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बाह्याचरण की अपेक्षा प्रात्मानुभूति व वैयक्तिक के लिए शब्द नहीं मिलते। भाषा से मूक हो जान साधन एवं मानसिक पवित्रता व भाव-शुद्धि की पर साधक सांकेतिकता की ओर उन्मुख हो जाता श्रेष्ठता, ध्यान की उपयोगिता-आदि विषयों का है, और संवेगों के प्रकाशनार्थ प्रतीकों का सहारण जोरदार ढंग से प्रतिपादन हुआ है। ये सब विषय लेता है। यह एक प्रकार से साधना की चरम प्रा० कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में प्रतिपादित परिणति है, जहां शब्द शून्य हो जाते हैं, भाषा मोम हुए है । प्रात्मा तथा परमात्मा का परमार्थतः हो जाती है, जहाँ जीवन-मृत्यु कोई अर्थ नहीं रहा। प्रभेद रहस्यवादी कवियों और प्रा० कुन्दकुन्द जाता। जैन प्राकृत ग्रन्थों में भी इस रहस्यानुभूति दोनों को मान्य हैं।
को झलक प्राप्त होती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने
भी समयसार आदि में प्रात्मा को प्ररस, अगन्ध, रहस्यवादी साधक, जैन साधक की भाँति अशब्द बताते हुए, उसे किसी चिन्ह द्वारा अग्राह्य प्र तावस्था प्राप्त करता है, जहां समग्रतता तथा सभी नव-दृष्टियों से प्रतीत बताया है 180 विलीन हो जाती है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का, तथा सूफी
व रहस्यवादी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन रहस्यानुभूति अनिर्वचनीय होती है। रहस्या- शोधार्थी विद्वानों के लिए एक नवीन मायाम प्रस्तुत नुभूति की स्थिति में साधक को, उसे व्यक्त करने करेगा-ऐसी मुझे प्राशा है ।
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सन्दर्भ 1. गीता में मित्र, पिता-पुत्र, प्रिय-कान्ता-इन सम्बन्धों का संकेत भी है :-पितेव पुत्रस्य सखेव
सख्युः, प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् (गीता-11 भागवत-10/21/11 में जार बुद्धि से परमात्माउपासना वरिणत है-"तमेव परमात्मानं जार बुद्धयापि संगताः । जहुगुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीण
बन्धनाः।" 2. बहिरंग धर्मध्यान से तुलना करें। द्रष्टव्यः बृहद् द्रव्य संग्रह 48 पर ब्रह्मदेव कृत टीका; प्रवचन
सार-2/64-65, समयसार-12, 3. द्र. समयसार-153, 306-7, 383-86, 150, 152, समयसार-कलश-109, 112, 110,
द्र. प्रवचनसार-80, समयसार-403-4,31-32, समयसार-कलश-126, प्रात्म-ख्याति-समयसार 187-89 गाथा पर टीका,
द्र. समयसार-6,200,314.315,प्रवचनसार-1/15, 6. पुरुषाकार प्रात्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः (व. द्रव्यसंग्रह-51 की संस्कृत छाया)। शुद्ध
स्वभावेन निराकारोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयेन किञ्चदून चरम शरीराकारेण ""पुरुषाकारः (वहीं, टीका, ब्रह्मदेवकृत)। निर्गुण रूप निरंजन देवा, सगुण स्वरूप कर विधि सेवा (शिवपच्चीसी, पं बनारसीदास कृत, 7 वां पद्य)। एक ही चेतना निराकार व साकार (अकूल-निष्कल, सकल) इन द्विविध रूपों को धारण करती है-"चेतना अद्वैत, दोउ चेतन दरब मांहि, सामान्य विसेस सत्ता ही को गुरपसार है" (-नाटक समयसार, मोक्षद्वार, पद्य-10)।
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