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________________ महावीर का दिग्दर्शन 0 भानु जैन टो० स्मा० भ०, ए-३ बापू नगर, जयपुर-५ भगवान महावीर जैन दर्शन की उन विभूतियों सच्चा शृंगार है । इसके अभाव में अनंत संयोग में से हैं जिन्होंने कि जगत की सुसंभोगपरक रूप शृगार की उपलब्धियां भी शांति और आनंद उपलब्धियों को भी ठुकराकर निज अक्षय आनंद देने में हार खाती हैं। इसकी उपलब्धि में जगत सत्ता का सहारा लिया और जगत को अपने भावों के अनंत प्रतिकुल संयोग तथा अनंत अनकल तथा शरीर की नग्नावस्था से इस बात का संयोगों का वियोग होने पर भी शांति, आनंद रूप दिग्दर्शन करा दिया कि सभोगों में चैतन्य का समाधान रह सकता है तथा ज्ञाता द्रष्टा रूप से प्रानन्द, सुख एवं शान्ति नहीं है। उनकी मुद्रा रह कर अकर्तृत्व (ज्ञाताफ्न) की स्थिति निभ ही इस बात का दिग्दर्शन कराती है। (पाली जा सकती है। जैनागम का प्रथमानयोग इसके जीते जागते ज्वलन्त उदाहरणों से भरा पड़ा महावीर ने अपने जीवन में उस शांति और है और जगत को इस बात का दर्शनबोध देता है प्रानन्द को आत्मसात् किया जो कि जगत की कि-"पुण्य पाप परिणाम जो पूर्व में किये हैं वह सुसंयोगतम् उपलब्धियां कर लेने पर भी नहीं होता उदय में तो पायेगे, आयेंगे और आयेंगे, तथा है अर्थात् जगत के सभी पदार्थ जिस समाधान को उनके उदय के निमित्त से अनुकूल प्रतिकूल संयोग देने में असमर्थ हैं उस समाधान को उन्होंने अपने भी अवश्य मिलेंगे लेकिन इन सुपरिस्थितियों और जीवन में अपनी अक्षय आनंद सत्ता के आश्रय से दुःपरिस्थितियों में दुःख न हो इस का इन्तजाम अात्मसात् किया। फलत: उस समाधान का वर्तमान में अपनी आनंद सत्ता में 'अहं' की भावना सामना उनके निकट रहने वाले संयोग (कर्म) का स्थापन करने से किया जा सकता है। क्योंकि नहीं कर पाये और उस समाधान को देखकर वस्तु स्वरूप तो झुकने वाला है नहीं अर्थात शरमा कर उनसे (महावीर से) दूर होगये । परिस्थितियां तो बदलने वाली हैं नहीं, अब इन्हीं इस शांति और प्रानन्द के समाधान स्वरूप परिस्थितियों में दु.ख न हो इसका उपाय निज ही अध्यात्म है जो कि जीव मात्र को अपने जीवन प्रानंद सत्ता के आश्रय से किया जा सकता है।" की अनादिकालीन चिर दुःख रूप परम्परा को प्रथमानुयोग इसके उदाहरण भी देता है-सियार मिटाने हेतु परमोपादेय है। यह जागरूक जीवन के द्वारा काटा गया (सुकमालमुनि), सिर पर की इसके अभाव में जीवन को यदि पहचान सिर पर सिगड़ी जलाईगई (गजकुमारमुनि), शरीर है । मौत कहें तो इसमें कोई अत्युक्ति में गर्म लोहे के आभूषण पहनाये गये (पांडवों को) नहीं होगी। इसके सद्भाव में ही जीवन की प्रादि उपसर्ग हुए, लेकिन इस आनंद सत्ता के सार्थकता और प्रतिष्ठा है और यही जीवन का बल पर ही इन दुःसंयोगों में भी ज्ञाता द्रष्टा रूप 5/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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