक्षः करते हैं) दुःख का नाश होता है, और दुःखों के भी नाश करने का उपाय है। संसार के माया जाल में चार्वाक दर्शन में मोक्ष को नहीं माना गया है। फंसे हुए लोग राग, द्वेष मोहादि विषय वासनामों चार्वाक का कथन है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर से नहीं छुट पाते हैं । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार सब कुछ नष्ट हो जाता है । तप, ध्यान आदि से और विज्ञान ये पांच स्कंध दुःख हैं, जिससे मुक्त कुछ नहीं होता है । क्योंकि जिसे प्रत्यक्ष नहीं देखा होने के लिए अष्ठांग-मार्ग का पालन करना आवहै, उसके लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। श्यक कहा गया है। क्योंकि इन नियमों के पालन "मरणमेवापवर्ग:" अर्थात् मरण ही मोक्ष है। करने से साधक दुःखों के निरोध को प्राप्त हो जाता है और बुद्धत्त्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता बौद्धदर्शन में मोक्ष बौद्धदर्शन में मोक्ष के लिए निर्वाण शब्द का इसलिए "दुक्खस्स वा अनुप्पाद निरोधपच्चयता प्रयोग किया है । जिसका अर्थ है बुझना है। अर्थात् दुक्खनिरोधंति" अर्थात् दुःख की निवृत्ति का नाम जिस साधना से समस्त कर्मास्रवों का क्षय हो जाता निरोध है, इसे ही निर्वाण कहा गया है । "निरुध्यते है, वह निर्वाण है । 'निब्बाणं परमं सुखं' निर्वाण रागद्वेषोपहतचित्तलक्षणः संसारोऽनेनेति करणेद्यजि, परम-सुखकारी है। यह "रागक्खयो, दोसक्खयो, मुक्तिरित्यर्थः” अर्थात् राग-द्वषादि से विकृत चिर मोहक्खयो, यह राग के क्षय से, द्वेष और मोह के रूपी संसार जिससे नष्ट किया जाता है, वह 'मुक्ति' क्षय से प्राप्त होता है। इस अवस्था में पहुंचकर है । या "नि क्लेशावस्था चित्तस्य निरोधः ।" अर्थात् साधक को न क्लेश होता है और न कोई नवीन चित्त की क्लेशरहित अवस्था को निरोध-निर्वाण धर्म की प्राप्ति होती है। कहते हैं। जैनदर्शन में मीक्ष-- संसार दुःखमय, दुःखों का कारण है (दुःख से । पीड़ित होकर उसके नाश करने का उपाय खोजा "बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः" निष्कर्ष रूप में सभी विचारकों के चितन करने के उपरांत यही कहा जा सकता है कि 'प्रात्म-कल्याण' का कारण ही मोक्ष है। यह मोक्ष पूर्णतया दुःख को निवृत्ति से ही प्राप्त होता है परन्तु एक बात विचारणीय यह है कि क्या दुःख की निवृत्ति ही मोक्ष है ? वास्तव में दुःख की निवृत्ति के अतिरिक्त बाह्य और प्राभ्यंतर दोनों ही तरह के प्रभावों से मुक्ति ही मोक्ष है। जन्ममरण प्रादि की समाप्ति का नाम भी मोक्ष है। यह पूर्णरूपेण रागद्वेष एवं मोह की समाप्ति पर ही संभव है । -एम० बी० कालेज उदयपुर विश्व विद्यालय, उदयपुर । (३/57) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् बंध के कारणों का प्रभाव और निर्जरा लोक के प्रति ममता आदि के संयोगों से रहित होकर के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मुक्ति की ओर उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं, वे असंयमित मोक्ष है । अथवा बंधे हुए कर्मों की निर्जरा (तप जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं। क्योंकि वे द्वारा कर्मों को क्षय करना) हो जाने पर कर्मों को समझते हैं-इमेण चैव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेरण "प्रात्यंतिको वियोगस्तु-अत्यन्त वियोग एवं देहादे- बज्झयो" अर्थात् जिसने अपने स्वरूप को र्मोक्ष उच्यते--शरीर आदि से सम्बन्ध छूट जाने समझ लिया है, वह अपने आभ्यंतर शत्रुओं के साथ का नाम मोक्ष है। शरीर, पांचों इन्द्रियाँ, प्रायु ही युद्ध करता है। बाहर के युद्ध से कुछ भी नहीं आदि बाह्य प्राण, पुण्य, पाप, रूप, गंध, रस, स्पर्श, मिलने वाला है ? इसलिए यह कहा जाता है - फिर से शरीर ग्रहण, स्त्री-पुरुष और नपुंसकवेद, कषाय प्रादि, परिग्रह, अज्ञान एवं प्रसिद्धत्व प्रादि भावविमुत्तो मुत्तो ण य, का क्षय हो जाना ही मोक्ष है।मोक्ष के लिए निर्वाण, मुत्तो बंधवाईमित्तेण । प्रव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध इय भाविऊरण उज्झसु गथं, भी कहते हैं। मभंतरं धीर । भाव.पा. 431 मुक्त कौन अर्थात् 'जो राग-द्वेष मोहादि से मुक्त है, वास्तव में वही मुक्त है, जो केवल बांधव, मित्रादि से मुक्त प्राचारांग में कहा हैं-"विमुत्ता हु ते जणा जे हैं वे मुक्त नहीं हैं । ऐसा विचार ज्ञान, दर्शन चरित्र जणा पारगामिणो" अर्थात् वास्तव में वे मुक्त पुरुष और तप से युक्त धीर-वीर श्रमण ही करता है । हैं जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पारगामी हैं। कर्म-बंधनों से मुक्त, शरीर से निरपेक्ष, द्वन्द्वरहित ऐसे मुक्त जीव अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनंतसुख ममतारहित, प्रारम्भरहित और प्रात्मलीन पुरुष और अनंतवर्य के धनी होते है । तथा लहइ निव्वाणं" निर्वाण को प्राप्त होता है । मोक्ष के भेद नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा।। एयमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई ॥ उत्त 28/3 1. भावमोक्ष 2. और द्रव्यमोक्ष ज्ञान, दर्शन, चारित्र, एवं तप मार्ग को प्राप्त भावमोक्ष-राग-द्वेष-मोक्ष के कारणों से कर्मों हुए जीव सुगति को प्राप्त होते हैं । राग, द्वेष, मोह का आस्रव होता है और प्रास्रव से कर्मों का बंध से रहित "लोयालोयपवंचायो" लोक (संसार) के होता है । बंधे हुए कर्मों को संवर और निर्जरा सभी प्रपंचों से छूट जाते हैं । इतना ही नहीं- (तप-ध्यान) द्वारा क्षय कर दिया जाता है। तब कर्म पुद्गलों से रहित होता हुअा जीव स्व-पर का भेद"दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं विज्ञान करने लगता है। इसी कई-बंधन मुक्त एवं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति नावखंति स्व-पर भेद-विज्ञान की अवस्था का नाम भावमोक्ष जीवियं। है। इस अवस्था में चार घातियाँ कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) का नाश हो अपितु "साधक संसार के दुःखों को जानकर, जाता है। (3/58) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यमोक्ष-आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय का अर्थात् सम्यग्दर्शन से सम्यज्ञान होता है, सम्य. क्षय होना द्रव्यमोक्ष है । द्रव्यमोक्ष तब तक कहा ज्ञान से समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है और जा सकता है जब तक जीव अपने शरीर का परि- और समस्त पदार्थों की उपलब्धि होने से यह जीव त्याग न कर दे। कर्तव्य और अकर्तव्य को जानने लगता है। जीव समीचन दर्शन के द्वारा सामान्य सत्तात्मक पदार्थों दिव्य शरीर का सद्भाव रहने पर राग-द्वेष- को देखता है, सम्यग्ज्ञान के द्वारा द्रव्य और पदार्थों मीहादि से रहित एवं अनंतचतुष्टय ज्ञान से युक्त का जानता है एवं सम्यग्दर्शन द्वारा उनका श्रद्धान जीव की प्ररहंत अवस्था कही जाती है । इस अवस्था करता है तभी चारित्र सम्बन्धी दोषो को छोड़ता में विशेष ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की है। ये तीनों 'मोहरहियस्य जीवस्स' मोहरहित जीव अधिकता हो जाने से घातियाँ (तप-एवं ध्यान, संय- के होते हैं । ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र “च उहिं मादि से जिन्हें स्वयं पाता जा सके) कर्मों का क्षय समाजोगे मोक्खो, चारों के समागम होने पर मोक्ष हो जाता है । अघातियां (जिन्हें तप प्रादि के द्वारा होता है । इसलिए कहा भी जाता हैक्षय नहीं किये जा सके) कर्मों का क्षय होने से ही जीव सिद्ध कहलाता है। गाणं सारस्य सारो-सारो वि, परस्स होइ सम्मत्तं। मोक्ष के साधन सम्मत्तामो चरणं चरणामो सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र ये तीन होइ णिव्वाणं॥ मोक्ष के साधन कहे गये हैं । मात्र सम्यग्दर्शन मोक्ष । दर्शन पा. 391 का साधन नहीं है । न मात्र सम्यक्ज्ञान या सम्यक्चारित्र । तीनों की प्रधानता से तीनों के योग से ही अर्थात् सर्वप्रथम मनुष्य के लिए ज्ञानसार है मोक्ष की प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शन को श्रेष्ठ- और ज्ञान से भी अधिक सार सम्यग्दर्शन है, क्योंकि रत्न एवं मोक्ष की प्रथम सीढी भी कहा है। सम्यग्दर्शन से सम्यक्चारित्र होता है और सम्यक्यथा चारित्र से निर्वाण होता है । "सारं गुणरयणाणं सोवाणं, प्रतः यह कहा जा सकता है कि रत्नत्रय मोक्ष पढममोक्खस्स" |भा. पा.1461 के साधन हैं जिससे जीव अनुपम गुणो को धारण करता है और अंत में शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त हो अर्थात् सम्यग्दर्शन गुण रूपी रत्नों में श्रेष्ठ है जाता है। तथा मोक्ष की पहली सीढ़ी है । क्योंकि 'दंसणभटस्स णत्थि णिव्वाणं-सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य को मोक्ष प्रवस्थामोक्ष नहीं होता है इसलिए तीनों की वास्तविकता को जानना आवश्यक है । यथा शुद्धात्मावस्था से युक्त जीव जन्म-मरण से रहित है, उत्कृष्ट है, पाठ कर्मों से मुक्त है, शुद्ध है, ज्ञान, सम्मत्तादो गाणं गाणादो सव्वभाव उवलद्धी। दर्शन, चारित्र और तप रूप गुणों के स्वभाव से उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ।। रहित है, अक्षय है, अविनाशी है, अभेद्य है। (3/59) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्याबाध, अतीन्द्रिय अनुपम, · पुण्य-पाप से इन्द्रिय, उपसर्ग, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, निर्मुक्त, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल कर्म, नोकरी, चिन्ता, प्रार्त-रोद्रध्यान, और धर्म्य और पालम्बन से रहित है । निर्वाण (मोक्ष) शुक्ल कुछ भी निर्वाण अवस्था में नहीं होते हैं । अवस्था में इसलिए यह कहा जाता है रिणव्वाणमेव सिद्धा-सिद्धा, रणवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि, पीडा णेव विज्जदे बाहा। णिव्वाणमिति समुद्दिट्ठा । णवि मरणं णवि जणणं, कम्मविमुक्को अप्पा गज्छइ, लोयग पज्जंत ॥निय-1830 तत्थेव य होइ रिणव्वाणं ॥ अर्थात् निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही '' अर्थात् न दुःख है, न सुख है, पीडा है न बाधा निर्वाण हैं । कर्म से विमुक्त प्रात्मा लोकाग्रपर्यंत है, न मरण है और न जन्म हैं। इतना ही नहीं, जाता है । "वैशाली जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता। जिसे ढूठता देश आज, उस प्रजातन्त्र की माता ॥ रुको, एक क्षण पथिक वहाँ, मिट्टी को शीश नवाओं। राजसिद्धियों की समाधि पर, फूल चढ़ाते जाओ ।। - राष्ट्र कवि दिनकर ( 3/60) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड 1. 2. 3. 5. 6. 7. 4. कैसी संस्थायें कैसा काम धर्म की प्रभावना कैसे करें राजस्थान की कतिपय संस्थायें पंच कल्याणक महोत्सव आरोग्य का मूर्तिमान स्वरूप जैनाचार्य 8. उत्तर भारत का एक आकर्षक जैन केन्द्र नाज का युग इनकी पवित्रता को बचाइये सेवा संस्थायें श्री प्रतापचन्द जैन श्री श्रेयांस जैन श्री बुद्धिप्रकाश भास्कर श्री राजेश सोगारणी श्री बंशीधर शास्त्री श्री अक्षय जैन श्री के० सी० जैन श्री बाबूलाल जैन 1 6 7 9 13 17 20 22 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत का एक आकर्षक जैन केन्द्र-फीरोजाबाद प्रतापचन्द्र जैन ई० सन 1566 में बसा अकबर कालीन एक और कलाकार आते हैं। उन दिनों की धार्मिक छोटा सा गांव, जहां पक्का कुआ तक नहीं था चेतना देखते ही बनती है। सम्मेलनों, समारोहों और जहां की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति और गोष्ठियों की धूम मचती है। यह मेला लगबंजारों के काफिलों के आने पर ही हो पाती थी, भग 150 वर्ष पुराना है, जो रामलीला ग्राउन्ड के अाज दिल्ली कानपुर रेल मार्ग एवं ग्रान्ड ट्रक रोड़ पास ही विशाल भूखण्ड पर लगता है और पाठ पर आगरा से 28 मील फिरोजाबाद के नाम से दिन चलता है। इसका शुभारम्भ कलकत्ता वाले भारत के मानचित्र पर एक दर्शनीय उद्योग एवं श्री हरसहाय हुलासरामजी ने किया था । सांस्कृतिक नगरी के रूप में दैदीप्यमान है। अब तो वह आगरा जनपद ही नहीं, सम्पूर्ण उत्तर इस मेले के अतिरिक्त और भी कई भव्य भारत के प्रमुख नगरों में एक है। यहां डेढ़ हजार समारोहों का आयोजन किया जाता है। लघु से भी अधिक जैनियों के घर हैं। उनमें अग्रवाल, 'जिगों के घर हैं। उनमें अग्रवाल. धार्मिक गोष्ठियां भी होती रहती हैं। यह सब यहां पद्मावती पुरवाल, खरौना, पल्लीवाल और लमेंचू की जैन समाज की सम्पन्नता का द्योतक तो है ही प्रमुख हैं । फिरोजाबाद-आगरा रोड़ पर एक ताल उसकी धार्मिक अभिरुचि और चेतना का भी है, जिसे इसी वर्ष (1566 में) राजा टोडरमल ने परिचायक है। खुदवाया था। वह राजा का ताल के नाम से संत विद्वानों की भूमि-यहां की भूमि को विख्यात है। उद्योगपतियों और धनपतियों को जन्म देकर ही यहां का जैन सांस्कृतिक मेला अपनी सन्तोष नहीं हुआ, अनेकों सन्त भी यहां हुए हैं। गरिमा, शालीनता, सजधज और चहल पहल के परमपूज्य ब्रज गुलाल मुनिराज की यह तपो भूमि लिए सारे भारत में विख्यात है। वह यहां की है। मुनिश्रेष्ठ प्राचार्य 108 श्री महावीरकीतिजी शान है, जिसमें दूर दूर से हजारों जैन स्त्री-पुरुष महाराज इसी नगर की देन हैं। जैन विद्वानों की आते हैं और यहां के बन्धुत्व भाव से गद्गद हो सतत धारा भी यहां प्रवाहित होती रही है। अपने अपने घरों को लौटते हैं। बाहर के अनेक मन्दिरों में पण्डाल भी लगते हैं, जो इस मेले की जैनागम के निष्णात विद्वान, कुशल वक्ता और विशेषता है। इस मेले में यहां के जैनेतर समाज महान तार्किक पं० पन्नालालजी न्याय-दिवाकर का भी जी खोलकर अपना सहयोग प्रदान कार्य क्षेत्र होने का गौरव इसी नगरी को है । करता है। इस अवसर पर एक विराट प्रदर्शनी संस्कृत, व्याकरण, जैन दर्शन और न्याय के एकभी लगती है जिसमें दूर दूर के सैकड़ों व्यापारी · निष्ठ धुरंधर विद्वान पं० माणकचन्दजी न्यायतीर्थ 4/1 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भी इसी स्थान को अपना स्थायी निवास बना सितम्बर 1970 में मेला भूमि के विवाद में उसने लिया था। वे अब हमारे बीच नहीं है परन्तु उल्लेखनीय कार्य किया था। अनेकों ने सत्याग्रह उनकी स्मृति चिरकाल तक बनी रहेगी। इनके कर जेल यात्रा तक की थी और विजय श्री प्राप्त अतिरिक्त मोहल्ला चन्द्रप्रभु में दिग० जैन पाठशाला की थी। उन दिनों का जोश देखते ही बनता था। के संस्थापक पं० धुरीलाल जी शास्त्री, धर्मरत्न ऐसी जीवटता का उदाहरण शायद ही अन्यत्र पं० लालारामजी शास्त्री कुशल लेखक कवि व मिले । वक्ता नई बस्ती स्थित जैन मन्दिर के प्रणेता पं० कुजबिहारीलाल जी शास्त्री, श्री चन्द्रप्रभु जैन मंदिर-मूर्तियां यहां का जैन समाज जहां मन्दिर में नित्य प्रति शास्त्र प्रवचनकार पं० ज्योति संस्कृति और उद्योग को अपना अनुपम योग देरहा प्रसाद जी तथा पं० सुमतिचन्द जी शास्त्री यहां हो है, वहीं वह जैन कला को भी विकसित कर अपना चुके हैं। वर्तमान में पं० श्यामसुन्दरलाल जी जैसे संरक्षण दे रहा है। यहां लगभग दो दर्जन विशाल विद्वान और श्री नरेन्द्रप्रकाश जी जैसे कुशल शिक्षक जैन मन्दिर हैं। इनमें जो मूर्तियां विराजमान हैं लेखक व वक्ता, पाण्डे श्री निवास जी सरलस्वभावी उनमें कई अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड़ की चतुर्थकालीन पं० रामस्वरूप जी, पं० कुजीलालजी, पं० जगरूप भव्य मूर्तियां भी सुरक्षित हैं। यहां के चन्द्रप्रभु सहाय जी जैन एम.ए., साहित्यरत्न और प्रो० मन्दिर का अपना अलग ही इतिहास है। विक्रम पी० सी० जैन यहां की कीर्ति को बनाये हुए हैं। सं० 1052 में बसा यहां से दक्षिण में चार मील दूर यमुना किनारे किसी समय एक समृद्ध राज्य कर्मठ कार्यकर्ता भी–सन्तों और विद्वानों था, चन्द्रवाड़। वहां के राजा चन्द्रपाल पल्लीवाल के अतिरिक्त यहां और भी कई जैन रत्न हो चुके जैन थे। ई. सं. 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने हैं। उनमें मृत्यु की जोखिम से खेलने वाले अपूर्व आक्रमण कर उसे ध्वस्त कर दिया था। जिसके सेवाभावी हकीम श्री नोबतराय जी, दरिद्रों के अवशेष आज भी अपने पुराने वैभव की याद दिला मसीहा स्वाध्याय प्रेमी सेठ अमृतलालजी रानी वाले रहे हैं। उस नगर के किले के भीतर जिनालय में राष्ट्रवादी बा० हजारीलाल जी. शिक्षा प्रेमी मुनीम स्फटिक मरिण की एक हाथ ऊंची 1008 श्री जयन्तीप्रसाद जी, ला. खूबचन्दजी, हकीम बाबूराम चन्द्रप्रभु भगवान की अमूल्य अलौकिक-सातिशय जी, अहिंसा प्रेमी सेठ मनोहरलालजी, धर्माभिमुख पद्मासन प्रतिमा थी। आतताइयों से बचाने के सेठ हुलासराय जी, कर्मठ कार्यकर्ता श्री कुन्दनलाल लिए उसे यमुना नदी में पधरा दिया गया जी, भा. हरिप्रसाद जी, बा. सुनहरीलाल जी, था। कालान्तर में वह वहां से निकाली गई जो श्री केसरमल जी खरिया, भू पू चेयरमैन हकीम एक चमत्कारिक घटना थी । वही मूर्ति आज गुलजारीलाल जौ और नगर के प्राण श्रावक चन्द्रप्रभू मन्दिर में विराजमान है। वह न केवल शिरोमणि सेठ छदामीलाल जी के नाम उल्लेखनीय इस नगर के जैनियों की श्रद्धा और उपासना का है। आज भी यह नगर कई कर्मठ समाज सेवियों से केन्द्र है, बल्कि देश के जैनियों का एक प्रमुख अलंकृत है । उनमें से कुछ हैं श्री विमलकुमार जी आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। चरित्र चक्रवर्ती जैन, चन्द्रभान जी मुख्तार, श्री माणकचन्दजी वैद्य, तपोनिधि प्राचार्य 108 श्री शान्तिसागर जी महाअद्भुत जीवन्त के धनी हकीम प्रेमचन्द जी और, राज ने इस मूर्ति के दर्शन कर भाव विव्हल हो श्री प्रेमचन्द जी खरिया आदि । वास्तव में तो यहां कहा था "यह नगर धन्य है । भारत में इस प्रकार की सारी जैन समाज ही बड़ी कर्मठ है । अगस्त- की दूसरी मूर्ति नहीं है ।" यदि मैं कहू कि माज 4/2 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबाद जैन समाज का जो भी वैभव है वह प्रौषधालय-औषधि दान में भी यहां का इन्हीं चन्द्रप्रमु भगवान का फल है तो कोई अति- जैन समाज पीछे नहीं है। उसकी अोर से यहां शयोक्ति नहीं होगी। स्व. सेठ छदामीलाल जी का तीन धर्मार्थ औषधालय चलाये जा रहे हैं। ये हैं जैन नगर और वहा का मन्दिर तो वर्तमान शैली श्री मोतीलाल जैन औषधालय, श्री चन्द्र ग्रोषधाऔर कला का बेमिसाल अद्भुत नमूना है, जिसकी लय और चन्द्रप्रभु धर्मार्थ औषधालय । ये नगर चर्चा हम अलग से करेंगे। की अच्छी सेवा कर रहे हैं। यहां के कई जैन वैद्य __ शिक्षा क्षेत्र में भी अग्रणी-शिक्षा के क्षेत्र भी इस पुण्य-कार्य में जुटे हुए हैं सो अलग। में भी यह नगर पीछे नहीं है। यहां का पी० डी० मोतीलाल उद्यान-यहाँ एक ऐसे सार्वजैन इन्टर कालेज प्रदेश की शिक्षा संस्थानों में जनिक स्थान का प्रभाव बहत खटकता था, जहां प्रमुख स्थान रखता है। कालेज का भवन व द्वार बैठ कर यहां का नागरिक अपनी दिनभर की बड़े ही आकर्षक, भव्य और मनोहारी हैं । प्रतिभा थकान व चिन्ताओं को दूर कर सके । यहां की जैन के धनी श्री नरेन्द्रप्रकाशजी जैन यहां के सर्वप्रिय समाज ने विशेष कर स्व० सेठ छदामीलालजी ने प्रधानाचार्य हैं । श्री छदामीलाल जैन डिग्री मोतीलाल पार्क का निर्माण कराकर यह कमी भी कालेज और दिग. जैन कन्या इन्टर कालेज भी दर करा दी। नगर का शिक्षित तथा व्यापारी ऐसी ही उच्च स्तरीय संस्थाएं हैं, जिन पर यहां वर्ग यहां के स्वच्छ सुन्दर वातावरण में बैठ कर का जैन समाज गर्व कर सकता है। इनके अति- सुख शान्ति से अपने तनाव पूर्ण जीवन के कुछ रिक्त श्री दिय. जैन विद्यालय छोटी छपेटी, क्षण व्यतीत कर अपना मन बहला लेता है, खास पन्नालाल जैन विद्यालय गली लोहियान, प्राचार्य कर गर्मियों के तपते दिनों में । विमलसागर विद्यालय नई बस्ती, महावीर । नगर के गौरव सेठ सा० और जैन नगरविद्यालय नई बस्ती, महावीर विद्यालय अटावाला तथा दिग. जैन विद्यालय चौकी गेट आदि और भी। श्री श्री चन्द्रप्रभु जिनालय के अतिरिक्त यहां के प्रमुख अाकर्षण हैं स्व० सेठ छदामीलालजी और उनका कई प्राथमिक तथा नर्सरी स्कूल है, जहां लौकिक अद्वितीय मनोहारी जैन-नगर । यदि फिरोजाबाद शिक्षा के साथ साथ बालकों में धार्मिक संस्कार भी अंकुरित किये जाते हैं। के साथ इनका उल्लेख न किया जाय तो वह मात्र कांच और चिमनियों का ढेर रह जायेगा। सेठ धर्मशालाएं-यात्रियों की सुविधा के लिए छदामीलालजी इस नगर के प्राण थे, यहां की भी यहां की जैन समाज जागरुक है। इस हेतु शान थे। वे यहां के कणकण में बस गये थे। उनकी यहां पांच धर्मशालाएं हैं। ये हैं सैंट्रल उनके पूर्वज कभी चन्द्रवार के निवासी थे जब कि टाकीज के पास श्री मूलचन्द्र पुरुषोत्तम दिग. जैन वह एक समृद्ध राज्य था और वहां के राजा जैन धर्मशाला, श्री मुन्शी बंशीधर धर्मशाला गली थे। राजदरबार में इनके पूर्वजों को अच्छा लोहियान में, श्रीमती सरस्वती दिग. जैन धर्मशाला सम्मान प्राप्त था। चद्रवार के पतन के साथ वे अागरा गेट पर, श्री प्यारेलाल धर्मशाला कोटला भी फिरोजाबाद आ बसे। मार्ग पर तथा जद्दमल की धर्मशाला अटांवाला। यात्रियों को तो इन धर्मशालाओं से सुविधा मिली सेठजी का जन्म यहां १२ जून, सन् १८६६ ही हैं, स्थानाभाव की इस कठिन स्थिति में विवाह को हुआ था उनके पिताजी थे मोतीलालजी और बरातों के लिए भी ये वरदान सिद्ध हुयी है। मातु श्री कुन्दनबाई । वे पढ़े लिखे तो मामूली ही 4/3 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे परन्तु जहन के बड़े तेज थे और बचपन से ही संघर्षशील । धार्मिक शिक्षा उन्हें अवश्य मिली थी पं० पन्नालालजी न्याय दिवाकर से । वे संस्कार उनमें जीवन भर बने रहे । उनका विवाह १२ वर्ष की अवस्था में ही नव वर्षीया शरबती बाई के साथ हो गया था । तब तक उन पर से मां बाप का साया उठ चुका था । अत: उन्हें उस छोटी अवस्था में ही धनोपार्जन हेतु व्यवसाय में जुट जाना पड़ा और भाइयों के साथ कपड़े का काम शुरु कर दिया । इन्हीं दिनों यहां कांच की चूड़ियों का उद्योग शुरू हुआ तो वे उसमें श्रा कूदे । तीन साल फिरोजाबाद में कारखाना चला कर सन् १९२८ में वे उसे हिरमगांव उठा लाये और चूड़ियों की जगह कांच के बरतन आदि बनाने लगे । उनके पुरुषार्थ, उत्पादन के उच्च स्तर और व्यापार कौशल के फलस्वरुप कारखाना खूब चमका नियमित जीवन और भोजन शुद्धि के कारण स्वास्थ्य ने भी उनका खूब साथ दिया | पुण्य साथ था ही । Wealth ( धन ) और Health ( स्वास्थ्य ) दोनों ही उनके पास चरम सीमा में रहे । श्रहं से कोसों दूर, सादगी और शिष्टता की मूर्ति थे । १३ मार्च १९५७ को पत्नी भी साथ छोड़ गई। उन्हीं की स्मृति में श्रीमती शरबती देबी जैन धर्मशाला का निर्माण कराया जो कि सुन्दर, स्वस्य और धार्मिक वातावरण में सर्वश्रेष्ठ सुविधा पूर्ण है । सेठजी की दान शीलता विख्यात थी । राष्ट्रीय भावना से भी वे प्रोत प्रोत थे । पांच सौ रु० मासिक तो वे सन् १९३० में अकेले स्वतन्त्रता आन्दोलन में ही देते रहे । सन् १६४७ में उन्होंने साढ़े छः लाख रुपये से श्री छदामीलाल ट्रस्ट की स्थापना की जो उत्तरोत्तर उन्नत होता रहा और आज यह विशाल ट्रस्ट लगभग एक करोड़ रु० का मालिक है इसी ट्रस्ट से स्वर्गीय सेठजी ने जैन नगर की एक विशाल योजना बनाई जो श्राज उत्तर भारत का एक प्रमुख श्राकर्षण बना हुआ है बिजली की जगमगाहट से रात में इसकी शोभा अवर्णनीय हो जाती है । यहां एक विशाल जैन मन्दिर है । उसके सामने सरोवर फव्वारे और मनमोहक फूलों की क्यारियां हैं । मानस्तम्भ की छटा अलग ही है। कानजी पुस्तकालय, वर्णी स्वाध्याय कक्ष, आधुनिक सुविधा सम्पन्न अतिथि गृह और सुन्दर धर्मशाला भी यहां है । जैन मन्दिर तो सफेद पाषाण से निर्मित्त स्थापत्य कला का एक ऐसा सुन्दर अद्भुत नमूना है जो प्रतिवर्ष हजारों यात्रियों और देश विदेश के पर्यटकों एवं सैलानियों को आकर्षित करता है । प्रवेश द्वार को देख कर ही यात्री विस्मित रह जाता है, भीतर जाकर तो वह वहां के स्वच्छ सुन्दर वातावरण में बिल्कुल खो जाता है । इस जैन नगर से युगों युगों तक स्वर्गीय सेठजी की यशोकीर्ति बनी रहेगी । इसके भावी रख रखाव के लिए दर्जनों दुकानें बनवा कर स्थायी समुचित व्यवस्था कर देना उनकी दूरदर्शिता का नमूना है । भ. बाहुबली की विशाल मूर्ति — फिर भी सेठजी की एक तमन्ना रह गई, श्रवरण बेलगोला स्थित भगवान बाहुबलि की विशाल भव्य मूर्ति के दर्शन करने पर वैसी ही मूर्ति जैन नगर