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हो । गोम्मटेश्वर की मूर्ति में विशालता, सुन्दरता की घटना में भी खोजा जा सकता है। लोकश्र ति और भव्यता तीनों का सम्मिश्रण है।
है कि चामुण्डराय ने गोम्मट स्वामी के अभिषेक
की बड़ी तैयारी की, परन्तु अभिषिक्षत दूध जांघों मतियों तथा मन्दिरों को भव्य, चमत्कार पूर्ण
के नीचे नहीं उतरा, क्योंकि चामुण्डराय के मन में तथा विशाल बनाने का मनोविज्ञान यह है कि
कहीं अपने भक्ति-वैभव के प्रति अहं था। जब एक दर्शक या भक्त जब मूर्ति या मन्दिर के निकट जाए
वद्धा भक्तिन गोल्लकायी छोटे से पात्र में दूध भर तो उसमें एक और आकर्षणजनित चमत्कृति पैदा
कर लाई और भक्ति पूर्वक अभिषेक किया तो वह हो तो दूसरी ओर विशालता से उत्पन्न भयपूर्ण
सर्वागों तक पहुंच गया। आज भी इस वृद्धा भक्तिन मनःस्थिति भी। विस्मय युक्त भय की यह भावना की मति इस प्रसंग को चिर स्थायी बनाए व्यक्ति के अहम् को विगलित करने में सहायक हुए है। बनती है । बाहुबलि की यह विशाल भव्य मूर्ति इस दृष्टि से अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक है । डॉ० कृष्ण भक्ति धर्म की रक्षात्मक अनुभूति है। भक्त के शब्दों में 'होठों की दयामयी मुद्रा से स्वानुभूत ___ को अपनी लघुता और अपने आराध्य की महत्ता प्रानन्द और दुखी दुनिया के साथ मूल सहानुभूति __ प्रतिपादित करने में परमानन्द की अनुभूति होती की भावना व्यक्त होती है।'
है । इसीलिए सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों ने
अपने पापों को बढ़ा चढ़ाकर वणित किया है। अहम् के विगलन का भाव मूर्ति की प्रभाव
तथा जैन कवियों ने आत्म निन्दा को महत्व दिया शीलता से ही नहीं, बाहुबलि की तपस्या के कथा
है। पूजा और अभिषेक के विधि-विधान भी अपने प्रसंग से भी जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि एक
अहं को विसर्जित करने और ऋद्धि-समृद्धि को वर्ष तक कठोर तपस्या करने पर भी उन्हें कैवल्य
अनासक्त भाव से भगवान के चरणों में समर्पित की प्राप्ति नहीं हुई । क्योंकि उनके मन में इस बात
करने के मनोभाव से बनाए गए हैं। इस दृष्टि से का अहम् था कि वे अपने से पूर्व दीक्षित छोटे
गौम्मटेश्वर के अभिषेक-महोत्सवों का विशेष महत्व भाइयों को बन्दन करने कैसे जायें। जब उनकी
है । चामुण्डराय द्वारा प्रारम्भ की गई अभिषेकबहनें ब्राह्मणी और सुन्दरी, उनसे कहती हैं,
परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही हैं। “गजथकी नीचे उतरो वीरा, गज चढ्यां केवली न
ऐतिहासिक दृष्टि से इसके महामस्तकाभिषेकों का होसी।" यह स्वर सुनते ही बाहुबलि चिन्तन करने
वर्णन ईस्वी सन् 1598, 1612,1677, 1825 लगे कि मै किस हाथी पर चढा हा हं। बहनें।
और 1827 के उत्कीर्ण शिलालेखों में मिलता है क्या कह रही हैं । इस चिन्तन के साथ ही उनका
जिनमें अभिषेक कराने वाले प्राचार्य, गृहस्थ, विवेक जागृत हो गया और उन्होंने अपने भाइयों
शिल्पकार, बढ़ई, दूध-दही आदि का ब्यौरा दिया को वन्दन के लिए जाने का विचार किया । इस
गया है। इनमें कई मस्तकामिषेक मैसर नरेशों और विचार के साथ ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
उनके मंत्रियों ने स्वयं कराये हैं । बीसवीं शताब्दी उनका अहम् मिट गया। बे गोम्मट अर्थात् प्रकाश
में सन् 1909, 1925, 1940 और 1953 में वान हो गये। प्रकाशवानों के ईश्वर अर्थात् गोम्म
महामस्तकाभिषेक हो चुके हैं। अब फरवरी, टेश्वर का यह आदर्श हमारे लिए अनुकरणीय है।
1981 में सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक का विशेष अहं-विसर्जन का प्रसंग बाहुबलि की मूर्ति के मायोजन एलाचार्य पूज्य विद्यानन्दजी म.सा. प्रतिष्ठापक चामुण्डराय द्वारा किए गए अभिषेक के सान्निध्य में विशाल स्तर पर सम्पन्न हुआ है।
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