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थे परन्तु जहन के बड़े तेज थे और बचपन से ही संघर्षशील । धार्मिक शिक्षा उन्हें अवश्य मिली थी पं० पन्नालालजी न्याय दिवाकर से । वे संस्कार उनमें जीवन भर बने रहे । उनका विवाह १२ वर्ष की अवस्था में ही नव वर्षीया शरबती बाई के साथ हो गया था । तब तक उन पर से मां बाप का साया उठ चुका था । अत: उन्हें उस छोटी अवस्था में ही धनोपार्जन हेतु व्यवसाय में जुट जाना पड़ा और भाइयों के साथ कपड़े का काम शुरु कर दिया । इन्हीं दिनों यहां कांच की चूड़ियों का उद्योग शुरू हुआ तो वे उसमें श्रा कूदे । तीन साल फिरोजाबाद में कारखाना चला कर सन् १९२८ में वे उसे हिरमगांव उठा लाये और चूड़ियों की जगह कांच के बरतन आदि बनाने लगे । उनके पुरुषार्थ, उत्पादन के उच्च स्तर और व्यापार कौशल के फलस्वरुप कारखाना खूब चमका नियमित जीवन और भोजन शुद्धि के कारण स्वास्थ्य ने भी उनका खूब साथ दिया | पुण्य साथ था ही । Wealth ( धन ) और Health ( स्वास्थ्य ) दोनों ही उनके पास चरम सीमा में रहे । श्रहं से कोसों दूर, सादगी और शिष्टता की मूर्ति थे ।
१३ मार्च १९५७ को पत्नी भी साथ छोड़ गई। उन्हीं की स्मृति में श्रीमती शरबती देबी जैन धर्मशाला का निर्माण कराया जो कि सुन्दर, स्वस्य और धार्मिक वातावरण में सर्वश्रेष्ठ सुविधा पूर्ण है । सेठजी की दान शीलता विख्यात थी । राष्ट्रीय भावना से भी वे प्रोत प्रोत थे । पांच सौ रु० मासिक तो वे सन् १९३० में अकेले स्वतन्त्रता आन्दोलन में ही देते रहे । सन् १६४७ में उन्होंने साढ़े छः लाख रुपये से श्री छदामीलाल ट्रस्ट की स्थापना की जो उत्तरोत्तर उन्नत होता रहा और आज यह विशाल ट्रस्ट लगभग एक करोड़ रु० का मालिक है इसी ट्रस्ट से स्वर्गीय सेठजी ने जैन नगर की एक विशाल योजना बनाई
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जो श्राज उत्तर भारत का एक प्रमुख श्राकर्षण बना हुआ है बिजली की जगमगाहट से रात में इसकी शोभा अवर्णनीय हो जाती है । यहां एक विशाल जैन मन्दिर है । उसके सामने सरोवर फव्वारे और मनमोहक फूलों की क्यारियां हैं । मानस्तम्भ की छटा अलग ही है। कानजी पुस्तकालय, वर्णी स्वाध्याय कक्ष, आधुनिक सुविधा सम्पन्न अतिथि गृह और सुन्दर धर्मशाला भी यहां है । जैन मन्दिर तो सफेद पाषाण से निर्मित्त स्थापत्य कला का एक ऐसा सुन्दर अद्भुत नमूना है जो प्रतिवर्ष हजारों यात्रियों और देश विदेश के पर्यटकों एवं सैलानियों को आकर्षित करता है । प्रवेश द्वार को देख कर ही यात्री विस्मित रह जाता है, भीतर जाकर तो वह वहां के स्वच्छ सुन्दर वातावरण में बिल्कुल खो जाता है । इस जैन नगर से युगों युगों तक स्वर्गीय सेठजी की यशोकीर्ति बनी रहेगी । इसके भावी रख रखाव के लिए दर्जनों दुकानें बनवा कर स्थायी समुचित व्यवस्था कर देना उनकी दूरदर्शिता का नमूना है ।
भ. बाहुबली की विशाल मूर्ति — फिर भी सेठजी की एक तमन्ना रह गई, श्रवरण बेलगोला स्थित भगवान बाहुबलि की विशाल भव्य मूर्ति के दर्शन करने पर वैसी ही मूर्ति जैन नगर में भी प्रतिष्ठित कराने की, क्योंकि दक्षिण में तो कौर्कन और बैलूर में ऐसी मूर्तियां और भी हैं परन्तु उत्तर भारत अभागा रह गया था । अपनें व्यापार व्यवसाय से सन्यास ले वे इसी पुनीत कार्य में जुट गये। इसी बीच इनके लोकोपकारी कार्योंसे प्रभावित हो २० अक्टूबर सन् १९७२ में सप्रूहाउस नई दिल्ली में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया और उन्हें शिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया। मकरातें में एक विशाल शिला खण्ड खोजा गया। वह मिल भी गया और काम शुरु होगया । मूर्ति भी बन गई परन्तु दुर्भाग्य से वह खण्डित होगई । लेकिन सेठजी के दृढ संकल्प ने इस
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