में भी प्रतिष्ठित कराने की, क्योंकि दक्षिण में तो कौर्कन और बैलूर में ऐसी मूर्तियां और भी हैं परन्तु उत्तर भारत अभागा रह गया था । अपनें व्यापार व्यवसाय से सन्यास ले वे इसी पुनीत कार्य में जुट गये। इसी बीच इनके लोकोपकारी कार्योंसे प्रभावित हो २० अक्टूबर सन् १९७२ में सप्रूहाउस नई दिल्ली में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया और उन्हें शिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया। मकरातें में एक विशाल शिला खण्ड खोजा गया। वह मिल भी गया और काम शुरु होगया । मूर्ति भी बन गई परन्तु दुर्भाग्य से वह खण्डित होगई । लेकिन सेठजी के दृढ संकल्प ने इस 4/4 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्मान्तक वेदना से हार नहीं मानी। वे चल पड़े समस्या थी। उसमें भी लाखों का खर्च था । वे दक्षिण की ओर । कर्नाटक प्रदेश में कौंकल के यह भी चाहते थे कि प्रतिष्ठा के दिन जन हित निकट मंगलपादे नामक पहाड़ी से दूसरा उपयुक्त का कोई ऐसा काम भी किया जाय जिससे लाखों शिला-खण्ड मिल गया । वही सुप्रसिद्ध शिल्पी अभावग्रस्त लोग लाभान्वित हों। गति न्यारी सेठजी श्रीरेंजाल गोपाल रोण की देख रेख में मूर्ति का की नृशंस हत्या । निर्माण पुनः प्रारम्भ हो गया। लगभग डेढ़ वर्ष में परन्तु कर्मन की वह शुभ दिन वे देख ही नहीं ३५ कुशल कारीगरों द्वारा वह पूरी हुयी। इस पाये । १२-१३ जनवरी १९७६ की काली रात्रि में निर्माण कार्य के लिए दो लाख रुपये न्यौछावर के उस श्रावक-शिरोमणि उत्तर भारत के चामुण्डराय रूप में दिये गये। एवं ग्लास किंग ऑफ इन्डिया की निर्मम हत्या हो गई । सारा नगर विलखता रह गया। मूर्ति जब बन गई और उस विराट कार्य का एक भाग पूरा हुआ तब दूसरी महती समस्या थी सेठजी की विरासत-सेठजी अपनी विरासत उसे कार्कल से फिरोजाबाद लाने की। लगभग में बहुत कुछ छोड़ गये हैं। विशाल चल अनल साढ़े तीन हजार मन भारी ४५ फुट लम्बी इस सम्पति, अनेक जनोपयोगी संस्थाये और लोक विशाल मूर्ति को २५०० कि. मी. की लम्बी यात्रा कल्याणकारी भावनायें। उत्तराधिकारी के रूप में कराकर सुरक्षित ले आना कोई खेल नहीं था। छोड़ गये हैं । विमल कुमार जैसे योग्य होनहार बड़े ही जोखिम और श्रम साहस का काम था वह । व्यक्तित्व को प्राशा हैं वे उनकी कीति को सरसेठजी की सूझ बूझ और उनके पुण्य प्रताप से वह सब्ज और अक्षुण्ण बनाये रखेंगे। बिमल बाबू काम भी पूरा हुआ और १२ जून सन् १९७५ को उस अथाह शोक से सम्हलते ही इस विराट जटिल मूर्ति फिरोजाबाद सही सलामत ले पाई गई, जहां काम में लग गये। उनके अथक परिश्रम से २ मई उसका अभूतपूर्व ऐतिहासिक स्वागत हपा। रेल १६७६ को वह मूर्ति निर्धारित वेदिका पर भाड़े के रूप में ही दो लाख दस हजार रुपए खर्च सुरक्षित खड़ी करदी गई। इस कार्य पर भी कई हुए जबकि रेलमंत्री श्री कमलापतिजी त्रिपाठी लाख रुपए खर्च हुए हैं। केवल मूर्ति को खड़ा ने भाड़े में ४०% की छूट देने की कृपा करदी थी। करने का ठेका ही बंबई की एक प्रसिद्ध फर्म को सड़क मार्ग के किराये, स्वागत और रख रखाव रख रखाव दो लाख रुपयों में दिया गया। उसे खड़ा करने के आदि पर ढाई तीन लाख रुपए और व्यय हए। लिए जो भीमकाय ढाँचा बनाया गया उसी में इसे कार्कल से मेंगलोर तक और हिरनगांव से कान्सट्रेक्शन के अनुसार २५ लाख रुपये लग गये। फिरोजाबाद तक लाने के लिए १३० टन वजन उसके लेजाने का खर्च अलग। उस दिन सेठजी तक ४५"४१३" के आकार की ६४ पहियों की का सुखद स्वप्न भी साकार होगया। अब केवल एक विशेष विशाल ट्राली तैयार कराई गई जिसे मूर्ति की प्रतिष्ठा शेष रह गई है। आशा है वह २५०-२५० हार्स पावर के चार ट्रकों ने मिलकर भी हो जायेगी । खींचा था। उस घड़ी सेठजी की प्रसन्नता का पारा- . सेठजी का पार्थिव शरीर भले ही नहीं रहा, वार न था। अब वे उसे यथास्थान खड़ी कराने और परन्तु उनकी कीर्ति अमर होगई । उनके पुण्य-पौरुष तत्पश्चात् उसे प्रतिष्ठित कराने की योजना पर ने उनकी क्रीड़ा और कर्मस्थली फिरोजाबाद को विचार करने लगे। इस विशाल मूर्ति को सही- भारत के नवोदित प्रमुख जैन केन्द्र के रूप में सदा सलामत खड़ा करादेना तीसरी महान् जटिल सदाके लिए प्रतिष्ठापित कर दिया है, धन्य थे वे । 415 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१] अय महावीर महावीर महावीर तुमने जीवन भर सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया नारा दिया जियो और जीने का लेकिन आज सुनते हैं नया नारा पियो और पीने का ॥ याज का युग प्राज न कोई सत्य है न कोई हिंसा है मौसम है खाने ये दस्तूर है इस जमाने का ॥ खिलाने का कैसे मिटेगी इस जग की पीर । अय महावीर महावीर महावीर (३) तुम जीवन भर (२) तुमतो कहते थे मानव कर्म से महान होता है । लेकिन आज सुनते हैं मानव कर्म से नहीं जन्म से महान होता है | इसीलिये उच्च जाति के लोग उच्च हैं । शेष नीचे के लोग मानवता का पाठ पढ़ाते रहे दानवता को भगाते रहे 4/6 तुच्छ हैं । तुमतो छुप्राछूत से दूर रहे और हरते रहे जग की पीर । D श्रेयांस जैन श्रौलिया व्याख्याता छतरपुर सारी दुनियां के कष्टों को मिटाते रहे प्रेम और बन्धुत्व को दुहराते रहे । लेकिन आज मानव सिर्फ तुम्हारी जयन्ती मनाता है साल भर को छुटकारा पाता है दूसरे दि रंगरेलियाँ मनाता है । भूल जाता है थे कोई महावीर हरी जिन्होने दुनियाँ की पीर । अय महावीर महावीर महावीर य महावीर महावीर महावीर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी पवित्रता को बचाइये - 0 बुद्धिप्रकाश 'भास्कर' साथी भास्कर जी ने मन्दिरों की पवित्रता का प्रश्न बड़े दर्द के साथ उठाया है। आये दिन यह प्रश्न हमारे सामने आता रहता है और हमसे हल चाहता है । - सम्पादक दिसम्बर का महीना था। अर्द्ध वार्षिक परी- इस व्यवस्था का जन्म कब हुआ? कैसे हुआ? क्षायें चलंरहीं थीं इसलिए स्कूल सुबह जल्दी जाना इसकी गहराई तक मैं जाना नहीं चाहता, जाकर पड़ता था। स्कूल जाने से पूर्व सभी नियमित कार्यों करना भी क्या है, वह तो गड़े मुर्दे उखाड़ना है। से निवृत हो जाना भी आवश्यक था, अतः दर्शन समस्या तो वर्तमान की है, अतीत से क्या लेनदेन ? निमित्त मन्दिरजी भी जल्दी ही चला गया, वैसे मैं उक्त सेवक प्रथा के कारण आज हमारी मन्विर जी जल्दी जाया नहीं करता, क्योंकि जल्दी जाने पर, वहां उपस्थित भक्त जनों के भक्ति भरे। प्रास्था के केन्द्र जिनसे हमें वीतरागता का सन्देश पालापों के शोर में अपना काम बन नहीं पाता। मिलता है, गृहस्थी के धर बन गये हैं। आप मेरी उस दिन जल्दी गया तो देखा कि पूजा के समय बात से सहमत हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता धूप के निमित्त तैयार की गई आग की अंगीठी में पर तथ्य यह है कि इन सेवकों का पूरा परिवार मन्दिर जी के ही भवन में रहता है। परे परिवार चाय तैयार हो रही थी। मन्दिर जी के प्रांगण में से मेरा यहां व्यापक अर्थ है, दोदों तीन तीन दंपत्ती चाय ? हाँ साहब बात एक दम सही है । रहते हैं। वे सारे गृहस्थाचार के कर्म करते हैं, इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं सोचने उनके बाल बच्चे भी होते हैं और आपकी सेवा लगा हमारे इन मन्दिरों की प्रचलित व्यवस्था पूजा के समय के बाद मन्दिर उनकी सम्पत्ति है । पद्धति पर। सफाई व चौकसी के लिए, हमारे वे उनके प्रांगन में गेह सूखायें या लाल मिर्च । मन्दिरों में सेवक रखने की प्रथा चली पा रही है। उनके बच्चे वहां से पतंग उड़ायें या ताश खेलें, सेवक की माजीविका के लिए मन्दिर में पाट पर है कौन उन्हें रोकने वाला ? मन्दिर में यदि पंखा चढ़ने वाला सारा चढ़ावा, चाहे वह पूजा की __ लगा हुआ है (जो प्राज अधिकांश मन्दिरों में है) सामग्री के रूप में हो या नकदी के रूप में, उसे तो दिन की नींद भी वहीं निकलेगी। वे जायें भी दे देने की प्रथा है। वेतन के रूप में भी उसे कुछ १ तो कहां, उनका तो घर बार वही तो है । न कुछ मिलता ही है। मन्दिर जी से लगे प्रत्येक परिवार से उसे एक समय एक एक रोटी मिलने सोचना हमें है, क्या हम अपनी संस्कृति को की परम्परा भी चाल है। यही तो व्यवस्था है विकृत नहीं कर रहे ? वैष्णव मन्दिरों ओर जैन जयपुर के और उसके आस पास के मन्दिरों की। मन्दिरो के बीच की इस सूक्ष्म दीवार को क्या हम 417 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं तोड़ रहे ? शहरों की बात छोड़िये, दूर दराज के गांवों में जहां से जैन परिवार तो आगये और वहां के सेवकों ने उन मन्दिरों को अपना घर बना लिया । मूर्तियां उठाकर कहीं जलाशयों में फेंक दी गई या कहीं बेच दी गई, पर हमारी नींद नहीं खुल रही है । हमें अपनी इस व्यवस्था पद्धति पर नये सिरे से विचार करना होगा। मन्दिर जी में से आवासीय व्यवस्था समाप्त करनी होगी, बिना इसे समाप्त किए समस्या का कोई हल नहीं निकल सकता। दिन और रात के लिए निश्चित सेवा नियमों के अन्तर्गत हमें अलग अलग सेवक रखने होंगे । मन्दिरों के अलावा और संस्थानों में भी तो ऐसी व्यवस्था है । अन्त में कहना सही है कि हम समय रहते चेतें और मन्दिरों की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए कोई कदम उठायें । 515 बोरड़ी का रास्ता, जयपुर - 3 "ए नश्वर मनुष्यों ! अपने शरीर को घृणित आहार से अपवित्र करना बन्द करो । उदार पृथ्वी माता विविध भाँति की विपुल खाद्य सामग्री देती है तथा रक्तपात के बिना मधुर एवं शक्तिप्रद भोजन देती है । ..." तुम मांस छोड़ दो । मांसाहार के दोषों पर ध्यान दो । 4/8 पाइथो गोरस Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसी संस्थायें - कैसा काम ? D राजेश सोगाणी, लाड़पुरा, कोटा लेख को हम 'युवा आक्रोश' की अभिव्यक्ति कह सकते हैं, पर लेख का प्रत्येक बिन्दु गम्भीर रूप से विचारणीय अवश्य है। – सम्पादक पिछले 8-10 सालों में जैन समाज में एक क्यों बनती है ये संस्थायें :अभूतपूर्व जागृति देखने में आयी है, चाहे वो किसी संस्था का उद्भव क्यों होता है-यह इसका धार्मिक पक्ष हो, सामाजिक पक्ष हो अथवा एक अत्यधिक दिलचस्प प्रश्न है । सिद्धान्ततः किसी सांस्कृतिक पक्ष । जितने जलसे, उत्सव यहां आज संकल्पशाली व्यक्ति के द्वारा एक पवित्र लक्ष्य कल हो रहे हैं उतने पहले कभी नहीं हुए। कारणों की खोज की जाये तो मुख्य योगदान क्षेयीय, की पूर्ति के लिये अथवा सामाजिक संगठन या प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती हुई जैन धार्मिक चेतना या समाज सुधार के लिये संस्था का बीज बोया जाता है। संस्थानों की संख्या का ही प्रतीत होता है। इन सबके बावजूद भी यह स्पष्ट अनुभव किया जा रहा सभी संस्थानों के अपने निर्माण के कथित है कि इस हलचल और चारित्रिक निर्माण के बीच कारण क्रान्ति का प्राव्हान, वैयक्तिक व सामुदाएक बड़ी खाई है जो पटना तो दूर, अपितु बढ़ती यिक उत्थान आदि होते है। किन्तु वास्तविकता जा रही है। जैनियों में बढ़ रही बौद्धिक एवं कुछ और ही है। वास्तव में उपरोक्त वास्तविक नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात कहने के लिये उद्देश्य वाली संस्थाएं 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं नई नहीं रह गयी है। है। अधिकांश का आविर्भाव निम्न में से ही किन्ही संस्थायें व्यक्ति के ऊपर होती है तथा उनके कारणों से होता है :कार्यक्रम जैन और जैनेतर समाज में जैन संस्कृति 1. पहले से कार्यरत् किसी संस्था के विघटन से । का प्रदर्शन करते हैं। अतः संस्थाओं एवं उनके संचालकों का एक गुरूतर दायित्व हो जाता है। 2. समाज में सामाजिक, राजनैतिक, प्रभसत्ता चूकि वांछित प्रभाव द्रष्टिगोचर नहीं हो रहा है स्थापित करने के लिये । अतः यह एक गम्भीर विचार का विषय है। यहां 3. किसी व्यवस्थित प्रभावशाली संस्था की हम इन संस्थाओं के उद्भव के कारणों, उनके गतिविधियों का संगठित होकर सीधा विरोध कथित एवं वास्तविक उद्देश्यों तथा उनकी कार्य अथवा निन्दा, आलोचना कर उसे गिराने प्रणाली के परिप्रेक्ष्य में स्थिति की मीमांसा करेंगे। के लिये। 4/9 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. धन सम्पन्न होने के बाद समाजिक ( ? ) बनने व यश प्राप्ति की सहज मानवीय प्रवृत्ति के फलस्वरूप | 5. समान स्तर के व्यक्तियों के आपसी मेल-जोल एवं व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये । ( ऐसी संस्थानों का जैन संस्कृति से दूर का भी वास्ता नहीं होता ) 6. किसी संगठन, शक्ति या पंथ से भयाक्रांत होकर ढाल के रूप में प्रतिपक्षी शक्ति के निर्माण के लिये । 7. समय बिताने के लिये । दुर्भाग्य है, वर्तमान में कार्यक्रमों, समारोहों, जुलूसों, गोष्ठियों से समृद्ध अधिकांश आयोजनों के पीछे उपरोक्त एक या अधिक उद्देश्यों का होना पाया जाता है । क्योंकि मानवीय कमजोरियों से त्रस्त हम, धर्म के नाम पर जो कुछ भी करलें, कम है । लोग प्रखर एवं बुद्धिमान होते हैं । वे समझते नहीं हों, ऐसी बात नहीं है । वे देखते हैं, सोचते हैं, जड़ों तक खुदाई करते हैं । फिर उन उपदेशों से, जिनकों संस्थाओं के कर्णधार स्वयं नहीं चरितार्थ करते, समाज पर अपेक्षित प्रभाव कैसे पड़ सकता है ? व्यक्ति आयोजन से अधिक प्रायोजक का विश्लेषण करते हैं । वे वक्ता के प्रयोजन को aagra से अधिक महत्व देते हैं । समान अभिव्यक्ति में भी पवित्रता एवं कुटिलता का विभाजन करना समाज को अच्छी तरह प्राता है । कितना काम, कितना शोर : चूंकि प्रत्येक संस्था कुछ करने के लिये बनती है, अतः कुछ न कुछ करते रहना वह अपना धर्मं मानती है, भले ही उस काम का कोई उपयोग न हो । वे संस्थाएँ जो काम नहीं केवल शोर करती है अथवा विध्वंसात्मक कार्य करती हैं यहां विचारणीय नहीं है । किन्तु उन संस्थानों से भी किसी बौद्धिक एवं चारित्रिक विकास की या उपयोगी प्रभाव की प्राशा नहीं की जा सकती जो बड़े शानदार कार्यक्रम आयोजित करती तो दिखाई देती हैं पर संचालकों के आदर्श व्यक्तित्व प्रस्तुत नहीं करती, अपनी स्वयं की विचारधारा तर्कसंगत दृष्टि से प्रस्तुत नहीं करती तथा अपनी ईमानदारी का सशक्त उदाहरण नहीं देती । क्योंकि इस तथ्य को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति निन्दाप्रिय होने पर भी अंत में निंदक से घृणा करता है, अतः प्रभावकारी होने हेतु उक्त बातें आवश्यक है । सामान्य जनों में जैन संस्कृति के प्रति श्रश्रद्धा का भाव पैदा करने में बहुत हद तक वे संस्थाएं जिम्मेदार हैं जो जैन का लेबल लगाकर भी प्राधुनिकता की मदहोशी में अपने कार्यकलापों से जैन विचारणा को हो कलंकित करती हैं । नाट्यगृहों क्लबों, साँस्कृतिक मंचों, खेलकूद फोरम के रूप में कार्य कर रही अधिकांश जैन संस्थायें इसी वर्ग में श्राती हैं । अर्थ-प्रधान जैन समाज में यह संस्थायें भी अर्थ के प्रभाव से अछूती कैसे रहें ? अन्यत्र की भाँति यहां भी ज्ञान व सेवा भावना धन का अनुसरण करती नजर ाती हैं। कितनी संस्थाओं में आपने बुद्धिजीवियों को नेतृत्व करते देखा है ? यदि यह प्रश्न किसी संस्था को सभाध्यक्ष, मुख्य तिथि चुनने का है तो कार्यकारिणी एक मत से उस व्यक्ति का चयन करती है जो सिवाय मंच पर अन्य का लिखा पढ़ने एवं कुछ पैसा देकर संस्थानों पर अपनी पकड़ मजबूत रखने के और कुछ नहीं कर सकता । धन का होना अभिशाप नहीं है, किन्तु न वो इज्जत का कारण होना चाहिये और न ही हिकारत का सम्मान तो धन के साथ साथ व्यक्ति में उपलब्ध धर्म सेवा एवं समाज सेवा की भावना का ही होना चाहिये । चारित्र एवं नैतिकता का नारा लगाने वाली वे संस्थायें विद्वानों, बुद्धिजीवियों 4/10 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कार्यक्रमों में कितने प्रमुख स्थान देती है, कितना नकेल अपने हाथ में रख ये मंजे हुए नेता पर्दे के उनसे निर्देशन लेती है ? कथनी-करनी का यह पीछे रह कर अपने मत एवं विचार धारा का अन्तर किसी से छुपा नहीं है । पोषण करवाते हैं तथा अपना वर्चस्व कायम रखने के लिये युवाशक्ति का खुला दुरुपयोग करते हैं। ऐसे अर्थ-सम्पन्न व्यक्तियों का ज्ञान,धर्म एवं भावना उदाहरण जैन समाज में भी बहुलता से देखने में सम्पन्न व्यक्तियों पर वर्चस्व कायम रहता है। इस पा रहे हैं। अभी इस विषय पर अधिक लिखना वर्चस्व को सींचने वाली ये संस्थायें किस प्रकार संभव नहीं। नैतिक जागरण का दम भरती है, समझ में नहीं पाता । यह सहज मानवीय प्रवृति है कि ग्राम यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि युवाओं का आदमी पूजी प्रिय होने पर भी पूजीपतियो से दामन तो पाक साफ है । ऐसा बिल्कुल नहीं है। नफरत करता है। स्थिति को इस परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि सामाजिक, धार्मिक कार्यों में युवा "होश कम जोश ___ हर व्यक्ति अथवा गुट चूकि अपना झंडा अलग ज्यादा" की उक्ति चरितार्थ करते हैं। वस्तुतः गाड़ना चाहता है, अतः इस महत्वकांक्षा को पूरा युवक ही जागरूक हों व धर्म, समाज के क्षेत्र में भी करने के लिये येन-केन-प्रकारेण अजित की गयी समझदारी से काम लें तो उन्हें कौन बरगला जन शक्ति एवं धन से समाज में कार्यक्रमों का तो सकता है । हो सकता है, कुछ युवा संस्थायें उनकी अंबार लगा सकता है, किन्तु यह अंबार लगना अलग आड़ में खेले जा रहे असली खेल को न जानती हों, बात है एवं उनसे किसी चारित्रिक प्रभाव की किन्तु दोष किसका ? वे यह कह कर हाथ नही उपलब्धि होना अलग । झाड़ सकती कि हम तो कुछ समझते नहीं हैं। युवा संगठन, अन्धी तरुणाई, बहके कदम : सर्वहित एवं स्वहित में उन्हें समझना ही होगा, अन्यथा इसके घातक परिणाम की कल्पना करना __इधर संस्थाओं की बाढ़ ने एक नयी करवट कठिन नहीं है। ली है, वो है नित्य नयी युवा संस्थाओं का निर्माण। तो अब करें क्या ? यही प्रश्न है जिसका इनकी बढ़ोतरी चमत्कारिक है। एक ठीक-ठीक . उत्तर खोजना हैं। स्थिति विषम अवश्य हैं किन्तु जनसंख्या वाले शहर में 10 से 15 तक जैन युवा संस्थायें पायी जाती है । वैसे तो युवकों के वैयक्तिक असाध्य नहीं । सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनरुत्थान में संगठित होकर नीति या अनीति-समाधान सही चुनाव से : आगे आने से किसे प्रसन्नता नहीं होगी ? किन्तु ऐसी कई संस्थायें जिनका उद्भव ही और सस्थानों ___उपरोक्त विश्लेषण से प्रतीत होता है कि की तरह किसी अन्य प्रयोजन को लेकर हया है, मूलत: संकट नैतिक मूल्यों पर अनास्था का हैं । निश्चय ही आलोच्य हैं। एक बार संस्थायें यह आस्था जागृत करें, चाहे जबरदस्ती ही, तो निःसन्देह वे प्रभावकारी सिद्ध राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक पार्टियों की एक होगी। संस्था की उत्पत्ति एवं कार्यकारिता की या अधिक युवा विंग (Wings) होती हैं जो कि उपादेयता का अंकन निम्न चार बिन्दुओं से किया अपनी किसी स्वतंत्र विचार धारा से अनुप्राणितजा सकता हैं :न होकर संरक्षक पार्टियों के शीर्ष नेताओं द्वारा 1-क्या नई संस्था के गठन के बिना वांछित संचालित होती है। इस प्रकार इन युवकों की उद्देश्य की पूर्ति असंभव हैं ? यदि कोई संस्था 4/11 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उद्देश्य के लिए पहले से ही गठित हैं एवं निबद्ध कार्यरत हैं तो नई संस्था खड़ी करना अनुचित हैं । शक्ति, उत्साह एवं धन के बिखराव को रोकना ही श्रेयस्कर होता हैं । 2 – लक्ष्य का सवाल- यह सर्वाधिक महत्व का प्रश्न हैं। यहां निम्न पहलु विचारणीय हैं । प्रथम, क्या लक्ष्य सार्वजनिक महत्व का, सकारात्मक एवं स्वयं पर आधारित हैं ? द्वितीय, क्या लक्ष्य पूर्णत: परिभाषित, स्पष्ट एवं निश्चित हैं? तृतीय- लक्ष्य तात्कालिक हैं अथवा शाश्वत ? कभी-कभी यह भी देखा गया हैं कि लक्ष्य के नाम पर वहां सिर्फ क्षणिक भावावेश एवं उत्साह ही होता हैं । शाश्वत सत्य का आधार कोई शाश्वत चीज जैसे कि धर्म, मानवीय मूल्य आदि ही हो सकता हैं । व्यक्ति विशेष के सहारे खड़ी, चिरजीवी होने के सपने देखने वाली संस्था सनातन लक्ष्य को लेकर भी शीघ्र ही अधोपतन की ओर जाती है । 3 - कहीं संस्था की गतिविधियों पर लक्ष्मीपतियों का प्राधिपत्य तो नहीं हैं ? सरस्वती एवं चारित्र की कीमत का अंकन श्राज सबसे बड़ी श्रावश्यकता हैं । अर्थ प्रधान गतिविधियों से संस्थायें अपने स्वाभिमान, पवित्रता एवं निष्टा को प्रक्षुण्ण नहीं रख सकती । विद्वानों, बुद्धिजीवियों तथा सेवा भावी व्यक्तियों को आँखों पर बिठाकर संस्थायें वह काम कर सकती हैं जो शायद धनिकों के आश्रय से सम्भव न हो । 4 - कहीं संस्था सामाजिक एकता के नाम पर अनीति का समर्थन तो नहीं कर रही ? लगता हैं, वर्तमान परिस्थितियों में कथिक सामाजिक एकता की बात ही विसंवाद हैं । सत्य की लाश पर समाज संगठन की दुहाई देकर अनैतिक तत्वों एवं प्रवृत्तियों को प्रश्रय देना घातक आत्म प्रवंचना सिद्ध होगी । वहां न तो नैतिक मूल्य ही जीवित रहने वाले हैं और न ही संगठन । सत्य एवं संगठन को अलग २ दायरों में देखना भारी भूल हैं । धर्म व नीति से अनुप्राणित समाज एकता का समर्थन ही संस्था को उज्जवल रख सकना हैं । अन्त में एक बात और बुजु प्रा होश की बात भी बेमानी लगती हैं । सामान्यतया प्रौढ़ावस्था में, यदि व्यक्ति सतत सुचिन्तक न हो तो उसके विचारों जड़ता श्रा जाती हैं । उनकी कार्यप्रणाली एवं चिन्तन चक्र ढर्रे में बन्ध जाते हैं तथा उनके मित्रों एवं समान विचार धारा वालों का एक निश्चित वर्ग बन जाता हैं । अतः, प्रथम तो अधिकांशतः यह समाज प्रमुख खुले मस्तिष्क से सोच ही नहीं पाते, तथा फिर कहीं संस्था में कुछ गलत या अनैतिक भी महसूस करते हैं तो कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि इससे उनके समर्थकों व कार्यकर्ताओं के टूट जाने का पूरा पूरा डर रहता हैं । वे ये जानते हैं कि इन समर्थकों के बिना ( जो चाहे भ्रष्ट ही सही) उनकी महत्वकांक्षाएं पूर्णा नहीं हो सकती । कच्ची उम्र के पूरे होश में छिछोरे इन तरूणों से भी अधिक प्रांशा रखना संभव नहीं, क्योंकि कोई भी लच्छेदार बात, लोभ प्रथा बड़े बुर्जुगों का आग्रह उन्हें दिग्भ्रमित कर सकता हैं । अतः अब आशा का केन्द्र केवल वो संस्थायें बच रहती हैं, जिनका संचालन मध्यम वर्ग के 'युवा - बुजुर्गों' द्वारा किया जाता हैं । पूर्वाग्रह से रहित, उदारवादी मानसिकता से भीगी, किन्हीं भी अवरोधों से टकराने को तत्पर, सतर्क विचारधाराओं को अपनाने की सामर्थ्य लिए एवं समुचित उत्साह से कुछ नया कर गुजरने को आतुर ये कुछ अद्भुत ही वयः संधि होती हैं । देर सिर्फ दायित्व वहन करने एवं समर्पित होने की है । किन्तु उन्हें यह उपदेश देने कोई दूसरा नहीं आयेगा, स्वयं ही उनमें यह हूक समाजहित एवं आत्महित के विए पैदा हो तो बात बने । 4/12 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की प्रभावना कैसे करें ? 0 बंशीधर शास्त्री, एम. ए. लेखक महानुभाव ने बहुत ही समयोचित प्रश्न उठाया है । हम बहुत चाहते हैं कि आज के संतप्त मानव को देश विदेश में महावीर का कल्याणकारी सन्देश प्राप्त हो, वे उसे समझे; हम स्वयं भी उसे भली भांति समझ कर जीवन में उतार सकें। पर जो कुछ भी हम धर्म की अन्तरबाह्य प्रभावना हेतु करते हैं वह कितना फलदायी है यह विचारणीय है । - सम्पादक - बम्बई व अहमदाबाद में महावीर जयन्ती के इस सूत्र से प्रायः सभी परिचित हैं। मोक्षमार्ग अवसर पर समारोह के अंत में मन्दिर में उपस्थित में सम्यग्दर्शन का महत्व सर्व विदित है। सत् जनसमुदाय को चीनी के पेड़े दिए गए थे श्रद्धा बिना मोक्ष मार्ग ही नहीं बनता भले ही जिसे वहां 'प्रभावना' का नाम दिया गया था। आज कोई इसकी उपेक्षा करे । सम्यग्ज्ञदर्शन बिना कभी-कभी जैन मित्र में यह समाचार पढ़ने को ज्ञान व चारित्र 'सम्यक' विशेषण नहीं पाते । प्रागम मिलता है कि अमुक समारोह पर प्रभावना बांटी मार्ग तो यही है। वैसे इसकी उपेक्षा कर कोई गई। मैं सोचता है कि यह कैसी प्रभावना है ? सम्यग्दर्शन बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र की इससे क्या जैन धर्म की प्रभावना होती है ? मैंने सिद्धि करे तो वह उसका निजि मंतव्य हो सकता पहले मन्दिरों में इस प्रकार खाद्य पदार्थों के है न कि जैनाचार्यों का। वितरण को गलत परम्परा बताई थी। यह सम्यग्दर्शन के 8 अंग बताए गए हैं:-निशंकित 'प्रभावना' सम्यग्दर्शन के प्रभावना अंग की ही। निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, प्रतीक समझी जाती है। स्थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना । (चारित्र चाहे कुछ भाई इसे प्रभावना समझ कर ही। पाहुड़) वितरण करते हैं तो वे 'प्रभावना' का सीमित प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि उक्त आठ संकुचित अर्थ करते हैं, वे प्रभावना का वास्तविक अंगों में से किसी भी अंग से हीन सम्यग्दर्शन संसार स्वरूप एवं महत्व नहीं जानते । अत: इस लेख में की परंपरा को छेदने के लिए समर्थ नहीं है। 