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व्यस्त रहता है जिससे दूसरे के स्वामित्व या भावना जो राग-द्वेष-मोह के सद्भाव में होती है, अधिकार की धनसम्पत्ति उसे प्राप्त हो जावे। दूसरा किसी का वस्तु के प्रति स्वामित्वाधिकार होना अधिकारों के दुरुपयोग, अनुपयोग, न्यून उपयोग या तथा तीसरा प्रदत्त बिना स्वीकृति के वस्तु को अधिक उपयोग आदि के द्वारा धन संग्रह किया जा ग्रहण करने की भावना विचार एवं तदनुसार कार्य रहा है। व्यापारिक निष्ठा एवं ईमानदारी कपूर करना। चोरी के कार्य में इन तीनों तत्वों का बनकर उड़ गयी है। 'जीवन एवं चोरी' दोनो विद्यमान होना बहुत आवश्यक है। हवा पानी 'चोली-दामन जैसे सहगामी हो गये हैं। राष्ट्रीय, जैसी सार्वजनिक उपयोग की वस्तुएं जो किसी के धार्मिक एवं सामाजि गतिविधियां चोरी की स्वामित्वाधिकार के अन्तर्गत नहीं आती हैं उनका व्यापकता के जाल में फंसकर चीत्कार कर रही हैं। बिना स्वीकृति प्राप्त किये उपयोग या ग्रहण करना चोरीकी सर्वव्यापकता का एक महत्वपूर्ण सामाजिक चोरी नहीं है, किन्तु निजी स्वामित्वाधिकार के पहलू यह भी है कि चोरी करने वाला चोर नहीं कुएं से अदत्त या बिना अनुमति के जल ग्रहण कहलाता है। समाज उसे प्रतिष्ठा देती है और भी चोरी है। कानून तथा उसको प्रक्रिया प्रश्रय । सफेद पोश
लौकिक दृष्टि से चोरी का दण्ड तभी दिया अपराधों में चोरी के कृत्य को ही प्रधानता
जाता है जब व्यक्ति चोरी करने का प्रयास करता प्राप्त है । समस्या यह कि चोरी की भावना एवं
। है या जब वह चोरी किये गये माल सहित पकड़ कृत्य के विकास को इतना व्यापक क्षेत्र कैसे प्राप्त
में पाता है। वैसे चोरी करने का षडयंत्र यदि हो गया और समाज की इस वृत्ति को कैसे सुधारा
सप्रमाण प्रकट हो जावे तो वह भी दण्डनीय होता जा सकता है।
है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जैसे हम दूसरे के ___ चोरी का प्रेरणा स्रोत धन सम्पत्ति प्रादि
आदि स्वामित्वाधिकार की वस्तु के प्रति ममत्व भाव कर भौतिक पदार्थों के प्रति तीव्र ममत्व भाव है। जब
उसे अनधिकृत रूप प्राप्त करने की भावना रखते व्यक्ति बाह्य बस्तुओं में सुख की कल्पना से प्रेरित
हैं, हम अपने अविकारी ज्ञाता-दष्टा स्वभाव से होकर तथा न्याय-अन्याय एवं औचित्य-अनौचित्य
च्युत होकर राग-द्वेषमय विकारी भावों के अधिके भाव को विस्मृत कर दूसरे व्यक्ति के स्वामित्वा- कारी हो जाते हैं और चोरी के कृत्य के दोषी बन धीन वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार एवं
जाते हैं। इस दृष्टि से दूसरे की वस्तु को ग्रहण प्रयास करता है, तब वह चोरी के कृत्य का प्राश्रय
करने का कार्य पूर्ण हो या नहीं किन्तु हम भावनालेता है। राग द्वेष मोह एवं प्रभाव से उत्प्रेरित
त्मक स्तर पर चोरी के साथ ही साथ हिंसा एवं होकर जब हम दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व की किसी
परिग्रह के भी दोषी हो जाते हैं। इस प्रकार भी वस्तु को बिना उसकी स्वीकृति के लेने या ग्रहण
भावनात्मक स्तर पर सूक्ष्म विश्लेषण जैन दर्शन करने का भाव रखते हैं और तदनुसार उस वस्तु
की प्रमुख विशेषता एवं सार है। को छल कपट, दबाव या अन्य माध्यम का उपयोग कर उसे लेते है या अपने स्वामित्व के अधीन चोरी का कार्य हिंसा एवं परिग्रह दोनों पापों बनाने का प्रयास करते हैं तो वह चोरी कहलाता की पृष्ठ भूमि पर सम्पादित किया जाता है। है। इस प्रकार अदत्त वस्तुओं का ग्रहण करना ही राग-द्वेष-मोह तथा प्रमाद भाव से अदत्त वस्तुओं चोरी है।
के ग्रहण करने के विचार से आत्म-स्वभाव का __ चोरी में तीन तत्वों का समावेश है। पहला घात होता है स्वभाव में विकृति आती है अतः दूसरे व्यक्ति की वस्तु को ग्रहण करने की गलत चोरी हिंसा है। दूसरे की धन सम्पत्ति को ग्रहण
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