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तक पहुंच गया । मनों दूध पर कटोरे के अल्प दूध की यह विजय नारी के सरल मन, निष्काम भक्तिभाव और अगाध वात्सल्य प्रेम की विजय है । यह घटना इस तथ्य की सूचक है कि सत्ता और प्रभुता से नहीं बल्कि सेवा पोर नम्रता से प्रभु रीझते हैं तथा भगवान राजात्रों और सामन्तों के राजसी भोगों के भूखें नहीं है, वे भूखे हैं जनता जनार्दन के प्रेम पौर स्नेह के
मूर्ति निर्माता शिल्पी श्ररिष्टनेमि के लोभ कलुषित मन को शुद्ध बनाने में जो प्रेरक बनी, वह भी नारी ही थी। कहा जाता है कि जब चामुन्डराय ने अपने राज्य के प्रधान शिल्पी परिष्टनेमि को मूर्ति निर्माण का कार्य सौंपा तो पारि श्रमिक की राशि क्या मिलेगी, इस लोभ भावना से वह ग्रस्त हो गया । चामुन्डराय ने मुंह मांगा स्वर्ण देने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जब पारिश्रमिक की पहली खेप लेकर शिल्पी परिष्टनेमि अपनी माता के पास पहुंचा और दोनों हाथों से स्वर्ण उठाकर माता के सामने रखने लगा तो उसके दोनों हाथ जड़वत हों गये। वे सोने से चिपक गये। स्वर्ण मोह के विकार भाव ने उसे जड़ीभूत कर दिया। यह स्थिति देखकर मां ने उसे उसके कर्त्तव्य का ज्ञान कराया। तब कहीं लोभ विकार से उसका मन मुक्त हुआ और हाथ मुक्त हुए स्वर्ण से ।
इस प्रकार ग्रहं धौर लोभ के भावों से प्रस्त पुरुषों को मुक्त कर उन्हें सच्ची धर्म अराधना और भक्ति भावना की ओर उन्मुख करने में नारी ही मूल प्रेरणा रही है ।
श्रवणबेलगोल से जुड़ा नारी रूप संप्र ेरक होने के साथ-साथ साधनाशील और तपोनिष्ठ भी है। यहां की पुनीत तीर्थभूमि में जहां प्रतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चन्द्रगुप्त
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मौर्य जैसे महान् साधकों ने समाधिकरण प्राप्त किया वहां अनेक नारियां भी व्रत प्रत्याख्यान कर संलेखनापूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुई। डॉ. हीरा लाल जैन द्वारा सम्पादित जैनाशिलालेख संग्रह प्रथम भाग के अध्ययन से हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है।
जैनधर्म-दर्शन में जीने की कला बारह व्रत - साधना के रूप में प्रतिपादित की गई है तो मृत्यु की कला सल्लेखना व्रत के रूप में । जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही, फिर हाय-हाय करते हुए क्यों मरा जाय। मृत्यु दार्श निकों की दृष्टि में, जीवन का विनाश नहीं वरन् नये जीवन का प्रारम्भ है । अतः मृत्यु मांगलिक हो इसका बराबर ध्यान रखा गया है ।
श्रवणेवलगोल में उत्कीर्ण शिलालेखों से सूचित होता है कि यहां कई भ्रमणियों और महि लाओं ने व्रतपालन करते हुए तप साधना करते हुए प्राणोत्सर्ग किया। चित्तर के मोनि गुरु की शिष्या नागमति गान्तियर ने तीन मास के व्रत के पश्चात् लेख सं. 2 (20) नाविलूर संघ की अनन्तामति ने बारह तप धारण कर ( लेख सं. 28 98 ), व्रत, ग्राम संघ की चार्या ने प्रात्मसंयमपूर्वक (लेख सं. 20 108, व्रत, शील, गुणादि सम्पन्न साहिमतिगान्ति ने संन्यास ग्रहण कर (लेख सं. 3576 एचिगांक की प्रार्या धर्म परायणा पोचिकब्जे ने शक सं 1043 में संन्यास विधि से (लेख सं 44 118 देह त्याग दिया। दण्डनायक गंगराज की धर्मपत्नी गुण-शील सम्पन्न लक्ष्मीमति ने जो शुभचन्द्राचार्य की शिष्या थी, शक संव 1044 में में संन्यास- विधि से प्राणोत्सर्ग किया (लेख स. 48 128 चाणुण्ड नामक किसी प्रतिष्ठित और राजसम्मानित वारिक की धर्मवती भार्या देमति ने दान-पुण्य के कार्यों में जी व्यतीत कर शक सं. 1042 में संलेखनापूर्वक देह त्याग किया । लेख
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