'प्रभावना' को समझने का प्रयास किया जा रहा ( रत्नकरण श्रावकाचार-21 ) इस कथन में है । तत्वार्थ सूत्रकार प्राचार्य उमास्वामी ने प्रथम 'प्रभावना' का मोक्ष मार्ग में कितना महत्व है सूत्र ही यह लिखा है : यह हमें स्पष्ट हो जाता है। यहां यह स्पष्ट कर सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । देना आवश्यक है कि इस 'प्रभावना' का बाह्य रूप 4/13 or Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय-समय पर बदलता रहा है। हमें वास्तविक 'प्रभावना' समझने के लिए विभिन्न प्राचार्यों एवं लेखकों द्वारा रचित 'प्रभावना' के उल्लेखों का भाव समझना होगा तभी हम उक्त प्रभावना के वर्तमान स्वरूप एवं उसमें कनीय परीवर्तन की श्रावश्यकता समझ सकेंगे । " प्राचार्य प्रवर] कुन्दकुन्द ने समयसार के निर्जरा श्रधिकार में प्रभावना अंग का स्वरूप इस प्रकार बताया है -: जो प्रारमा विद्या रूपी रथ पर चढ़ कर मन रूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है वह जिन भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है । वर्णी गणेशप्रसादजी ने उक्त गाथा का विशेपार्थ लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान की सम्पूर्ण शक्ति के विकास द्वारा ज्ञान की प्रभावना का जनक है अतः उसे प्रभावना अंग का धारी कहा है। इससे उसके निर्जरा ही होती हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार ने प्रभावना अंग का वर्णन इस प्रकार किया है : जो आत्मा भव्य जीवों के लिए दस प्रकार के निर्मल धर्म का प्रकाश करता है और भेदज्ञान से अपने आपको अनुभव करता है वह सम्यग्दर्शन का प्रभावना अंग है । (421) स्वामी समंतभद्र ने रतनकरण श्रावकाचार में अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने को प्रमुखता देते हुए लिखा है- अज्ञान रूपी अंधकार के प्रसार को यथा संभव उपायों के द्वारा दूर कर के जिन शासन के माहात्म्य को प्रकाशित करना प्रभावना है। (18) अध्यात्म प्रवक्ता प्रमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में प्रभावना का निश्चय एवं व्यवहार परक स्वरूप इस प्रकार लिखा है :--- रत्नत्रय के तेज से निरंतर ही अपनी आत्मा को प्रभावित करना चाहिए तथा दान, तप, जिन पूजा और विद्या के अतिशय के द्वारा जिन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। (30) सुप्रसिद्ध विद्वान पांडे राजमलजी ने सम्यग्दर्शन के आठों ही अंगों के अंतरंग एवं वाह्य (या स्क एवं पर) अपेक्षा दो-दो भेद किए हैं । कोई जीव मोहरूपी शत्रु के नाश होने से शुद्ध हो जाता है कोई शुद्ध से शुद्धत्तर हो जाता है और कोई शुद्धतम हो जाता है। इस प्रकार अपना उत्कर्ष करना स्वात्म प्रभावना है । विद्या मंत्र आदि के बल द्वारा तथा तप और दान यादि के द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष करना बाह्य प्रभावना अंग है । 3/311-313. पंडित टोडरमलजी ने अपने स्वरूप की व जिनधर्म की महिमा प्रकट करने को प्रभावना कहा है । (मोक्ष मार्ग प्रकाशक ) इस प्रकार उच्च कोटि के आचार्यों एवं विद्वानों ने स्वात्मा की प्रभावना को मुख्यता दी है. परात्मा व जैन धर्म की प्रभावना को बाह्य प्रभावना कहा हैं। अपने स्वरूप को शुद्ध, शुद्धत र एवं शुद्धतम बनाने की भावना पर जोर दिया गया हैं। आत्म कल्याण हो जाने से जैन धर्म की प्रभावना स्वतः हो जायगी। अन्य लोग सदाचारी मुमुक्षु के जीवन से प्रभावित होते हो हैं । अतः अम्रत चंद्राचार्य ने गृहस्थ को अपने जीवन में रत्नत्रय का तेज प्रकट करने की बात कही हैं, किंतु साथ ही अन्य लोगों में जैन धर्म की प्रभावना हेतु गृहस्थ के लिए दान, तप, जिन पूजा और विद्या की साधना करने का उपदेश दिया हैं। जो गृहस्थ न्यायोपार्जित धन को लोभ कषाय कम करने हेतु धार्मिक कार्यों में बिना किसी लौकिक कामना के उपयोग करता हैं तो उससे जैन धर्म की भी प्रभावना होती हैं। 4/14 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र तप विद्या प्रादि के द्वारा लोगों को अब धन को शोषण का फल समझा जाता है। अतः गरप की प्रेरणा दी जा सकती हैं या इन प्रदर्शनों से अन्ध समाज विशेषकर साधारण उनके तपोमय जीवन से स्व कल्याण की वर्ग पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। अतः जैन ग्रहण करते हैं यह वास्तविक प्रभावना समाज के विवेकशील वर्ग को सोचना चाहिये कि ज्यकाल में मंत्रादि के चमत्कार से भी लोगों जैन धर्म की प्रभावना के लिए हम क्या करें ? नावित करने की परंपरा रही हैं। अतः माज रथ, हाथी, घोड़े, चांदी के उपकरणो, हेलिकों की परंपरा में विकसित पाण्डे राजमलजी कोप्टर से पुष्प-वर्षा मादि के प्रदर्शनों का युग नही. को भी बाह्य प्रभावना का साधन बताया रहा। उदाहरण के लिए ईसाई समाज को लें। स्वत: मंत्रों का प्रभाव स्थायी नहीं होता। मैंने उन्हें ऐसे प्रदर्शनात्मक जुलूस निकालते हुए माशानुकूल फल मिले तो ठीक नहीं तो कभी नहीं देखा फिर भी वे ईसाई धर्म की कितनी प्रभाव समाप्त, जबकि फल कर्माधीन हैं। प्रभावना करते हैं यह सब ज्ञात है। वे दुःखी, मध्यकाल में अनेक ऐसे भट्टारक व विद्वान असहाय लोगों की सहायता करने एवं ईसाई जिन्होंने स्वात्म प्रभावना को गौरण कर दिया साहित्य के प्रचार में करोड़ों, अरबों रुपया प्रतिवर्ष जिन बिम्ब और चैत्यालय की स्थापना व्यय करते हैं जिससे उनकी प्रभावना स्वतः हो सदेव) पूजा, दान, विद्या (गुण भूषण) ग्रादि को हो जाती है । ईसा मसीह के साहित्य को बिना जवना कार्यों में मुख्यता दी। पद्मनंदी ने 15वीं र मूल्य वि मूल्य वितरित करते है ताकि लोग उनसे परिचित में रचित श्रावकाचार-सारोद्धार में अमृतचन्द्र हों। प्राज बाइबिल विश्व की सब भाषाओं में भावना संबन्धी श्लोक को उद्धृत कर प्रभावना मिलती है जब कि जैन साहित्य विश्व की सब तो निम्न कार्यों का और उल्लेख किया है : दूर-प्रमुख भाषामों-अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी आदितथा भारत की सब भाषाओं में भी नहीं मिलता। आज शास्त्रों का मर्थ व्याख्यान करके, विद्या दान प्रति वर्ष हमारा लाखों, करोड़ों रुपया ऐसे प्रदर्शनों र और पूजा प्रतिष्ठादि के द्वारा इस लोक में खर्च होता हैं जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं बन्धी फल की अपेक्षा नहीं करता हुआ जैन । __ होता। यदि यही रुपया साहित्य प्रचार या दीन सन का सत्प्रकाशन करे। दुखी की सहायता में लगे तो सच्ची प्रभावना हो । वस्तुतः ज्ञान के प्रसार से ही जैन धर्म की ची प्रभावना हो सकती है किन्तु मध्यकाल में अतः साधु एवं श्रावक दोनों को प्रभावना का मान, पूजा आदि के साथ बाहरी प्रदर्शनों पर भी सही मार्ग अपन,ना होगा। तभी जैन धर्म की और दिया जाने लगा। इन प्रदर्शनों में पंच सच्ची प्रभावना होगी। ल्यापक प्रतिष्ठा रथ यात्रा आदि का मुख्य रूप सहारा लिया गया। नगर में रथ यात्रा के मेरा विनम्र निवेदन है कि - समय चांदी के उपकरण, हाथी, घोड़े, पालकी, 1. साधु-त्यागी व्रती अपने पद की मर्यादा के जे आदि का प्रदर्शन होता था। उस समय अन्य अनुरूप ज्ञान-ध्यान में लीन रहें, वे गृहस्थों के कार्य लोगों पर जैन समाज के सदाचारी एवं धनी होने न करें: द्रव्य दान, पूजा गृहस्थ के कार्य हैं अतः का शुभ प्रभाव पड़ता था। उस समय धन को - वही उन्हें करे तो अच्छा है। साधु के ज्ञान-ध्यान शुभ कार्य सम्पन्न करने का फल माना जाता था इसलिए समाज के साधारण वर्ग पर अच्छा प्रभाव ही दर्शक-श्रोता भक्त को सद् मार्ग की प्रेरणा पड़ता था। अब धीरे २ युग बदलता जा रहा है। देते हैं। 4/15 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. गृहस्थ अपना आत्म कल्याण करते हुए ही संस्थाओं के पास लाखों रुपये का मुद्रित साहित्य अपने न्यायीपार्जित धन का ज्ञान-प्रचार, पात्र व पड़ा हुआ है, वह बिकता नहीं है। अगर वह दीन दुखी की सहायता एवं आवश्यकतानुसार बिक जाय तो दो लाभ हों, एक तो उस साहित्य की स्थापना-संरक्षण प्रादि सत्कार्यों में उपयोग का उपयोग हों एवं दूसरे अन्य साहित्य और प्रकाश करें इसी से जैन धर्म की प्रभावना होगी। गाजे में आवे । बाजे, हाथी घोड़े, हेलीकोप्टरों के प्रदर्शन से कोई टोडरमल स्मारक भवन के प्रभावना प्रेमीप्रभावना नहीं होती। सम्भव है आज भी कूछ । लोग इनसे प्रभावित हो सकते हैं किन्तु उनकी । __ कर्मठ का र्यकर्ताओं ने बाहुबलि महामस्तकाभिषेक के अवसर पर बिक्री के लिए लाखों रुपये का संख्या नगण्य ही होगी जब कि इससे कुप्रभावना साहित्य विशेषतौर पर प्रकाशित कराया, किन्तु अधिक होगी। वहां केवल बीस हजार रुपये का साहित्य बिका। 3. ज्ञान प्रचार में भी यह देखना चाहिये कि इससे ज्यादा खर्च तो वहां की व्यवस्था में ही हो वह जैन परम्परा एवं सिद्धान्त के अनुरूप हो। गया होगा। इस मेले में समस्त जैन समाज का यदि उससे विपरीत हा तो धर्म प्रचार के स्थान 100 करोड़ रुपये खर्च हुअा होगा। और वहां पर भ्रम प्रचार अधिक होगा। अभी lllustrated केवल 20 हजार रुपये का साहित्य बिके, यह Weekly (15-2-81) में लिखा है कि चामुण्डराय विचारणीय बात है। ने दूध, दही, शहद के हजारों कलशों से बाहबली का अभिषेक किया। शहद ? जैसे अखाद्य पदार्थ अतः प्रत्येक साधु एवं गृहस्थ का कर्तव्य है से अभिषेक करने के कथन से भ्रम प्रचार होगा कि वह अपना आत्म कल्याण करते हुए यथा या नहीं ? पाठक विचार करें। अतः प्रकाशित शक्ति औरों के अज्ञान को दूर कर जैन शासन अप्रकाशित साहित्य की विद्वानों द्वारा जांच भी की प्रभावना में योगदान देते हुए मोक्ष मार्ग में होनी चाहिये कि उनमें जैन सिद्धान्त एवं परम्परा आगे बढ़े एवं बाहरी अनावश्यक प्रदर्शनों से दूर के विरूद्ध तो नहीं लिखा गया हो । रहे । उक्त सारे विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 4. उदार मना साहु शांतिप्रसादजी, ब्र० जीव- मोक्ष मार्ग में मिठाई, हाथी, घोड़ों, हेलीकोपटरों राजजी आदि ने आज के युग की आवश्यकतानुसार से पूष्प वर्षा, बाजा-गाजा आदि प्रदर्शनों से प्रभाजैन साहित्य को सुसंपादित रूप से प्रकाशित कराने वना मान्य नहीं है अोर न उनका प्रभाव, यदि की महान योजना बनाई थी । इन दोनों की कुछ हो भी तो, अस्थायी होता है । जब कि ज्ञान संस्थानों से अनेक अलभ्य ग्रन्थ प्रकाशित होकर का प्रभाव स्थायी होता है जैसे भगवान महावीर सुलभ हो गए। आज नई पीढ़ी के धनिकों का के ज्ञान से गौतम एवं समयानुसार से श्री कानजी कर्तव्य है कि वे इन ग्रन्थों का अधिकाधिक प्रचार स्वामी प्रभावित हए और उन्होंने न केवल अपना करे ताकि नए-नए प्रकाशन और हों। आज दोनों अपितु अन्य लाखों का कल्याण किया । . . 4/16 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान की कतिपय संस्थायें 0 अक्षय जैन 'राजस्थान में समाज द्वारा जन सेवा' से सम्बन्ध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा व्यक्तिगत पत्रों में हमने सामग्री भेजने हेतु अपील प्रसारित की थी। प्राप्त सामग्री को लेखक ने संक्षिप्त रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है । यह हमारा प्रथम प्रयास है । भविष्य में सेवा के और कार्य भी, प्राशा है. सामने पायेंगे। - सम्पादक प्रकृति की स्वच्छन्द व सुरम्य लीला-स्थली सम्पूर्ण जीवन चिकित्सा को समर्पित करने वाले अरावली की पर्वत शृंखलाओं से आवेष्टित, कण जैन और उनके अन्यतम मित्र श्री महेन्द्रकुमार जी कण में स्वर्णाभा वाली मरुधरा ने हर युग में, राँवका, राजधानी के रोगियों के लिए धन्वन्तरी प्रताप, भामाशाह, पन्ना जैसी संतति को जन्म के अवतार रूप में विख्यात हैं। तथाकथित विशेदिया है। षज्ञ जिन रोगियों को निराश कर दे, उन्हें 'प्रारोग्य भारती' में वैद्य श्री सुशीलजी एक प्राशा आधुनिक इस आपाधापी के युग में राज की किरण दाता नजर आने लगते हैं । 'पआरोग्य नेताओं का चरित्र क्षीण हो गया है, छीना झपटी भारती' चिकित्सालय में वैद्य श्री सुशील जी व ही उनका व्यवसाय रह गया है, ऐसे में भी राज श्री महेन्द्रजी को दिखाने वाले रोगियों की लम्बीस्थान में यत्र तत्र नखलिस्तान की तरह वीर, लम्बी कतारे देखी जा सकती हैं। सारी चिकित्सा दानी और निस्स्वार्थ जन सेवकों की कमी नहीं है। निःशुल्क होती है। (क) आरोग्य के क्षेत्र में : गृहस्थ की व्याधियों की चिकित्सा के लिए जन सेवा का सबसे बड़ा माध्यम है-चिकित्सा। तो अनेक चिकित्सालय हैं पर व्रती, साधु व तपस्वी चिकित्सक सच्चे अर्थ में जन सेवक हो सकता है, जनों की चिकित्सा के प्रभाव को श्री सुशील जी ने यदि वह चिकित्सा को केवल व्यवसाय न समझे। ही समाप्त किया है। भारत में अपने ढंग की प्रान्त की राजधानी गुलाबी नगर जयपुर में अनेक एक मात्र संस्था "वैयावृत्य-भवन" में ऐसे प्रात्म धन्वन्तरी पुत्रों ने जन्म लिया है। असाध्य रोगियों साधकों की चिकित्सा ही नहीं अपितु पूर्ण सेवा के आर्तनाद से द्रवित होकर, राज्य सेवा से समय शुश्रुषा की जाती है। 'वैयावृत्य भवन' का संचालन से पूर्व मुक्ति लेने वाले वैद्य श्री सुशील कुमार जी श्री वैयावृत्य समिति जयपुर जो एक पंजीकृत संस्था जैन के नाम से प्राज कोई अपरिचित नहीं हैं। है, करती है। भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक 4/17 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अवसर पर श्राये साधुजनों की सेवा के लिए समिति के कार्यकर्ता गये थे । श्री सुशील जी के नेतृत्व में अनेक त्यागी वृतियों का वैयावृत्य किया गया । महामस्तकाभिषेक के अवसर पर आयोजित विद्वद् सभा में श्री सुशील जी को उनकी सेवाओं के लिए सम्मानित भी किया गया। जयपुर जैन समाज को इस पर गर्व है । आदर्श नगर में दि० जैन मुलतानी भाइयों के द्वारा संचालित - श्री महावीर कल्याण केन्द्र भी निःशुल्क चिकित्सा कर रहा हैं । इस केन्द्र पर श्री सुशील जी के प्रमुख शिष्य श्री अशोक गोवा मुख्य चिकित्सक हैं। श्री सुशील जी भी सप्ताह में दो दिन वहां जाकर निःशुल्क परामर्श देते हैं । (ख) विद्या संस्थान - (i) मालवा मेवाड़ के मध्य में एक सुन्दर मंगरी है प्रतापगढ़ | इस छोटी सी नगरी में श्री भट्टारक यशकीर्ति जी की प्रेरणा से वहां के समाज ने क्षेत्रीय आवश्यकतायों को देखते हुए, समाज के बालकों में सुसंस्कारों को पनपाने की भावना से भट्टा. यशकीर्ति दि०जैन छात्रावास और भटा०-यशकीर्ति दि० जैन माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की। दोनों ही संस्थायें लगभग 40 वर्ष से समाज की अच्छी सेवा कर रही हैं । सहयोगी संस्थाओं के रूप में रमण बहिन दि० जैन कन्या शाला, व्यायाम शाला और औषधालय भी जन सेवा में रत हैं । धार्मिक संस्कारों के लिए, साधना के स्थल के रूप में श्री सीमंधर जिनालय का भी वहां के समाज ने निर्माण कराया है । प्रतापगढ़ के समाज की गतिविधियां स्तुत्य हैं । (ii) राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी प्रादिवासी क्षेत्र में श्री जवाहर विद्यापीठ एक महत्वपूर्ण शिक्षण संस्था है । गत 40 वर्षों से समाज की यह संस्था सेवा कर रही है। इस शिक्षण संस्था में प्राथमिक स्तर से कालेज स्तर तक के शिक्षण की समुचित व्यवस्था है। महिलाओं को विभिन्न गृह उद्योगों का प्रशिक्षण देने के निमित्त एक महिला उद्योगशाला है । श्रासपास के ग्रामीण क्षेत्रों से ग्राने वाले छात्रों के लिए एक छात्रावास है । (iii) उदयपुर विश्व विद्यालय में, भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव पर उदयपुर व जयपुर के कार्यकर्त्ताओं द्वारा, श्री हिम्मतसिंहजी सरूपरिया, श्री फतेहलालजी हिंगढ़, श्री भंवरलाल जी कोठारी आदि दानी महानुभावों के सहयोग से डा० ए० एन० उपाध्याय के परामर्श से "जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग की 1978 में स्थापना की गई । इस विभाग की प्रगति के लिए डा० के० सी० सौगाणी सा० का निर्देशन व उनका सक्रिय सहयोग प्रशंसनीय है । विभाग ने माध्यमिक स्तर से लेकर बी० ए० तक के पाठ्क्रम में प्राकृत विषय को रखवाने में प्रशंसनीय कार्य किया है । प्राकृत एवं जैन विद्या के शोध कार्य के लिए विभाग पूर्ण सुविधाएं प्रदान करता है। विभाग के संदर्भ कक्ष में शोधार्थियों के लिए जैन विद्या एवं प्राकृत विषय पर अनेक दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध हैं । अपभ्रंश शोध योजना भी विभाग के विचाराधीन है । इस विभाग के सारे कार्यकलापों की देखभाल, विभाग के अध्यक्ष डा० प्रेम सुमन जैन कर रहे हैं, जो स्वयं जैन विद्या एवं प्राकृत के ख्याति प्राप्त विद्वान हैं । (ग) साधना के प्रायतन : पिलानी - शिक्षा के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है, सैकड़ों जैन विद्यार्थी भी वहां अध्ययन करते 4/18 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । व्यवसाय में लगे कतिपय जैन परिवार भी वहां रहते हैं पर इन सब के लिये प्रतिदिन 'देव दर्शन' जैसी आवश्यकता को पूरा करने वाला कोई जिन चैत्य वह नहीं था । गत फरवरी माह में जयपुर के भाई श्री जिनेश्वरदास जी जैन सहायक निदेशक ( इलेक्ट्रोनिक्स) ने अपने निवास स्थान D-11 ' सीरी कालोनी, पिलानी में एक जिन चैत्य की स्थापना करके एक बहुत बड़ी कमी को दूर कर दिया। जिन चैत्य में अष्ट धातु की 6 इन्च ऊंची भगवान शान्तिनाथ की पद्मासन प्रतिमा है । यह प्रतिमा 'अहिंसा मन्दिर' दरियागंज दिल्ली के अध्यक्ष श्री राजकिशोरजी जैन द्वारा उपलब्ध कराई गई है। श्री राजकिशोरजी इस प्रतिमा को दिल्ली से पिलानी स्वयं अपनी कार में लाये । पिलानी में प्रतिमाजी के आने पर भव्य स्वागत किया गया । श्री जिनेश्वरदासजी के निवास स्थान तक एक भव्य शोभा यात्रा द्वारा प्रतिमाजी को ले जाया गया । इस प्रकार राजस्थान प्रान्त में अनेक स्थानों पर जैन धर्म, जैन साहित्य आदि के प्रचार प्रसार निमित्त अनेक बन्धु सक्रिय हैं, वे सब बधाई के पात्र हैं । उपर्युक्त संस्थानों के अतिरिक्त अनेक संस्थाये और हैं, पर अभी केवल इतना - शेष फिर कभी । पुरुषार्थ की जय ईश्वरवादी मानते हैं कि अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख का स्वामी नहीं है । ईश्वर की प्रेरणा से वह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। महावीर ने प्रत्येक श्रात्मा को परमात्मा बन सकने की शक्ति से सम्पन्न माना है । अपने ही दुष्कर्मों से जीव दुर्गति का भागी होता है और अपने ही पुरुषार्थ से निर्वाण प्राप्त करता है । श्री कैलाशचन्द सिद्धान्त शास्त्री पंजाब नेशनल बैंक, तिजारा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ari कविता पंच - कल्याणक महोत्सव रजनी थी अवशेष अभी, शीतल समीर के झौंके थे । देखे सोलह स्वप्न शयन में, मधुर मुदित शुभ सूचक वे । हम हर क्षरण हर समय देखते, वैभव के सपने लक्ष्मी, मणिमालाए अरु गज, सुन्दर । पाने को हर क्षरण तत्पर । रिक्त सिंहासन से प्रभु हमको, हो जाए पद पावे, मिल जाए सिंहासन, होगा क्या कितना संतोष | ग्रासनस्थ जब, हो जाएंगे हम सुख तोष । आपस में लड़ते दिन रात । कुर्सी की खींचा तानी में, खाते खाली घूसे लात । जड़ रत्नों में कौन सार है, चेतन रत्न धार अविरल । हर वर्ष बरसता भरत खंड में, एक करोड़ सजीव जन बल । बासठ कोटि रत्न भारत में, बरस गए धीरे धीरे । कहां करे संग्रह रत्नों का, कहां रखें अब ये हीरे । क्षमा करो हे भारत वासी, नील प्रजना नहीं यहां पर, D के० सी० जैन, व्याख्याता इसका नर्तन देख चुका हूं, ये है जो घूंघट वाली । स्वयं नची व मुझे नचाया, निज रूप - पाश कुशल नर्तकी विषम व्याधि ए, जग तापों में वैराग्य मुझे कैसे हो सकता, झुलसाया । आयु शेष रही इसकी । वाद्य साथ हैं साथ सगिनी, अब और रत्न न बरसाओं । जितने बरसा चुके बहुत हैं, और रहम अब तुम खायो । 4/26 पर यह काले अंजन वाली । हर संध्या के चल चित्रों में, हे त्यागी, प्रभु तेरे रहें हमारे एक समय छीना हमने प्रभु वर्ष एक तक भ्रमण किया पर, राग रंग की लहर उठी । उलझाया । प्याली सुन्दर सजती है । किया न तुमने भोजन पान । हे भूख जयो प्रभु, तुम हे प्रादिनाथ भगवान । उपदेशों का हम, करते रहते जगत प्रसार । ही यत्नों से, अनगिनते जल बिना प्रहार । भोजन करते कुछ, कभी कभी करते उपवास । भोजन उनका, छोनो संपत्ति और निवास । हमारे दुष्प्रयत्नों से, नंगे उघड़े हैं कुछ लोग । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ हैं दो चिथड़ों के 'क्षुल्लक', 'एलक' एक वसन का योग । पाया केवल ज्ञान आपने, नाश कर्म घातिया चार । बने विज्ञ तुम केवल ज्ञानी, गई कुमति आया सुविचार | पर्दा हटा मोह का तत्क्षण, फैला केवल ज्ञाना लोक । उपदेशों का पान किया भवि, सारी दुनियां हुई अशोक । है यह कलियुग का कालापन, कालेपन से घिरे केवल ज्ञान मिला न हमको, हुए । किन्तु केवलाज्ञान लिए । भाप, तेल, विद्य ुत परमाणु, ये सब उसके रूप अनेक । किए अविष्कृत शस्त्र अनेकों, घातक रहे एक से एक । क्या शोभा प्रभु समोशरण की, छत्र चँवर भामण्डल रूप | निज में रत निर्लिप्त विभव में, मेरे मन्दिर को प्रभु देखो, रत्न जटित भामण्डल छत्र । वैभव का जो अनुपम संग्रह, अनगिनते सुन्दरतम चित्र । केवल मूर्ति तुम्हारी प्रभुवर, है विरक्त अपने में लीन । पर मन्दिर का कोना कोना, देखो, वैभव में तल्लीन । सामायिक चिंतन अरु अध्ययन, हो जाता है किंचित पर । हर संध्या को सजति वीरणा, उठते रहते नूपुर स्वर 1 लेकर चंदन, चांवल, श्रीफल, सजा थाल का नव नैवेद्य । दो पूजा के प्रतिफल में प्रभु, संतति, दौलत, शक्ति प्रभेद्य । आठों कर्म नाश कर तुमने, मोक्ष लक्ष्मी ली सत्वर । क्षण भर में लोकांत विराजे, आप विराजे जगत-स्वरूप | बूतों से हम विरत रहेंगे, पाया सिद्ध लोक प्रभुवर । काल चक्र का ऐसा फेरा । दुखमां और पांचवां काल । मोक्ष नहीं पा सकते मुनि तक, हम गृहस्थों का कौन हवाल | दृढ़ संकल्प किया है हमने, हो निषिद्ध मोक्ष का पाना, जिस पर हम चल सकते हैं । 4/21 धन से बल से और पाप से, पर लक्ष्मी पा सकते हैं । हम लक्ष्मी को जोड़ेंगे । सफल पंच कल्याणक उत्सव, इस पथ को न छोड़ेंगे । सारी दुनियां जाए भाड़ में, हुआ सफल अपना जीवन । मेरे घर में पाँच पंच हैं, निज समृद्धि बढ़े हर दिन । मात पिता जो आश्रित मेरे, मैं, पत्नि, मेरी संतान । हो जावे उनका कल्याण । शा० उ० म० शाहपुर (सागर) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोग्य का मूर्तिमान स्वरूप जैनाचार्य 0 बाबूलाल जैन आज अन्य स्थानों की भाँति चिकित्सालयों में भी रोगियों की लम्बी क्यू होती है । रोगों से न केवल रोगी, उनके सम्बन्धी भी परेशान रहते हैं। जैनाचार, धर्म की दृष्टि से न सही, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ही जन-जन स्वीकार कर ले तो राष्ट्र की एक बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है। --सम्पादक मन. अात्मा और शरीर ये प्राणी जगत के है जिसके घटक आरोग्य के आधार-स्तंभ है। यह त्रिदण्ड हैं। मानव जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ पग-पग पर शारीरिक एवं मानसिक समत्व, सातत्य चार हैं-धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष । ये उप- और आरोग्य को सजीव करते हुये आगे बढ़ता है। लब्धियाँ तभी साकार हो सकती हैं जबकि मनुष्य जैनाचार, केवल शास्त्रों में वरिणत दर्शन मात्र ही आरोग्य-सम्पन्न हो अर्थात् मन, प्रात्मा और शरीर नहीं है, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आज भी जीताआरोग्य से परिपूर्ण हों। सर्वार्थसिद्धि का मूल जागता क्रियाशील चारित्र है, आरोग्य-पथ है । आरोग्य ही है और उचित चर्या व साधना के साथ यद्यपि विश्व के विषाक्त वातावरण ने इस आचार उसका फल मोक्ष कहें तो असंगत नहीं होगा। को व इसके पालन करने वालों को भी प्रभावित किसी भी वस्तु अथवा बिन्दु का यथातथ्य स्वरूप किया है तथापि वह आज भी ऐसी चट्टान की तरह का निदर्शन धर्म है। जीवन धारा के भाव-जगत् अडिग है जिसे हिला सकना आसान नहीं है। जैनामें जो निर्ग्रन्थ स्थिति बनती है, वीतराग स्थिति चार में जैनाचार्यों ने जीवन-चर्या को, आहारबनती है, वही मोक्ष तक के पुरुषार्थ को सफल विहार को इस प्रकार निर्देशित किया है कि बनाती है, सर्वार्थसिद्धि को साकार करती है। मनुष्य आरोग्य पथ पर सहज में, स्वतः ही चलता किन्त. कोई भी यह नहीं कह सकता है कि यह जाये और जीवन की प्रयोगशाला में उस सौन्दर्य उपलब्धि आज तक किसी रोगी को प्राप्त हुई है। को साकार करले जिसे मानव-जीवन का अन्तिम प्रारोग्य के बिना सामान्य जीवन-सौख्य ही असं- लक्ष्य कहा जाता है। भव है तो उस अक्षय-सौख्य की कल्पना कैसे संभव मानव-जीवन में जन्म से लेकर मरण तक हो सकती है ? अनेकों ऐसे चरण हैं जिनका प्रभाव उसके जीवन ___ जैनाचार, विश्व के उन श्रेष्ठ नियमों एवं पर पड़ता है और उन्हीं प्रभावों के अनुसार वह परम्पराओं का ऐसा अद्भुत संयोजन और संग्रथन सुख-दुःख और आरोग्य को प्राप्त करता है। 