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संस्कृति की दो धाराएं । सस्कृत का दा धाराए0डॉ. बी. सौ. मैन
एम०ए०पी०एच०डी०
श्रमण ब्राह्मण के बहु चचित प्रश्न को लेखक ने यहां उठाया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इनमें शाश्वत विरोध माना है। यह विरोध व्यक्तियों के बीच नहीं दो सांस्कृतिक धारणात्रों में रहा है। पर विरोध ही क्यों ? क्या सम्नवय नहीं रहा ? लेखक महोदय ने इस पक्ष पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है।
___--सम्पादक
जिस समय भगवान महावीर का इस लोक अनागरिक होते थे, और ब्रह्मचर्य का कठोरता से में जन्म हुआ, उस समय देश में अनेक वाद प्रचलित पालन करते थे। ब्राह्मण जातिवाद के पौषक थे। थे। विचार-जगत में उथल-पुथल हो रहा था। श्रमण जातिवाद के विरोधी थे। ये चारों वर्षों वैदिक एवं अवैदिक दोनों ही प्रकार की विचार के लिये मोक्ष का द्वार खुला मानते थे। ब्राहामा धाराएं भारतीय जीवन को पालोकित कर रही थी। विषमता को प्रोत्साहन देते थे। श्रमण समताधर्म विचार का केन्द्र नया स्वरूप धारण कर चुका के प्रचारक थे। ब्राह्मण देववाणी संस्कृत के था। परलोक है या नहीं, मरणान्तर जीव का पक्षधर थे, श्रमण लोक भाषा में अपने विचार का अस्तित्व रहता है या नहीं, कर्म है या नहीं, प्रचार करते थे। श्रमरणों की शिक्षा में सार्वकर्म विपाक है या नहीं, इस प्रकार के अनेक भौमिकता थी, ब्राह्मण वर्ग विशेष से अपनी शिक्षा प्रश्नों में लोगों का कुतूहल था। इन प्रश्नों का को जोड़ते थे । श्रमरण सत्यान्वेषण के लिये किसी उत्तर पाने के लिए लोग उत्सुक थे। इन विचार- शाखा के अधीन होते थे, उनके गण या संघ में धाराओं को सामान्यतः ब्राह्मण और श्रमण विचार प्रवेश करते थे । ब्राह्मण वैदिक धर्म के अनुसार धारानों से विभक्त किया जाता था। दोनों में मन्त्र, जप, दान, होम, मंगल प्रायश्चितादि अनउक्त प्रश्नों पर विचार चर्चा होती थी। श्रमण ष्ठान का विधान करते थे। स्वर्ग की कामना से अवैदिक थे । ये वेद प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते या अन्य लौकिक भोग की कामना से ये विविध थे । ये वैदिक यज्ञ-यागादि क्रिया-कलापों को महत्व अनुष्ठान होते थे। श्रमरण आत्मसाधना में लीन नहीं देते थे । इनकी दृष्टि में या तो इनका फल रहते थे । यज्ञों में पशुवध भी होता था। धर्म क्षद्र है या ये निरर्थक और निष्प्रयोजनीय है। कर्मकाण्ड प्रधान था। वैदिकी हिंसा हिंसा नहीं श्रमण प्रास्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के थे। समझी जाती थी। श्रमण अहिंसा-धर्म को परम इनके कई सम्प्रदाय तपस्या को विशेष महत्व देते धर्म मानते थे और प्राणिमात्र पर दया-धर्म का थे। जो प्रास्तिक थे वे भी जगत का कोई दृष्टा, प्रचार करते थे। श्रमण अपरिग्रही, निस्पृह, सरल, कर्ता नहीं मानते थे।
निराडम्बर, एवं निःस्वार्थी होते थे। वैदिक ये श्रमण-ब्राह्मण रूपी धाराएं यद्यपि प्राचीन संस्कृति के उन्नायकों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। काल से चली आई है, लेकिन इस काल में ये दोनों श्रमण संस्कृति के उन्नायक प्रधानतः क्षत्रिय थे। अधिक प्रखर एवं मुखर होकर उपस्थित होती है। ब्राह्मण संस्कृति का हृदयस्थल मध्य-प्रदेश था। इनमें नैसर्गिक वर था। ब्राह्मण मुण्डदर्शन को श्रमण संस्कृति का केन्द्रस्थल पूर्व था। मध्यप्रदेश अशुभ मानते थे। ब्राह्मण सांसारिक थे, श्रमण में राजतंत्र की प्रधानता थी, पूर्व में गणतंत्र की।
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