Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 216
________________ इनकी पवित्रता को बचाइये - 0 बुद्धिप्रकाश 'भास्कर' साथी भास्कर जी ने मन्दिरों की पवित्रता का प्रश्न बड़े दर्द के साथ उठाया है। आये दिन यह प्रश्न हमारे सामने आता रहता है और हमसे हल चाहता है । - सम्पादक दिसम्बर का महीना था। अर्द्ध वार्षिक परी- इस व्यवस्था का जन्म कब हुआ? कैसे हुआ? क्षायें चलंरहीं थीं इसलिए स्कूल सुबह जल्दी जाना इसकी गहराई तक मैं जाना नहीं चाहता, जाकर पड़ता था। स्कूल जाने से पूर्व सभी नियमित कार्यों करना भी क्या है, वह तो गड़े मुर्दे उखाड़ना है। से निवृत हो जाना भी आवश्यक था, अतः दर्शन समस्या तो वर्तमान की है, अतीत से क्या लेनदेन ? निमित्त मन्दिरजी भी जल्दी ही चला गया, वैसे मैं उक्त सेवक प्रथा के कारण आज हमारी मन्विर जी जल्दी जाया नहीं करता, क्योंकि जल्दी जाने पर, वहां उपस्थित भक्त जनों के भक्ति भरे। प्रास्था के केन्द्र जिनसे हमें वीतरागता का सन्देश पालापों के शोर में अपना काम बन नहीं पाता। मिलता है, गृहस्थी के धर बन गये हैं। आप मेरी उस दिन जल्दी गया तो देखा कि पूजा के समय बात से सहमत हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता धूप के निमित्त तैयार की गई आग की अंगीठी में पर तथ्य यह है कि इन सेवकों का पूरा परिवार मन्दिर जी के ही भवन में रहता है। परे परिवार चाय तैयार हो रही थी। मन्दिर जी के प्रांगण में से मेरा यहां व्यापक अर्थ है, दोदों तीन तीन दंपत्ती चाय ? हाँ साहब बात एक दम सही है । रहते हैं। वे सारे गृहस्थाचार के कर्म करते हैं, इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं सोचने उनके बाल बच्चे भी होते हैं और आपकी सेवा लगा हमारे इन मन्दिरों की प्रचलित व्यवस्था पूजा के समय के बाद मन्दिर उनकी सम्पत्ति है । पद्धति पर। सफाई व चौकसी के लिए, हमारे वे उनके प्रांगन में गेह सूखायें या लाल मिर्च । मन्दिरों में सेवक रखने की प्रथा चली पा रही है। उनके बच्चे वहां से पतंग उड़ायें या ताश खेलें, सेवक की माजीविका के लिए मन्दिर में पाट पर है कौन उन्हें रोकने वाला ? मन्दिर में यदि पंखा चढ़ने वाला सारा चढ़ावा, चाहे वह पूजा की __ लगा हुआ है (जो प्राज अधिकांश मन्दिरों में है) सामग्री के रूप में हो या नकदी के रूप में, उसे तो दिन की नींद भी वहीं निकलेगी। वे जायें भी दे देने की प्रथा है। वेतन के रूप में भी उसे कुछ १ तो कहां, उनका तो घर बार वही तो है । न कुछ मिलता ही है। मन्दिर जी से लगे प्रत्येक परिवार से उसे एक समय एक एक रोटी मिलने सोचना हमें है, क्या हम अपनी संस्कृति को की परम्परा भी चाल है। यही तो व्यवस्था है विकृत नहीं कर रहे ? वैष्णव मन्दिरों ओर जैन जयपुर के और उसके आस पास के मन्दिरों की। मन्दिरो के बीच की इस सूक्ष्म दीवार को क्या हम 417 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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