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मागों से व्यापार करते थे। अन्य वर्गों की अपेक्षा अर्थात ब्राह्म, देव, पार्ष, प्राजापत्य, प्रासुर, वैश्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी. यह अनुमान गान्धर्व, राक्षस और पैशाच-ये आठ प्रकार के लगाना उचित है।
विवाह होते हैं। शूद्र---शूद्रों का उत्तरपुराण से कोई उल्लेख
उपर्युक्त आठों विवाहों में प्रथम चार ब्राह्म, नहीं मिलता।
देव, प्राजापत्य एवं पार्ष को धर्म सम्मत एवं अच्छे अन्य जातियाँ एवं प्राजीविका के साधन-- प्रकार के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रासुर पुराण में नाई, चाण्डाल, भील, मलेच्छ,
विवाह में कन्या का पिता वर पक्ष से धन ग्रहण प्रादि का भी उल्लेख पाया है । ये उल्लेख जातियों करता है, इसलिये यह विवाह धर्म सम्मत नहीं है। के नहीं बल्कि अमुक-अमुक आजीविका के साधनों
गान्धर्व और राक्षस विवाह इतने प्रशस्त न होते के सूचक हैं । समाज में इन्हें कोई स्थान प्राप्त
हए भी क्षत्रियों के लिए अधर्मकारक नहीं थे। नहीं था।
पैशाच विवाह सर्वथा निन्दनीय माना गया है । पारिवारिक जीवन--इस समय संयुक्त परिवार एवं एकाकी परिवार, दोनों ही प्रकार के परिवार उल्लिखित पाठो विवाहों में से तत्कालीन थे । संयुक्त परिवार जिसमें दादा-दादी, माता-पिता, समाज में कोई भी एक बिल्कुल विशुद्ध रूप में चाचा-चाची सम्मिलित रूप से एक परिवार में प्रचलित नहीं था । अनेक विवाहों में एकाधिक रहते थे। परिवार का मुखिया
विवाह विधियों का समावेश देखा गया है। दो इस प्रकार के परिवारों में श्रीकृष्ण का परिवार विवाह विधियों के मिश्रित रूप में रुक्मिणी का भी था । एकाकी परिवार में विवाहित पति-पत्ति विवाह राक्षस व गान्धर्व विधियों का मिश्रित रूप और उसके अविवाहित बच्चे होते थे। इस प्रकार है। इसी प्रकार सुभद्रा के विवाह में राक्षस व के परिवार के रूप में अभयघोष एवं उसकी पत्नी. प्राजापत्य विधि तथा सुसीमा के कृष्ण के साथ दो पुत्र (विजय एवं जयन्त) का उदाहरण है। विवाह में प्राजापत्य व राक्षस विधियों का विवाह-विवाह व्यक्ति के जीवन का एक
समिश्रण था। महत्त्वपूर्ण अध्याय है । गृहस्थाश्रम की भित्ति और पारिवारिक ढांचे की आधारशिला है। मनु ने
स्वयंवर विवाह-उत्तरपुराण में स्वयंवर विवाह को पुरुषों के सम्बन्धों को मर्यादा में रखने द्वारा विवाह के अनेक उल्लेख हैं। जिनसेनाचार्य ने वाली कल्याणकारी लौकिक प्रथा माना है :- स्वयंवर शब्द को स्पष्ट करते हुए बताया है कि एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा ।।
"स्वयंवर में कुलीन अथवा अकुलीन का कोई
__ क्रम नहीं होता । इसलिए कन्या के पिता, भाई __(मनुस्मृति, 9125)
अथवा स्वयंवर की विधि जानने वाले किसी अन्य विवाहों के प्रकार-विष्णु-पुराण में पाठ
महाशय को इस विषय में प्रशान्ति करना योग्य प्रकार के विवाहों का उल्लेख इस प्रकार किया
नहीं है । कोई महाकुल में उत्पन्न हो कर भी दुर्भग गया है
स्त्री के लिए अप्रिय होता है और कोई नीच कुल ब्राह्मोदेवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । में उत्पन्न हो कर भी सुभग स्त्री के लिए प्रिय गान्धर्व-राक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्ट मे मतः ॥ होता है । यही कारण है कि इसमें कुल और
- विष्णुपुराण; 3110124 सौभाग्य का कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।"9
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