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बस प्रकार अतिशय क्षेत्र की दृष्टि से श्रवण- पूर्ण भूमिका रही है । इस दृष्टि से श्रबणबेलगोला बेलगोला अद्वितीय है।
के शिलालेख राज्य विस्तार, सत्ता-प्राप्ति और
इन्द्रिय भोगों के लिए लड़े जाने वाले युद्धों और 2. प्रात्म-वीरता-जैन धर्म में प्रात्मविजय प्रतिहिंसामों के स्मारक नहीं हैं । ये स्मारक हैंको ही सर्वोपरि विजय माना गया है । इस विजय उस विचार और चिन्तन के जो युद्ध पर प्रेम की, में शारीरिक स्वस्थता और मानसिक दृढ़ता प्राधार हिंसा पर अहिंसा की, इन्द्रियभोग पर जितेन्द्रियता भत बनती है। यही कारण है कि क्षत्रिय कुल में की, लोकिक समद्धि पर लोकोत्तर शान्ति और जन्म लेने वाले बड़े-बड़े प्रतापी नरेश जैन धमानु- प्रानन्द की विजय अंकित करते हैं। इन शिलालेखों यायी बनकर प्रात्म-विजय के पथ पर अग्रसर होते में उन धर्माराधकों और धर्मवत्सला महिलाओं का हुए दिखाई देते है । भरत-बाहुबलि की कथा हमारे वर्णन है जिन्होंने जीवन और समाज में अहिंसा इस कथन की साक्षी है। दक्षिण में जैन धर्म का और शान्ति की भावना फैलाने तथा अपने सुख से जो विकास हुआ, उसके मल में धर्माचार्यों की ऊपर उठकर दूसरों के दुःखों का निवारण करने प्रेरणा के फलस्वरूप राजाओं की विकसित राज- के लिए महान् त्याग किया और तपस्या करते हुए शक्ति ही प्रमुख कारण रही है। कर्नाटक में गंग- समाधिमरण प्राप्त किया। जैन दर्शन में भोग राजवंश के मारसिंह, राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष, भोगते हुए जीवित रहने को महत्व नहीं दिया गया राज तृतीय, होय्यसल वंश के विष्णुवर्धन प्रादि है, यहां महत्व दिया गया है सुख-दुख और राग-द्वेष राजा और उनके सामन्त महान् योद्धा होने के से ऊपर उठकर समताभाव में रमण करते हुए साथ-साथ धर्मपरायण भी थे। जहां युद्धवीर के मृत्यु वरण करने को । क्योंकि मृत्यु का यह वरण रूप में उन्होंने शत्रनों का दमन कर अपने राज्य
केवल देह का विसर्जन है। विसर्जन का यह क्षण का विस्तार किया और उसे सुरक्षित बनाया, वहां । जितना अधिक निराकूल, निर्द्वन्द्व और शान्तिपूर्ण धर्मवीर के रूप में उन्होंने लोककल्याणकारी कई होगा, शरीर की अगली पर्याय उतनी ही अधिक कार्य भी किये, और उनमें से कईयों ने अन्तिम चेतना सम्पन्न और संस्कारयुक्त होगी। समय में सल्लेखनापूर्वक देहोत्सर्ग किया । विभिन्न शिलालेखों से उनके व्यक्तित्व की इन विशेषताओं समन्तभद्रकृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में का पता चलता है। उदाहरण के लिए चामुण्डराय संलेखना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया हैको जहाँ 'समर धुरन्धर' 'वीर मार्तण्ड' 'रणरंग- 'जब कोई उपसर्ग व दुर्भिक्ष पड़े, बुढ़ापा व व्याधि सिंग,' 'वैरिकुलकालदण्ड; 'भुजविक्रम; समर-परशु- सतावे और निवारण न की जा सके, उस समय राम कहा है, वहीं सत्यनिष्ठा के कारण 'सत्य धर्म की रक्षा के हेतु शरीर त्याग करने को संलेखना युद्धिष्ठर', भी कहा है । इसी प्रकार विष्णुवर्धन कहते हैं । इसके लिए प्रथम स्नेह व वैर, संग व को त्रिभूवनमल्ल' के साथ 'सम्यक्त्व चूड़ामणि', परिग्रह का त्याग कर, मन को शुद्ध करे व अपने और उनके सेनापति व मंत्री गंगराज को 'महा- भाई बन्धु तथा अन्य जनों को प्रिय वचनों द्वारा सामन्ताधिपति; महाप्रचण्डदण्डनायक; वैरिभय क्षमा करे और उनसे क्षमा करावे । तत्पश्चात् दायक' के साथ-साथ सम्यक्त्व रत्नाकर' भी कहा निष्कपट मन से अपने कृत, कारित व अनुमोदित है। इस तथ्य से सूचित होता है कि युद्ध-वीरता पापों की आलोचना करे और फिर यावत् जीवन को धर्मवीरता और प्रात्मजयता की ओर उन्मुख के लिए पंच महाव्रतों को धारण करे। शोक, करने में जैन आचार्यों और मुनियों की महत्व- भय, विषाद, स्नेह, रागद्वेषादि परिणति का त्याग
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