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30. 'नागमती यह दुनिया धन्धा', तथा 'हिय सिंहल बुधि पदमिनी कीन्हा' से प्रकट है कि नागमती . सांसारिक प्रवृत्ति है । "बांचा सोइ, न एहि चित बंधा" (जो इस सांसारिक प्रवृत्ति में नहीं बंधा है वही बच सका है । पमिनी को ऐसा शुद्ध दर्पण कहा है जिसमें पुरुष अपने स्वरूप को, संस्कारानुसार, देख सकते हैं (द्र. सिंहल द्वीप का वर्णन करते हुए प्रारम्भिक पंक्तियों में कवि
जायसी द्वारा निरूपण)। 31. कर्म-प्रकृति (शुभ या अशुभ) को भोग्या स्त्री कहा गया है (समयसार--174-175)। यह दुश्च
रित्रा स्त्री की तरह त्याज्य है (समयसार गाथा 148-49 पर प्रात्मख्याति टीका, समयसार-- 150)। संसार-रमणी प्रिय व्यक्ति को अन्तरात्मता प्राप्त नहीं हो सकती (नियमसार
कलश-261)। 32. समयसार गा. 154 पर आत्मख्याति टीका देखें । 33. प्रवचनसार 3/70 पर तत्त्वदीपिका टीका देखें। 34. पद्मयन्दि पंचविंशतिका--4/75, प्रवचनसार-69, 79, 11 (तथा इनकी टीकाएं), समयसार-- ___148-149, 153, 151, 156, 97 (तथा इनकी टीकाएं), 35. शुद्धोपयोगयुक्त प्रात्मा परमार्थतः समस्त तत्त्वों में चिद्रूप महाज्योति है-(द्रष्टव्य-समयसार 38
पर प्रात्मख्याति, समयसार कलश--135, 124, 185)। चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं निमग्नं वर्णमालाकलाप । अथ सततविविक्त दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्म ज्योतिरुद्योतमानम्
(समयसार कलश-8) 36. यह द्वधता ही 'प्रसिद्धि' है-बन्धमोक्षी रतिद्वषो कर्मात्मानौ शुभाशुभौ । इति द्वताश्रिता बुद्धिः
प्रसिद्धिरभिधीयते (पद्मनन्दि पंच-4/33)। पूर्णतः अद्व तावस्था ही साध्य-सिद्धि है-'भाति नद्व तमेव' (समयसार कलश--9)। विकल्पजालच्युत शान्तिचित्ताः त एव साक्षादमृतं पिवन्ति (समयसार कलश--69)। पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम् (समयसार 163 पर प्रात्मख्याति टीका)। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते (गीता--2/50) न पुण्यपापे मम (कैवल्योप--2/4)। विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरज्जनः परमं साम्यमेति (मुडकोप 3/3) साम्बरा दिगम्बरा वा । न तेषां धर्माधमी, न हि तेषां लाभालाभकल्पनास्ति । शुद्धाशुद्धद्व तवजिता:......"सर्वत्रात्मैवेति पश्यन्ति (भिक्षुकोप--5), दग्धे पुण्यपापे सदाशिवः (हंसोप-21)।
न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्धतभवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषात् (प्रवचनसार 1/77 पर तत्वदीपिका टीका)। 38. समयसार--37, 15, 37, 142, समयसार कलश-14-15, 30-31, 246, 278, नियमसार
कलश-278. 39. सती जलन कूनीकली, चित धरि एकब मेख ।
तन मन सोप्या पीव कू, तब अंतर रही न रेख । (कबीर ग्रन्थावली, सूरा तन को मंग, सा. 37, पृ. 56)
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