4/22 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. शीतलप्रसाद जी ने पंचास्तिकायसार की टीका आर्थिक और धार्मिक-प्रबुद्धता, समृद्धि और यश तो. करते हुये लिखा है कि सद्य-प्रसूत बालक निष्पापी मिलता ही है साथ ही वह उस पथ का अनुगमन व अत्यन्त भोला होता है, बाद में उसे जैसे संस्कार स्वतः ही करने लगता है जिसके द्वारा वह अपने प्रदान किये जाते हैं वह वैसा ही बन जाता है। अभीप्सित को प्राप्त कर सके। मानव-स्वभाब की तीन मुख्य प्रकृतियाँ हैं-सात्विक, रोगों से प्रातुर होने से कैसे बचा जाये, सारे राजसिक व तामसिक । ये प्रकृतियां उचित व चिकित्सा-शास्त्रों में इसका विशद व विस्तृत विवअनुचित संस्कारों संयोग से बदल जाती हैं । सात्विक रण है। सारे रोगों को प्राश्रय देने वाला वह प्रवृत्ति वाला मनुष्य सर्वश्रष्ठ होता है। आरोग्य- शरीर है जिसका आहार-विहार मिथ्या है। इस शास्त्रों में वेग-विधारण शब्द का उल्लेख है । वेग- लिये आहार के बारे में जैनाचार में बहत व्यापक विधारण से तात्पर्य है-शरीर द्वारा सम्पन्न होने दृष्टि से विचार किया गया है। वाली शारीरिक क्रियायें जिनमें से कुछ शरीर भोजन विचारों पर व जीवन पर पर्याप्त द्वारा सम्पन्न होनी चाहिये और कुछ नहीं होनी प्रभाव डालता है। किसी ने बहुत सुन्दर शब्दों में चाहिये । इसी आधार पर उन क्रियाओं के दो भेद कहा है---- किये गये हैं-धारणीय वेग और अधारणीय वेग। "जैसा खाये अन्न वैसा होने मन अधारणीय वेगों को धारण करने से शरीर रोग- जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी"। ग्रस्त हो जाता है या अनेकों शारीरिक रोगों की इसी अाधार पर जैनशास्त्रों में भोजन का भविष्य में उत्पन्न हो जाने की संभावना बढ़ जाती बहुत नियमानुक्रम से वर्णन किया गया है । भोजन है । तथा धारणीय-वेगों को धारण न करने से को भी तामसिक, राजसिक व सात्विक अथवा मानव मानसिक रोगों से आक्रान्त हो जाता है, . निकृष्ट, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार का जीवन-धारा में विपर्यय पा जाता है और सारी बताया है । तामसिक भोजन शान्तिमय जीवन में क्रियायें गड़बड़ा जाती हैं। अत्यन्त निकृष्ट है । इससे प्रभावित हुआ मानव... जैनाचार में धारणीय वेगों को प्राणी शरीर मन अधिकाधिक निविवेक व कर्तव्य शून्य होता में धारण कर सके और रोगों के भय और दुःखों चला जाता है । वे स्वयं के साथ-साथ अपने पड़ोसियों से बच सके इसके लिये बड़ी सुन्दर व्यवस्था है। के लिये, समाज के लिये भी दुःखों व भय का कारण जीवन में दश धर्मो-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य- बने रहते हैं। उनकी आन्तरिक प्रवृत्ति का झुकाव संयम-तप-त्याग-पाकिचन्य-ब्रह्मचर्य का पालन अपराधों, हत्याओं, अन्य जीवों के शोषण व व्यभिबतलाया गया है। मनुष्य में क्रोध-मान-माया- चार प्रादि की ओर बढ़ती जाती है। राजसिक लोभ-हास्य-रति - अरति-शोक - भय-मैथुन आदि भोजन मनुष्य को विलासी व भोगी बनाता है। विकृतियों का जन्म होता. है और ये मानसिक मात्र इन्द्रियों का पोषण करना ही उसका एक रोगों को बढ़ावा देते हैं। दश धर्मों का पालन उद्देश्य रह जाता है। सात्विक भोजन का प्रभाव क्ति मानसिक रोगों व उपरोक्त ही जीवन में सरलता, सादगी, विवेक, कर्तव्यविकृतियों से आक्रान्त होने से बच जाता है, परायणता व सहिष्णुता उत्पन्न करने में समर्थ है । धारणीय वेगों को धारण करने में सफल हो तामसिक व राजसिक भोजन रोगों के जनक हैं। सकता है। इसी क्रम में, जैनाचार में श्रावक के वर्तमान युग में वैज्ञानिक अनुसंधानों से भली भांति लिये सप्त-व्यसन का त्याग अनिवार्य घोषित किया सिद्ध हो चुका है कि इन दोनों प्रकार के भोजन गया है । इनके त्याग से मनुष्य को सामाजिक, सेवन करने वालों में रोगों का प्रतिशत अधिक 4/23 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया गया है जबकि सादा-सात्विक भोजन करने को मित्र बनाकर इनके चंगुल में फंसता जा वालों में रोगों का प्रतिशत अल्प है । रहा है। आयु अतिमूल्य से परे हैं । संसार की विपणी इसी क्रम का दूसरा चरण जल-सेवन का है। में सर्वस्व मिला है परन्तु प्राय नहीं मिल सकती हैं। आयूर्वेद में तो जल के प्रकार, पीने योग्य व पीने कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम इसकी वृद्धि का उपाय के लिये अयोग्य जल के बारे में विशद वर्णन किया नहीं जानता । कोटि स्वर्ण देकर भी आयु का एक गया है । जैनाचार में जल को भली-भाँति छानकर क्षण नहीं खरीदा जा सकता । यह अमल्य है, यदि पीने के निर्देश दिये गये हैं। बर्तमान में तो इसे इसे ऐसे ही गंवा दिया तो इससे बढ़कर हानि जैनत्व का चिह्न मानने लगे हैं। कुछ समय पूर्व और क्या हो सकती है ?" अाजकल रोजाना नये की संयक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया था कि अस्पताल खोले जा रहे हैं, पुराने अस्पतालों में प्रनछने पानी से उत्पन्न रोगों के कारण सम्पूर्ण शैयायें बढ़ाई जा रही हैं। रोगों पर विजय कसे विश्व में प्रतिवर्ष पचास लाख मानव रोग ग्रस्त प्राप्त हो इसके लिये अनेकों वैज्ञानिक अनुसंधानहो जाते हैं जिनमें से अनेकों मौत के मह में भी रत हैं, करोड़ों रुपया खर्च हो रहा है पर फिर भी र पहुंच जाते हैं। रोग बढ़ते ही जा रहे हैं। दुःख तो इस बात का इसी क्रम की अगली कड़ी है, रात्रि भोजन है कि इस भौतिकवाद की चमक-दमक और मशीत्याग । महात्मा गांधी की पुस्तक गांधी विचार नीकरण से प्रभावित होकर हम हमारे ही नियमों को, हमारी चर्या को, हमारी जीवन-पद्धति को दोहन में लिखा है कि-जब से मैंने रात्रि भोजन त्याग दिया-मैं अनेकों परेशानियों से बच गया है। भूल रहे हैं जो कि हमें सौभाग्य से वरदान रूप में, सत्य है, अाखिर पेट को भी तो कुछ विश्रांति हमारे पूर्वजों से, धर्माचार्यों से बिरासत रूप में चाहिये । प्रातः सोकर उठने के पश्चात् रात्रि में मिली है । वह ज्ञान, आरोग्य का मूर्तिमान स्वरूप सोने तक कभी कुछ कभी कुछ खाते ही रहेंगे तो है जो जनाचार या जैनधर्म के नाम से माना जाता स्वस्थ कैसे रहेंगे ? अधिक खाने वाला और अनि- है। जिस प्रकार ठण्डी हवा का कोई मकान या गांव नहीं होता, सूर्य की किरणों का कोई महल यमित खाने वाला हमेशा रोगी ही बना रहेगा। या झोपड़ी नहीं होती, बच्चे की मुस्कान का कोई संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं जो काल के सम्प्रदाय नहीं होता उसी प्रकार जैनाचार किसी प्रभाव से अछूती रह जाये। वर्तमान में भौतिक- एक सम्प्रदाय को ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के बाद व सिनेमा सभ्यता के अन्धानुकरण से मानव लिये उन सभी उपक्रमों की जानकारी प्रदान की धार्मिक आस्था हटती जा रही है परन्तु वह करता है जिनके पालन से सबका मंगल, सबका नहीं जानता कि किस प्रकार अनजाने में वह रोगों कल्याण संभव है, सर्वत्र शांति संभव है । प्रारोग्य भारती, जयपुर 4/24 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचन खण्ड नई प्रतिमा 1. महावीर का कर्म सिद्धान्त कुमारी मंजू झाडचूर 2. महावीर का अहिंसा सिद्धान्त कुमारी मंजू भण्डारी श्री कैलाश मलैया 3. शुद्ध भाव वनाम साम्य भाव 4. महावीर का दिग्दर्शन श्री भानु जैन 5. Jain Culture श्री अरहनमुकेश जैन 6. महावीर के जन्म दिवस की वेला आई सुश्री हेमलता जोहरापुरकर 7. भगवान गोमटेश्वर का महामस्तकाभिषेक तथा संत समागम और श्री योगेन्द्र कुमार 8. केवल 31 बातें सीखें पू० 105 क्षु० प्रवचनमती जी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ख' वर्ग में प्रथम घोषितं निबन्ध महावीर का कर्म सिद्धान्त इस पुण्यधरा भारत ने अनगिनत ऐसे ज्योति प्रज्ञों को जन्म दिया है जो अपने तेजोबल से न केवल स्वयं प्रकाशित हुये अपितु जिन्होंने अपने ज्ञान के निर्मल प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को प्राप्लावित किया । ऐसे ही ज्योति प्रज्ञों में से भगवान महावीर भी एक हैं जिनका बनाया गया मार्ग 2500 वर्षो बाद भी जगत के प्राणियों को शाश्वत, अखण्ड और कर्म बन्धन से मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति कराने में उतना ही सक्षम और समर्थ है, जितना पहले था और रहेगा । भगवान महावीर के बनाये गये सिद्धान्तों की सुखद मन्दाकिनी लोक कल्याण को ही पोषित नहीं करती अपितु इसकी सुखद धारा जीव को श्राध्यात्मिकता से भी आप्लावित करती है । विज्ञान की चकाचौंध और फैशन परस्ती की अन्धी दौड़ में दिग्भ्रमित जनता को भगवान महावीर ने कर्म का संदेश दिया है । जहां छीनना, चोरी और लूटना ( काला बाजारी) ही व्यक्ति का बाना बन गया है । व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का विघटन हो रहा है और कर्म के प्रति अनास्था उभर रही है । ऐसे में : महावीर तेरे कर्म सन्देश, युग-युग बोध जगायेंगे । सुख-दुख में उलझे लोगों को, मुक्तिबोध दे सुलझायेंगे । कुमारी मंजू झाड़चूर XI B श्री श्वे० जैन सुबोध बालिका उ० मा० विद्यालय जयपुर इस मुक्ति बोध के लिये न में अपितु जैन धर्म में भी जो जैसा करता है वह वैसा केवल भारतीय दर्शन कर्म का सिद्धान्त है । भरता है । कर्म का अर्थ :- कर्म शब्द का अर्थ सामान्यतः कार्य प्रवृत्ति या क्रिया से किया जाता है । कर्म काण्ड में यज्ञ आदि क्रियायें कर्म रूप में प्रचलित हैं । पौराणिक परम्परा में व्रत, नियम आदि कर्म रूप माने जाते हैं । कर्म का प्रकार :- जैन परम्परा में कर्म दो ) प्रकार का माना गया है ( 1 द्रव्य कर्म और (2) भाव कर्म । कर्म जाति का पुद्गल अर्थात जड़त्व विशेष जो कि आत्मा के साथ मिलकर कर्म रूप में परिणत हो जाता है द्रव्य कर्म कहलाता है और राग, द्वेषात्मक परिणाम को भाव कर्म कहा गया है । भगवान महावीर के अनुसार कर्म का सम्बन्ध नादि है । जब तक प्राणी के पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते और नये कर्मों का उपार्जन बन्द नहीं हो जाता तब तक उसकी भव बन्धन से मुक्ति नहीं हो पाती । इसके पश्चात ही आत्मा को मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति होती है क्योंकि एक बार समस्त कर्मों का विनाश हो जाने के पश्चात नवीन कर्मों का उपार्जन नहीं होता । भगवान 5/1 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की परिभाषा में उपर्युक्त कथन में कर्म इनमें से चार प्रकृतियां घाती हैं क्योंकि इनसे बन्ध का कारण विद्यमान नहीं है । प्रात्मा के चार मूल गुणों ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार प्रकृति अघाती कर्मबन्ध का कारण :- महावीर की हैं क्यों कि ये प्रात्मा के गुण का घात नहीं करती। परम्परानुसार कर्मोपार्जन के दो कारण हैं :-- योग ज्ञानावरण प्रकृति से प्रात्मा के गुरण का, और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति दर्शनावरण प्रकृति से प्रात्मा के दर्शन गुण का को योग तथा क्रोधादि मानसिक आवेगों को कषाय घात होता है तथा मोहनीय प्रकृति प्रात्म सुख कहा गया है । जो योग कषाय युक्त होता है वह का घात करती है और अन्तराय कर्म प्रकृति प्रबल और जो कषाय रहित होता है वह निर्मल । अात्म शक्ति का घात करती है। वेदनीय कर्म कषाय की यही प्रवृत्ति कर्म-बन्धन का कारण है। प्रकृति अनुकूल एव प्रतिकूल अर्थात सुख-दुःख के अनुभव का कारण है । प्रायु कर्म प्रकृति नरकादि कर्मबन्धन की प्रक्रिया:- विश्व में ऐसा विविध भवों की प्राप्ति का कारण है और नाम कोई भी स्थान नहीं है जहां कर्म योगों रूपी पर कर्म प्रकृति विविध शरीर आदि का कारण है । माण विद्यमान न हों। जब व्यक्ति अपने मन, गौत्र कर्म प्रकति प्राणियों के उच्चत्व एवं नीचत्व वाणी अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति का करण है। करता है तो भगवान महावीर के अनुसार कर्मवाद की परिभाषा के अन्तर्गत वह प्रदेश बन्ध कहलाता । कर्म बन्धन का आधार कषाय की तीव्रता है और इसके ज्ञानावरणादि रूप को प्रकृति बन्ध मन्दता है जो कर्म जितना अधिक कषाय की तीव्रता तथा कर्म फल के इस काल को स्थिति बन्ध कहा से युक्त होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही बलवान गया है । कर्मफल की तीव्रता-मन्दता को अनुभाव और शुभ कर्म उतने ही निर्बल होंगे। बन्ध कहते हैं। कर्म बन्धते ही फल देना प्रारम्भ । नहीं करते अपितु कुछ समय तक ऐसे ही पड़े रहते कर्म और पुनर्जन्म :---कर्म प्रौर पुनर्जन्म के इस काल को अवाधा काल कहते का सम्बन्ध विच्छेद है। व्यक्ति को अपने पूनहैं। इस काल के व्यतीत होने पर ही कर्म, कर्मफल जन्म के कर्मों के अनुकूल ही सुख-दुख की अवस्था देना प्रारम्भ करते हैं। कर्म फल का प्रारम्भ ही से गुजरना पड़ता है। कर्म की गति को सभी कर्म का उदय कहलाता है । कर्म अपने स्थिति बन्ध जानते है । पूर्व पुण्य कर्म के कारण ही व्मक्ति को (पाप और पुण्य) के अनुसार ही उदय में आते हैं राजा, तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि का पद प्राप्त और फल प्रदान करते हैं। होता है। कर्म प्रकृति :- भगवान महावीर की पर- कर्मों के कारण ही एक व्यक्ति राजा म्परानुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियां हैं जो बनता है और दूसरा उसका नौकर, इस विषमता प्राणियों को भिन्न भिन्न प्रकार से अनुकूल एवं का कारण उनके शुभ और अशुभ कर्म ही हैं । प्रतिकूल फल प्रदान करते हैं। ये आठ प्रकृतियां कर्म प्राणियों को नहीं छोड़ते। उदाहरण स्वरूप निम्न हैं :- 1. ज्ञानावरण 2. दर्शनावरण 3. मर्यादा पुरुषोत्तम राम को एक ओर तो राज्यावेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र भिषेक और दूसरी ओर 14 वर्ष का बनवास और 8. अन्तराय। अनेक संघर्ष यह सब कर्मों की ही गतियां है। 512 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा पुरुषोतम राम की रानी सीता कहां प्राणों का विसर्जन कर देता है। हमें संसार के तो राजमहलों के सुख का उपभोग करती और प्राकर्षणों को ही प्रमुख मानकर विवेक शून्य होकर कहां पैदल चलकर, जंगली जानवरों के मध्य अपना अनिष्ट नहीं करना चाहिये बल्कि भगवान निवास करती है, यह सब कर्मों का ही फल है। महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का अनुसरल कर्मों के कारण ही भगवान महावीर ने अनेक कष्ट । करना चाहिये जिससे शुद्ध, निरंजन, निविकार उठाये थे। सिद्ध स्वरूप परमात्म तत्व की प्राप्ति सहज ही की जा सकती है। क्यों कि :कर्म किसी को नहीं छोड़ते चाहे हम देश का वरा करने वाले व्यक्ति का साथ छोड़ दे; लेकिन मानव का उत्थान पतन, कर्मों की अधीनता भव भव तक बनी रहती है। सब अन्तर्मन पर अवलम्बित । भगवान महावीर ने कहा है कि हमें इस संसार निजका पर का हित और अहित में परागलोलुपी भ्रमर के समान नहीं बनना ___ सब मात्र कर्मो पर आधारित । चाहिये जो बिना सोचे समझे ग्रासक्त होकर अपने _ नमो नमः महावीर। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'क' वर्ग में प्रथम घोषित निबन्ध महावीर का हिंसा सिद्धान्त कुमारी मंजु भण्डारी VIII श्री श्वे० जैन सुबोध बालिका उ० मा० विद्यालय जयपुर "अहिंसा" भारतीय संस्कृति का प्रारण भूत तत्व है । भारतीय चिन्तन के रोम-रोम में अहिंसा का तत्व समाया हुआ है । इसकी उपलब्धि उन्हें मां के दूध के साथ ही हो जाती है। यहां का वातावरण, अहिंसा का वातावरण है। यहां की वायु, अहिंसा की वायु हैं । जो व्यक्ति भारत में श्वास लेगा, उसके जीवन में न्यूनाधिक अहिंसा तत्व अवश्य ही प्रवेश करेगा । आदि तर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव से लेकर आज दिन तक यदि भारतीय संस्कृति में कोई मौलिक स्वर्ण-सूत्र अनुस्यूत हुआ है तो वह अहिंसा ही है । इस सूत्र में ही विश्व के समस्त धर्मों का समन्वय और संगम हो सकता है । अहिंसा का सिद्धान्त बड़ा व्यापक और विशाल है । इसकी परिधि के अन्तर्गत समस्त धर्म और समस्त दर्शन समवेत हो जाते हैं । यही कारण है। कि प्रायः सभी धर्मों ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है । हमारे यहां के चिन्तन में समस्त धर्म सम्प्रदायों में, अहिंसा के सम्बन्ध में, उसकी महत्ता और उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हैं, भले ही उसकी सीमाएँ कुछ भिन्न-भिन्न हों कोई भी धर्मं यह कहने के लिये तैयार नहीं है कि झूठ बोलने में धर्म है, चोरी करने में धर्म है या ब्रह्मचर्य सेवन करने में धर्म है । जब इन्हें धर्म नहीं कहा जा समता तो हिंसा को कैसे धर्म कहा जा सकता है ? अतः किसी भी धर्म-शास्त्र में हिंसा को धर्म और हिंसा को अधर्म नहीं कहा है । सभी धर्म अहिंसा को परम धर्म स्वीकार करते है, और यही कहते हैं । "अहिंसा परमो धर्मः " पच्चीस सौ वर्ष पूर्व आर्यावर्त्त के महामानव भगवान महावीर ने अहिंसा के लिये हिंसा के प्रति खुला विद्रोह किया । यज्ञ, पशुवलि व दासप्रथा के रूप में जब शोषण का दौरदौरा चल रहा था तब अहिंसा को नया बेग, नया प्रारण व नई परिभाषा देने के लिये महावीर व बुद्ध ने सम्पूर्ण मानव प्रति को करुणा का संदेश दिया सब्ब जग जीव एक्खरण दय ठ्याए भगवा सुकहियं पवयां अर्थात् समस्त प्राणी जगत् की रक्षा के लिये दया व करुणा का प्रवचन भगवान् ने किया । वह एक ऐसा युग था जब मानव शोषण अपराध नहीं माना जाता था । गुलामी को मानवीय कर्तव्य करार दिया गया था । बुद्ध व महावीर ने अहिंसा के रूप में सारे समाज में व्यापक क्रान्ति की लहर फैला दी । ग्रहिंसा और धर्म के नाम पर हिंसा का जो नग्न नृत्य हो रहा था, जन-मानस को भ्रान्त 5/4 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जा रहा था, यह भगवान् महावीर से देखा नहीं गया । और उन्होंने हिंसा पर लगे धर्म और महिंसा के मुखौटों को उतार फेंका। और सामान्य जन-मानस को उबुद्ध करते हुए कहा "हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती । विश्व का प्रत्येक प्राणी चाहे छोटा हो या बड़ा, पशु हो या मानव जीना चाहता हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी को सुख प्रिय व दुख अप्रिय है । सब को अपना जीवन प्यारा है । जिस हिंसक व्यवहार को तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता । जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं, यही जिन शासन का सार है । सब धर्मों का निचोड़ है । इस लोक में जितने भी अस और स्थावर प्राणी हैं उनकी हिंसा न तो जानकर करो, न अनजान में करो और न ही किसी दूसरे से उनकी हिंसा करा क्यों कि सबमें एक ही आत्मा है, हमारी ही तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं । ऐसा मानकर भय और बैर से मुक्त होकर किसी की हिंसा मत करो । जो व्यक्ति स्वयं हिंसा करता है, वह अपने लिये वैर बढ़ाता है । दूसरों के प्रति वैसा ही भाव रखो जैसा अपनी आत्मा के प्रति रखते हो । सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिये । "सच्चा संयमी वही है, जो मन से, वचन से और शरीर से कभी किसी की हिंसा नहीं करता " । यह है भगवान् महावीर की प्रात्मौपम्य दृष्टि जो हिंसा में श्रोत-प्रोत होकर विराट विश्व के सम्मुख प्रात्मानुभूति का एक उज्जवल उदाहरण प्रस्तुत कर रही है । महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा " हे शिष्यो ! इस दुनियां में जितनी भी आत्माएं हैं, उन सबमें समान चेतना है। जिस कार्य से तुम्हारी प्रात्मा को कष्ट होता है वह काम दूसरों के प्रति भी मत करो। जिस दिन तुम्हें अपनी व दूसरों की प्रात्मा में कोई अन्तर नहीं मालूम होगा उस दिन तुम्हारी हिंसा की साधना सफल होगी । अन्यथा अहिंसा का नाम केवल आडम्बर बनकर रह जाएगा ।" भगवान् महावीर का यह उपदेश हमारी वर्तमान समाज रचना के लिये अत्यन्त उपयोगी है । महावीर की अहिंसा निषेध तक ही सीमित नहीं विधेयात्मक भी है । "नहीं मारना" यह एक पहलू है, "मैत्री, करुणा और सेवा" । यह दूसरा पहलू है | केवल नकारात्मक पहलू पर सोचें तो हिंसा की अधूरी समझ होगी । सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिये प्राणी मात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उनकी सेवा करना तथा उनको कष्ट से मुक्त करना इत्यादि विधेयात्मक पहलू पर भी विचार करना होगा । महावीर स्वामी व गौतम का एक सुन्दर संवाद विधायक अहिंसा पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है | वह सुन्दर संवाद इस प्रकार है " एक बार गौतम ने महावीर से पूछा "भगवान् ! दो व्यक्ति हैं । एक आपकी सेवा करता है और दूसरा दीन दुखियों की सेवा करता है । प्रापकी दृष्टि में महान् कौन है ? किस व्यक्ति को श्राप अधिक उत्तम समझते हैं ?" प्रश्न का समाधान करते हुए महावीर बोले- " गौतम ! मेरी सेवा करने वाले की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा करने वाले को मैं कहीं अधिक उत्तम समझता हूँ । बे मेरे भक्त नहीं जो केवल मेरा नाम जपते हैं । सच्चे भक्त वे हैं जो मेरी प्राज्ञा का पालन करते हैं । 5/5 - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत संवाद से स्पष्ट है कि अनुकम्पा दान, श्रभय दान तथा सेवा इत्यादि अहिंसा के रूप है । 