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चैतन्य स्वरूप पूरुष (आत्मा) है। वह सदा भार परिण मनशील है और अपने परिणामों का कर्ता बीज है। इसको दूर करके अपने स्वरूप का सम्यक् भोक्ता है। उसके परिणामों का निमित्त पाकर रीति से निश्चय करो और उससे भ्रष्ट न होकर अन्य पुदगल स्वयं ही कर्मरूप परिणमन करते हैं। उसी में लीन रहो, यही पुरुषार्थ की सिद्धि का इसी प्रकार जीव अपने चैतन्यस्वरूप रागादि उपाय है। भावरूप से स्वयं ही परिणमन करता है किन्तु पौदगलिक कर्म निमित्त मात्र होते हैं। इस प्रकार
श्रावकाचार को प्रारम्भ करने से पूर्व
अमृतचन्द्रजी ने श्रावकाचार पालन करने वाले की पुदगल कर्म में निमित्त जीव के रागादिभाव हैं और
दृष्टि को स्वच्छ किया है। उसके बिना श्रावकाचार रागादिभाव में निमित्त पुदगल कर्म हैं। अतः भाव
का पालन फलदायक नहीं हो सकता। इसके आगे कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्म का निमित्त पाकर
उन्होंने एक मौलिक बात यह कही है कि जो जीव भाव कर्म होते हैं।
उपदेश सुनने की रुचि रखता हो उसे सर्वप्रथम प्राशय यह है कि जीव के रागादिभाव स्वद्रव्य मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिये। यदि वह मुनि के पालम्बन से नहीं होते। यदि स्वयं होवे तो पद स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करे तभी ज्ञान दर्शन की तरह जीव के स्वभाव भावरूप उसे श्रावक धर्म का उपदेश करना चाहिए । जो ठहरेंगे । और ऐसा होने पर उनका नाश नहीं हो उपदेशक प्रथम मुनि धर्म का उपदेश न देकर सकेगा। अतः ये भाव औपाधिक होने से अन्य का श्रावक धर्म का व्याख्यान करता है उसे परमागम निमित्त पाकर होते हैं। वह निमित्त पुद्गल में प्रायश्चित रूप दण्ड देने का विधान है। कर्म है।
ये सब उपयोगी बातें अन्य किसी भी श्रावकाइस प्रकार कर्मों का निमित्त पाकर ग्रात्मा चार में नहीं हैं। रागादि रूप परिणमन करता है किन्तु वे रागादि
आगे क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रात्मा के निज भाब नहीं हैं। प्रात्मा तो अपनी
सम्यक्चारित्र का कथन है । उसमें भी एक विशेषता स्वच्छता रूप चैतन्य गुरण में विराजमान है।
यह है कि इन तीनों को प्रात्मरूप कहा है। यथा रागादि तो जीव के स्वरूप में प्रविष्ट हए बिना
सम्यग्दर्शन विपरीत, अभिनिवेश से रहित आत्मऊपर-ऊपर ही झलकते मात्र हैं। जैसे स्फटिक मणि
रूप है । सम्यग्ज्ञान संशय विपयर्य अनध्यव साय से लाल फूल का निमित्त पाकर लाल रंग रूप
रहित आत्मरूप है। सम्यक्चारित्र सकल कषाय से परिणमन करती है। किन्तु वह लाल रंग स्फटिक
रहित उदासीन यात्मरूप है। यद्यपि रत्नत्रय का निज भाव नहीं है। स्फटिक तो अपने श्वेत
आत्मरूप ही हैं, फिर भी लिखे बिना अभ्यासी भी वर्ण रूप से विराजमान है, लाल रंग स्फटिक के
समझता नहीं है। उन्हें वह प्रात्मा से भिन्न ही स्वरूप में प्रविष्ट न होकर अपनी झलक मात्र
समझ बैठता है। अन्य श्रावकाचारों में इस प्रकार दिखलाता है। इस बात को रत्न का पारखी
से प्रभेदात्मक कथन नहीं पाया जाता। जौहरी जानता, है किन्तु अज्ञानी तो स्फटिक को लाल समझता है। यही बात प्रात्मा और कर्मकृत सम्यकुचारित्र के कथन के प्रारम्भ में अहिंसा रागादि भावों के सम्बन्ध में भी जानना। किन्तु का जो निरूपण है इस प्रकार का निरूपण अन्यत्र अज्ञानी जीव को रागादि भावरूप ही जानता है। नहीं पाया जाता। इसी प्रसंग में श्लोक 49 में इसी का नाम विपरीत अभिनिवेश है कि कर्मजनित कहा है-'परवस्तु के कारण सूक्ष्म भी अर्थात्
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