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प्रणेताओं में उनका मूर्द्धन्य स्थान है । उनकी सभी रहते थे। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हीं कुन्द श्रेष्ठी रचनाएं प्रायः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हैं। के पितृत्व को धन्यता और कृतार्थता प्रदान की 'प्रवचनसार', 'समयसार' और 'पंचास्तिकाय', थी। वे शैशव से ही गम्भीर, चिन्तनशील तथा उनके ये तीन ग्रन्थ तो जैनसिद्धान्त की प्रस्थानत्रयी प्रतिभा सम्पन्न थे। ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही के रूप में स्वीकार्य हैं। इनके अतिरिक्त, 'प्राभूत' वे किसी मुनिराज का उपदेश सुनकर विरक्त हो (पाहुड) और 'भक्ति'-संज्ञक रचनाएं उनके गये थे और दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन सिद्धांत प्रतिष्ठापक शास्त्रीय ग्रंथों में शिखरस्थ हैं। गये। जिनचन्द्र नाम के गुरू ने उन्हें तैतीस वर्ष की कुल मिलाकर, उन्होंने बाईस ग्रन्थों की रचना की अवस्था में प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया। है । ब्राह्मण परम्परा में 'श्रीमद्भगवद्गीता' को
कथाकार द्वारा कुछ इतिहास, कुछ कल्पना जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान श्रमण परम्परा में
और कुछ मिथक या अभिप्राय का सहारा लेकर 'प्रवचनसार' को दिया जा सकता है। गीता में।
अपनी कथा को विस्तार दिये जाने की चिराचरित जिस प्रकार ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का
प्रथा रही है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की जीवन कथा निरूपण किया गया है, उसी प्रकार 'प्रवचनसार'
भी इस वैशिष्ट्य से संबलित है । एक दिन आगममें ज्ञान, ज्ञेय (भक्तियोग) और चारित्र (कर्मयोग)
ग्रन्थों के स्वाध्याय के क्रम में आचार्य कुन्दकुन्द का पुखानुपुख प्रतिपादन उपलब्ध होता है।
सहसा शंकाग्रस्त हो उठे । तत्क्षण ध्यान मग्न होकर, प्राचार्य कुन्दकुन्द का समग्र जीवन बराबर
विदेह-क्षेत्र के समवशरण में अवस्थित सीमन्धपरस्मैपदी बना रहा, कभी आत्मनेपदी नहीं हया, रस्वामी का एकाग्र भाव से स्मरण किया । सीमन्धइसलिए उन्होंने प्रात्मपरिचय को गोपन ही रखा। रस्वामी ने भी 'सद्धर्मवृद्धि रस्तु' कहकर उन्हें प्राशीचुकि वे निग्रन्थ कोटि के महापुरुष थे. इसलिए वर्वाद दिया। समवशरण में उपस्थित श्रावकों को प्रात्मगप्ति उनकी सहज अनिवार्यता थी। उनका बड़ा विस्मय हुआ कि सीमन्धरस्वामी ने किसे यह रचनाकार, उनकी रचनाओं में ही विजित हो अयाचित आशीर्वाद दिया। पूछने पर स्वामीजी ने गया। किन्तु, गवेषणपटु मनीषियों ने उनके जीवन बताया कि भरत क्षेत्र स्थित कुन्दकुन्द मुनि के परिचय के सन्दर्भ में जिन बहिरन्तः साक्ष्यों को पूर्व भव के दो मित्र थे। वे आकाश-संचरण की उपन्यस्त किया है, उनसे इतना स्पष्ट है कि ऋद्धि से सम्पन्न थे । वे दोनों बारांपुर गये और प्राचार्य कुन्दकुन्दु का समग्र जीवन परीषह या आकाशमार्ग से कुन्दकुन्द मुनि को विदेह क्षेत्र में संघर्ष प्रधान था। तप या संल्लेखना ने ही उन्हें ले आये। पल्योपम की प्रतिष्ठा प्रदान की। उनके जीवन
आकाश मार्ग में जाते समय कुन्दकुन्दमुनि परिचय के क्रम में दो कथाएं उपलब्ध होती हैं। की मयर पिच्छी गिर गई, तो उन्होंने गृद्धपिच्छी पहली कथा ब्रह्मनेमिदत्त विरचित 'अाराधना कथा से काम लिया लिया। इसलिए, उन्हें 'गृद्धिपिच्छ' कोष' में शास्त्रदान के फल निर्देश के क्रम में पाई है। भी कहा गया है। शक-सं. 1307 के विजयनगर दूसरी कथा 'ज्ञानपबोध' नामक ग्रन्थ में वरिणत है। अभिलेख में प्राप्त एक श्लोक से ज्ञात होता है
__ 'ज्ञानप्रबोध' की कथा में उल्लेख है कि मालव कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पाँच नामों से विख्यात थे : देश में अवस्थित किसी बारांपुर नगर के राजा प्राचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । कुमुदचन्द्र के राज्य में कुन्द नाम के एक श्रेष्ठी एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पंचधा ।। 1. पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा 'जनहितैषी' (भाग 10, पृ० 369) में प्रकाशित ।
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