Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 195
________________ भाब की निन्दा व गहरे के साथ सात भय, पाठ मद, 1. अहं-जो पाराधक घर के व्यापार और चार संज्ञाओं, तीन गारव, तेतीस प्रासादनाओं और स्त्री-पुत्रादि कौटुम्बिक जनों साथ सम्बन्ध को छोड़राग-द्वेष के विषय में गर्दा करता है। वह बाह्य व कर जीवित व धन की प्राशा से मुक्त हो जाता है अभ्यन्तर उपाधि के विषय में निन्दनीय-अपने वह अयोग्य के परिहार और योग्य के ग्रहण स्वरूप पाप प्रगट करने योग्य-की निन्दा और गर्हणीय- संन्यास में अर्ह (योग्य) होता है। जब तक जरा प्राचार्य प्रादि अन्य के समक्ष प्रकाशित करने के प्राकर शरीर को जर्जरित नहीं करती है, इन्द्रियां योग्य-की गर्दा तथा पालोचना करता है। जिस शिथिल नहीं होती है, बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती हैं। प्रकार बालक सरलता से अपने कार्यप्रकार्य को कर प्राहार प्रादि पर विजय प्राप्त करने में समर्थ रहता देता है उसी प्रकार से यह आलोचना माया और है, प्रायु क्षीण नहीं होती है, स्वयं निर्यापक होकर असत्य को छोड़कर की जाती है । अात्मोद्वार में समर्थ रहता है, अंग-उपांग शिथिल नहीं होते हैं, मृत्यु का भय नहीं रहता है; तथा प्राचार्य का स्वरूप संयम, तप, ज्ञान, ध्यान और योग में उद्यम विफल जिसके समक्ष आलोचना की जाती है वह नहीं होता है। तब तक ही वह पुरुष उत्तम स्थान के श्राचार्य भी कैसा होना चाहिये, इसे स्पष्ट करते हुए योग्य सम्भव है। यह योग्य सम्भव है। यह व्यवहार 'अहं' का लक्षण कहा गया है कि उसे स्वयं ज्ञान, दर्शन, तप और प्रगट किया गया है। निश्चय नय की अपेक्षा उस चारित्र इन चारों में स्थिर रहते हुए धीर व पागम श्रमण को ही संन्यास में अहं कहा गया है जो अपने में कुशल होना चाहिये । साथ ही उसमें इतनी को अात्मस्वभाव में स्थापित करता है 125 गम्भीरता होनी चाहिये कि जिसके प्राश्रय से वह पालोचित दोषों को सुनकर उन्हें कभी किसी अन्य 2. संगत्याग... क्षपक को निरालम्ब प्रात्मा की के समक्ष प्रगट न करे 122 भावना के लिये क्षेत्र-वस्तु प्रादि रूप बाह्य और मिथ्यात्वादि रूप अभ्यन्तर दोनों प्रकार की परिपाराधक की योग्यता के परिचायक लिग ग्रह का परित्याग करना अनिवार्य होता है। कारण भगवती प्राराधना में भक्त प्रत्यास्यान केनेड. यह कि प्रात्मस्वरूप में जीव तभी स्थिर हो सकता भूत सविचार भक्त प्रत्याख्यान के प्रसंग में मारा है जब वह परिग्रह की ओर से निमर्मत्व होकर की योग्यता के परिचायक अहं लिंग प्रादि 40 पदों रागादि के परिहार स्वरूप उत्कृष्ट उपशमभाव को का विवेचन अन्य कितनी ही प्रासंलिक चर्चायों के प्राप्त हो जाय । चित्त की निर्मलता भी तभी संभव साथ बहुत विस्तार से किया गया है (गा० 71. है जब दोनों प्रकार की परिग्रह को छोड़ दे। वस्तुतः 2010)123 तो शरीर बाह्य परिग्रह और इन्द्रियों की विषया. भिलाषा अभ्यन्तर परिग्रह है, इन दोनों का परिपाराधनासार में भी उक्त अर्हादि पदों में संक्षेप त्याग कर देने पर ही क्षपक यथार्थ में निर्ग्रन्थ से इन सात की प्ररूपणा की गई है-प्रह, संगत्याग, होता है।26 कषायसल्लेखना, परीषहजय, उपसर्ग सहन, इन्द्रिय विजय और मनःप्रसरसंयमन । वहां इनके प्राश्रय से 3. कषायसल्लेखना--इन्द्रियमय शरीर अपनेक्षपक को दीर्घ काल से अनेक भावों में उपार्जित अपने स्पर्शादि विषयों में प्रवृत्त होने का इच्छुक कर्मों के क्षपण (क्षीण करने ) की प्रेरणा की रहता है, अतः क्षपक को उनकी ओर से निमर्मत्व गई है ।24 होकर मन्द कषायी होना आवश्यक है। जब तक (3/48 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280