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अव्यवस्थितता के कारण उत्पन्न चित की खिन्नता है। 'पुष्प आयुर्वेद' नामक ग्रन्थ में लगभग 22 स्पष्ट अनुभवगम्य थी। ऐसे अवसर पर साधु की हजार फूलों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार परिचर्या अत्यन्त आवश्यक थी।*
साधना में देह सहायक बनी रहे इस दृष्टि से
जैनाचार्यों ने अपने रचित शास्त्रों के माध्यम से मन-वचन और काय ये तीनों भावना और
मार्गदर्शन किया है। शिवकोटि प्राचार्य ने अपने कर्तव्य निर्वाह में सहायक हैं। ये तीन धाराएं हैं
ग्रन्थ 'भगवती पाराधना' में श्रावक व साधु दोनों जिनका समुचित संयम साधना के लिये आवश्यक
के लिये ही अपने अपने योग्य कर्तव्य की ओर है। मनि संयम द्वारा मन पर विजय प्राप्त करता इंगित करते हुए कहा है :है तो वचन श्रीर काया पर विजय तो अहंत अवस्था में ही होती है। इस प्रकार अहंत होने "वैयावृत्यं हि तपसो हृदयम्' तक काया की संभाल आवश्यक होती ही है। काया पदगल है जीवनोन्मक्त होने तक उसका अर्थात्-वैयावृत्य ही तप का हृदय है। साहचर्य है जिसके कारण उसका महत्व है। दूसरे शब्दों में तप साधना में वैयावत्य उसी प्रकार प्राचार्यों ने शास्त्रों के माध्यम से इन सबका महत्वपूर्ण है जैसे-शरीर संचालन में हृदय है । महत्व और गृहस्थ और साधु के अपने-2 कर्तव्यों .
जैन साधुनों की चर्या के अनुकूल उनके रोग के बारे में निर्देश दिये हैं।
निवारण की क्रिया होनी चाहिये । वे एक समय काय की रक्षार्थ स्वयं प्राचार्यों ने आयुर्वेद ही आहार व जल ग्रहण करते हैं। यदि उन्हें कोई ग्रन्थों की रचना की है जिसमें पूज्यपाद स्वामी औषधि देनी हो तो वह उसी समय ही दी जा द्वारा रचित 'कल्याणकारकम्' एक प्रसिद्ध ग्रन्थ सकती है। इस सम्बन्ध में यहां इतना समझ लेना
*जैन दर्शन में मुनिचर्या का पालन कठोर है। शुद्धता को ही देखता है तथा व्यक्तिश: उसकी मुनि का लक्ष्य मोक्ष पद की ओर बढते जाना है। क्या प्रकृति है, उन्हें किस प्रकार का आहार देना इस मार्ग में ध्यान, त्याग, तपस्या श्रीर मौन उसके चाहिये, का ज्ञान उसे नहीं है। जिससे साधुजनों आधार रहते हैं। इसलिये वह अपने भोजन व को हम (श्रावक-गृहस्थ) स्वस्थ रहने में सहयोग विहार के बारे में नहीं सोचते हैं। परन्तु शरीर नहीं कर पा रहे हैं। आजकल प्राहार में फलों की प्रकृति तो संभाल चाहती है। वह एक संभाल का रस देने का प्रचलन बढ़ रहा है। जिससे वायु श्रावक द्वारा की जाती है। लेकिन वर्तमान में इस (गैस) रोग ज्यादा हो रहा है तथा ठण्डे के साथ व्यवस्था में कमी आती जा रही है और बल के गर्म; दूध के बाद दही या रस इत्यादि दिया हीन योग से शरीर कई रोगों से ग्रस्त हो जाता जाता है जो बेमेल होने से रोग उत्पन्न करते हैं। है । मुनि का स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता हैं जिससे आहार के विषम होने से संतुलन बिगड़ता है उसे अध्ययन-मनन-चिन्तन-ध्यान में साधक बल जो स्वास्थ्य में पाई विकृति का प्रमुख कारण की हीनता क्लेश का कारण होने लगती है। होता है । साधु अपनी साधना में निराकुल होकर प्रआधुनिकता की चकचौंध में गृहस्थ ने अपनी होकर लगा रहे, उसके योग्य बना रहे, इसके लिये बुजुर्ग पीढ़ी से पाहार क्रम का ज्ञान पूर्णतः नहीं मुख्य दायित्व गृहस्थों का ही है। प्राप्त किया, जितना पाया, उसमें वह तो सिर्फ
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