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भारतीय दर्शनों में मोक्ष चितन
डा० उदयचंद्र जैन
वेद और उपनिषद में मोक्ष
विज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से होता है। पुरुष वस्तुतः
शुद्ध-चैतन्य रूप है। "मोक्षः बन्धविच्छेदाद्भवति" वेदों में दुःख निवृत्ति के नाम को मोक्ष कहा मोक्ष बंध के नष्ट होने से होता है। पुरुष प्रकृति है । यह ही परमपद है। इस परमपद की प्राप्ति से अपने को भिन्न न समझने के कारण संसार में होते ही सुख-दुःख, ज्ञान, अज्ञान, कुछ भी नहीं रह परिभ्रमण करता रहता है । सुख-दुःख एवं मोह को जाता है । पवित्र कर्म और शुद्ध प्राचार पर वेदों प्राप्त होता रहता है । परन्तु प्रकृति को पुरुष शुद्धमें विशेष जोर दिया है। परमपद की प्राप्ति के चैतन्य रूप देखने लगता है, तब प्रकृति की प्रवृत्ति लिए पवित्र पाहार, शुद्ध पान एवं निश्चल पवित्र अ विचार प्रावश्यक माने गये हैं। "पात्मन्येव लयं रुक जाने के कारण पुरुष अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप मुक्तिमाचक्षते" अर्थात् ब्रह्म में लय हो जाना ही में स्थित हो जाता है। पुरुष का शुद्ध चैतन्य में मुक्ति है।
स्थित हो जाने का नोम मोक्ष है ।
"बंधाच्च प्रेत्यसंसरणरुपः संसारः प्रवर्तते ।" उपनिषदों में ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया ,
बंध से परलोक में जन्म लेना आदि से संसार का गया है। ज्ञान योगाभ्यास एवं तपस्या से उत्पन्न
जन्म-मरण का चक्र चलने लगता है। पुरुष न तो होता है । ज्ञान से विषय-वासना नष्ट हो जाती है
कारण रूप है, न कार्यरूप ही है। अतः उसका न और विषय-वासनाओं के नष्ट होने के उपरांत तत्त्व- बंध होता है, न मोक्ष है और न संसार है। ये सब ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। और तत्त्वज्ञान के बंधादि तो प्रकृति के ही होते है । सांख्यकारिका में प्राप्त होते ही एवं शरीर के छूटते ही मुक्ति की कहा हैप्राप्ति हो जाती है।
तस्मान्न बध्यते नैव मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । सांख्यदर्शन में मोक्ष--
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति ।।62।।
"प्रकृतिवियोगः मोक्षः" प्रकृति के वियोग का अर्थात् पुरुष न बंधता है, न मुक्त होता है, न नाम मोक्ष है । यह मोक्ष प्रकृति तथा पुरुष में भेद- संसार ही होता है । प्रकृति ही बंधती है, छूटती है
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