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श्रौर सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय ही उसका शब्द गम्य लक्षण है ।
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तीर्थंकर महावीर ने जिस तीर्थ का प्रणयन किया है और उसके द्वारा जिस धर्मतत्व को मानव लोक के सम्मुख रखा है उसका स्वरूप सर्वोदय है । उस धर्म में न जाति का बन्धन है और न क्षेत्र की सीमा है, न काल की मर्यादा है और न लिंग का प्रतिबन्ध है न ऊँच नीच का भेदभाव है और न प्राग्रह की अनिवार्यता है । आत्मजयी द्वारा प्रतिपादित प्रचार और विचार दोनों धर्म है । अत: धर्म जब प्रात्मा की खुराक बनकर श्राता है तब इस प्रकार की सीमाएँ, बाधाएँ, बन्धन, मर्यादा और प्रतिबन्ध सब कुछ समाप्त हो जाता है और वह सर्वथा उन्मुक्त स्वच्छन्द प्रवाह में प्रवाहित होता है। जब वह आत्मा के लिए है तब सम्पूर्ण विश्व के समस्त ग्रात्माओं के लिए वह क्यों न आवश्यक होगा ? जिस प्रकार शरीर के लिए श्रावश्यक हवा पानी आदि की सीमाएं स्वीकृत नहीं हैं उसी प्रकार धर्म की सीमा कैसे स्वीकृत की जा सकती है? हवा और पानी के उन्मुक्त प्रवाह की जा सकती हैं ? हवा और पानी के उन्मुक्त प्रवाह की भाँति धर्म के उन्मुक्त प्रवाह को भी सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता । वह स्वच्छन्द है और अनादि काल से प्रवाहित है ।
धर्म के साथ केबल मानव का सम्बन्ध जोड़ना भी एक संकीर्णता है। वह तो प्राणिमात्र के आनंदात्मक स्वरूप को प्राप्त करने का साधन है । कीट, पतंग, मूंग, पशु, पक्षी और मनुष्य यादि समस्त प्रारिण किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित हो सकते हैं। मनुष्य के अन्तःकरण में यदि धर्म ठीक रूप से उतर जाय तो उससे केवल उसको ही लाभ नहीं होगा, अपितु पशु, पक्षी, कीट, पतंग, लता, गुल्म, पेड़, पौधे मादि समस्त जीवों को मनुष्य की ओर से अभय मिल जाने के कारण जीवन में अपे क्षाकृत शांति प्राप्त हो सकती है । इस प्रकार
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प्रारिण मात्र के लिए कल्याणकारी और उभय लोक हितकारी धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया । यह जीवमात्र के प्रति सर्वोदय की भावना से अनुप्राणित था ।
धर्म के चाहे कितने ही रूप क्यों न हों, अहिंसा उन सबमें प्रोतप्रोत रहेगी। धर्म प्राणी जीवन की एक ऐसी स्फुर्ति है जिसका स्थान संसार की कोई वस्तु नहीं ले सकती और यह प्रेरणा धर्म - प्रहिंसा से ही प्राप्त हो सकती है । जिस मनुष्य में यह स्फूर्ति और प्रेरणा नहीं होती वह पशु होता है, उसमें हिंसा की परम्पराएं प्रज्वलित होती रहती हैं । जब तक अन्तःकरण में धर्म प्रतिष्ठित रहता है अहिंसा की प्रेरणा से मनुष्य मारने वाले को भी नहीं मारता । किन्तु जब वह उसके मन से निकल जाता है तब औरों की कौन कहे पिता अपने पुत्र की और पुत्र अपने पिता की हत्या करने के लिए भी तत्पर हो जाता है । यह कुकृत्य करते हुए उसे तनिक भी लज्जा का अनुभव नहीं होता । वस्तुतः धर्म ही जगत की रक्षा करने वाला होता है ।
भगवान महावीर का तौर्थ वास्तव में सर्वोदय तीर्थ है। किसी तीर्थ धर्म में सर्वोदयता तब ही आ सकती है जब उसमें साम्प्रदायिका, पारस्परिक वैमनस्य और हिंसा के लिए कोई स्थान न हो तथा जाति, कुल, धर्म, भेदभाव आदि के अभिमान से वह सर्वथा रहित हो यह तब ही हो सकता है। जब प्रत्येक मनुष्य के विचार में अपेक्षावाद का उपयोग किया जाय और मनुष्य का मन किसी भी प्रकार के आग्रह से सर्वथा मुक्त हो । प्रभिमानी और प्राग्रही व्यक्ति जब तक विवेक बुद्धि से अपने मन का परिष्कार कर उसे सुसंस्कृत नहीं कर लेता उसे यथार्थ धर्म स्वरूप की प्राप्ति नहीं हो सकती । जो धर्म केवल रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, परम्पराओं और मिथ्या मान्यताओं से जीता है वह धर्म नहीं निरा पाखण्ड है । धर्म जीवन की वह सचाई है जिसमें माया, मिथ्यात्व और भोगासक्ति नहीं
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