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किया जा रहा था, यह भगवान् महावीर से देखा नहीं गया । और उन्होंने हिंसा पर लगे धर्म और महिंसा के मुखौटों को उतार फेंका। और सामान्य जन-मानस को उबुद्ध करते हुए कहा
"हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती । विश्व का प्रत्येक प्राणी चाहे छोटा हो या बड़ा, पशु हो या मानव जीना चाहता हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी को सुख प्रिय व दुख अप्रिय है । सब को अपना जीवन प्यारा है । जिस हिंसक व्यवहार को तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता । जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं, यही जिन शासन का सार है । सब धर्मों का निचोड़ है ।
इस लोक में जितने भी अस और स्थावर प्राणी हैं उनकी हिंसा न तो जानकर करो, न अनजान में करो और न ही किसी दूसरे से उनकी हिंसा करा क्यों कि सबमें एक ही आत्मा है, हमारी ही तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं । ऐसा मानकर भय और बैर से मुक्त होकर किसी की हिंसा मत करो । जो व्यक्ति स्वयं हिंसा करता है, वह अपने लिये वैर बढ़ाता है । दूसरों के प्रति वैसा ही भाव रखो जैसा अपनी आत्मा के प्रति रखते हो । सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिये । "सच्चा संयमी वही है, जो मन से, वचन से और शरीर से कभी किसी की हिंसा नहीं करता " ।
यह है भगवान् महावीर की प्रात्मौपम्य दृष्टि जो हिंसा में श्रोत-प्रोत होकर विराट विश्व के सम्मुख प्रात्मानुभूति का एक उज्जवल उदाहरण प्रस्तुत कर रही है । महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा
" हे शिष्यो ! इस दुनियां में जितनी भी आत्माएं हैं, उन सबमें समान चेतना है। जिस
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कार्य से तुम्हारी प्रात्मा को कष्ट होता है वह काम दूसरों के प्रति भी मत करो। जिस दिन तुम्हें अपनी व दूसरों की प्रात्मा में कोई अन्तर नहीं मालूम होगा उस दिन तुम्हारी हिंसा की साधना सफल होगी । अन्यथा अहिंसा का नाम केवल आडम्बर बनकर रह जाएगा ।"
भगवान् महावीर का यह उपदेश हमारी वर्तमान समाज रचना के लिये अत्यन्त उपयोगी है ।
महावीर की अहिंसा निषेध तक ही सीमित नहीं विधेयात्मक भी है । "नहीं मारना" यह एक पहलू है, "मैत्री, करुणा और सेवा" । यह दूसरा पहलू है |
केवल नकारात्मक पहलू पर सोचें तो हिंसा की अधूरी समझ होगी । सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिये प्राणी मात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उनकी सेवा करना तथा उनको कष्ट से मुक्त करना इत्यादि विधेयात्मक पहलू पर भी विचार करना होगा ।
महावीर स्वामी व गौतम का एक सुन्दर संवाद विधायक अहिंसा पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है | वह सुन्दर संवाद इस प्रकार है
" एक बार गौतम ने महावीर से पूछा "भगवान् ! दो व्यक्ति हैं । एक आपकी सेवा करता है और दूसरा दीन दुखियों की सेवा करता है । प्रापकी दृष्टि में महान् कौन है ? किस व्यक्ति को श्राप अधिक उत्तम समझते हैं ?" प्रश्न का समाधान करते हुए महावीर बोले- " गौतम ! मेरी सेवा करने वाले की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा करने वाले को मैं कहीं अधिक उत्तम समझता हूँ । बे मेरे भक्त नहीं जो केवल मेरा नाम जपते हैं । सच्चे भक्त वे हैं जो मेरी प्राज्ञा का पालन करते हैं ।
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