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7. मन: प्रसर संयमन-इन्द्रियां चूकि मनकी रहित प्रात्म स्वरूपावस्थान रूप समाधि को शून्य प्रेरणा पाकर ही विषयों में संचार करती हैं, इस ध्यान समझना चाहिये । इस प्रकार को जो शुद्ध लिये क्षपक को उस मन के ऊपर ही नियंत्रण करना भाव है उसे ही जीव, चेतना, ज्ञान, दर्शन और चाहिये। जिस प्रकार राजा के मर जाने पर सेना चारित्र कहा जाता है । निश्चय नय से दर्शन, ज्ञान सब इधर-उध बिखर जाती है उसी प्रकार मन के और चारित्र भी भिन्न नहीं है, आत्मा का जो शुद्ध मर जाने पर उसके स्वाधीन हो जाने पर-इन्द्रियां स्वभाव है उसी को रत्नत्रय जानना चाहिये। इस भी मर जाती हैं-विषयों की ओर से वे विमुख हो अवस्था में रत्नत्रयस्वरूप ध्याता आत्मा शेष सभी जाती हैं इस प्रकार इन्द्रियों के मर जाने पर समस्त पालम्बनों से मुक्त हो जाता है, इसलिये उसे शून्य कर्म भी मर जाते हैं - बन्ध के अभाव पूर्वक क्षय को कहा गया है । इस प्रकार से यहां शून्य ध्यान की प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार शाश्वत सुख का प्रशंसा करते हुए उसे ध्याता के समस्त कर्मों के स्थान भूत मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसलिये इंद्रिय क्षय का कारण व शाश्वतिक सुख का हेतु कहा विषयों से विरत होने के लिये क्षपक को उनके मूल गया है 182 कारणभूत मन को वश में करना चाहिये । इस प्रकार यहां मन के पाश्रय से होने वाले अनेक दोषों
असमाधि व समाधिपूर्वक मरण का फलको दिखलाकर उस मन को नियन्त्रित करने की
जो दुर्बुद्वि मायाचारी आहारादि संज्ञानों में प्रेरणा की गई है।31
आसक्त रहते हए समाधि के बिना मरण को प्राप्त
होते हैं वे आराधक नहीं हो सकते । इस प्रकार से शून्य ध्यान
मरण की विराधना करने पर वे दुर्गति को प्राप्त क्षपक को मन, वचन काय के विषय में तो होते हैं-मर करके कन्दर्प, आभियोग्य, किल्विष, शून्य-उनके व्यापार से बहिर्भूत--होना चाहिये, सम्मोह और असुर इन कुदेवों में उत्पन्न होते हैं। पर आत्मा के शुद्ध स्वरूप के सद्भाव में शून्य नहीं इस प्रकार मिथ्या दर्शन में अनुरक्त रहकर निदानहोना चाहिये-उसमें सदा जागृत रहना चाहिये. पूर्वक अशुभ परिणामों के साथ मरने पर उन्हें क्योंकि आत्मस्वभाव में शून्य होने पर सब आकाश
बोधिसम्यक्त्व सहित शुभ परिणाम-दुर्लभ होता कुसुम के समान शून्य हो जाता है-उसका अन्य
है । साथ ही गुरु के प्रतिकूल होकर प्रचुर मोह से सब आचरण मिथ्या होता है । शून्य ध्यान में प्रविष्ट
अभिभूत होते हुए असमाधि से मरने के कारण वे
अनन्तसंसारी भी होते हैं 138 हुमा योगी स्वाभाविक सुख से सम्पन्न होकर प्रविनश्वर सुखरूप अमृत से परिपूर्ण होता हुआ परम
इसके विपरीत जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन में प्रानन्द में अवस्थित होता है । यह शून्य ध्यान कैसा है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस ध्यान अनुरक्त होकर शुक्ललेश्या पर आरूढ होते हुए में न प्रात-रौद्रादि किसी ध्यान का विकल्प रहता निदान के बिना मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिये है, न अर्हत्-सिद्धादि रूप ध्येय का विकल्प रहता है, वह बोधि सुलाभ है 134 साथ ही वे जिन वाणी में न ध्याता का विकल्प रहता है, न कुछ चिन्तन रहता अनुरक्त रहते हुए कि गुरु की आज्ञानुसार प्रवृत्ति है, न धारणारूप संस्कार रहता है, और न कुछ भी करते हैं व संक्लेश से रहित होते हैं, इसलिये वे विकल्प रहता है। इस प्रकार समस्त विकल्पों से परित संसारी-परिमित संसार वाले होते हैं । 35 जो
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