1 महावीर स्वामी का संसार के समस्त साधकों को यह जीवन संदेश है कि प्रत्येक कार्य यत्त पूर्वक करो। यदि चलना है तो चलने में यत्न रखो, विवेक रखो । यदि खड़े हो तो विवेक के साथ, सोश्रो, बैठो और उठो भी विवेक के साथ । खाना है, बोलना है तो भी विवेक के साथ । विवेक अहिंसा की सच्ची कसौटी है । अहिंसा का तात्पर्य कायरता से कदापि नहीं है । महावीर स्वामी से एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा - "प्रभु ! आप हिंसा के पथ को छोड़कर अहिंसा के पथ पर क्यों आये ? अनेक कष्ट व ड़ा होते हुए भी क्यों इस दुर्गम पथ पर चल रहे हैं ? तब महाबीर बोले " इस संसार में प्रत्येक प्राणी सुख के लिये तरसता है । दुःख से घबराता है अतः जैसा मैं हू वैसे ही सब | यही सोचकर अहिंसा को ही परम धर्म मानकर मैंने स्वीकार किया ।' सब आपस में भाई-भाई हैं । महावीर बुद्ध ब गांधी ने हमें अहिंसा व प्रेम का पंथ बताया फिर भी भाषा, जाति व धर्म के बेबुनियाद झगड़े को लेकर हम उलझ पड़ते हैं, दंगा कर बैठते हैं, गोलियां चला देते हैं और इस तरह निहायत बेसमझी का प्रदर्शन कर हमारी गहरी अहिंसक परम्पराओं का उपहास कर रहे हैं । आज दुनियां में हिंसा-अहिंसा का मुकाबला है । हिंसक शक्तियां भी अहिंसा का नकाब पहन कर सामने आती हैं। खुलकर प्रकट होने से डरती हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि ग्राम का जन मानस अहिंसा की दृढ़ प्रास्था के साथ जीना चाहता है । अतः हमें चाहिये कि महावीर स्वामी की इस प्रहिंसात्मक वाणी को साथ में लेकर चलें- "जीओ और जीने दो " 5/6 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव बनाम साम्यभाव 0 कैलाश मलैया 'शास्त्री' टोडरमल सिद्धान्त महा वि० ए-५, बापू नगर, जयपुर साम्य भाव को सभी धर्मों ने स्वीकार सुख है या जो सुखमय है उसको भूलकर सुखाभासों किया है। किन्तु उसका यथार्थ स्वरूप अवगत न में हम भटक गये हैं । मृग-मरीचिकाक्त् । क्योंकि होने से समानता को ही समताभाव मान बैठे हैं। समानता का विषय ही पर है और समता का इस कारण समताभाव का जो फल है उससे वंचित विषय निज अखण्ड त्रिकाली ज्ञायक आत्मा है। रह जाते हैं। जिन्होंने अपने स्वभाव को जान पर में समानता का भाव ममत्व है। एकत्व-बुद्धि लिया है वे मोक्षलक्ष्मी का वरण कर चुके हैं- है। जो अपने प्रात्मा में प्रादुर्भूत होता हया भी "शिवनारि वरौं समताधरिकें"। हमें भीपंच परावर्तन नैमित्तिक होने से विभाबभाव हैं। शुभाशुभ आदि का अभाब करके अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हेतु विभाव वन्ध के कारण होने से अपने आत्मा का साम्यभाव का यथार्थ स्वरूप समझना ही होगा। अत्यन्त निषेध करने वाले हैं। इसलिए हमें शुभा समानता दो या दो से अधिक द्रव्यों में होती शुभ विभाव भावों से रहित साम्यभाव या शुद्ध भाव है किन्तु समता तो निज चैतन्य आत्मा का स्वभाव ही उपादेय भूत है। जिसको लक्ष्यगत करने से भाव है, क्योंकि इसका प्रात्मा में अविनाभाव शांति एवं सुख की कालिंदी फूट पड़ती है। तादात्म सम्बन्ध हैं। दो, चार, पाठ आदिक समता किसी दूसरे पर की नहीं जाती है बल्कि संख्यायें सम हैं। यह संख्यानों में समानता है। एक राजा अपने राज्य में सभी को प्रार्थिक दृष्टि स्वभाव को लक्ष्यगत करते ही पर्याय में समता से समान देखना चाहता है। मुख्य मंत्री देश में । प्रगट हो जाती है। वैसे पुरुषार्थ सिद्धि-उपाय में वों को, एक धर्मात्मा अपने धर्म को, राजनीतिज्ञ कहा है कि --- अपनी राजनीति को, कोई भाषानों को विश्व में "इदमावश्यकं षटकं समतास्तव वन्दना प्रतिषमान रूप से क्रियान्वित करना चाहता है। यह क्रमणम् यहां पर भी समता स्वभाव को लक्ष्यगत मानव जगत में समानता है। यदि समानता सभी करो ऐसा उपदेश दिया है। क्योंकि समता कोई में इच्छानुसार कदाचित हो भी गयी तो क्या हमें बाहर से तो क्रय प्रादि करके ली नहीं जाती बह सख की प्राप्ति हो जायेगी? नहीं, नहीं. कदापि तो स्वभावगत है । नहीं। जो इस प्रकार साम्यवाद की बात समूचे यद्यपि व्यवहार में ऐसा कहने को पाता है किविश्व में धर्म की, राजनैतिक भाषा की विभिन्नता दुःखे सुखे वैरिणि बन्धु वर्ग होने पर भी समानता देखने की चेष्टा की जाती योगे वियोगे भवने वने वा । है. तब भी सभी सुखान्वेषण में यत्र तत्र सर्वत्र निराकृता शेष ममत्व बुद्धदिखाई दे रहे हैं। इससे ज्ञात होता है कि जिसमें समं मनोमेऽस्तु सदापि नाथ ।। 517 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात "सोने और कांच में, मित्र और शत्रु में, सुख और दुःख में, वन और उपवन में, प्रासाद और पर्णकुटी में न ममता हो और न खेद हो - साम्यभाव है" । जब निज परमानन्द स्वरूप आत्मा का लक्ष्य करके जो पर में उपर्युक्त समता बाह्य में देखी जाती हैं उसे व्यवहार से साम्यभाव कहते हैं किन्तु जो स्वभाव से च्युत्त होकर पर में साम्यभाव करता है उसे तो उपाचार से भी अभिहित नहीं कर सकते हैं । 1 यथार्थ में तो साम्यभाव सम्यग्दृष्टि षट्सप्त गुण स्थानों में झूलने वाले मुनिराजों के ही होता है । और जब ये अपने शुद्ध भाव से च्युत होकर स्वरूप से बाहर जाते हैं तो उसे व्यवहार से समताभाव कहते हैं। क्योंकि किसी कवि ने लिखा भी है कि "वावे न समता सुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरै" । ऐसे मुनिवर जिनकी उपयोग रूपी लगाम एक शायक निजात्मा पर है उनके सिर चाहे सर्प डोलें, अग्नि की सिगड़ी जलावें, चाहे शेर अाक्रमण करें, चाहे भोले-शोले बरसे चाहे मगरमच्छों से भरे समुद्र में फेंक दिया जावे, इत्यादि अनेकों उपसर्ग आने पर, यहां तक कि वर्तमान पर्याय के तहसनहस हो जाने पर भी वे अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते और उसी समय अनन्त धनन्त सुख और शान्ति का संवेदन करते हैं; कितनी अलोकिक एवं पारमार्थिक बात है कि अपने स्वभाव में लग्न हैं इसलिए उनके निश्चय से साम्य भाव निरंतर है। इस प्रकार हम भी शुभाशुभ विभावाभावों से रहित शुद्ध भाव स्वरूप समता स्वभावी निज चैतन्यरांयक आत्मा को श्रद्धान, ज्ञान और उसी रूपाचरण करके अनन्त सुख शांति को प्राप्त कर सकते है । समता का जो वरण करना जानते हैं । जो स्वयं का आत्मवल पहिचानते हैं ॥ वे जन्म मरण को मूल से उखाड़ते हैं । निश्चय ही वे साम्य भाव प्रकाशते हैं ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती के जुलूस में प्रदर्शित झांकी का प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए पार्श्वनाथ नवयुवक मंडल के अध्यक्ष ज्ञानचन्द जैन ऋषभ वैराग्य पद जे ० 354 व जे० 609 - नीलांजना तथा ध्यानस्थ ऋषभनाथ लगभग 200 ई० पूर्व, कंकाली टीला, मथुरा Jain Education In( निदेशक, राज्य संग्रहालय, लखनऊ के सौजन्य से छाया शिल्पी श्री सज्जन खां ) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का दिग्दर्शन 0 भानु जैन टो० स्मा० भ०, ए-३ बापू नगर, जयपुर-५ भगवान महावीर जैन दर्शन की उन विभूतियों सच्चा शृंगार है । इसके अभाव में अनंत संयोग में से हैं जिन्होंने कि जगत की सुसंभोगपरक रूप शृगार की उपलब्धियां भी शांति और आनंद उपलब्धियों को भी ठुकराकर निज अक्षय आनंद देने में हार खाती हैं। इसकी उपलब्धि में जगत सत्ता का सहारा लिया और जगत को अपने भावों के अनंत प्रतिकुल संयोग तथा अनंत अनकल तथा शरीर की नग्नावस्था से इस बात का संयोगों का वियोग होने पर भी शांति, आनंद रूप दिग्दर्शन करा दिया कि सभोगों में चैतन्य का समाधान रह सकता है तथा ज्ञाता द्रष्टा रूप से प्रानन्द, सुख एवं शान्ति नहीं है। उनकी मुद्रा रह कर अकर्तृत्व (ज्ञाताफ्न) की स्थिति निभ ही इस बात का दिग्दर्शन कराती है। (पाली जा सकती है। जैनागम का प्रथमानयोग इसके जीते जागते ज्वलन्त उदाहरणों से भरा पड़ा महावीर ने अपने जीवन में उस शांति और है और जगत को इस बात का दर्शनबोध देता है प्रानन्द को आत्मसात् किया जो कि जगत की कि-"पुण्य पाप परिणाम जो पूर्व में किये हैं वह सुसंयोगतम् उपलब्धियां कर लेने पर भी नहीं होता उदय में तो पायेगे, आयेंगे और आयेंगे, तथा है अर्थात् जगत के सभी पदार्थ जिस समाधान को उनके उदय के निमित्त से अनुकूल प्रतिकूल संयोग देने में असमर्थ हैं उस समाधान को उन्होंने अपने भी अवश्य मिलेंगे लेकिन इन सुपरिस्थितियों और जीवन में अपनी अक्षय आनंद सत्ता के आश्रय से दुःपरिस्थितियों में दुःख न हो इस का इन्तजाम अात्मसात् किया। फलत: उस समाधान का वर्तमान में अपनी आनंद सत्ता में 'अहं' की भावना सामना उनके निकट रहने वाले संयोग (कर्म) का स्थापन करने से किया जा सकता है। क्योंकि नहीं कर पाये और उस समाधान को देखकर वस्तु स्वरूप तो झुकने वाला है नहीं अर्थात शरमा कर उनसे (महावीर से) दूर होगये । परिस्थितियां तो बदलने वाली हैं नहीं, अब इन्हीं इस शांति और प्रानन्द के समाधान स्वरूप परिस्थितियों में दु.ख न हो इसका उपाय निज ही अध्यात्म है जो कि जीव मात्र को अपने जीवन प्रानंद सत्ता के आश्रय से किया जा सकता है।" की अनादिकालीन चिर दुःख रूप परम्परा को प्रथमानुयोग इसके उदाहरण भी देता है-सियार मिटाने हेतु परमोपादेय है। यह जागरूक जीवन के द्वारा काटा गया (सुकमालमुनि), सिर पर की इसके अभाव में जीवन को यदि पहचान सिर पर सिगड़ी जलाईगई (गजकुमारमुनि), शरीर है । मौत कहें तो इसमें कोई अत्युक्ति में गर्म लोहे के आभूषण पहनाये गये (पांडवों को) नहीं होगी। इसके सद्भाव में ही जीवन की प्रादि उपसर्ग हुए, लेकिन इस आनंद सत्ता के सार्थकता और प्रतिष्ठा है और यही जीवन का बल पर ही इन दुःसंयोगों में भी ज्ञाता द्रष्टा रूप 5/9 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रहा जासका। इसके अलावा दूसरा कोई उपाय निज-चैतन्य तत्व की समझ के अभाव में ही भी नहीं था, न है और न रहेगा। इस अक्षय परकर्तृत्व की अनधिकृत चेष्टानों रूप विकल्पों आनंद सत्ता की समझ और सुलभता के अभाव में की उत्पत्ति होती है और जब यह आत्मा आनंद या तो उपसर्गकर्ता को भगाने की कोशिश की धाम प्रात्मा का ख्याल करता है तब यह पर जायेगी या स्वयं भागने की कोशिश की जायेगी। कर्तृत्व के विकल्प जागने की अवस्था में नींद यदि लज्जावश या लाजवश शरीर में भगवान की भांति भाग जाते हैं। होगा तो कम से कम अपनी अक्षय पानंद सत्ता सेच्युत होकर के उपयोग तो जरूर भोगेगा इसके इस तरह निजपूर्ण सत्ता के आधार पर ही अलावा कोई गति नहीं होगी। भगवान महावीर ने सारे विकारों की जननी परकर्तृत्व की भावना को त्यागा और इसके प्रभाव इस प्राध्यात्मिकता के अभाव में वैराग्य और में इसकी सन्तानरूप सारे विचारों का भी क्षय अकतत्व की बात मात्र विकल्पों के आधार पर ही होगया। भगवान महावीर ने अपनी करतूतों से होती हैं जो कि अध्यात्मरस के बिना शुष्क और। हमको भी यह दिशा-बोध दिया कि चैतन्य की शांति शांति के समाधान देने में हार खाती है। और आनंद चैतन्य में ही है और बाहर में नहीं, महावीर ने जहां एक ओर प्रत्यक्ष तथा युक्ति, आखिर ये बाहर में हों तो-हों क्यों ? जब न्याय, तर्कादि प्रमाणों से यह बताया कि प्रात्मा चैतन्य आत्मा स्वयं एक सत्ता है, तब वह पर सत्ताओं से निरपेक्ष रहती है तो उसका प्रानंद और एक तिनके के दो टुकड़े नहीं कर सकता है वहां दूसरी ओर यह भी बताया है कि तुम्हें पर में शांति पर के आश्रित हो तो कैसे ? अर्थात् नहीं हो सकता है। क्योंकि-"पर से चैतन्य का द्रव्यगत करने के विकल्प करना पड़े ऐसी कभी भी तुम्हारे । भेद होने से ग्रानंन्द के भोगने में यह मित्रता बाधक स्वभाव में नहीं है । इस तरह निज अक्षय आनंद पूर्ण सत्ता के आधार पर अर्थात् एक हाथ में बड़ी है। इस तरह पर में आनंद की कल्पना कभी भारी पूर्ण सत्ता देकर दूसरे हाथ से परकर्तृत्व __ साकार नहीं हो सकती है । की रुचियां एवं भ्रम छुड़ाये हैं। यह पर का कर्तृत्व कोरे (शुष्क) ज्ञानमात्र के समाधान देकर इस तरह भगवान महावीर का दिग्दर्शन नहीं, वरन् आनंद एवं शांतिस्वरूप निज तत्व देकर का केन्द्र एकमात्र निज पूर्ण आनंदसत्ता ही था जिसकी गोद (अंचल) में चतन्य की आनंद सहित छुड़ाया है। यह ही अध्यात्म है। वृत्तियां प्रानंद, शांति और बल का जीवन महावीर अपने जीवन से यही दिशाबोध देना जीने की कला सीखकर अपने चिर संचित चाहते थे। क्योंकि जिसे जो इष्ट होता है उसी अरमानों को साकार करके अपनी अनादिको वह प्राप्त करके दूसरों को भी देना चाहता है। कालीन दुःखी, दरिद्र और दयनीय दशा को भगवान महावीर ऐसे ही महान आत्मा थे जिन्होंने मिटाया है। यहीं से चैतन्य के जीवन की वास्तचैतन्य की शांति को लीक से हट कर चैतन्य के विक शुरूआत होती है । चैतन्य के जीवन का यह तल में ही तलाश और उस शांति को तलाश करके एक मार्मिक स्थल है इसे ही जैन शब्दावली में पर कर्तृत्व के निरीह मूर्खता के प्रतीक रूप 'सम्यग्दर्शन' शब्द में अभिहित किया जाता है जो विश्वासों, बुद्धियों एवं आचरणों को सहज में ही कि जगत की अपने से भिन्न समस्त सत्ताओं को त्याग दिया और जगत को भी यह बताया कि ठुकरा करके उनसे अपने पूर्वानुभूत सम्बन्धों को 5/10 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोड़ कर एक मात्र निज आनन्द धाम से ही संबंध चैतन्य तत्व की इस अभेदात्मक अनुभूति में रूप है यह सम्यग्दर्शन चैतन्य तत्व के प्रति ही चैतन्य तत्व का स्वाभाविक आनन्द का अनुभव 'प्राशिक' होने की चरमोत्कर्ष स्थिति का नाम है होता है जोकि एक समय के अनुभव से ही सारे जिसमें कि यह स्वयं को अत्यन्त भूल जाता है और जगत के अनुभवो को फीका सिद्ध कर देता है । स्वयं को चैतन्य तत्व रूप अनुभव करता है । यद्यपि यह सम्यग्दर्शन स्वयं चैतन्य तत्व से मात्र इस तरह भगवान महावीर का वास्तव में यह 'अहं' की मान्यता रूप है यह तो हुआ इसका कितना वैज्ञानिक एवं विलक्षण चिन्तन है जो कि तात्विक पक्ष । इसके भावनात्मक पक्ष पर विचार जगत के जीवों को आमन्त्रण देता है कि भाई इस किया जावे तो यह अपने लिए चैतन्यतत्व का 'अहं' पर से परम निरपेक्ष मार्ग को स्वीकार कर अपने नहीं मानता बल्कि 'मैं' स्वयं चैतन्य तत्व हूँ। दयनीय दिनों को मिटाकर एक अभूतपूर्व जीवन ऐसा मानता है। इस भेद से पार अत्यन्त अभेद जियो जिससे कि सारी बृत्तियों का दरिद्रपन एवं की अनुभूति रूप सम्यग्दर्शन हैं जिसमें कि वस्तु मृत जीवन समाप्त होकर एक नये आनन्द का व्यवस्था का तनिक भी घात नहीं है। सुप्रभात हो जो कि कभी क्षय को प्राप्त नहीं होता। 5/11 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN CULTURE D Arihan Mukesh Jain Kota After achieving enlightenment at the some rituals with the help of others. age of 42, Lord Mahavira toured diffe- A path laid dowd by him consisted of rent parts of the country for 30 years right faith, right knowledge right conto preach the Principles and rules of duct. Further, he impressed on the conduct as laid down by Jainism. This peopie the theory ot Karma which is had a considerable impact especially based on the principle of self reliance. among the down trodden sections of This theory of Karma has been an orithe mankind. As a result the number ginal and integral part of Jain idealogy. of confirmed adherents to the Jain Lord Mahavir laid great emphasis on the religion began to increase steadily. observence of Ahimsa i. e. non injury to Lord Mahavira organised his followers living beings. Ahmisa was realised and in to a compact social order quite disti- preached by 23 Thirthan kars preceding nct from that of the Brahamaic one of him. In fact the philosophy and rules the Vedic period who had begun to of conduct laid down in Jaina religion claim superiority and even sacredass for have been based on the foundation of themselves. ahimsa. By propagating the principle Lord Mahavira threw open the doors of ahimsa he launched a vigorous attack, of Jainism to all regardless of class against meat eating and evils. like Shudras and women who were As the principle of Ahimsa permeats barred from the right of intiation and the life of Jains; the Jain culture is investment with the sacred thread. The referred as ahimsa culure. If the Jains very sight of woman and Shudra were are known for anything it is for the considered inauspicious. evolution of ahimsa culture practised Lord Mahavira revolutionised the and propogated from ancient times. attitude of the people towards God. The Indeed. it is admitted that as result common belief according to Vedic of the activities of the Jains for the last theory, still prevails. was that the world so many centuries ahimsa still forms the was created by God and that God substratum of Indian character as a carried on the work of controlling the whole. avents in this world. This popular blind Dr. B. A. Saletore has rightly obsebelief created a sense of complete rved in this regard that "the principle of dependence on God. Ahimsa is partly responsible for the Lord Mahavira launched an attack greatest contribution of the Jains to on this attitude. He asserted that this Indian culure-that relating to toleration. world was eternal and had not been Whatever may be said concerning the created by any power and that the happ- reigidy with which they have maintaenings in this world were not controlled ined their religious tenets & the tenacity by God. He proclaimed that nothing here and skill with which they met and defor else where was dependent on the ated their opponents in religious dispufavours of God. But everything depe- tations, yet it can not be denied that the nded on the actions of the individual. Jains praifesed the prineiple of toleration He stated that all persons could achieve more sincerely and at the sa salvation by observing ethical code of more successfully than any other commconduct and not by merely peerforming unity in India." 5/ 12 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के जन्म दिवस की शुभ बेला आई प्रसारण, महावीर के जन्म दिवस की शुभ बेला आई | हुआ जब अत्याचार चारों ओर नदियाँ लगी बहने खून की अज्ञान के कारण । तब कुण्डलपुर में त्रिशला सिद्धार्थ के भवन, जन्मे वीरप्रभु दूर करने मिथ्यात्व के भ्रमण | वीर प्रभु के आगमन से पावन धरा हुई । महावीर के जन्म दिवस 11 को अपनाया, राज ताज छोड़ प्रभु ने जंगल नहीं मात पिता, सुख-संपत्ति का ध्यान आया । सम्यक्त्व की किरण से स्व-पर का प्रकट भेद दिखाया, मोह निद्रा में सोये जग को दिव्य ध्वनि से जगाया । वर्द्धमान ने सन्मति की शीतल गंगा बहाई | महावीर के जन्म दिवस 11 .... मानव ही दानव बना रक्षक ही भक्षक, वीर ने सिखाया सब को धर्म अहिंसा का सबक । शिवपुर के पथिक ने बनकर ज्ञान की मशाल, छाये हुए अंधेरों को मिटा दिया तत्काल । 'जीवो प्रोर जीने दो सभी को लेकर संदेशा भाई । महावीर के जन्म दिवस 11 08.0 सुश्री हेमलता जोहरापुरका सुख, शान्ती अरु प्रेम का प्याला हमें पिलाया, अति वीर ने जिन धर्म का झण्डा ऊँचा फहराया । मानव को वीतरागता का पाठ पढ़ाया, मर्म आत्म धर्म का सब जग को बताया । 'अमर है यह धर्म' गूंज उठी शहनाई । महावीर के जन्म दिवस 11 .... .... 5/13 प्रतिनिधि महिला प्रधान क्षेत्रीय बचत योजना 57, नंदनवन कॉलोनी नागपुर - 9 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान गोम्मटेश्वर का महामस्तकाभिषेक तथा संत समागम और वैयावृत्त्य योगेन्द्रकुमार जैन AMARIA लेख बताता है कि महामस्तकाभिषेक के इस पूण्य अवसर ने नवयुवकों को श्रमण परम्परा के दीर्घ इतिहास में अन्तदृष्टि प्रदान की है। लेखक ने वहां आये मुनिजनों की वैयावत्ति भी की है और वह समाज का उस और ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं । -सम्पादक रत्नत्रय के महान् साधक प्राचार्य भद्रबाहु मुनि कम मिलता है। कन्नड़ कवि शिवकोट्याचार्य ने श्रवणबेलगोला के संस्थापक हैं। इ. स. 600 के प्राचार्य भद्रबाहु मुनि के जीवन का विस्तृत वर्णन लगभग के दो शिलालेखों से ज्ञात होता है कि सम्राट किया है। चन्द्रगुप्त और उनके गुरू प्रा. भद्रबाहु मुनि के प्राग बाल ब्रह्मचारी प्राचार्य भद्रबाहु मुनि को जो मन से यह अज्ञात कोना धर्मनिष्ठ संतों का प्रिय पारा- श्रतकेवली थे मनिसंघ की चर्या व साधना की धना स्थल हुअा होगा। चन्द्रगिरि जिसका एक प्राचीन देखभाल का दायित्व सौंप कर गोवर्धन मुनि ने नाम 'कलबप्पु' पहाड़ भी है ई० पू० 3री और समाधिमरण प्राप्त कर लिया था। ग्राम में एक ई० सं० 12वीं सदियों के बीच श्रवणबेलगोला के । रात, शहर में पांच रात, जंगल में दस रात बिताने इतिहास पर छा गया था। इस प्रदेश को, जो ('ग्रामेकरात्रं, नगरे पंचरात्रं, अरण्यां दशरात्रं') एक घना जगल था, रहने योग्य बनाने के प्रवर्तक __ के मुनि नियम के अनुसार वे ग्राम-ग्राम, नगरप्रा० भद्रबाह मुनि हैं तथा 'जिन' धर्म के दक्षिण नगर में विहार करके अपने मूनि समुदाय के साथ में हुए प्रसार के आधार भी है। अपने शिष्य । उज्जियिनी नगरी पहुंचे और नगर के बाहर के गरणों के साथ 'कलबप्पू' पहाड़ पर आकर उन्होंने उद्यान में ठहर गये। प्राचार्य भद्रबाहु मुनिराज समाधिमरण प्राप्त किया जिससे यह पर्वत के के आगमन की खबर सुनकर सम्राट चन्द्रगुप्त पवित्र बन गया, वहाँ का समूचा वातावरण उनके दर्शनों के लिये आये और मुनि से प्रभावित शुभ परमाणुओं से व्याप्त हो गया। इनसे शुरू न होकर, धर्मोपदेश सूनकर उनने भी श्रावक व्रत के की गयी समाधिमरण की परम्परा को सैकड़ो सन्यासिनियों, श्रावक-श्राविकाओं ने जारी रखा। लेकिन इस महान व्यक्ति के बारे में उल्लेख बहुत एक दिन प्राचार्य भद्रबाहु पाहार के लिये 5/14 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक घर में गये वहां पालने से भूल रहा एक नन्हा बालक बोला - "अरे भट्टार जा, जात्रो" देववाणी समझकर मुनि ने पूछा - "कितना समय ?" तो बच्चे ने कहा - " बारह बरस ।" आचार्य भद्रबाहु अपने निमित्तज्ञान से इसे अकाल की सूचना समझकर, साधुनों पर श्रागे होने वाली आपत्तियों का पूर्वाभास पाकर उस दिन “लाभ करके" (आहार गृहण न करके ), वापस आ गये और मुनि संघ को राज्य में होनेवाले दुर्भिक्ष के बारे में बताया । उसी समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने स्वयं के देखे हुये सौलह सपनों को श्राचार्य को सुनाया और प्राचार्य से अपने स्वप्नों का फल पूछा तथा भावी प्रापत्ति को जानकर स्वयं भी राज्य त्याग कर, दीक्षा स्वीकार करके संघ में शामिल हो गये । श्राचार्य भद्रबाहु ने कहा "इस प्रान्त में बारह बरस तक वर्षा न होकर भारी दुर्भिक्ष हो जाने सारा मध्य देश बरबाद हो जायगा । इस प्रान्त के ऋषि-मुनियों के व्रत साधना का निर्वाह नहीं हो सकेगा । अतएव, हम सब दक्षिण देश की ओर चलेंगे" । चन्द्रगुप्त मुनि सहित बारह हजार मुनियों के समुदाय के साथ वे चल पड़े, और ग्राम, नगर, जंगल में विहार करते हुये वे 'कलary' (श्रवणबेलगोला ) पहुंचे । चन्द्रगिरि पर ठहरे हुये श्राचार्य भद्रबाहु मुनि ने यह जानकर कि अपनी आयु बहुत कम है मुनि समुदाय को आदेश दिया "हम यहीं समाधि लेंगे, आप सब आगे बढ़िये" और अपने एक बड़े शिष्य को संघ का प्राचार्य पद देकर उसे संघ का नेतृत्व सौंप दिया। मुनि चन्द्रगुप्त संघ के साथ आगे नहीं गये वे गुरु की सेवा में वहीं ठहर गये । भद्रबाहु मुनि पहाड़ की एक गुफा में रहकर चतुर्विध प्रहार तथा शरीर से सम्पूर्ण निवृत्ति पा गये । 'अवमोदर्य चरिगे' (यानि 32 ग्रासों में से हर एक दिन एक एक ग्रास कम खाते जाना) स्वीकार करके क्षीरणकाय सहित समाधि में लीन हो गये और समाधिमरण के परिणामस्वरूप उस दिव्यात्मा ने ब्रह्मकल्प स्वर्ग में 'अमितकांति' नाम के देवता के रूप में जन्म लिया । चन्द्रगुप्त मुनि भी बारह बरस तक तपस्या करते रहे। आयु के अन्त में कठिन तपस्या कर, परम श्रेष्ठ तथा परिशुद्ध रत्नत्रय की साधना से, सन्यसन क्रम से चन्द्रगिरि पहाड़ पर देहत्याग कर ब्रह्मकल्प में श्रीधर नामक देवता के रूप में जन्म लिया । सन्यसन अपनाकर, ग्रात्म-साधना करते हुये भूख, प्यास, शीत, ऊष्ण, दंश इत्यादि बाईस परीषहों, को सहते हुये परम पवित्र रत्नत्रयों की सिद्धि कोई भी मोक्ष पद पा सकता है । 10वीं सदी में चामुण्डराय ने अपने श्राघ्यात्मिक गुरु सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्राचार्य की भक्ति-साधना व अपनी माता काललादेवी की प्रेरणा से विश्वतीर्थ श्रवणबेलगोला में 57 फुट ऊँची भगवान बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण करवाया । उस ई. सं. 981 में बड़ी धूमधाम के साथ प्रथम महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ । इस शुभ्र - श्वेत सरोवर के गाँव में ई. 981 के बाद फिर एक ऐसा सूर्योदय हुआ जिसने गोम्मटेश्वर के एक हजारवें साल का महामस्तकाभिषेक देखा । 20वीं सदी के सन् 1981 फरवरी माह में सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य मुनि श्री विद्यान्दजी के सान्निध्य में इस प्रतिमा के हजार साल व 71वां महामस्तकाभिषेक का कार्य सम्पन्न हुआ । इसमें लगभग 151 साधु-साध्वी व लाखों की तादाद में भक्त सम्मिहुये । यह सम्मेलन ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ । इस सम्मेलन का दृश्य इ. सं. 981 में हुये सम्मेलन का बिम्ब लग रहा था। उत्तर ने तीर्थङ्कर दिये लेकिन दक्षिण ने उत्तर को कुछ " अनुत्तर" दिया है और दोनों हाथों से उन्मुक्त दिया है । 