Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 252
________________ एक घर में गये वहां पालने से भूल रहा एक नन्हा बालक बोला - "अरे भट्टार जा, जात्रो" देववाणी समझकर मुनि ने पूछा - "कितना समय ?" तो बच्चे ने कहा - " बारह बरस ।" आचार्य भद्रबाहु अपने निमित्तज्ञान से इसे अकाल की सूचना समझकर, साधुनों पर श्रागे होने वाली आपत्तियों का पूर्वाभास पाकर उस दिन “लाभ करके" (आहार गृहण न करके ), वापस आ गये और मुनि संघ को राज्य में होनेवाले दुर्भिक्ष के बारे में बताया । उसी समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने स्वयं के देखे हुये सौलह सपनों को श्राचार्य को सुनाया और प्राचार्य से अपने स्वप्नों का फल पूछा तथा भावी प्रापत्ति को जानकर स्वयं भी राज्य त्याग कर, दीक्षा स्वीकार करके संघ में शामिल हो गये । श्राचार्य भद्रबाहु ने कहा "इस प्रान्त में बारह बरस तक वर्षा न होकर भारी दुर्भिक्ष हो जाने सारा मध्य देश बरबाद हो जायगा । इस प्रान्त के ऋषि-मुनियों के व्रत साधना का निर्वाह नहीं हो सकेगा । अतएव, हम सब दक्षिण देश की ओर चलेंगे" । चन्द्रगुप्त मुनि सहित बारह हजार मुनियों के समुदाय के साथ वे चल पड़े, और ग्राम, नगर, जंगल में विहार करते हुये वे 'कलary' (श्रवणबेलगोला ) पहुंचे । चन्द्रगिरि पर ठहरे हुये श्राचार्य भद्रबाहु मुनि ने यह जानकर कि अपनी आयु बहुत कम है मुनि समुदाय को आदेश दिया "हम यहीं समाधि लेंगे, आप सब आगे बढ़िये" और अपने एक बड़े शिष्य को संघ का प्राचार्य पद देकर उसे संघ का नेतृत्व सौंप दिया। मुनि चन्द्रगुप्त संघ के साथ आगे नहीं गये वे गुरु की सेवा में वहीं ठहर गये । भद्रबाहु मुनि पहाड़ की एक गुफा में रहकर चतुर्विध प्रहार तथा शरीर से सम्पूर्ण निवृत्ति पा गये । 'अवमोदर्य चरिगे' (यानि 32 ग्रासों में से हर एक दिन एक एक ग्रास कम खाते जाना) स्वीकार करके क्षीरणकाय सहित समाधि में लीन Jain Education International हो गये और समाधिमरण के परिणामस्वरूप उस दिव्यात्मा ने ब्रह्मकल्प स्वर्ग में 'अमितकांति' नाम के देवता के रूप में जन्म लिया । चन्द्रगुप्त मुनि भी बारह बरस तक तपस्या करते रहे। आयु के अन्त में कठिन तपस्या कर, परम श्रेष्ठ तथा परिशुद्ध रत्नत्रय की साधना से, सन्यसन क्रम से चन्द्रगिरि पहाड़ पर देहत्याग कर ब्रह्मकल्प में श्रीधर नामक देवता के रूप में जन्म लिया । सन्यसन अपनाकर, ग्रात्म-साधना करते हुये भूख, प्यास, शीत, ऊष्ण, दंश इत्यादि बाईस परीषहों, को सहते हुये परम पवित्र रत्नत्रयों की सिद्धि कोई भी मोक्ष पद पा सकता है । 10वीं सदी में चामुण्डराय ने अपने श्राघ्यात्मिक गुरु सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्राचार्य की भक्ति-साधना व अपनी माता काललादेवी की प्रेरणा से विश्वतीर्थ श्रवणबेलगोला में 57 फुट ऊँची भगवान बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण करवाया । उस ई. सं. 981 में बड़ी धूमधाम के साथ प्रथम महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ । इस शुभ्र - श्वेत सरोवर के गाँव में ई. 981 के बाद फिर एक ऐसा सूर्योदय हुआ जिसने गोम्मटेश्वर के एक हजारवें साल का महामस्तकाभिषेक देखा । 20वीं सदी के सन् 1981 फरवरी माह में सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य मुनि श्री विद्यान्दजी के सान्निध्य में इस प्रतिमा के हजार साल व 71वां महामस्तकाभिषेक का कार्य सम्पन्न हुआ । इसमें लगभग 151 साधु-साध्वी व लाखों की तादाद में भक्त सम्मिहुये । यह सम्मेलन ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ । इस सम्मेलन का दृश्य इ. सं. 981 में हुये सम्मेलन का बिम्ब लग रहा था। उत्तर ने तीर्थङ्कर दिये लेकिन दक्षिण ने उत्तर को कुछ " अनुत्तर" दिया है और दोनों हाथों से उन्मुक्त दिया है । 5/15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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