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इन दोनों ही धारामों पर प्राचीन वैदिक, तथा का ध्यान इस तथ्य की प्रोर दिलाया जाय कि वैदिकेतर, दोनों प्रकार के साहित्य का प्रभाव 12-13 वीं शती ई० में पल्लवित सूफी या रहस्यपड़ा है।
वादी इन दोनों भक्ति-धारामों में जो मूलभूत तत्त्व
हैं, वे करीब एक सहस्राब्दी पहले ही, ई० प्रथम किसी साकार या सगुण व्यक्तित्व के प्रति, शती के प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित शौरसेनी उसके सौन्दर्यादि गुणों पर रीझ कर, प्रेम या भक्ति- प्राकृत साहित्य में, तथा उस पर आधारित या उससे भाव का प्रदर्शन तो स्वाभाविक प्रतीत होता है, प्रभावित परवर्ती प्राकृत साहित्य में पूर्णतः अंकुरित किन्तु सन्त या सूफी कवियों ने निराकार परमात्मा व पल्लवित हो चुके थे। के प्रति अपने प्रेमभाव का निरूपण जिस प्रकार किया, और जिस प्रकार की प्रेममयी साधना-पद्धति
साधना में जाति प्रादि का बन्धन न मानना, प्रस्तुत की, उनका प्राध्यात्मिक क्षेत्र में अनूठा
मानव में ही ईश्वरत्व प्राप्ति की सम्भावना, आत्मा स्थान है । इन निर्गुणोपासक कवियों ने परमात्म
व परमात्मा में अन्तर न मानना, गुरु की महत्ता, तत्त्व को पत्नी, पति या किसी प्रिय सम्बन्धी के
___ईश्वरत्व-प्राप्ति में माया (शैतान) को बाधकतारूप में कल्पित कर, निराकार सौन्दर्य को साकार रूप प्रदान किया तथा लौकिक प्रेम-पात्रों व वस्तुओं .
। ये कुछ सूफीमत के सामान्य सिद्धान्त हैं जो प्राचार्य के प्रतीकों के माध्यम से अपनी सौन्दर्य व प्रेम की ,
- कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में स्पष्टतया प्रतिपादित अनुभूति को व्यक्त किया। परमात्म-तत्त्व को पाने । की निर्गुण भक्ति-साधना की भी दो शाखाएं हैं, जो ज्ञानाश्रयी या रहस्यवादी सन्तों की काव्य
सफी साधना में (1) शरीअत (शास्त्रानुसार धारा तथा प्रेममार्गी या सूफी काव्य-धारा में प्रार्थना, दान आदि कर्माचरण), (2) तरीकत क्रमशः पृथक-पृथक् पुष्पित, पल्लवित व वधित हई। (बाह्याचार या कर्मकाण्डजैसी शुभ प्रवृत्ति का त्याग, इन दोनों ही शाखामों पर जितना प्रभाव प्राचीन (3) हकीकत (उपासना के दौरान तत्त्व-ज्ञान की
स्थिति),4 (4) मारिफत (प्रात्मा व परमात्मा की संस्कृत साहित्य का है, उससे कम प्रभाव प्राकृत साहित्य का नहीं। वस्तुतः तो प्राकृत साहित्य का
एकता) ये चार अवस्थाएं हैं जो प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रभाव सर्वाधिक है।
के साहित्य में शुभोपयोग, शुद्धोपयोग, निर्विकल्प समाधि में प्रात्म-साक्षात्कार, प्रखंड चिद् तत्त्व
मात्र के रूप में स्थिति इन अवस्थानों के माध्यम से सामान्यतः रहस्यवादी विचार-धारा पर प्राचार्य
प्रस्फुटित हुई हैं। शंकर (8वीं शती) के अद्वैतवाद का तथा बौद्धदर्शन की महायान (मंत्रयान) शाखा का प्रभाव
___ यद्यपि जनों ने बुद्ध के सगुण व निर्गुण-दोनों माना जाता रहा है। किन्तु वास्तविकता यह है
रूपों को मान्यता दी है, तथापि उन्होंने निर्गुण रूप कि प्राचार्य शंकर से, तथा बौद्ध साधना-पद्धति के
को अधिक ग्राह्य माना है ।' प्राचार्य कुन्दकुन्द ने विकास से सैकड़ों वर्ष पूर्व जैनों का प्राकृत साहित्य
शुद्ध नयगम्य, निःशरीरी चिन्मात्र निराकार रूप समृद्ध रूप में था, जिसकी अोर इस प्रसंग में विद्वानों
की उपासना का सूत्रपात किया। प्रा. कुन्दकुन्द का ध्यान नहीं गया।
रचित साहित्य के व्याख्याकार प्रा. अमृतचन्द्र प्रादि प्रस्तुत निबन्ध का उद्देश्य यह है कि विद्वानों ने भी उसी निराकार रूप की उपास्यता को
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