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विरहिन नायिका अपनी बांयी अांख से कहती इस तरह प्राकृत भाषा एवं साहित्य जितना है कि-हे वामाक्षि, यदि तेरे फर- कने से ग्राज भारत की भाषाओं के साथ जुड़ा हुआ है, उतना मेरे प्रियतम आ जाय तो मैं दाहिने नेत्र को ही उसकी संस्कृति के साथ भी। प्राकृत-काव्य बन्द करके तुझसे ही उनका दर्शन करूंगी। यथा- की इसी महिमा को ध्यान में रखते हुए एक कवि
ने कहा हैफुरिए वामच्छि तुए जइ एहिइ सो पिनोज्ज ता
पाइय-कव्वस्स णमो पाइयकव्वं च णिम्मियं जेरण। संमीलिप दाहिणनं तई अवि एहं पलोइस्सं॥ ताणं चिय पणमामो पढिऊरण जे विजागन्ति ॥
बिहारी की नायिका यही सौभाग्य अपनी (प्राकृत काव्य को नमस्कार है और उनको बांयी भुजा को देती है
भी जिन्होंने प्राकृत काव्य की रचना की है । उनको 'बाम बाहु फरकत मिले जो हरि जीवनमरि। हम नमस्कार करते हैं जो प्राकृतकाव्य को पढ़कर 'तो तोही सों भेटहों राखि दाहिनी दरि। उसका ज्ञान प्राप्त करते है ।)
अध्यक्ष-जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय
उदयपुर
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सिकन्दर से भारतीय संत ददमिस ने कहा था, "स्वाभाविक इच्छायें जैसे प्यास को पानी द्वारा दूर किया जा सकता है, भूख को भोजन द्वारा, किन्तु धनादि की लालसा कृत्रिम होने से बढ़ती ही जाती है और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती।"
---डॉ. राधाकृष्णन + + + "जितनी कम हमारी इच्छायें होती है उतने ही हम देवताओं के समान हो जाते हैं।"
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