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ही पर्याप्त है कि साधु को केवल शुद्ध, प्रासुक व कर साधुजन, त्यागी व व्रतीगण एकत्रित हुये थे। शास्त्रानुसार प्राविधित औषधि ही सेवन कराई मार्ग के कष्ट व थकान से कुछ का स्वास्थ्य जा सकती है। ऐसी औषधियों की शुद्धता व असंतुलित हो गया था। ऐसे समय में गृहस्थों प्रासुकता की प्रामाणिकता का दायित्व गृहस्थों पर द्वारा उनकी वैयावृत्ति नितान्त आवश्यक थी। है। इस प्रकार जहां एक ओर साधुजन मार्गदर्शक जहां एक ओर श्रावकों पर उनके आहार का है वहां गृहस्थ उसका अनुपालन कर साघु के दायित्व था तो उनके साथ ही आहार के संतुलित संयम पालन में सहायक होता है जैसे समुद्र से होने तथा रोग विवारण हेतु औषधोपचार की जल बादल रूप में उठकर दूर भूखण्ड पर बरसता भी आवश्यकता थी। जहां औषधोपचार संभव है और वह जल बहकर नदियों के माध्यम से नहीं था, वहां बाध्य उपचार से रोग निवारण पुनः समुद्र में पहुंच जाता है। इस प्रकार साधु आवश्यक था । औषधि, आहार, परिचर्या ये सभी
और गृहस्थ एक ही रथ के दो चक्र हैं--दोनों को तो वैयावृत्य के अंग हैं। वैयावृत्य न केवल जीने एक दुसरे का ध्यान रखकर चलना होगा तभी यह के लिये आवश्यक है अपितु साधना के लिये तथा समाज रूपी वाहन सुचारु रूप से चल सकेगा। निराकूल मरण के लिये भी आवश्यक है व
सहायक है। परन्तु आज का गृहस्थ आहार की अनुकूलता
श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषेक के अवसर प्रतिकूलता के बारे में जानकारी नहीं रखता। बेमेल और गरिष्ठ पदार्थ साधुजनों को आहार में
पर लगमग 151 साधु-साध्वी व लगभग 451
त्यागी-व्रती थे, उन साधूजनों, त्यागी-व्रतियों की दिये जाने पर उनकी साधू चर्या में बाधा आती है..
वैयावृत्ति व परिचर्या का कार्य विशेषतः वैद्य सुशील रोग खड़े हो जाते हैं जो साधना वृत्ति में क्लेश उत्पन्न करते हैं। बेमेल पदार्थों के हमेशा दुप्परि
कुमारजी के निर्देश में जयपुर की वैयावृत्ति समिति
के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने किया। कतिपय देहली के णाम होते हैं जो रोग उत्पत्ति के कारण हो जाते हैं । इसलिये गृहस्थ के लिये आवश्यक है कि वह
श्रावकों का सहयोग भी प्रशंसनीय था। साधु की प्रकृति, उसकी आवश्यकता को ज्ञानपूर्वक
औषधोपचार के अतिरिक्त प्रकृतोपचार समझकर ऐसा पाहार उपलब्ध कराये जो उनकी
(जैसे-शिथलीकरण, सम्यक्करण, ठेपन, अभ्यंग, चर्या में सहायक हो व उनके स्वास्थ्य की रक्षा कर
मर्दन, प्राश्योतन, उर्दूलन (उद्धोवन) इत्वादि) सके।
के माध्यम से रोग निवारण के सफल प्रयोग किये
गये । प्रातः 5.30 बजे से 8.00 बजे तक, मध्याह्न . साधु अरहंत का प्रतीक है।
1.00 बजे से 5.30 बजे तक और सायं 7.30 से - साधु धर्म का उपदेष्टा व साधक है ।
9.30 बजे तक (इसके अतिरिक्त आपातकाल में साधु परमेष्ठी है।
भी) नियमित रूप से नित्य प्रति जो सेवा का अवसर . साधु संस्था जीवित रहेगी तभी धर्म जीवित
मिला-वह सभी के लिये अत्यन्त उत्साहवर्धक रहेगा और इसी प्रकार साधु के उपदेशों से गृहस्थ
__ रहा । वयोवृद्ध प्राचार्य श्री देशभूषणजी महाराज, सम्यक् रूप से गृहस्थ धर्म का पालन कर साधुजनों आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, सिद्धान्त
चक्रवर्ती एलाचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज, की वैयावृत्ति करने में अग्रसर हो सकेगा।
भट्टारक श्री चारूकीर्ति स्वामीजी सहित अन्य श्रवणबेलगोला में अनेकों मीलों की दूरी तय साधुजनों, त्यानी-वृत्तियों की सेवा व परिचर्या से
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