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श्रम और समता के उन्नायक भगवान महावीर
विद्यावारिधि डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया
___ डी.लिट्, साहित्यालंकार
विद्वान लेखक का कहना है कि बोध होने पर बुराई छोड़ी नहीं जाती छूट जाती है । भगवान महावीर के श्रम और समता सिद्धान्त का संभवतः हमें बोध नहीं है, मात्र वाचिक चर्चा ही हम करते हैं। बात बोध स्तर पर उतरे तो कार्य बने।
-सम्पादक
प्राचीन भारतीय संस्कृति का मूलाधार व्रात्य प्राणी-शक्ति पर अवलम्बित नहीं रहता। वह और ब्रह्म-यज्ञ नामक दो प्राचीन संस्कृतियों का पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुभव करने लगता है। समीकरण रहा है। ब्रह्म और यज्ञ संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा गया और व्रत-साधना वाली
श्रम तत्व पर विचार करने से लगता है कि संस्कृति कहलायी जिनेन्द्र अथवा श्रमण संस्कृति। उसे मूलतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता श्रमण संस्कृति तीर्थ करों, अरिहंतों, साधुनों और है-श्रम और सम्यक श्रम । जागतिक उपलब्धियों मनीषी मुनियों द्वारा समय-समय पर प्रोन्नत होती के लिए किया गया श्रम वस्तुतः प्रथम कोटि में रही है। तीर्थकर परम्परा में भगवान ऋषभदेव पाता है और प्राध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए किया पहिले तीर्थकर माने जाते हैं और भगवान महावीर गया श्रम सम्यक् श्रम कहलाता है। पुरुष के अंतिम तीर्थकर।
पुरुषार्थ की पराकाष्ठा मोक्ष पुरुषार्थ में झलकती
है। मोक्ष अर्थात पावागमन से मुक्त्यर्थ व्यक्ति को अाज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व डगमग सम्यक श्रमशील होना पड़ता हैं। भारतीय जनसमूह को श्रमण संस्कृति का मूल उद्घोष श्रम और समता का अमोघ मंत्र भगवान सम्यक् श्रम के लिए तत्व-बोध आवश्यक महावीर द्वारा किया गया था। सुखी जीवन चर्या होता है । तत्व-बोध तथा भेद-विज्ञान के अभाव में के लिए श्रम एक आवश्यक तत्व है। बिना श्रम के सम्यक् श्रम करना सम्भव नहीं है। जीव, अजीव, कोई भी लौकिक अथवा अलौकिक कार्य सम्पादित प्रार्जव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातों नहीं हो सकता । श्रम एक शक्ति है । इस शक्ति का तत्वों में संसार के सभी तत्व समाहित हो जाते अपार्जन कर लेने पर व्यक्ति स्वयं किसी कर्म का हैं। इन तत्वों के रूप को जान लेने से उनके कर्ता और भोक्ता हो जाता है। श्रमण किसी भी अस्तित्व के प्रति विश्वास, आस्था जगा करती है
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