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हो जाता है, वैसे ही साधक व साध्य-दोनों एकाकार से 'पीर' तक जाता है, पीर उसे ज्ञान देता है, तथा हो जाते हैं ।39 जैन दृष्टि से भी बूद और दरिया रसूल, खुदा या मुहम्मद तक पहुंचाता है। निर्गुण की तरह जीवात्मा व परमात्मा की एकता ही मुक्ति ज्ञान मार्गी शाखा के प्रतिनिधि कबीर ने भी गुरु है ।40 प्रात्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है 141 को गोविन्द से बड़ा घोषित किया है । जैन साधना ब्रद और दरिया की एकता की भावना को प्रिय में भी गुरु की महिमा स्वीकृत है,54 कहीं पंचपरमेष्ठी में सर्वांग प्रवेश की कामना के रूप में व्यक्त करती आदि इतर बाह्य पदार्थ गुरु हैं, तो कहीं साधक की हुई प्रात्मा कहती है-यदि मैं प्रिय को पा जाऊं स्वयं प्रात्मा ही 'गुरु' हो जाती है ।5। तो उसमें सर्वांग-प्रवेश उसी प्रकार करू, जैसे नए सकोरे में पानी।42 यही अभिन्नरसता, एकाकार सूफी साधक की तरह जैन साधक के लिए, स्वरसभरता की स्थिति कही जाती है।43
प्रात्मातिरिक्त किसी अन्य वस्तु में प्रेम (रति)
नहीं रहता 156 सूफी साधक साधना की प्रारम्भिक सूफी कवि तथा प्रा. कुन्दकुन्द-दोनों ही परम अवस्था में परमात्मा के अप्रतिम सौन्दर्य की एक तत्त्व ब्रह्म को परम सौन्दर्य व परम निर्मलता झलक मात्र प्राप्त करता है जो उसे आकृष्ट कर का कोष मानते हुए, सृष्टि में बिखरे प्रकाश का लेती है। साधक द्वारा साध्य को प्राप्त करने की निरूपण करते हैं।46 जिनेन्द्रप्ररूपित मोक्ष-मार्ग भी उत्सुकता इतनी तीव्र हो जाती है कि वह विरहा'सुन्दर' है 147 वस्तुतः तो जैन दृष्टि से सम्पूर्ण भिभूत हो उठता है ।57 जैन साधक (सम्यग्दृष्टि) संसार के समस्त द्रव्यों का कण-कण प्रतिक्षण की भी कुछ इसी तरह की स्थिति हो जाती है, नवीन (चित्र-विचित्र) अवस्था (पर्याय) धारण जब वह निःसंग होकर, अनन्य भावना से ओतप्रोत करते रहने के कारण, स्वाभाविक सुन्दरता- होकर, एकमात्र प्रात्मा के ही ध्यान में लीन रहता चारूता लिए हुए है ।48
है।59 प्रा. कुन्दकुन्द साधक को प्रेरणा देते हैं कि
वह सुन्दर प्रात्मा (परमात्मा) के सिवा किसी अन्य जिस प्रकार प्रा. कुन्दकुन्द परम सौन्दर्यमय में प्रीति (रति) न करे ।60 जैन दृष्टि में भोगरति परमात्मा के साथ रति,49 विहार (क्रीड़ा) के लिए (सांसारिक) से प्रात्म-रति का नाश होता है, किन्तु प्रेरणा देते हैं,50 उसी प्रकार सूफी काव्य के नायक अध्यात्मरति से परम लाभ 161 अध्यात्म रति के रत्नसेन को शुक (आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरू का समान कोई अन्य रति नहीं ।62 प्रतीक) नायिका पद्मावती (शुद्धोपयोगयुक्त प्रात्मतत्त्व) के सौन्दर्य का वर्णन कर उसे प्राप्त करने के आ० कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य में प्रतिपादित लिए उसकी लालसा जागृत करता है।51 जैन साधक राज-लक्ष्मी की अपेक्षा दीक्षा-लक्ष्मी (संयम सूफी काव्यों में प्रेम "इश्केमजाजी" का सर्वत्र प्रभाव श्री) के प्रति अधिक प्रमातुर रहता है।
है ।63 सूफी साधक चिलमन, "पर्दे" से परे दिव्य
ज्योति का दर्शन करता है, तो प्राचार्य कुन्दकुन्द के सूफी साधना में गुरु की अनिवार्यता है । सूफी साहित्य में कर्मावरण से परे "कर्मरूपी बूंघट के साधना में ज्ञान के लिए गुरु (पीर) की शरण लेनी भीतर छिपे" शुद्ध प्रात्मा की अनुभूति की प्रेरणा पड़ती है, नहीं तो साधक इश्क (प्रेम) में सफलता दृष्टिगोचर होती है ।64 जैन साधक व सूफी साधक नहीं प्राप्त कर सकता ।53 साधक शेख के माध्यम -दोनों की निधि है-लक्ष्य "मुक्ति" का अनुराग,
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