5/15 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध व अरहंत देव की परम्परा के निर्वाहक उनके समागम से उपस्थित भक्त-जन समुदाय कृत साधु ही हैं । प्राचार्य (गुरू) और भगवान गोम्मटे- कृत्य हो रहा था। इस काल में इतने दिगम्बर श्वर इसके जीते जागते उदाहरण हैं; जय धवला साधु-साध्वी के संघ का एक स्थान पर एकत्रित और महाधवला जैसी अनुपम कृतियाँ हैं । जहाँ होने का यह अपूर्व अवसर था ओर भक्त श्रावक कला और शिल्प का सम्बन्ध है भारत का दक्षिण जन सब की भक्ति बड़े मनोयोग व भाव विभोर प्रदेश अद्वितीय है । वह उसकी खान है, वहाँ उसका होकर कर रहे थे। वे अपने आपको धन्य समझ अनमोल खजाना है। श्रवणबेलगोल तो इन सबमें रहे थे । इतने बड़े संत समुदाय के साथ उनका सिरमौर है, चिर-स्मरणीय है। भारत में ऐसे समागम हो रहा है और इस पुण्य अवसर को स्थान बहुत कम हैं-जहाँ पर शक्ति, शील, श्रम, वह अपने हाथ से जाने नहीं देना चाह रहे थे। श्रुत, सौंदर्य आदि श्रमण परम्पराओं के तत्वों का इस अवसर पर उपस्थित होने के लिये लगभग इतना संतुलित समन्वय प्रकट हुआ हो । गोम्मटे सभी सन्तों को स्वयं बहत परिश्रम करना पड़ा श्वर को नि शल्य करने में ब्राह्मी एवं सुन्दरी की था। उन्हें एक दिन में 20-20 मील तक चलना गाथा, गोम्मटेश्वर की विशाल प्रतिमा के निर्माण पड़ा और कभी-2 तो बिना आहार के ही चलना में माता काललादेवी की व्रत साधना, अरिष्टनेमि . के स्थितिकरण में उसकी पूज्य माता, प्रथम महा पड़ा। उन्हें कैसी भी तकलीफ क्यों न सहनी पड़ी मस्तकाभिषेक की सफलता में बुढ़िया गुल्लिका . हो लेकिन वे उन सभी तरह की विपत्तियों को यज्जी की भूमिकाएं, उनकी गाथाएं अब भी स्मति सहते हुये जल्दी से जल्दी इस शुभ अवसर पर पटल पर सहसा प्रतिविम्बित हो उठती हैं। उपस्थित होना चाहते थे और समय पर पहुंचने की मानवता एक तरह से श्रव गबेलगोल की सभी को उत्सुकता थी। यह महामस्तकाभिषेक सभी को इतना आकर्षित कर रहा कि उसके इस पावन भमि में बिना किसी भेदभाव के सामने सारी समस्याएं गौण हो रही थी। अर्जुन बंद्धमूल हैं। की चिड़िया की प्रांख की तरह सभी का एक लक्ष्य विश्व के इतिहास में ऐसी विशाल अन्य कोई था-सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक दर्शन । प्रतिमा देखने में नहीं पायी जिसके साथ नर-नारी दोनों की गरिमा, इतने वैभव के साथ जूडी हो। 20-20 मील बिना आहार के चलते रहने गोम्मटेश्वर जहाँ एक अोर शक्ति व स्वस्ति के से साधु-संतों को कई रोगों ने ग्रसित कर लियाप्रतिबिम्ब हैं वहीं ---नारी की शक्ति महान् है, वह जिसका मूल कारण थकान था; निराहार अवस्था प्रेरणा की स्रोत है और पुरुष की त्रुटियों के में ऊष्मा की वृद्धि थी; ये ज्यादा चलने से व शोधन में उनका महान योगदान है। आहार नियमित न होने से उत्पन्न गर्मी द्वारा हए थे। इस सहस्त्राब्दि महामस्तकाभिषेक के अवसर विहार व महोत्सव के कारण सन्तों के पर प्रमुखतः तीन प्राचार्य ससंघ उपस्थित थे- अध्ययन-मनन-चिन्तन में पाए अन्तर के कारण आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज, वात्सल्य अपने मानसिक भोजन की कमी अनुभव कर मूर्ति प्राचार्य श्री विमल सागर जी महाराज एवं रहे थे। स्वास्थ्य के बारे में भी स्वयं भी सिद्धांत चक्रवर्ती एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी कुछ नहीं समझ पाते थे कि उन्हें क्या तकलीफ तथा अन्य मुनि संघों के साधु-साध्वी उपस्थित थे। क्यों कर हो रही है ? स्वाध्याय की कमी व 5/16 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यवस्थितता के कारण उत्पन्न चित की खिन्नता है। 'पुष्प आयुर्वेद' नामक ग्रन्थ में लगभग 22 स्पष्ट अनुभवगम्य थी। ऐसे अवसर पर साधु की हजार फूलों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार परिचर्या अत्यन्त आवश्यक थी।* साधना में देह सहायक बनी रहे इस दृष्टि से जैनाचार्यों ने अपने रचित शास्त्रों के माध्यम से मन-वचन और काय ये तीनों भावना और मार्गदर्शन किया है। शिवकोटि प्राचार्य ने अपने कर्तव्य निर्वाह में सहायक हैं। ये तीन धाराएं हैं ग्रन्थ 'भगवती पाराधना' में श्रावक व साधु दोनों जिनका समुचित संयम साधना के लिये आवश्यक के लिये ही अपने अपने योग्य कर्तव्य की ओर है। मनि संयम द्वारा मन पर विजय प्राप्त करता इंगित करते हुए कहा है :है तो वचन श्रीर काया पर विजय तो अहंत अवस्था में ही होती है। इस प्रकार अहंत होने "वैयावृत्यं हि तपसो हृदयम्' तक काया की संभाल आवश्यक होती ही है। काया पदगल है जीवनोन्मक्त होने तक उसका अर्थात्-वैयावृत्य ही तप का हृदय है। साहचर्य है जिसके कारण उसका महत्व है। दूसरे शब्दों में तप साधना में वैयावत्य उसी प्रकार प्राचार्यों ने शास्त्रों के माध्यम से इन सबका महत्वपूर्ण है जैसे-शरीर संचालन में हृदय है । महत्व और गृहस्थ और साधु के अपने-2 कर्तव्यों . जैन साधुनों की चर्या के अनुकूल उनके रोग के बारे में निर्देश दिये हैं। निवारण की क्रिया होनी चाहिये । वे एक समय काय की रक्षार्थ स्वयं प्राचार्यों ने आयुर्वेद ही आहार व जल ग्रहण करते हैं। यदि उन्हें कोई ग्रन्थों की रचना की है जिसमें पूज्यपाद स्वामी औषधि देनी हो तो वह उसी समय ही दी जा द्वारा रचित 'कल्याणकारकम्' एक प्रसिद्ध ग्रन्थ सकती है। इस सम्बन्ध में यहां इतना समझ लेना *जैन दर्शन में मुनिचर्या का पालन कठोर है। शुद्धता को ही देखता है तथा व्यक्तिश: उसकी मुनि का लक्ष्य मोक्ष पद की ओर बढते जाना है। क्या प्रकृति है, उन्हें किस प्रकार का आहार देना इस मार्ग में ध्यान, त्याग, तपस्या श्रीर मौन उसके चाहिये, का ज्ञान उसे नहीं है। जिससे साधुजनों आधार रहते हैं। इसलिये वह अपने भोजन व को हम (श्रावक-गृहस्थ) स्वस्थ रहने में सहयोग विहार के बारे में नहीं सोचते हैं। परन्तु शरीर नहीं कर पा रहे हैं। आजकल प्राहार में फलों की प्रकृति तो संभाल चाहती है। वह एक संभाल का रस देने का प्रचलन बढ़ रहा है। जिससे वायु श्रावक द्वारा की जाती है। लेकिन वर्तमान में इस (गैस) रोग ज्यादा हो रहा है तथा ठण्डे के साथ व्यवस्था में कमी आती जा रही है और बल के गर्म; दूध के बाद दही या रस इत्यादि दिया हीन योग से शरीर कई रोगों से ग्रस्त हो जाता जाता है जो बेमेल होने से रोग उत्पन्न करते हैं। है । मुनि का स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता हैं जिससे आहार के विषम होने से संतुलन बिगड़ता है उसे अध्ययन-मनन-चिन्तन-ध्यान में साधक बल जो स्वास्थ्य में पाई विकृति का प्रमुख कारण की हीनता क्लेश का कारण होने लगती है। होता है । साधु अपनी साधना में निराकुल होकर प्रआधुनिकता की चकचौंध में गृहस्थ ने अपनी होकर लगा रहे, उसके योग्य बना रहे, इसके लिये बुजुर्ग पीढ़ी से पाहार क्रम का ज्ञान पूर्णतः नहीं मुख्य दायित्व गृहस्थों का ही है। प्राप्त किया, जितना पाया, उसमें वह तो सिर्फ 5/17 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही पर्याप्त है कि साधु को केवल शुद्ध, प्रासुक व कर साधुजन, त्यागी व व्रतीगण एकत्रित हुये थे। शास्त्रानुसार प्राविधित औषधि ही सेवन कराई मार्ग के कष्ट व थकान से कुछ का स्वास्थ्य जा सकती है। ऐसी औषधियों की शुद्धता व असंतुलित हो गया था। ऐसे समय में गृहस्थों प्रासुकता की प्रामाणिकता का दायित्व गृहस्थों पर द्वारा उनकी वैयावृत्ति नितान्त आवश्यक थी। है। इस प्रकार जहां एक ओर साधुजन मार्गदर्शक जहां एक ओर श्रावकों पर उनके आहार का है वहां गृहस्थ उसका अनुपालन कर साघु के दायित्व था तो उनके साथ ही आहार के संतुलित संयम पालन में सहायक होता है जैसे समुद्र से होने तथा रोग विवारण हेतु औषधोपचार की जल बादल रूप में उठकर दूर भूखण्ड पर बरसता भी आवश्यकता थी। जहां औषधोपचार संभव है और वह जल बहकर नदियों के माध्यम से नहीं था, वहां बाध्य उपचार से रोग निवारण पुनः समुद्र में पहुंच जाता है। इस प्रकार साधु आवश्यक था । औषधि, आहार, परिचर्या ये सभी और गृहस्थ एक ही रथ के दो चक्र हैं--दोनों को तो वैयावृत्य के अंग हैं। वैयावृत्य न केवल जीने एक दुसरे का ध्यान रखकर चलना होगा तभी यह के लिये आवश्यक है अपितु साधना के लिये तथा समाज रूपी वाहन सुचारु रूप से चल सकेगा। निराकूल मरण के लिये भी आवश्यक है व सहायक है। परन्तु आज का गृहस्थ आहार की अनुकूलता श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषेक के अवसर प्रतिकूलता के बारे में जानकारी नहीं रखता। बेमेल और गरिष्ठ पदार्थ साधुजनों को आहार में पर लगमग 151 साधु-साध्वी व लगभग 451 त्यागी-व्रती थे, उन साधूजनों, त्यागी-व्रतियों की दिये जाने पर उनकी साधू चर्या में बाधा आती है.. वैयावृत्ति व परिचर्या का कार्य विशेषतः वैद्य सुशील रोग खड़े हो जाते हैं जो साधना वृत्ति में क्लेश उत्पन्न करते हैं। बेमेल पदार्थों के हमेशा दुप्परि कुमारजी के निर्देश में जयपुर की वैयावृत्ति समिति के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने किया। कतिपय देहली के णाम होते हैं जो रोग उत्पत्ति के कारण हो जाते हैं । इसलिये गृहस्थ के लिये आवश्यक है कि वह श्रावकों का सहयोग भी प्रशंसनीय था। साधु की प्रकृति, उसकी आवश्यकता को ज्ञानपूर्वक औषधोपचार के अतिरिक्त प्रकृतोपचार समझकर ऐसा पाहार उपलब्ध कराये जो उनकी (जैसे-शिथलीकरण, सम्यक्करण, ठेपन, अभ्यंग, चर्या में सहायक हो व उनके स्वास्थ्य की रक्षा कर मर्दन, प्राश्योतन, उर्दूलन (उद्धोवन) इत्वादि) सके। के माध्यम से रोग निवारण के सफल प्रयोग किये गये । प्रातः 5.30 बजे से 8.00 बजे तक, मध्याह्न . साधु अरहंत का प्रतीक है। 1.00 बजे से 5.30 बजे तक और सायं 7.30 से - साधु धर्म का उपदेष्टा व साधक है । 9.30 बजे तक (इसके अतिरिक्त आपातकाल में साधु परमेष्ठी है। भी) नियमित रूप से नित्य प्रति जो सेवा का अवसर . साधु संस्था जीवित रहेगी तभी धर्म जीवित मिला-वह सभी के लिये अत्यन्त उत्साहवर्धक रहेगा और इसी प्रकार साधु के उपदेशों से गृहस्थ __ रहा । वयोवृद्ध प्राचार्य श्री देशभूषणजी महाराज, सम्यक् रूप से गृहस्थ धर्म का पालन कर साधुजनों आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज, की वैयावृत्ति करने में अग्रसर हो सकेगा। भट्टारक श्री चारूकीर्ति स्वामीजी सहित अन्य श्रवणबेलगोला में अनेकों मीलों की दूरी तय साधुजनों, त्यानी-वृत्तियों की सेवा व परिचर्या से 5/18 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आत्मतोष मिला वह अवर्णनीय है तथा प्रभूत- नियमों का परिपालन करें व उन्हें अपने जीवन का पूर्व था। ऐसे समागम से जो प्रेरणा प्राप्त हुई अंग बनालें। उसके फलस्वरूप श्रवणबेलगोल में एक आयुर्वेदिक औषधालय की स्थापना की गयी जो जन साधा- मुझे भी वैयावृत्ति की प्रेरणा व यह पुनीत रण के रोग निवारण में अपना सहयोग प्रदान अवसर वैद्यसुशीलकुमारजी के सान्निध्य व निर्देशन करेगा। आर्थिक रूप से ऐसे पुन्य कार्य में सहायक में मिला। मैं उनका सदैव आभारी रहूंगा। सभी व्यक्ति साधुवाद के पात्र हैं। इसके साथ ही सन्तों की वैयावृति से मुझे तथा मेरे साथियों को जो सभी जनों का यह कर्तव्य है कि वैयावृत्ति में प्रात्मतोष मिला उसकी स्मृति हमारे जीवन की सक्रिय रूप से भाग लें और स्वास्थ्य सम्बन्धी अनुपम निधि है । 1130 महावीर पार्क, जयपुर साम्यवादी धर्म जिस धर्म में केवल अपने आपको जीतना सबसे बड़ी विजय हो, वह वास्तविक साम्यवादी धर्म है । आज के लौकिक साम्यवाद से न कहीं सुख ही, न कहीं शान्ति, केवल अशान्ति का एक हाहाकार मचा हुआ है । वह साम्यवाद संघर्षवाद बन गया है। 5/19 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'केवल ३१ बातें सीखो' वचनमति माताजी अगर जीना है तो प्रात्मोद्धार के लिये जीनो। अगर सीखना है तो आत्मरमण करना सीखो। अगर पढ़ना है तो चारों अनुयोगों को पढ़ो। अगर चलना है तो शास्त्रानुसार चलो। अगर छोड़ना है तो मिथ्यात्व को छोड़ो। अगर पूजना है तो सच्चेदेव शास्त्र गुरू को पूजो। अगर सत्संग करना है तो साधु संतों का करो। अगर देना है तो चार प्रकार का दान दो। अगर खाना है तो गम खायो। अगर पीना है तो ज्ञानामृत पीयो । अगर प्रेम करना है तो प्रभु से करो। अगर मंत्र जपना है तो णमोकार मंत्र जपो।। अगर लड़ना है तो कर्मों से लड़ो। अगर जीतना है तो इन्द्रियों को जीतो। अगर धोना है तो कर्म मैल को धोनो। अगर बनना है तो सम्यक्दृष्टि बनो। अगर देखना है तो स्वयं को देखो। अगर जानना है तो स्व को जानो। अगर जागना है तो मोह नींद से जागो । अगर सुधारना है तो स्व को सुधारो । - अगर लेना है तो दीक्षा लो । अगर बोलना है तो सत्य बोलो । अगर प्रचार करना है तो अहिंसा का करो। अगर नहीं करना है तो रागद्वेष मत करो । अगर साधु बनना है तो निष्परिग्रही बनो । अगर चर्चा करना है तो तत्वों की करो । अगर ध्यान करना है तो शुक्ल ध्यान करो। अगर पाना है तो वीतरागता को पायो । अगर ठहरना है तो प्रात्मा में ठहरो । अगर ज्ञानी बनना है तो केवली बनो । अगर मरना है तो पंडित-पंडित मरन से मरो। 5/20 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड आंग्ल भाषा (English Section) 1. The Concept of Dharma in Jainism 2. Leshyas: Thought Forms and Colours Shri Virendra Veer Baj 3. Accounting of our actions in Jainalogy Shri R. C. Sethi Date of Constructions Jain Keertistambh of Chittor Dr. Harmendra Pd. Verma Shri Ram Vallabh Somani 1 10 16 19 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE CONCEPT OF 'DHARMA' IN JAINISM Dr. Harendra Prasad Verma, Reader, P. G. Department of Philosophy, Bhagalpur University, Bhagalpur (Bihar). The word "Dharma' has generally been equivocally used in Indian philosophy to mean both morality and religion. But in fact, morality and religion are different, because while morality is concerned with the overt conduct, religion is concerned with the inner self. Religion is the centre, morality is its circumference. The change of centre necessarily leads to the change of circumference, but not conversely; the overt conduct is the shadow of the inner salf. Hence morality is dependent on religion and religion is the pre-condition of morality. morality is a social necessity, whereas religion is the personal pursuit; it is the "flight of the alone to the Alone." Morality is extroversion, religion, is introversion; it is subjective inwardness or "Home-coming' (Pratikramana). Morality consists in remaining within the boundary, whereas religion consists in transcending it. It is going beyond all limitations, pressures and bindingsexternal as well as internal. It is freedom or Moksha. Dharma and 'Moksha' have to be distinguished as pursuarthas (ends of human endeavour). Moksha' is paimary, whereas 'Dharma is secondary, because 'Moksha' is more fundamental than Dharma'. When the word, "Dharma" is used in the sense of religion, it connotes the gnosis more than conduct. However, religion and morality are also intertwined, because spirituality essentially leads to morality 'seeing is doing'Samyag darshana (Right vision) and Samyag jnana (Right knowledge) are bound to result in Samyag charitra (Right conduct). Most of the theologians define religion as 'surrender to God (Isvara Pranidhana). For Schleirmacher, religion is "the feeling of absolute dependence" on God. According to Flint, "Religion is man's belief in a being or beings, mightier than himself, though inaccessible to his senses, but not indifferent to his sentiments, and the feeling and action which follow from such a belief". Obviously, these writers equate religon with theism and hold that theism is the model of religion. Flint has gone to the extent of saying, "Anything lower than 6/1 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ theism is not religion and anything more than theism is inconceivable". Naturally these writers do not regard Jainism and Buddhism as religions but only as moral systems. Whether Jainism is a religion or only a moral system is a separate issue, which we shall not discuss here. We shall only presume that Jainism is a religion of its own kind. It is not a theistic religion in the sense that it does not believe in surrender to and worship of a transcendent God who is personal in nature, and the Creator, Maintainer and Destroyer of the universe. For Jainism every soul is God (Appa so parmappa). Each soul is perfect in its pristine purity, and need not bow down before any external deity. Religion is self-search, self-discovery and self-realization. God is in the depth of every being. One has simply to dig Him out. Hence in place of taking refuge in God (Ishvara Pranidhana), Jainism lays stress on taking refuge in one's own self (Atma Pranidhana). Lord Mahavira has defined "Dharma" as the nature of thing and being (Vatthu sahavo dhammo). The nature of fire is to burn, hence it is its dharma. Similarly what is the essential nature of man, is his dharma. But the question is, 'what is the essential nature of man ?' Ordinarily we take a man as a Psychophysical being who has passions and cravings for the things of enjoyment. But Lord Mahavira held that man is not only body but, above all, he is the self, and the characteristic of the self is consciousness. (Chetna lakshano jivah1 ). To be in pure consciousness is to be in one's essential nature. The passions and cravings are there, only so long as man is in ignorance. The life of ignorance is the life of bondage (Murccha Parigrahah).The life of knowledge is the life of freedom. As religion is freedom (Moksha), Mahavira maintains that "Irreligious is he who is in ignorance, and religious is he, who is awakened" (Sutta amuni, munino saya jagaranti). 3 Hence religion is 'self-awakening; it is being in-the self. The characteristic symptoms of not being-in-the self or ignorance are anger (Krodha) greed (Lobha) egotism (Mana) and attachment (Maya). On the contrary, the characteristics of self-awakening or dharma are : forgiveness (Ksama), humility (Mardava), simplicity (Arjava), contentment (Sauca), truthfulness (Satya), self-restraint (Samyama), Penance (Tapa). Sacrifice (Tyaga), voluntary poverty (Akinchanya)and celibacy(Brahmacharya).4 These have been called as the ten charactertistics of Dharma. Like Socrates, Lord Mahavira also believed that "Virtue is knowledge". "Knowledge precedes compassion" 1. Tattvartha Sutra, 2. Tattvartha Sutra, 7/17 3. Acharang Sutra, 3/10 उत्तम क्षमा मार्दव प्रार्जव शौच सत्य संयम, तपस्त्यागाकिचन्य ब्रह्मचर्याणि धर्माः । : ( 9/6) tit, ter, 455, 4199, | #, pà, foaic, antara 1 (FATAİT 99-10) 612 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Padhamam nanam tao daya).3 Compassion follows from gnosis in the same way as heat follows from fire. Hence being-in-self-consciousness or dharma is manifested in the following virtues - 1) Forgiveness (Ksma): When one is out of oneself, one has anger. Contrariwise, in the state of enlightenment, there is forgiveness (Ksma). The man of settied intelligence is naturally forgiving. Ordinarily, we believe that the external objects are the causes of anger, but, in fact, the source of anger is within; the external object is only an occasion for its outburst. One who is silenced from within, is nid of egoism, and hence, for him, there is no occasion for being angry with anybody, Even the external occasions for anger, does not make him angry, for he has compassion. According to Amrit Chandracharya, "Even when there are occasions for anger, but inspite of that, if one does not have the evil tendencies of comlaint and hurting others in the self, one is said to be in the state of forgiveness." In the Kartikeyanupreksha it is said, "one who does not have anger inspite of being tortured by angels, human beings and animals, have purity of heart and forgiveness of soul."6 All the great souls of the universe, who are the salt of the earth, have shown such type of forgivenesss towards the assailants. Jesus' last words for them who tortured and crucified him, were. 'Father, Forgive them; for they know not what they do". ? Lord Mahavira himself had to face many ordeals during his sadhana; he was tortured in so many ways, but he was even amidst all odds and maintained the attitude of forgiveness. Anger begets enemity; forgiveness fosters friendship. Unless one is completely rid of anger, one cannot be friendly to the entire universe. The source of friendliness is the complete eradication of anger. "Charity begins at home'. Thus those who want to be friendly to others, should cleanse their souls first, of all its dross and defilements. Hence Lord Mahavira said, "I forgiva all beings, and all beings may forgive me. I have friendship with the entire universe, and enemity with none.'S According to Lord Mahavira, anger is doubly pernicious. It not only affects those towards which it is directed, but it also affects those who harbour 5. Dasavaikalika Sutra, 4/10. क्रोधोत्पत्ति निमित्ता नामत्यन्तं सति संभवे । arnt argaretai #TEUTT 984: : 1 (arariter 414) 7. Luke, 23/34. 8. खम्मामि सब्बे जीवा, सब्वे जीवा खमंतु मे । fofer À for at HF#7 BYT 11 (997 30/3) 6/3 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ it. The angry man burns himself before burning others. Moreover, evil cannot be cured by fresh evil; anger cannot be conquered by fresh anger. Thus Lord Mahavira has suggested "to conquer anger by forgiveness, conceit by humility, passion by simplicity, and greed by contentment:"9 Jesus Christ also said, “Resist not evil; but whosoever shall smite thee on thy right cheek, turn to him the other also. Love your enemies, bless them that curse you; do good to them that despite you and pray for them who despisefully use you and persecute you.' 10 Forgiveness is not cowardice. It is the sign of bravery. (TT TTF yo) Only those who have courage of conviction, can forgive the assailant. The forgiveness of the weak, is only hypocrisy, the defence-mechanism of the ego. According to Lord Mahavira, only the wise men can be really forgiving." 