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मूलाचार में इस मरण को अनिवार्य बतलाते मरण भेव-- कहा गया है कि धीर भी मरता है और अधीर भी
भगवती आराधना में सामान्य से प्रावीचि मरता है, जब दोनों ही अवश्य मरते हैं तो धीरता
प्रादि 17 मरण भेदों का निर्देश किया गया है।11 के साथ मरना कहीं श्रेयस्कर है। इसी प्रकार
पर प्रकृत में प्रयोजनभूत होने से वहां उनमें से शीलवान् भी मरता है और निःशील भी मरता है,
पण्डित-पण्डित मरण, पण्डित-मरण, बाल-पण्डित जब दोनों का ही मरण अवश्य भावी है तब शील
मरण, बालमरण और बाल-बालमरण इन पांच की के साथ मरना ही हितकार है।' . सके विपरीत जो
ही प्ररूपणा की गई है । जो आत्मानुभूति रूप परम अज्ञानी प्राणी उस मरण से भयभीत रहते हैं वे
समाधि में स्थित होकर शरीर से भिन्न ज्ञानमय सदा दुखी रहते हुए ही उस मरण को नियम से
परमात्मा को जानता है उसका नाम पण्डित (अन्तप्राप्त होते हैं । प्राचार्य समन्तभद्र भगवान् सुपार्श्व
रात्मा) है ।12 भ० अाराधना की मूलाराधनादर्पण नाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन् !
टीका के अनुसार रत्नत्रयस्वरूप बुद्धि का नाम पंडा आपने यह ठीक ही कहा है कि प्राणी मृत्यु से तो
है, वह जिसके प्रादुर्भूत हुई है वह पण्डित कहलाता डरता है, पर उसे उससे मुक्ति मिलती है । वह सदा
है।13 जिसका पाण्डित्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सुख की अभिलाषा तो करता है, पर वह भी इच्छा
अतिशय को प्राप्त है उसे पण्डित-पण्डित कहा जाता नुसार उसे प्राप्त होता नहीं है । इस यथार्थ स्थिति
है ।14 उपर्युक्त पण्डित के मरण को पण्डित-पण्डित के होने पर भी वह अज्ञानी प्राणी उस मृत्यु के भय
मरण समझना चाहिये । जो स्थूल असंयम से भी और सुख की अभिलाषा के वश सदा व्यर्थ में
विरत नहीं होता है ऐसा असंयत सम्यग्दृष्टि पूर्वोक्त सन्तप्त रहता है ।
पाण्डित्य से रहित होने के कारण बाल कहलाता प्राराधक
है । इस बाल के मरण को बाल मरण कहा जाता
है ।15 जो सम्यग्दृष्टि देशतः देश विरत होता है उसे इस यथार्थ परिस्थिति को जानकर प्रात्महितैषी
बाल-पण्डित कहते हैं ।16 अभिप्रय यह कि बालस्वभव्य जीव कर्मक्षपण के लिये सम्यग्दर्शन ज्ञान, रूप के साथ पण्डित्य भी जिसके रहता है उसे बालचारित्र और तप रूप चार प्रकार की आराधना में पण्डित समझना चाहिये । इस बाल-पण्डित उद्यत होता है । मरण समय में इस प्राराधना का (संयता संयत) के मरण का नाम बाल-पण्डितआराधक कौन होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा मरण है।17 जो व्यवहार पण्डित्य, सम्यत्त्म्ब पाण्डित्य गया है कि जो धीर पुरुष ममकार, अहंकार और ज्ञान पण्डित्य और चारित्र पाण्डित्य इन सबसे कषाय से रहित होकर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त रहित होता है उसे बाल-बाल और उसके मरण को करता है तथा सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होता हुआ बाल-बाल मरण कहा जाता है।18 प्रागागी भोगाकांक्षा रूप निदान से दूर रहता है वह मरण के समय आराधक होता है ।' सम्थग्दर्शन व मूलाचार में उक्त पांच मरण भेदों में बालज्ञान से सम्पन्न ऐसा साधक दोनों प्रकार के परिग्रह बालमरण और पण्डित-पण्डितमरण इन दो को रहित होता हुआ सांसारिक सुख से विरक्त होता है, छोड़कर मरण के बालमरण, बाल-पण्डित मरण वह परम उपशम को प्राप्त होकर विविध प्रकार के और पण्डितमरण ये तीन ही भेद निर्दिष्ट किये गये तप से शरीर को तपाता है, तथा राग-द्वेष से हैं। इन भेदों का निर्देश करते हुए यहां यह भी निर्मुक्त होकर प्रात्मस्वभाव में निरत होता है ।10 कहा गया है कि तीसरा पण्डित महण वह है जिसके
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