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करती हैं । कृष्ण 'सुरत-नाथ' हैं (भागवत--10/31/2)। चूकि यह प्रेम प्राध्यात्मिकता से अोतप्रोत है, अतः इसमें 'काम' 'काम' नहीं रह जाता, वह परमात्मत्व-प्राप्ति में 'प्रेरणा', तीव्र उत्कण्ठा बन जाता है (न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते-भागवत--10/23/26)।]
नियमसार कलश--16, एकीभाव स्तोत्र-19, मुक्ति श्री संगनिःस्पृहता को ध्यान की अपात्रता कहा है -(ज्ञानावर्णव-336)। जैन शासन मुक्ति-कन्या से परिचय कराने वाला हैसंसेव्यं मुक्ति कन्यापरिचयकरणप्रौढमेतत् त्रिलोक्याम् (चन्द्रगिरि पर्वत पर शिलालेख, क्रम
सं. 41, शक सं. 1235, जैन शिलालेख संग्रह, भा--I, श्लो. 1)। 21. द्र. नियमसार कलश-86, 87, 292, 291, 280,
तीर्थंकर शान्तिनाथ का शिवरमणी के साथ विवाह का निरूपण कवि बनारसीदास जी ने (बनारसी विलास, श्री शान्ति जिनस्तुति, प्रथम पद्य) किया है । अभयराज पाटणी कृत 'शिवरमणी विवाह' में (अप्रकाशित) भी प्रात्मा रूपी नायक का शिवरमणी से होने वाले प्रेम-मिलन का निरूपण है (शिवरमणी मन मोहियो जी जैठे रहे जी लुभाय-शिवरमणी विवाह-16)।
जैन साधक मुक्ति-ललना की सखियों-बारह भावनाओं से मित्रता करता है ताकि मुक्तिप्रेयसी से उसका संगम हो सके। "एता द्वादश भावनाः खलु सखे सख्योऽपबर्गश्रिचयः, तस्याः संगमलाल सैर्घटयितु मैत्री प्रयुक्ता बुधैः।" (ज्ञानार्णव-4/244), अन्त में उसे मुक्ति रूपी प्रेयसी स्वयं वरण करती है-स्वयमवृत च मुक्ति-प्रेयसी यं......."सोऽयमहन् (प्रादि पु. 35/241)। मुक्ति-वल्लभाः (प्रादि पु. 43/105) और दोनों मालिंगनबद्ध हो जाते हैं । 'सिद्धिश्रियालिङ्गितः' (उत्तर पु. 50/68)। प्रा. अमृतचन्द्र ने दीक्षा को कान्ता के रूप में स्वीकारा हैं (नियमसार कलशं-89, 141, 142) दीक्षा या संयम श्री के साथ प्रात्मा के विवाह का आध्यात्मिक निरूपण जैन ऐतिहासिक काव्य-संग्रह सम्पादित-श्री अगरचन्द नाहटा, वि. सं. 1994 में प्रकाशित) में कई जगह हमा है। [भागवत में जार-वृद्धि से भगवान की उपासना कही गई हैतमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि संगताः । जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धना: (भागवत
10/29/11] 22. द्र. प्रवचनसार-2/99, नियमसार-50, 23. द्र. प्रवचनसार--3/40, मूलाचार--879, भगवती पारा. 1861, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-399, 24. विरक्ति या निर्वेद हेतु देखें--प्रात्मख्याति टीका-समयसार गाथा 196 पर, समयसार कलश--136
समयसार-318, प्रवचनसार-2/104, प्राचारांग--4/3, 25. द्र. समयसार गाथा--209, कलश 145, 148, निमयसार कलश-282, समयसार कलश--123,
173, प्राचारांग--2/56, 26. द्र. समयसार--234 (सम्यक्त्व के अंग)। 27. समयसार कलश-132. 28, सीस उतारै भुई धरै, तब पैठे घर मांहि (कबीर)। 29. द्र. जायसी ग्रन्थावली, (जन्म खंड--पृ. 19)।
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