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आरोग्य का मूर्तिमान स्वरूप जैनाचार्य
0 बाबूलाल जैन
आज अन्य स्थानों की भाँति चिकित्सालयों में भी रोगियों की लम्बी क्यू होती है । रोगों से न केवल रोगी, उनके सम्बन्धी भी परेशान रहते हैं। जैनाचार, धर्म की दृष्टि से न सही, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ही जन-जन स्वीकार कर ले तो राष्ट्र की एक बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है।
--सम्पादक
मन. अात्मा और शरीर ये प्राणी जगत के है जिसके घटक आरोग्य के आधार-स्तंभ है। यह त्रिदण्ड हैं। मानव जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ पग-पग पर शारीरिक एवं मानसिक समत्व, सातत्य चार हैं-धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष । ये उप- और आरोग्य को सजीव करते हुये आगे बढ़ता है। लब्धियाँ तभी साकार हो सकती हैं जबकि मनुष्य जैनाचार, केवल शास्त्रों में वरिणत दर्शन मात्र ही आरोग्य-सम्पन्न हो अर्थात् मन, प्रात्मा और शरीर नहीं है, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आज भी जीताआरोग्य से परिपूर्ण हों। सर्वार्थसिद्धि का मूल जागता क्रियाशील चारित्र है, आरोग्य-पथ है । आरोग्य ही है और उचित चर्या व साधना के साथ यद्यपि विश्व के विषाक्त वातावरण ने इस आचार उसका फल मोक्ष कहें तो असंगत नहीं होगा। को व इसके पालन करने वालों को भी प्रभावित किसी भी वस्तु अथवा बिन्दु का यथातथ्य स्वरूप किया है तथापि वह आज भी ऐसी चट्टान की तरह का निदर्शन धर्म है। जीवन धारा के भाव-जगत् अडिग है जिसे हिला सकना आसान नहीं है। जैनामें जो निर्ग्रन्थ स्थिति बनती है, वीतराग स्थिति चार में जैनाचार्यों ने जीवन-चर्या को, आहारबनती है, वही मोक्ष तक के पुरुषार्थ को सफल विहार को इस प्रकार निर्देशित किया है कि बनाती है, सर्वार्थसिद्धि को साकार करती है। मनुष्य आरोग्य पथ पर सहज में, स्वतः ही चलता किन्त. कोई भी यह नहीं कह सकता है कि यह जाये और जीवन की प्रयोगशाला में उस सौन्दर्य उपलब्धि आज तक किसी रोगी को प्राप्त हुई है। को साकार करले जिसे मानव-जीवन का अन्तिम प्रारोग्य के बिना सामान्य जीवन-सौख्य ही असं- लक्ष्य कहा जाता है। भव है तो उस अक्षय-सौख्य की कल्पना कैसे संभव मानव-जीवन में जन्म से लेकर मरण तक हो सकती है ?
अनेकों ऐसे चरण हैं जिनका प्रभाव उसके जीवन ___ जैनाचार, विश्व के उन श्रेष्ठ नियमों एवं पर पड़ता है और उन्हीं प्रभावों के अनुसार वह परम्पराओं का ऐसा अद्भुत संयोजन और संग्रथन सुख-दुःख और आरोग्य को प्राप्त करता है।
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