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4. धन सम्पन्न होने के बाद समाजिक ( ? ) बनने व यश प्राप्ति की सहज मानवीय प्रवृत्ति के
फलस्वरूप |
5. समान स्तर के व्यक्तियों के आपसी मेल-जोल एवं व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये । ( ऐसी संस्थानों का जैन संस्कृति से दूर का भी वास्ता नहीं होता )
6. किसी संगठन, शक्ति या पंथ से भयाक्रांत होकर ढाल के रूप में प्रतिपक्षी शक्ति के निर्माण के लिये ।
7. समय बिताने के लिये ।
दुर्भाग्य है, वर्तमान में कार्यक्रमों, समारोहों, जुलूसों, गोष्ठियों से समृद्ध अधिकांश आयोजनों के पीछे उपरोक्त एक या अधिक उद्देश्यों का होना पाया जाता है । क्योंकि मानवीय कमजोरियों से त्रस्त हम, धर्म के नाम पर जो कुछ भी करलें, कम है ।
लोग प्रखर एवं बुद्धिमान होते हैं । वे समझते नहीं हों, ऐसी बात नहीं है । वे देखते हैं, सोचते हैं, जड़ों तक खुदाई करते हैं । फिर उन उपदेशों से, जिनकों संस्थाओं के कर्णधार स्वयं नहीं चरितार्थ करते, समाज पर अपेक्षित प्रभाव कैसे पड़ सकता है ? व्यक्ति आयोजन से अधिक प्रायोजक का विश्लेषण करते हैं । वे वक्ता के प्रयोजन को aagra से अधिक महत्व देते हैं । समान अभिव्यक्ति में भी पवित्रता एवं कुटिलता का विभाजन करना समाज को अच्छी तरह प्राता है ।
कितना काम, कितना शोर :
चूंकि प्रत्येक संस्था कुछ करने के लिये बनती है, अतः कुछ न कुछ करते रहना वह अपना धर्मं मानती है, भले ही उस काम का कोई उपयोग न हो । वे संस्थाएँ जो काम नहीं केवल शोर करती है अथवा विध्वंसात्मक कार्य करती हैं
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यहां विचारणीय नहीं है । किन्तु उन संस्थानों से भी किसी बौद्धिक एवं चारित्रिक विकास की या उपयोगी प्रभाव की प्राशा नहीं की जा सकती जो बड़े शानदार कार्यक्रम आयोजित करती तो दिखाई देती हैं पर संचालकों के आदर्श व्यक्तित्व प्रस्तुत नहीं करती, अपनी स्वयं की विचारधारा तर्कसंगत दृष्टि से प्रस्तुत नहीं करती तथा अपनी ईमानदारी का सशक्त उदाहरण नहीं देती । क्योंकि इस तथ्य को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति निन्दाप्रिय होने पर भी अंत में निंदक से घृणा करता है, अतः प्रभावकारी होने हेतु उक्त बातें आवश्यक है ।
सामान्य जनों में जैन संस्कृति के प्रति श्रश्रद्धा का भाव पैदा करने में बहुत हद तक वे संस्थाएं जिम्मेदार हैं जो जैन का लेबल लगाकर भी प्राधुनिकता की मदहोशी में अपने कार्यकलापों से जैन विचारणा को हो कलंकित करती हैं । नाट्यगृहों क्लबों, साँस्कृतिक मंचों, खेलकूद फोरम के रूप में कार्य कर रही अधिकांश जैन संस्थायें इसी वर्ग में श्राती हैं ।
अर्थ-प्रधान जैन समाज में यह संस्थायें भी अर्थ के प्रभाव से अछूती कैसे रहें ? अन्यत्र की भाँति यहां भी ज्ञान व सेवा भावना धन का अनुसरण करती नजर ाती हैं। कितनी संस्थाओं में आपने बुद्धिजीवियों को नेतृत्व करते देखा है ? यदि यह प्रश्न किसी संस्था को सभाध्यक्ष, मुख्य तिथि चुनने का है तो कार्यकारिणी एक मत से उस व्यक्ति का चयन करती है जो सिवाय मंच पर अन्य का लिखा पढ़ने एवं कुछ पैसा देकर संस्थानों पर अपनी पकड़ मजबूत रखने के और कुछ नहीं कर सकता । धन का होना अभिशाप नहीं है, किन्तु न वो इज्जत का कारण होना चाहिये और न ही हिकारत का सम्मान तो धन के साथ साथ व्यक्ति में उपलब्ध धर्म सेवा एवं समाज सेवा की भावना का ही होना चाहिये । चारित्र एवं नैतिकता का नारा लगाने वाली वे संस्थायें विद्वानों, बुद्धिजीवियों
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