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49. यदुदयाद् विषयादिषु प्रौत्सुक्यं सा रतिः (सर्वार्थसिद्धि, 8/5, तत्त्वार्थवार्तिक-8/9/4, मनोज्ञेषु
परमा प्रीति: रतिः (नियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका-गाथा-6), चिदानन्दमये रूपे योजितः प्रीति
मुत्सृजेत् (ज्ञानार्णव, 1547)। 50. द्र. समयसार, ग्रा. 206, 412, तथा उन पर प्रात्मख्याति टीका मोक्षपाहुड-12; 51. सहजानन्दैकस्वभावे निजात्मनि रतिः कर्तव्या (समयसार-1/20 पर तात्पर्यवृत्ति)। 52. राजलक्ष्म्या स्वतन्त्रोऽपि दीक्षालक्ष्म्या वशीकृतः (उत्तर पु, 48/11)। दीक्षाकामिनी मुक्ति
कामिनी की दूती कही गई है (उत्तर पु. 73/120) । तपोलक्ष्मी भी मुक्ति की दूती है—(उत्तर
पु. 77/15)-मुक्तिश्रिया पटुतमा प्रहितेव दूती प्रीत्या महागुणधनं समशि श्रियद् यम् । 53. गुरुपदेश शास्त्रार्थविना चात्मा न बुध्यते (योगवाशिष्ठ-6/41/16) । 54. जैन मत में गुरु प्रसाद से भी प्रतिबोध होना स्वीकारा गया है-(द्र. समयसार गाथा 37 पर
तात्पर्यवृत्ति) सुगुरु की शिक्षा को शिव (परमात्मा) के गण 'शृगी' से समता की गई है (शिव पचीसी, पद्य-12-16-बनारसी विलास)।
पद्मनन्दिपंचविंशतिका-4/22 (गुरूपदेशतोऽभ्यासाद् वैराग्यादुपलभ्य यत्) । आदि पु. 9/173 (गुरूणां यदि संसर्गो न स्यान्न स्याद् गुणार्जनम् । बिना गुणार्जनात् क्वास्य जन्तोः
सफलजन्मता)। 55. गुरुरात्मात्मनः (समाधिशतक-75)। 56. स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः (समाधि श-49)। आदा हु मे सरणं (मोक्ष
प्रा. 104)। अप्पा अप्पमि रो सम्माइटी होइ फडू जीवो (भाव पा. 31)। तुलना-गीता
3/17, जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे (प्राचारांग-2/173), 57. रत्नसेन पद्मावती-सौन्दर्य के वर्णन को सुनते ही विरह-सागर में गोते खाने लगता है-परा
सो पेम समुद्र अपारा, लहरहिं लहर होइ वि संभारा (पद्मावत, प्रेम खण्ड, दो. 1, पृ. 40)। 58. प्रात्मानुभव या प्रात्म-वेदन की स्थिति । द्र. ज्ञानार्णव-1559, रयणसार-140 आदि, प्रवचन
सार-1/78 पर तत्त्वदीपिका । 59. अप्पारणं झायंतो दसणणाणमयो अणण्णमनो। लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मविप्पमुक्क
समयसार, 189)। सहजचेतयितृत्वाद् एकत्वमेव चेतयते (समयसार-187-189 पर प्रात्म
ख्याति)। 60. द्र. समयसार 206, मोक्ष प्रा. 16, 12, 13, 69, 83, भाव पा. 56, 85, 57, 87, बृ. द्रव्य
संग्रह-56, सूत्र प्रा. 16, प्रवचनसार-3/21, समयसार कलश-191, नियमसार कलश-38,
नियमसार-50, प्रशमरतिनित्यतृषितः प्रशमरति प्रकरण-307)। 61. द्र. भगवती आराधना-1270, 62. भगवती पारा. 1268, कामभोगादि से तृप्ति असम्भव है, अतः त्याज्य है-द्र. प्रवचनसार
1/63.66, मूलाचार-2/67, भगवती आरा. 1143, 1264, 1263, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-300, महान् ऐश्वर्य-विभूति तथा विषय-सुख की सामग्री वाले चक्रवर्ती भी अतृप्त रहे-(प्रश्नव्याकरण सू. चतुर्थाध्यन) तो सामान्य जन की बात ही क्या ?
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