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कैसी संस्थायें - कैसा काम ?
D राजेश सोगाणी, लाड़पुरा, कोटा
लेख को हम 'युवा आक्रोश' की अभिव्यक्ति कह सकते हैं, पर लेख का प्रत्येक बिन्दु गम्भीर रूप से विचारणीय अवश्य है।
– सम्पादक
पिछले 8-10 सालों में जैन समाज में एक क्यों बनती है ये संस्थायें :अभूतपूर्व जागृति देखने में आयी है, चाहे वो
किसी संस्था का उद्भव क्यों होता है-यह इसका धार्मिक पक्ष हो, सामाजिक पक्ष हो अथवा
एक अत्यधिक दिलचस्प प्रश्न है । सिद्धान्ततः किसी सांस्कृतिक पक्ष । जितने जलसे, उत्सव यहां आज
संकल्पशाली व्यक्ति के द्वारा एक पवित्र लक्ष्य कल हो रहे हैं उतने पहले कभी नहीं हुए। कारणों की खोज की जाये तो मुख्य योगदान क्षेयीय,
की पूर्ति के लिये अथवा सामाजिक संगठन या प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती हुई जैन
धार्मिक चेतना या समाज सुधार के लिये संस्था
का बीज बोया जाता है। संस्थानों की संख्या का ही प्रतीत होता है। इन सबके बावजूद भी यह स्पष्ट अनुभव किया जा रहा
सभी संस्थानों के अपने निर्माण के कथित है कि इस हलचल और चारित्रिक निर्माण के बीच
कारण क्रान्ति का प्राव्हान, वैयक्तिक व सामुदाएक बड़ी खाई है जो पटना तो दूर, अपितु बढ़ती यिक उत्थान आदि होते है। किन्तु वास्तविकता जा रही है। जैनियों में बढ़ रही बौद्धिक एवं
कुछ और ही है। वास्तव में उपरोक्त वास्तविक नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात कहने के लिये
उद्देश्य वाली संस्थाएं 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं नई नहीं रह गयी है।
है। अधिकांश का आविर्भाव निम्न में से ही किन्ही संस्थायें व्यक्ति के ऊपर होती है तथा उनके कारणों से होता है :कार्यक्रम जैन और जैनेतर समाज में जैन संस्कृति
1. पहले से कार्यरत् किसी संस्था के विघटन से । का प्रदर्शन करते हैं। अतः संस्थाओं एवं उनके संचालकों का एक गुरूतर दायित्व हो जाता है। 2. समाज में सामाजिक, राजनैतिक, प्रभसत्ता चूकि वांछित प्रभाव द्रष्टिगोचर नहीं हो रहा है स्थापित करने के लिये । अतः यह एक गम्भीर विचार का विषय है। यहां 3. किसी व्यवस्थित प्रभावशाली संस्था की हम इन संस्थाओं के उद्भव के कारणों, उनके गतिविधियों का संगठित होकर सीधा विरोध कथित एवं वास्तविक उद्देश्यों तथा उनकी कार्य अथवा निन्दा, आलोचना कर उसे गिराने प्रणाली के परिप्रेक्ष्य में स्थिति की मीमांसा करेंगे। के लिये।
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