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साराधनासार म समापन
पाराधक सम्यग्दर्शनादिरूप आराधना में उपयुक्त से यदि अकस्मात् मरण उपस्थित होता है उस समय होकर समीचीन अनुष्ठान से युक्त होता हुआ मरण पाराधक यतिका कैसा परिणाम होना चाहिये, इसे को प्राप्त होता है वह अधिक से अधिक तीन भावों स्पष्ट करने के लिये उक्त मूलाचार में 'संक्षेप प्रत्यामें निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । 36 इसके अतिरिक्त ख्यान' नामक तीसरा अधिकार रचा गया है । जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, यदि जीव एक ही भव में समाधि-मरण को प्राप्त करता है तो
उक्त प्रकार से यदि अकस्मात् मरण उपस्थित वह सात-पाठ भावों में निर्वाण को प्राप्त हो जाता होता है तो पाराधक यति जिनवरवृषभादि को है, ऐसा भी आगम में कहा गया है 137
प्रणाम करके यह स्थिर करता है कि मैं समस्त
प्राणारम्भ (हिंसा), अलीक वचन, अदत्तादान, मैथन सार में समाधि-मरण के फलका निर्देश और परिग्रह इन पाचा पापा का प्रत्याख्यान करता करते हुए कहा गया है कि प्राराधना में उद्यत भव्य हूँ । मेरा सब जीवों में समताभाव रहे. वैर किसी (प्रासन्न भव्य) जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और से न रहे, मैं समस्त प्राशानों को छोड़कर समाधि भाव रूप सामग्री को पाकर प्राठ कर्मों के बन्धन से को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त प्राहार विधि, मुक्त होते हुए केवल ज्ञान से युक्त होकर उसी भव - संज्ञाओं, आशाओं, कषायों और सब ममत्व को में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं : कितने ही भव्य छोड़कर सभी से क्षमा कराता हूँ। इस देश-काल जीव अाराधना में सारभत परमात्मतत्त्व का पारा- में यदि मेरे जीवित का उपक्रम है तो यह प्रत्याख्यान धन करके कुछ पुण्य कर्म के शेष रहने से सर्वार्थ है तथा उससे निस्तार होने पर पारणा सम्भव है । सिद्धि को प्राप्त करके वहां निवास करते हैं । जिन इस प्रकार का विचार वह मरण के विषय में संदेह क्षपकों की वह चार प्रकार की आराधना जघन्य रहने पर करता है । पर मरण यदि निश्चित है होती है वे भी सात-आठ भावों में निर्वाण को प्राप्त तो वह स्थिरता करता है कि मैं पानी को छोड़कर कर लेते हैं 138
सब प्राहार विधि का, बाह्य व अभ्यन्तर दोनों
प्रकार की उपधि में जो भी मेरे पास है उसका, संक्षेप प्रत्यख्यन
शरीर का और सावध कर्म का बन, वचन और
काय तीनों प्रकार से जीवन पर्यन्त के लिये परित्याग मूलाचार में 'बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव' नामक करता है। दुसरे अधिकार के प्रारम्भ में टीकाकार प्रा. वसूनन्दीने उत्थानिका में यतियों के छह कालों का अन्त में वह जिस जैन शासन का प्राश्रय लेकर निर्देश करते हुए उनमें प्रात्म-संस्कार, सल्लेखना सब जीव अनन्नत संसार रूप समुद्र से पार होते हैं
और उत्तमार्थ इन तीन कालों का निर्देश पाराधना सब जीवों के शरणभूत उस परमागम का अभिनन्दन में तथा दीक्षा, शिक्षा और गणपोषण इन शेष तीन करता हुआ यह प्रार्थना करता है कि जो गति का निर्देश प्राचार के विषय में किया है। अरहन्तों की, कृत कृत्य हुए सिद्धों की और बीतइनमें से यदि प्रथम तीन कालों में मरण उपस्थित मोहों-क्षीण कषायों की है वह गति सर्वदा मेरी होता है तो उस समय आराधक यतिका जैसा परि- हो ।39 णाम होता है उसका विवेचन पूर्वोक्त दूसरे अधिकार में किया गया है । पर यदि सिंह-व्याघ्रादि के उपद्रव प्रतिक्रमण-सामान्य से माराधना में जिन तीन अथवा असाध्य किसी रोग आदि के निमित्त प्रतिक्रमणों का विधान है वे इस संक्षेप प्रत्याख्यान
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