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रणेव य जीवट्ठाणा रण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। प्रवृत्त होता है (वस्तु के परसापेक्ष भावों को वस्तु जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।। 55 का कहता है) अतः वह परभाव का परद्रव्य पर ___अर्थात् जीव में न राग है, न द्वष है, न मोह आरोप करता हैं (विदधाति)। इसलिए वर्ण से है, न प्रयत्न हैं, न कर्म हैं, न नोकर्म हैं। उसके लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहारनय से जीवस्थान भी नहीं हैं, गणस्थान भी नहीं है, (परभाव का परद्रव्य पर आरोप करने की दृष्टि क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। से) जीव के हैं, निश्चयनय से नहीं ।
नियमसार (गाथा 13) में भी प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रौदयिक, प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्रजी ने वस्तु के प्रौपातथा क्षायिक इन चार भावों को परभाव कहा है, धिक भावों को परभाव कहते हुए उन्हें वस्तु का क्योंकि ये कर्मों के उदय या उपशमादि की अपेक्षा कहना बस्तु पर उनका आरोप करना मना है। रखने से परसापेक्ष हैं। केवल परम पारिणामिक प्रोपाधिक भाव वस्तु के निज परसापेक्ष भाव हैं।
प्रतः स्पष्ट है कि प्राचार्य श्री ने वस्तु में उसके ही है । यह बात टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव के
परसापेक्ष धर्म अर्थात् तद्गुण के कथन को प्रारोप
परसापेक्ष धर्म अर्थात 'प्रौदयिकादिचतुर्णा विभावस्वभावपरभावानाम्'
या उपचार कहा है, दूसरे शब्दों में तदगणारोपी इन शब्दों से प्रकट होती है ।
उपचार को व्यवहारनय (प्रसद्भूत व्यवहारनय) इस प्रकार अध्यात्म में दो प्रकार के धर्म अन्य
बतलाया है। वस्तु के धर्म कहलाते हैं -एक तो अन्य वस्तु का
पंचाध्यायीकार पडित राजमल्लजी तो तद्ही धर्म, दूसरा अपना परसापेक्ष धर्म। चूँकि ये दोनों अन्य वस्तु धर्म की परिभाषा में आते हैं गुगारोपी उपचार को ही प्रसद्भूत व्यवहारनय अतः इन दोनों को वस्तु का कहना उस पर इनका
का वास्तविक लक्षण मानते हैं। उनकी दष्टि में पारोप या उपचार करना कहलाता है। परधर्मों
___ अतद्गुणारोपी नय, नय नहीं, नयामास हैं । वे की इस द्विविधता के कारण उपचार के भी दो कहते हैं-'जीव वर्णादिमान् है' इस प्रकार एक भेद हो जाते हैं -प्रतद्गुणारोपी तथा तदगणा- वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म का प्रारोप करने से रोपी । अन्य वस्तु के धर्म को किसी वस्तु का धर्म ।
कोई लाभ नहीं होता, इसके विपरीत उनमें एकत्व
का भ्रम होने से हानि होती है। अतः ऐसे नय को कहना अतद्गुणारोपी उपचार है तथा वस्तु के अपने ही परसापेक्ष धर्म को वस्तु का कहना
ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्रोधादिभाव वर्णादितद्गुणारोपी उपचार कहलाता है। अन्तिम के भावों के समान अन्य वस्तु के धर्म नहीं हैं। वे उपचार कहलाने में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्न
जीव से ही उत्पन्न होते हैं अतः उन्हें जीव का लिखित कथन प्रमाण है
कहना अतद्गुणारोप नहीं है, अपितु तद्गुणारोप
है। इसलिए यह नयामास नहीं है, नय ही है । "व्यवहारनयः किल ..."औपाधिकं भावमव
यह बात पंचाध्यायी की निम्नलिखित कारिकायों लम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य विदधाति ।........
से ज्ञातव्य हैततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति, निश्चयेन तु न सन्ति ।" तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभासंज्ञकाः सन्ति । (समयसार/प्रात्मख्याति, 56)
स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहारा विशेषतो न्यायात् अर्थात् व्यवहारनय औपाधिक भावों को लेकर
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