Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 192
________________ क्षपक का समाधिमरण क्षपक व प्राराधक की समानार्थकता जो कर्मक्षपरण में उद्यत होता है उसे सामान्य से क्षपक कहा जाता । षटखण्डागम में विशेष रूप से चारित्र मोह के क्षय में उद्यत श्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म सांपराय संयतों को क्षपक कहा गया है । श्राराधना सार में कालादिलब्धियों को पाकर कारण कार्य विभाग के जान लेने वाले क्षपक को प्राराधन के लिये प्रेरणा की गई है । यहीं पर आगे उसे पुनः प्रेरित करते हुए कहा गया है कि क्षपक संसार के जो बहुत से कारण हैं उन्हें छोड़कर अपने शुद्ध श्रात्मा का श्राराधन करे । कारण यह कि ज्ञान स्वरूप श्रात्मा के अराधन को न प्राप्त करने वाला जीव सदा चतुर्गति स्वरूप संसार में परिभ्रमण करता है 2 Jain Education International प्रस्तुत लेख 1980 की स्मारिका में छपे श्रावक का समाधिमरण का पूर्वार्द्ध है । विद्युत समस्या के कारण से तब लेख पूरा नहीं छापा जा सका था । इस प्रराधनासार की वृत्ति में श्राराधक: पुरुष विशेषः क्षपक : इस प्रकार से क्षपक को ही प्राराधक कहा गया है । " इस प्रकार सामान्य से, विशेष D पं० बालचन्द शास्त्री कर समाधिमरण के प्रसंग में, इन दोनों शब्दों को समान समझना चाहिये । -सम्पादक ( 3/45 ) दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के भेद से आराधना चार प्रकार की है । यह चारों प्रकार की आराधना व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार की है । उनमें व्यवहार आराधना कारण और निश्चय श्राराधना कार्य रूप है। 5 मररण की अनिवार्यता - For Private & Personal Use Only क्षपक व अराधक अभिप्राय के द्योतक यह एक प्रकृति का अकाट्य नियम है कि जो जन्मता है वह मरता अवश्य है । इस वस्तुस्थिति को जानकर जो जीव साहसी होते हैं वे उस मरण से भयभीत न होकर उसे समाधि के साथ प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त करते हैं । यदि जीव एक ही भव में उस समाधि मरण को प्राप्त करता है तो वह सातमाठ भवों में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । " www.jainelibrary.org

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