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महावीर वाणी
(१) शरीर नाव है, जीव नाविक, और संसार समुद्र । इस समुद्र को महर्षि
पार कर जाते हैं, प्रमादी इसमें डूब जाते हैं। (२) जो परिग्रह धारी मनूष्य प्राणियों का स्वयं घात करता है, दूसरों से
उनकी हिंसा कराता है और हिंसा करने वालों का सर्मथन करता है, वह
संसार में शत्र भाव को बढ़ाता है। (३) जो धर्म किसी प्रकार की अस्वाभाविकता-विषमता को आश्रय देता है,
उससे संसार का कोई भला नहीं हो सकता। (४) दूसरों की सहायता करो, उन्हें जीने की सम्यक् राह बताओ, और यदि
इतना नहीं कर सकते हो तो कम से कम किसी को सतायो मत । (५) किसी के अस्तित्व को मत मिटायो । शान्ति पूर्वक जियो और दूसरों
को जीने दो। (६) निर्दोष आहार ग्रहण कर, अहिंसक जीवनोपकरण रख, और देख कि
इनसे दूसरों का अपकार तो नहीं हो रहा है। (७) जब तक घर में दीपक का प्रकाश रहता है, तब तक सभी पदार्थ दीख
पड़ते हैं, पर दीपक के बुझ जाने पर कुछ नहीं दीख पड़ता है। (८) जैसे वृक्ष के पके पीले पत्त अपने आप झड़ जाते हैं, वैसे ही मनुष्य का
जीवन भी आयु समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है। (8) जो शरीर सदा आत्मा के साथ रहता है, उसका भी सम्बन्ध प्रात्मा से
कुछ नहीं है, क्योंकि आत्मा चेतन है, शरीर अचेतन । (१०) धर्म गांव में भी हो सकता है और जंगल में भी, वस्तुतः धर्म न कहीं
गांव में होता है और न कहीं जंगल में ही; किन्तु वह तो अन्तरात्मा में होता है।
श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा प्रचारित
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