2) Humility (Mardava): Egotism is the sign of Ignorance, contrariwise, humility is the sign of enlightenment. Humility is egolessness. It is the sweetness of temperament, word and action (Mridurbhavo mardavam). Humility is the nature of consciousness. While the ignorant one becomes puffed up after getting knowledge, wealth, good heritage and good caste, the wise one becomes humble in the same way as the tree bows down after being laden with fruits. "To be rid of the conceit of knowledge, devotion, good heritage, good caste, strength, wealth, penance and physique, is humility."'11 According to Amrit Chandracharya, "Even in the situation of insultation, if there is no feeling of pride for caste, etc.. and there is no sense of egotism, that is called humility."12 Humility is the door to wisdom, wealth and power. Jesus has rightly said, "Blessed are the meek; for they shall inherit the earth."1s "Blessed are the poor in spirit, for their is the kingdom of heaven."14 Lord Mahavira also said. "The conceitful falls victim of adversity; the humble one qualifies himself for wisdom and wealth." According to Lord Mahavira, "Humility is the root, and salvation 9. STTTT EM F Farat ferITI I To Wag for 11 (Tarf 77, 8/38) 10. Matthew, 5/39, 43 11. for a favor gifsai (TATTETET IT, 1/8) 12. urant us at gé: qfrwa FI TRATTATHATratate agerat fra le a 11 (acareant 6/15) 13. Matthew, 5/5 14. Matthew, 5/5 6,4 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ is the fruit of the tree of dharma. Through humility the Muni attains name, fame and the desired results."15 3) Simplicity (Arjava): While the sign of ignorance is complexity and crookedness, the sign of wisdom is simplicity or Arjava. Arjava is being simple (Rijobhavah iti arjavah). According to Amrit Chandracharya. the simplicity of mind, word and body, is Arjava. (Vak manah kayo yoganama vakratvam tadarjavam). 10 In otherwords, getting rid of hypocricy and crookedness is simplicity. (Arjavah kautilyadi vivarjitam)." Avoidance of complexity and clumsiness in word, thought and deed, is simplicity."17 Ordinarily, man is something from within and something else from without. The crooked one expresses himself as simple, the conceitful as humble and the greedy as charitable. This has been called the false face or 'persona' by the famous psychologist. C. G. Jung, Unless, one is rid of this persona, and one unmasks oneself, one cannot proceed on the path of dharma. For self-realization, the unity in thought, expression and action is essential. As Jesus Christ said, "Unless you turn to God from your sins and become as little children, you will never get into the kingdom of heaven. Therefore, anyone who humbles himself as the little child, is the greatest in the kingdom of heaven."18 4) Contentment (Sauca) : Ignorance is depicted in greed; naturally self-consciousness expresses itself in contentment. To get rid of greed is Sauca. According to Amrit Chandracharya, "Freedom from the four kinds of greed for things and beings is Sauca. 19 Sauca' is also defined as 'sucita' or purity. When the soul is purged of all its dross and defilements, it is called sauca. Usually the greed for wealth makes the mind impure. Hence Lord Mahavira said that he who has attachment for wealth cannot be liberated. The passion for enmassing wealth is the sign of greed. One who is attached to matter, cannot rise to the Spirit. "One 15. sa FHFR fast TCA È CTI oftor fæfir farei forente ara II (amaifa 97, 9/2/2) 16. Tattvartha Sara, 6/15 17. 915 47: #77 T TTH AFRO parani (azaretatt 7/15) 18. Matthew, 18/3-4. 19. Tatiana sifaafisat in: 1 afarerst alue faafar: atayua ,(acariera 6118) 6/5 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cannot have two masters, God and Mammon at the same time."20 Hence Jessu said, "It is easier for a camel to go through the eye of a needle, than for a rich man to enter in the kingdom of God."21 The attraction for wealth attaches the individual to the earth and hence he cannot go to the heaven. According to Lord Mahavira, 'One who enmasses wealth and does not distribute it properly, cannot be liberated. (Asamvibhagi nahu tassa mokkho).22 Passion is unquenchable (Duppu aea ime aya). The more one gets, the more one craves for. 2 3 The sign of the self-realized is contentment. Hence Lord Mahavira had always praised contentment. 24 According to him, "Those who wash away the defilement of greed and passion by the water of contentment and do not have attachment even for food, are pure in consciousness." 2 5) Truthfulness (Satya) : Truthfulness is the sign of wisdom. To describe a thing as it is, is truthfulness. Truthfulness expresses itself in word, thought and deed. What the wise man says, he translates that into action (Jaha vai taha kavi) 26 However, Truth is also accompanied with Beauty and Goodness. Thus it is not proper to speak the bitter truth. According to Lord Mahavira, while speaking truth, one must be conscious and detached, and speak only that which is for the good of the people."27 One should not hurt anybody by one's word. Hence instead of using absolute and categorical langauge, Jainism stresses on conditional statements and asks to qualify every judgement with "syat" (Relatively speaking) According to Lord Mahavira, "Truth is God." (Saccam khu bhagavan).2 8 Thus to be in truth is to be in God-consciousness. In other words, being in God-consciousness Is manifestsd in truthfulness. 6) Self-restraint (Samyam) : In the state of ignorance, one is always out of oneself and leads the life of recklessness and sensepleasure. Ignorance leads to extroversion and thus one 20. Matthew, 6/24. 21. Matthew, 19/24. 22. Dashavaikalika Sutra, 9/2/22. 23. HET ICI DEL TIET, FTET TIET.9375 i (IFTTTET47 17, 8/10) 24. pantu var afaruAT TARATI (Farain 97, 7/1) 25. TOT 377, stafz faos ataq OTA भोयेणगिद्दि विहीणो. तस्सु सुचित्त हवे विमलं ॥ 26. Sthananga Sutra, 10. 27. Uttaradhyayan Sutra, 19/27. 28. Prashna Vyakaran Sutra, 2/2. 6/6 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hankers after external things for pleasure. He identifies himself with the material things end hence is in bondage. It is only when one attains his self and enjoys the bliss of the soul, that one gets rid of the charm of the external. "Thus the wise one withdraws his senses from the external objects of sense and remains intent on the self in the same way as the tortoise withdraws his. limbs from without" 99 Self-restraint (Samyama) is thus the mark of enlightenment. Lord Mahavira has called this equanimity to be the mark of dharma. (Samyame samoo hoi). 30 By conquering one's senses, one becomes self-restraint (Jina) and enjoys the joy of the soul One who does not know the bliss of the soul, hankers after tho external things, but that only proves to be a mirage. Self-restraint or Samyama is of two kinds-Controlling the senses and abstaining from injuring other Jivas. According to Lord Mahavira one who restrains one's hand, feet, mouth and the senses, who is rapt in self-contemplation and absorbed in one self, and knows the real meaning of the scriptures, is the real mendicant (Bhikshu)."31 7) Penance (Tapa): Tapa is cootrolling one's mind (Mano nigraho tapah). It is the attainment of the state or 'No-mind'. Ordinarily one is flowing in the stream of thought, feeling, memories, dreams, etc. The thought-current is involuntary and man has no control over it. But in the state of self-consciousness the activity of mind is stopped. The activity of mind is termed as karma. Hence according to Amrit Chandracharya, "Tapa is that by which the karma is burnt." (Karam Kshya kayartham yattapyate tat tapah smritam).32 The activity of mind continues only so long as there is ignorance. In the state of self-consciousness, peace, tranquility and bliss manifest themselves, and one has complete mastery over oneself. 8) Renunciation (Tyaga): In the state of ignorance, there is attachment (Murccha Parigrahah), 33 On the contrary, in the state of self-consciousness, there is detechment which is termed as Tyaga. Tyaga is being detached to whatever is not-self. It is coming closer to oneself. It is because of ignorance, that the self identifies 29. Sutrakritanga Sutra, 1/8/16. 30. Uttaradhyayan Sutra, 25/32. 31. 79 T Tru- a- faci #TIT UTAFETCT, AFERE a faring of a f 32. Tattvarthsara, 6/18. 33. Tattvartha Sutra, 7/17. (ataFif# , 10/15) 617 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ it self with the not-self and has the sense of attachment (Mammatva) or "I and mine". But this attachment binds the individual with the material world. Hence, according to Mahavira, "one should never have attachment". (Mamatva bhavam no kahim pi kujja). 34 The renunciation is of two kinds-internal and external. Internal renunciation consists in abandoning attachment and craving, and external renunciation manifests itself in sacrifice and charity (dana). Charity (dana) is never having pity over the poor; it is giving everybody his due. Danam Samvidhagah. Granting food, medicine, Scripture and fearlessness to others is charity. It is external sacuifice. 9) Voluntary poverty (Akinchanya) : One who is established in the self has no attachment for the 'other'. He is contented with his own self. Hence he does not take from the external world more than what is needed for the maintenance of the body. Not to accept anything more than one's requirement is Akinchanya. It is non-possession or voluntary poverty. (No kincanah iti akincanh). Jesus laid emphasis on voluntary poverty.35 He said, "Sell out thy property and give alms to the poor. Think not for the morrow. Behold the fowls of the air, for they sow not neither do they reap, yet the heavenly father feedeth them. Are ye not much better than they." "Consider the lilies of the field, how they grow, they toil not, neither do they spin; And yet, I say unto you that even solomon in all his glory was not arrayed like one of these. Therefore take no thought, saying, what shall we eat ? or, what we drink? Take therefore no thought for the morrow; for the morrow shall take thoght for the things of itself." 36 Lord Mahavira examplified it in his life. He not only left the care for food and drink, rather he used to put difficult, rather impossible, conditions to test the will of the Providence. 10) Celibacy (Brahmacarya) : Brahmacarya is the conduct of the Brahman. The 'Brahman' means the perfact. In the state of ignorance, the ego is the master, guide and regulator of the conduct of the individual. But in the state of enlightenment, the ego is dissolved, and one has the life of the Brahman (Brahmacarya). He gets rid of the narrow egoistic considerations, and has the macrocosmic attitude. His entire life and behaviours are regulated by the cosmic point of view. (Brahmane carati iti brahmacaryah). When the small 'i' or the ego is obliterated, there is the emergence of the capital 'l' or the Self, and the personality of man has a completely new orientation. In the words of C. G. Jung, "It is as though the 34. Dashavai Kalika Churni, 2/8. 35. Matthew, 19-12 36. Matthew, 6//25, 28-29, 31, 34. 6/8 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ego were the earth, and it suddenly discovered that the sun (or the self) was the centre of the planetary orbits and of the earth's orbit as well."37 The passion and hankering for the object of sense take place when one has some sense of want. Want is the sign of self-forgetfulness. When one has inner perfection, there is no want and hence no passion-no extroversion. The individual has the joy of soul (Atmananda) and thus loses all charms in the objects of sense (Visayananda). He thus attains celibacy and self-restraint. Thus Brahmacarya is the mark of self-perfection and self-awareness, It is the virtue which follows from enlightenment. In this state, one gets rid of the attraction for opposite sex and becomes Nirveda. According to Lord Mahavira, "In the state of Nirveda, there is detachment from all objects of sense and one attains perfection and freedom."38 He becomes Kevali. From the suffering and boredom of loneliness, he has the joy and peace of Aloneness (Kevali). Thus to be in dharma is to be in self-consciousness. Dharma is thus enlightenment. It is freedom. The appearance of ten characteristics as described above vindicate that one is grounded in dharma. While the world is in the process of change and becoming, the self is the changeless being. Hence it is the self which is the real support. Jesus Christ has said, "The world is the bridge, cross it. Don't build house upon it." "Build your house upon the solid rock, and not on the sands." And that solid rock is the self. Hence Lord Mahavira has said, "In the torrential current of old age, disease and death, it is dharma which is the island, the support and the best refuge." 37. Jung, Modern Man in Search of a Soul, Routledge & Kegan Paul, London, 1961, pp. 80-81. 38. Uuttaradhyayan Sutra, 29/2. 39. Matthew, 7/24-25. 40. (Uttararadhyayan Sutra, 3/68) 6/9 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LESHYAS : THOUGHT-FORMS & COLOURS Birendra Bir Baj Leshyas (tints) are of two kinds : Dravya (material) Leshya and Bhava (thought : emotion) Leshya. One may have black exterior but of the other individual, the inner-self may be black. The first one, the black exterior does not do any harm but the latter one is of immense consequence. Various thoughts and emotions spring from actions of mind, speech and body prompted by passions and past Karmas. One besmeared by these is called as tinged by bhava or internal leshya. This leshya is the root cause of the endless cycle of rebirths since eternity and these lines are devoted to it. Broadly speaking intensest, intenser and intense are their degrees. They are six in number: Krishna (Black), Neel (indigo), Kapot (Dove-like-grey), Peet or Tejo (yellow)), Padma (pink, azure) and Shukla (white). The first three of these are considered as evil leshyas while the last three are regarded as of merit. The second group of leshyas, viz, tejo, padma & shukla, find only a limited room to play their role on the stage of universe in comparison to the other ones, i.e., Krishna, Neel and Kapot. The latter group in fact preponderates in this regard. Each succeding leshya is qualitatively superior to the earlier one in the ascending order. A person with Krishna Leshya is of violent temper, who, if once estranged cannot be reconciled notwithstanding any offer of presents or extension of respect. By nature he is used to filthy language and is fighting. Piety and kindness are far from him. He is wicked and cannot be overcome. Food, money, land, submissions, sweet-words and shower of praises all fail to win over him; they rather go to make him all the more stubborn. He is a libertine and dullard. Indulgence, deception and conceit are his other traits. The individual possessing neel-Leshya is both very lethargic and deceitful. He always very much longs to have pelf and property and is a braggart. One having Kapot leshya bursts on others. He accuses and defames them in a variety of ways. He is very mournful, frightened, intolerant, insulting and highly self-extolling. He does not repose confidence in others. His own praises give him satisfaction. He would rather pay for his own evlogies. He is incapable of taking decisions as to what to do or not to do. Gain or loss accruing to his own-self or others have no meaning for him. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Who can discern what is required to be done or not to be done, who knows who alone has to be shown regard and respect, who has equanimity towards all, love for charity and kindness, is soft of heart and speech and of behaviour, is a person called to be possessing Tej Leshya. One having Padama Leshya is sacrificing generous, good-natured, always attracted towards good deeds, ready to bear all troubles and stresses ungrudgingly and has love for praise and worship of superiors and saints. A person having the attributes of Shukla Leshya is impartial. He would toil without an eye on fruits. Equanimity is his high quality. He has no like or hate or any special attachment for children, friends or servants. The Leshyas govern the ceaseless process of re-births. All miserable beings in infernal regions possess one of the three evil Leshyas, viz. Krishna, Neel or Kapot, with their placements and durations according to their gravity. Tej, Padam and Shukla Leshyas award better births in higher/heavenly regions, with comfortable stations, stages & kinds of lives with attendant pleasures and spans according to the intensity of their degrees. Thoughtful people who have carefully and penetratively studied and observed lives of several types of persons have of late marked coloured auras and variety of thought-forms through clairvoyance. Mrs. Annie Besant & C. W. Lead Beater have recorded their such observations lucidly in their eminent publication "Thougt Forms" They say: "What is called the aura of man is the outer-part of the cloud-like substance of higher-bodies, interpenetrating each other, and extending beyond the confines of his physical body, the smallest of all." The mental and desire bodies are chiefly concerned with the appearance of thought-forms. "The mental body is an object of great beauty, the delicacy and rapid motion of its particles giving it an aspect of living iridescent light, and this beauty becomes an extra-ordinarily radiant and entrancing loveliness as the intellect becomes more highly evolved and is employed chiefly on pure and sublime topics." They further state : When the man's energy flows outward toward external objects of desire, or is occupied in passional and emotional activities, this energy works in a less subtle order of matter than the mental, in that of the astral world. What is called his desire-body is composed of this matter, and it forms the most prominent part of the aura in the undeveloped man. Where the man is of a gross type, the desire-body is of the denser matter of the astral plane, and is dull in hue, browns and dirty greens and reds playing a great part in it. Through this will flash various characterististic colours, as his passions are excited. A man of higher type has his désire-body composed of the finer qualities 6/11 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of astral matter, with the colours, rippling over and flashing through it, fine and clear in hue. While less delicate and less radiant than the mental body, it forms a beautiful object, and as selfishness is eleminated all the duller and heavier Shades disappear." Each definite thought has radiating vibration and floating form. As human thoughts are by no means simple, the radiating vibration becomes a complex one and the resultant thought-forms show several colours. The quality of thought determines colour while the form is subject to the nature of thought and clearness of outline is dependent on definiteness of thought. They have assigned meanings to important colour grouped thus : Black : Hatred and malice Red of all shades : Anger Clear Brown : Avarice Deep Heavy Grey : Depression Livid Pale Fear Grey green : Signal of deceit Brownish green : Jealousy Green : Adaptability Crimson Rose Pure pale rose : Affection : Absolutely unselfish love IV Deep orange Pale luminious primrose yellow : Pride or ambition Highest and most unselfish use of Intellectual power, the pure reason directed to spiritual ends. Different shades of blue Religious feeling. The beautiful pale azure of the highest form implies self renuniciation and union with the divine. The devotional thought of an unselfish heart is very lovely in colour, like the deep blue of summer-sky. Now a few illustrations of Thought-Forms as actually observed by them : Though they can be understood and appreciated only when the actual drawings and colour plates are seen, attempt has, however, been made here to explain them in words. It may be noted that each thought-form and its colour is governed by the various emotions and thoughts and other associated ideas running side by side with them and their intensity and the actual nature of the person concerned and as such they are likely to differ from person to person. 