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जरासी भी हिंसा नहीं होती फिर भी परिणामों आभा वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितकी विशुद्धि के लिये हिंसा के स्थान रूप परिग्रह
- पेशीम् । प्रादि का भी त्याग करना चाहिये।' इससे आगे स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटीनाम् श्लोक 50 में कहा है
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- जो जीव यथार्थ निश्चय के स्वरूप को तो पांचों अणुव्रती का वर्णन बहुत ही सांगोपांग आनते नहीं। और जाने बिना मात्र निश्चय के है। उसके पश्चात् रात्रि भोजन त्याग का सयुक्तिक श्रद्धान से कि हिंसा अन्तरंग से ही होती है ऐसा विवेचन है । सागारधर्मामृत आदि में रात्रि भोजन
ने हैं वे अज्ञानी बाह्य क्रिया में प्रालसी होकर त्याग को अहिंसाव्रत में लिया है। किन्तु यहां उसे बाह्य क्रिया रूप प्राचरण का नाश करते हैं। पांचों अणुव्रतों के पश्चात् लिया है। सर्वार्थसिद्धि
टीका में सातवें अध्याय के प्रथम सत्र की टीका में अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय की अपनी टीका के
यह प्रश्न उठाया है कि रात्रि भोजन त्याग छठा अन्त में (गा. 172 में) जो गाथा केवल निश्चयाव
व्रत है उसे क्यों लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि लम्बियों को लक्ष करके उद्ध त की है उसी का
यह उसी का प्रभाव है । अस्तु : संस्कृत रूपान्तर है । यथा
सात शील व्रतों का उनके अतिचारों का "णिच्चय मालवंता णिच्चयदो गिच्चयं प्रयाणंता।
और सल्लेखना का कथन करने के पश्चात् इसमें णासंति चरणकरणं बाहरि चरणालसा केई ।।
मुनि प्राचार-तप, षट, अावश्यक, गुप्ति, समिति, *
दस धर्म, बारह भावना, बाईस परीषह, का भी निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । कथन है जो अन्य किसी भी श्रावकाचार में नहीं नाश यति करणचरण स बहिःकरणालसो बालः ।।50 है। तथा लिखा है-जिनागम में मुनीश्वरों का
जो आचरण कहा है, अपनी पदवी और शक्ति को इस तरह इस ग्रन्थ में अनेक प्राचीन गाथायों
अच्छी तरह से विचार कर गृहस्थ को उसका भी का संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है । जयसेनाचार्य
पालन करना चाहिये ।।2001 ने अपनी टीका में मांस के निषेध में नीचे की दो गाथाएं प्रवचनसार की मल गाथा के रूप में ग्रन्थ के अादि की तरह इसका अन्तिम भाग भी चारित्राधिकार में दी हैं।
बहमूल्य है। इस प्रकार का कथन अन्यत्र नहीं है।
पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । श्लोक 209 में कहा है--इस प्रकार पूर्वोक्त सत्ताचियमुववादो तज्जादीण णिगोदाण ॥ एक देश भी रत्नत्रय को अविनाशी मुक्ति के अभिजो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदिव।। लाषी गृहस्थ को निरन्तर प्रति समय पालना सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमण गकोडीग ॥ चाहिये । अमृतचन्द्र की टीका में ये गाथाएं नहीं हैं,
आगे कहा हैकिन्तु इन दोनों का संस्कृत रूपान्तर पुरुषार्थसिद्धयु- असमग्र भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । पाय में है। यथा
स विपक्ष कृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥२११।। प्रामास्वापि पक्वास्वापि विपच्यमानासु मांसपेशीषु। इस श्लोक का अर्थ विद्वान भी यह करते हुए सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥67॥ देखे जाते हैं
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