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8. समयसार, गाथा-14, 15, 27-29, 9. नमः समयसाराव स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय, भावाय, सर्वभावान्तरच्छिदे ।। (मंगलाचरण, प्रात्मख्याति) । 10. अलख अमरति, प्ररूपी अविनासी अज निराधार, निगम निरंजन निरंध है-(नाटक समयसार,
बंध द्वार,54)। कवि निजनाथ निरंजन सुमिरौं, तज सेवा जन जन की-(अध्यात्म पद पंक्ति,
13 वां पद्य, बनारसी-विलास)। निरंजन-निराकार (द्र. परमात्म प्रकाश-1/19)। 11. निः शरीरं निरालम्बं नि:शब्द निरूपाधि यत ।
चिदात्मकं परं ज्योतिः, प्रवाङ्मनसगोचरम् ।। (पद्मनन्दि पंचठिंशतिका, 4/60) प्रास्तां तत्र स्थितो यस्तु चिन्तामात्र परिग्रहः । तस्यात्र जीवितं श्लाघ्यं देवैरपि स पूज्यते ।। (वहीं, 4/62)
सिद्धज्योतिरमूर्तिचित्सुखमयं के नापि तल्लक्ष्यते ॥ (वहीं, 8/13)। 12. तोऽस्मान्पातु निरजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः (प्रकलंक स्तोत्र-10)। निरञ्जन से
तात्पर्य निरकार से ही है-जासु ण वण्णु ण गंधु न रसु जासु ण जम्मं णु मरणु ण वि गाउ निरंजणु तासु (परमात्म प्रकाश--1/19)। वष्ण विहूणउ णम्णमउ जो भावइ सब्भाउ । संत
णिरंजणु सो जि सिउ नहिं किज्जइ अणुराज (रामसिंहकृत पाहुड दोहा, 61)। 13. भगवती पाराधना--185 5-56, एगं जिणेज्ज अप्पारणं एस से परमो जनो-(उत्त. सू. 9/34)
भावपाहुड-154, उत्त. सू. 1/2C-22, 14. ज्ञानार्णव-1125 15. त्रिभुवनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे. (प्रादि पु. 35/241) ।
प्रशम शास्त्र के बल पर साधक मुक्ति नायिका के स्वयंवर-गृह में प्रविष्ट हो पाता है (मुक्त :
स्वयंवरागारं वीर व्रज शनैः शनै:-ज्ञानार्णव-1143)। 16. ये निर्वाणवधूटिका स्तन भरा श्लेषोत्यसौख्याकराः""तान् सिद्धानभिनौम्यहं (नियमानुसार
कलश-224)। 17. मुक्ति श्री वनितामुखाम्बुजरवीन् (नियमानुसार कलश-225)। सिद्धाः सुसिद्धिरमणी रमणीय
वक्त्रपंकेरुहोरुमकरन्दम धुव्रताः स्युः (वहीं, 226) । 18. ज्ञानर्णव--4122 (धर्मः किं न करोति मुक्तिललनासम्भोगयोग्यं जतम्)। 19. समयसार, 17-18,
कविवर बनारसीदास (17वीं शती के जैन कवि) की प्रात्मा रूपी पत्नी परमात्मा रूपी पति के वियोग में इस तरह तड़फ रही है, जैसे जल बिना मछली-मैं विरहिन पिय के प्राधीन । यो तलफों ज्यों जल बिन मीन (अध्यात्मगीत, 3, बनारसीविलास)। नायिका सुमति का चिदात्मा पति के साथ अटूट, एकनिष्ठ प्रेम का निरूपण बनारसीविलास में हुआ है (द्र. बनारसी. विलास में हुअा है (द्र. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 10 वांराग-विराग, पृ. 228) । कवि बानतराव की आत्मा रूपी दुलहिन ज्योंही ब्रह्म का दर्शन करती है, चारों ओर बसन्त का
सुखमय वातावरण छा जाता है (द्यानतपदसंग्रह, 58 वां पद्य)। 20. [मात्मा रूपी राधिका में रमण करने के कारण ही कृष्ण को 'आत्मारामता' प्राप्त होती है
मात्मा तु राधिका प्रोक्ता--भागवत-माहात्म्य--1/22) । गोपियां कृष्ण की पतिरूप में भक्ति
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