Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ प्रस्तुत संवाद से स्पष्ट है कि अनुकम्पा दान, श्रभय दान तथा सेवा इत्यादि अहिंसा के रूप है । 1 महावीर स्वामी का संसार के समस्त साधकों को यह जीवन संदेश है कि प्रत्येक कार्य यत्त पूर्वक करो। यदि चलना है तो चलने में यत्न रखो, विवेक रखो । यदि खड़े हो तो विवेक के साथ, सोश्रो, बैठो और उठो भी विवेक के साथ । खाना है, बोलना है तो भी विवेक के साथ । विवेक अहिंसा की सच्ची कसौटी है । अहिंसा का तात्पर्य कायरता से कदापि नहीं है । महावीर स्वामी से एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा - "प्रभु ! आप हिंसा के पथ को छोड़कर अहिंसा के पथ पर क्यों आये ? अनेक कष्ट व ड़ा होते हुए भी क्यों इस दुर्गम पथ पर चल रहे हैं ? तब महाबीर बोले " इस संसार में प्रत्येक प्राणी सुख के लिये तरसता है । दुःख से घबराता है अतः जैसा मैं हू Jain Education International वैसे ही सब | यही सोचकर अहिंसा को ही परम धर्म मानकर मैंने स्वीकार किया ।' सब आपस में भाई-भाई हैं । महावीर बुद्ध ब गांधी ने हमें अहिंसा व प्रेम का पंथ बताया फिर भी भाषा, जाति व धर्म के बेबुनियाद झगड़े को लेकर हम उलझ पड़ते हैं, दंगा कर बैठते हैं, गोलियां चला देते हैं और इस तरह निहायत बेसमझी का प्रदर्शन कर हमारी गहरी अहिंसक परम्पराओं का उपहास कर रहे हैं । आज दुनियां में हिंसा-अहिंसा का मुकाबला है । हिंसक शक्तियां भी अहिंसा का नकाब पहन कर सामने आती हैं। खुलकर प्रकट होने से डरती हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि ग्राम का जन मानस अहिंसा की दृढ़ प्रास्था के साथ जीना चाहता है । अतः हमें चाहिये कि महावीर स्वामी की इस प्रहिंसात्मक वाणी को साथ में लेकर चलें- "जीओ और जीने दो " 5/6 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280