6/12 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Affection: Devotion: Intellect High Ambition: Anger: (i) Murderous Rage and sustained anger : (ii) Explosive anger : A revolving cloud of crimson rose represents pure feeling. Dull hard-brown-grey tinges it with selfishness. Carving looks are observed when there exists a strong craving for personal possession which may be called grasping animal affection. A shapeless blue rolling cloud denotes a "vaguely pleasurable religious feeling-a sensation of devoutness." A great cloud of deep dull blue floating over the heads of congregations may be sceen in many churches, Upward rush of devotion could be marked in the virile vigour of rising blue splendid form of spire. A definite "act of devotionan" "act of rather self-less-ness, or self-surrender and renunciation" is represented akin to the form of a partially opened flower-bud and "is of the loveliest pale azure with a glory of white light shining through it." It is a vague yellow cloud which means intellectual capacity. In the case of average man it is yellow ochre, while in respect to "intellect devoted to the study of philosophy or mathematics appears frequently to be golden, and this rises gradually to a beautiful clear and lumin ious brown or prim rose yellow when a powerful intellect is being employed absolutely unselfishly for the benefit of humanity." When the mind is determined to solve a problem or is resolved to obtain a full thorough answer to a query, the thought form assumes a shape resembling a cork-screw. It is indicated by rich deep orange colour coupled with hooked extensions for desire. In the case of a rough and partially intoxicated man who darted out at a woman as if he might slay her gave a picture of lurid flash from dark clouds'-though irregular in its shape in dirty brown. But in the case of 'steady anger, intense and desiring vengeance, of the quality of murder sustained through years, and directed against a person who had inflicted a deep injury on the subject there was a 'keen-pointed stilelto dart' in bloody red. Where an individual was at war with the whole world around him it was noticed that the form was of an irregular but 6/13 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iii) Watchful and it has peculiar has peculiar brownish-green colour with remarkable angry jealousy: resemblence to the snake with its head raised. It changes) into a vague cloud intersepersed with flashes of deep red anger ready to strike the object that has injured his feelings. Sympathy: Fear : Sympathy and love for all : vigorous explosion of irritation with the vacant centre (indicating disappearance of the feeling caused) and unevenly distributed radiated split rays of red and orangeiike hue. Here it is the form of a vague green cloud. When an individual is experiencing 'frenzied palpitation the form it takes is of hurling fragments like masses of rock during blast. Here the thought-form takes shape of a leaf with a curve which is "suggestive of a certain kind of shell." A series of graceful lines sufficiently broad and so close with luminous green of sympathy with the strong roseate glow of affection shining out between them appear on it. A practised clairvoyant and sceintist Dr. Frank Bara Nowgbi of Arizona University in the U. S. A. has also made a study of auras forming a biomagnetic field around human beings. He says, " some years ago, a camera had been perfected for what is called Kirlian photography, which takes pictures of the energy bands that surround the human body. With this camera, we can photograph the aura of man which very often extends beyond the limits of the physical body. The aura is governed by the inside of a person, the energy, the love, the emotions. It comes out dear in the pictures that we can now take." "Since 1969 thousands of pictures have been taken and studied by means of bio-magnetic field radiation photography and we can now say whether or not when a person feels love, extends love & shows love. The halo or aura around people is of pronounced colours. Energy is white. When a person is full of love the aura around him is blue and when the love is pronounced, it becomes pink. When a person in filled with hate, the blue becomes red. These bands can be seen, too, by trained eyes, after a series of exercises. ... We can with our perfected cameras, now photograph five different types of auras physical, psychical, moral, spiritual and intellectual. They are basically five but the auras can change as affected by the emotions." He met several holy persons in India but found that their auras indicated mostly concern for themselves and their institutions and So they were only a 6/14 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ foot broad or perhaps two feet. For Sai Baba, he, however, says, "the aura Swami projected was not that of a man. The white was more than twice the size of any man's, the blue was practically limitless and then there were gold and silver bands beyond even those far beyond this building right upto the horizon. There is no scientific explanation for this phenomenon.' The aura that emanated from Swami showed his love for his devotees to whom he made himself available as he did.* In short, each act, word and thought has its consequences in the invisible world around us and the physical plane. The very names of leshyas are meaningful and suggestive of outward manifistation in invisible colours and forms. The correlation and full interpretations require to be further investigated and fully understood. The wise always carefully studies things in and around him and thereafter plans life leading to lasting real blissful happiness. * Blitz dated 22.2.1980, p. 15. 6/15 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCOUNTING OF OUR ACTIONS IN JAINOLOGY R. C. Sethi Ajmer [The accounting of our action, like in a terribly continuous fashion. If a electricity magnetism and graviation, is pin-head has millions of atoms, how a natural phenomenon. The notion that many atoms must a room, city, and a there is a supreme being (Vidhata) who country have ? How many in our Keeps a record of our actions or that earth and solar system ? How many in there is a day of judgement is very the whole universe ? Certainly Infinite. unscientific and not meant for a man If we throw a stone in a still lake, it who can understand the subtle aspect causes a splash and waves extend in of matters as atom divided into electron, the from of concentric circles. The proton and neutron, or cell with nucleus, water waves are visible to us because chromosomes and genes. The accoun the molecules of water are not subtle. ting of our mental modifications moment The sound waves are propogated in to moment must be instantaneous, like every direction, invisible to eye, but the change in the electromotive force on "visible" to the ear. The sound waves, account of change in the speed of an converted into electromagnetic wavea ermature or the intensity of the magne (Radio waves) are sent in the atmostic field of an electric generator. phere with high frequency by the transWhen we think, speak and act there mitter at the broadcasting station. The is an influx of subtle matter particles radio waves travel with the speed of towards us which modify our subtle light (1,86,000 miles or 3,00,000 kilobodies (taijasa and karmana sariras), meters per second) and leave impreelectromagnetic in nature, with no loss bsions instantaneously upon the aerial of time. As Newton explained for every for the receiver set which may be placed action there is an equal and opposite anywhere on our globe, the circumreaction-so is true of the law of karma, ference of the earth being only 24,000 which is a wave theory explained under miles. The receiver set converts the the term 'arsava' in Jainology.] Author. high frequency waves into audio freque ncies and we hear the transmitted proThough the Greek word "atom" has gramme. proved a misnomer yet science has proved that the so called atoms are We thus see that the universe is full millions in number in a pinhead, revolving of matter in motion as well as at rest. : 6/16 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Matter (termed as "pudgala" in Jain known as "taijasa" and "karmana sariscriptures) is also moved by our thou- ras" (Electromagnatic bodies). ghts; speech and action. With every The subtle matter visible to action whether physical, mental or vocal clair voyant, 'divya dhrasti', is also indicated vibrations are set and correspondingly by modern science. Russian professor there is an influx of subtle matter parti Tarashov found out with the help of his cles towards the soul (living substance having quality of preception, microscope that sparks are emitted by knowledge and bliss). The subtle matter the human body and the sparks look like a small twinkling flame. (Electronic particles are known as Karma'in Jainism devices have not only been adopted in though etymologically 'Karma' means action. The Karma pudgala' has no microscopes but in cameras too. In limitation of space and time. This influx Russia S. D. Kirlian, an electrician and his wife, developed a type of photograpof matter towards the soul is termed as hy which show an energy discharge from "asrava" in Jainism. Just as the radio animate and inanimate matter. With waves hover in the space and impress humans it has been found that the nature the aerial when the transister switch is and colour of the energy flares, which on, so also the karma particles hover in might perhaps correspond to the etheric space and interpenetrate the soul when sheath, 'a haraka vargana', change with the 'kasaya' (propensions) switch is on. the health of the person. This research Under the influence of passions and has now been taken up also in the desires this incoming material fuses with U.S.A. and it has been suggested that a soul affecting our subtle bodies. This is whole new field of medical diagnosis is termed as "bandha". This "Bandha" being opened up. The prints show or bondage is of many kinds. It cripples clear evidence of highly coloured emanthe soul and mars its natural function of ations. Further research is continuing bliss, knowledge and preception. The to try to relate the appearance of one flow of matter towards soul can be colour to another, strong or weak, to checked by rectification and renuncia other factors such as age of patient, tion. This process has been termed as type of disease, intensity of concentra"samvara" in the scriptures. tion, and so on. Doubtless, results will emerge which can be related to the So long as the soul remains in asso findings of others.. ciation with matter, it exists in an impure state and can not attain perfection and A leaf filmed by the Kirlian photois subject to repeated births and deaths graphic method was a beautiful, fascii. e., transmigration. The idea is that nating sight to watch the fluctuation, somatic death does not signify a com- flow of light and colour streaming out plete separation between spirit and all around the edge of the leaf, whilst matter. Material impurities remain extent at those points, it appears, where the in the form of two subtle invisible bodies, veins of the leaf divide, there were num 6/17 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OW L bers of little "volcanos" of light cons- The law of karma is the ultimate law of tantly exploding into the ait above the the Universe, the unerring law which ad. leaf, and all in unceasing motion. To him effect to cause on the physical, mental whose sight may be compared to the justs and spiritual planes of being. It is Kirlion photographic capacity, every neither moral nor personal. It is just a tree, shrub, and leaf must offer a world natural law. Reaction is equal and of indescribable wonder. opposite to every action. The idea of supreme being accounting our actions Due to the resultant force of these and keeping vigilance over our mental bodies the soul is drawn into a new modifications is meant only for those womb on its being released from its people who can not grasp the subtle gross physical body in consequence of aspect of matter and spirit. What we death. As for the circumstances and call as character is the force of subtle conditions of the future life, the rule is bodies. It is the aim of human life that the soul being the maker of its own to reduce and demagnetise this force by body and liable to be affected by its inducing positive thoughts and neutrasurroundings, impressions, tendencies lising the negative ones every now and and beliefs, the organising forces of then; to enjoy, as much as possible, the the two inner bodies referred to above natural function of soul i.e. happiness, are modified at the end of each incar- bliss. nation, giving rise to differences in bodies from life to life. Hence, whether an I t will now be apparent that the individual is born in pleasant or disag. Spirituo-material complex is a work of greable surroundings, whether he incar- the law of karman which is inexorable nates among men or animals, whether in its application, All schools cf Indian he is endowed with strong common- philosophy accept this law of moral sense cr is devcid of it, and other such causality without exception. All worldly differences of temperament, environ. phonomena owe their appearance to the ment and the like, are all due to the law of karman, and the Buddhists appear different tendencies by him in the past. to have believed in the cosmic aspects of the karman. Scholars have discovered Thus the accounting of our actions in the cosmic aspects of the karman. is not only automatic but instantaneous Scholars have discovered in the Prakrati too. There is no external agency to of Samkhya-yoga and the maya of Adva. record an account. It is a law of cause ita Vedanta the characteristics of karman. and effect. As we sow so shall be reap. 6/18 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Date of construction of Jain Kirtistambha of Chittor The tradition of constructing the Kirtistambhas was quite popular. The Ghatiyala Inscription of V. E. 918(861 A.D.) speaks of constuction of two Jain pillars one at Mandor and other at Rohinskupa. It is the earliest reference of having the Jain-stambhas built in Rajasthan. The Jain Kirtistambha of Chittor is an important piece of the Jain art. Col. Tod saw an inscription of V. E. 952 (895 A.D.) near the said pillar, containing the names of 24 Jineshvars, Surya, Ganesh, Navadurga etc. But we can hardly connect it with the above Kirtistambha. The Jain Kirtistambh of Chittor is situated on a platform. Its height from the ground is 76 feet. It is 30 feet wide at its base while 15 feet at the top. There are several seated figures of the Tirthankaras. In the middle of the pillar, there is a big standing figure in Digamber pose of the Tirthankar in all its four sides. The scholars have given different dates between the 11th to 13th centuries about its construction. Their arguments are mainly based on the architectural data. I want to produce available epigraphical data, as below: G.H. Ojha had collected a few pieces of the inscriptions, from the heaps of Ram Vallabh Somani stones lying at the food of Jain Kirtistambha Chittor. All these are now lying preserved in the Pratap museum Udaipur. Among these two fragmentary inscriptions pertain to the Jain Kirtistambha, a summary of which is given below :1. One inscription containing 8 lines, has a reference at its end that the Kirtistambh was contructed by Shresthi Bagherawal Jija, who was the son who of Naya. 2. Another piece of the inscription is also much damaged. It consists 12 verses of "Nirwan Kand" and at the end the name of Bagherawal Jija is available. 3. Besides these two fragmentary inscriptions stated above, a stone-slab containing verses 21 to 45, was lying incised on a square plateform near the temple of Nila-Kantha in Chittor. This has now been fully mitigated. But its copy, prepared at the time of writing the history "Vir-Vinod" by Kaviraja Shyamaldas is now available. I had published this inscription on the basis of the above text in "Anekanta" Delhi (April, 1969). It contains very valuable information about shresti Jija and his son Punya Singh together with their manifold reli 6/19 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acco gious and benevolent activities. rding to this, Shresti Jija constructed. a number of temples at Chittor, Khohar Sajjanpur etc. The construction of Kirtistambha at Chittor was actually started by him. But he failed to cmmplete it due to his death. His son Punya Singh later on completed it. The verses 40 to 44 give information about Jain-Muni Visal Kirti, Subha Kirti and Dharma Kirti. The inscription also narrates that the consecration ceremony of this Stambha was got done by Punya Singh from Dharma Kirti. 4. An inscription of V.E. 1357 mentions a detailed account of the Digamber Jain Acharyas of Mulasanga Baltakaragana of the tradition of Kund-Kundacharya. It speaks the names of Keshavachandra, Abhaya Kirti, Vasanta - Kirti, Vishal Kirti, Subha Kirti and Dharmachandra. It consists of the account of erection of Manastambha(Kirtistamha) at Chittor. The name of Punya Singh is also available in it. It consists 25 lines with 29 verses. 5. The Mahavir Prashad Prasasti of Chittor of V.E.1495 mentions that Shresti Kumarpal constructed the Jain Kirti Stambha of Chittor. It seems that originally the construction done by Digambar shresti Jija and Punya Singh but its renovation was done by Svetambar Shresthi Kumarpal in 15th century A.D. During the invasion of Alauddin Khilji in 1303 A.D., when a good number of temples of Chittor, namely Kumbhashyam, Samidheshvar, Nilakantha, KalikaMata, Srinagar Chanwani etc. were molested, a conjuncture can be hazarded that some part of this Kirtistambha was also demolished during that above invasion. It was, therefore, subsequently repaired between V. E. 1480-95. 6. Muni Kantisagar had published an insoription of Nandaganva of V. E. 1541 incised on a pedestal of an image. On the basis of this inscription he attempetd to prove that the Kirtistambha of Chittor was completed during the 15th Century. A. D. But the inscription does not contain such information. It speaks that Punya Singh contructed the Kirtistambha and one of his descendents, later on, installed the said image. A similar inscription of the same year was also published by Nemi Chand Dhanusa Jain, who had correctly refuted the above statement of Muni Kantisagar also. 7. In assigning the date of the Kirtistambha, other inscriptions mentioning the names of the Jain Archaryas can also help. The Devegarh inscription of 12th century A.D. consists of the names of Kesavachandra, Abhaya Kirti, Vasant Kirti, Visalkirti, Subhakirti and Dharm Chandra, According to another inscription found from Chittor, Subha Kirti was contemporary of Maharawal Jaitra Singh (V. E. 1270 to 1307) of Mewar. In this way Subha Kirti and his people Dharam Chandra remained active during this period. The inscription No. 3 referred to above speaks the names of the rulers Nar Singh and Hamir. It seems that Nar Singh was some South Indian ruler and Hamir was the Chauhan ruler of Ranthambhor. These rulers also extended their homage to Dharmachandra. 6/20 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ On the basis of the epigraphical der, as to what was the shape of the evidence, the Jain Kirtistambha, which Chandra Prabha Chaityalaya. Not only was erected in the form of Sarvatobha- the inscriptions pertaining to the family dra kanastambha in front of Chandra- of Bagherawal Jija and Punya Singh, prabha Chaityalaya was constructed several other epigraphs having the Jainbetween V. E. 1320 - 1350. It is also scriptures were also engraved there. coroborated by the palacographic evi- Therefore, it seems that this templeh ad dence. The script of the inscriptions massive structure. The forces of Alaudd of the time of Maharawal Jaitra Singh in Khilji which had brutely carried out (V. E. 1270 to 1306 to Samar Singh destruction in Chittor, by demolishing a (1330-1358 V. E.) of Mewar; is quite good number of temple, might have analogeous to the Script of these demolished it. inscriptions. On the discovery of several epigrap- In this way I belleve that the Jain hical fragments, from the foot of Kirti- Kirtistambh of Chittor was completed stambha, it became inevitable to consi- during the 13th century A. D.