Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 237
________________ महावीर की परिभाषा में उपर्युक्त कथन में कर्म इनमें से चार प्रकृतियां घाती हैं क्योंकि इनसे बन्ध का कारण विद्यमान नहीं है । प्रात्मा के चार मूल गुणों ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार प्रकृति अघाती कर्मबन्ध का कारण :- महावीर की हैं क्यों कि ये प्रात्मा के गुण का घात नहीं करती। परम्परानुसार कर्मोपार्जन के दो कारण हैं :-- योग ज्ञानावरण प्रकृति से प्रात्मा के गुरण का, और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति दर्शनावरण प्रकृति से प्रात्मा के दर्शन गुण का को योग तथा क्रोधादि मानसिक आवेगों को कषाय घात होता है तथा मोहनीय प्रकृति प्रात्म सुख कहा गया है । जो योग कषाय युक्त होता है वह का घात करती है और अन्तराय कर्म प्रकृति प्रबल और जो कषाय रहित होता है वह निर्मल । अात्म शक्ति का घात करती है। वेदनीय कर्म कषाय की यही प्रवृत्ति कर्म-बन्धन का कारण है। प्रकृति अनुकूल एव प्रतिकूल अर्थात सुख-दुःख के अनुभव का कारण है । प्रायु कर्म प्रकृति नरकादि कर्मबन्धन की प्रक्रिया:- विश्व में ऐसा विविध भवों की प्राप्ति का कारण है और नाम कोई भी स्थान नहीं है जहां कर्म योगों रूपी पर कर्म प्रकृति विविध शरीर आदि का कारण है । माण विद्यमान न हों। जब व्यक्ति अपने मन, गौत्र कर्म प्रकति प्राणियों के उच्चत्व एवं नीचत्व वाणी अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति का करण है। करता है तो भगवान महावीर के अनुसार कर्मवाद की परिभाषा के अन्तर्गत वह प्रदेश बन्ध कहलाता । कर्म बन्धन का आधार कषाय की तीव्रता है और इसके ज्ञानावरणादि रूप को प्रकृति बन्ध मन्दता है जो कर्म जितना अधिक कषाय की तीव्रता तथा कर्म फल के इस काल को स्थिति बन्ध कहा से युक्त होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही बलवान गया है । कर्मफल की तीव्रता-मन्दता को अनुभाव और शुभ कर्म उतने ही निर्बल होंगे। बन्ध कहते हैं। कर्म बन्धते ही फल देना प्रारम्भ । नहीं करते अपितु कुछ समय तक ऐसे ही पड़े रहते कर्म और पुनर्जन्म :---कर्म प्रौर पुनर्जन्म के इस काल को अवाधा काल कहते का सम्बन्ध विच्छेद है। व्यक्ति को अपने पूनहैं। इस काल के व्यतीत होने पर ही कर्म, कर्मफल जन्म के कर्मों के अनुकूल ही सुख-दुख की अवस्था देना प्रारम्भ करते हैं। कर्म फल का प्रारम्भ ही से गुजरना पड़ता है। कर्म की गति को सभी कर्म का उदय कहलाता है । कर्म अपने स्थिति बन्ध जानते है । पूर्व पुण्य कर्म के कारण ही व्मक्ति को (पाप और पुण्य) के अनुसार ही उदय में आते हैं राजा, तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि का पद प्राप्त और फल प्रदान करते हैं। होता है। कर्म प्रकृति :- भगवान महावीर की पर- कर्मों के कारण ही एक व्यक्ति राजा म्परानुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियां हैं जो बनता है और दूसरा उसका नौकर, इस विषमता प्राणियों को भिन्न भिन्न प्रकार से अनुकूल एवं का कारण उनके शुभ और अशुभ कर्म ही हैं । प्रतिकूल फल प्रदान करते हैं। ये आठ प्रकृतियां कर्म प्राणियों को नहीं छोड़ते। उदाहरण स्वरूप निम्न हैं :- 1. ज्ञानावरण 2. दर्शनावरण 3. मर्यादा पुरुषोत्तम राम को एक ओर तो राज्यावेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र भिषेक और दूसरी ओर 14 वर्ष का बनवास और 8. अन्तराय। अनेक संघर्ष यह सब कर्मों की ही गतियां है। 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280