Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 170
________________ तथा सम्बल है-सांसारिक विराग और द्वार तक पहुंच सकता है ।70 जैन दृष्टि से इसकी हिष्णुता। व्याख्या इस प्रकार है :-चार बसेरे हैं ।1 (1) सम्यकत्व, (2) विरति, (3) अप्रमाद, सूफी साधना में साधक अपने साध्य के प्रति (4) अकषाय-जो क्रमिक आत्मिक उन्नति के अधिक संवेदनशील होकर अपनी संज्ञा "चेतना" सूचक है। खो बैठता है-मूच्छित हो जाता है । सूफी कवियों ने इसे बड़े ही विलक्षण ढंग से निरुपित किया है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह-ये पांच या संघावती का नायक रत्नसेन पद्मावती के रूप, पाँच इन्द्रियां, या मिथ्यात्व, अतिरिक्त प्रसाद, गुण की चर्चा सुनकर ही मूच्छित हो जाता है ।65 कषाय व योग--ये पाँच कोतवाल हैं। नौ खण्डों जैन साधक भी चैतन्यमात्र परमात्मा के प्रति स पर, दसवां द्वार वस्तुतः बारहवें गुणस्थान की मूच्र्छाभाव "प्रासक्ति" धारण करता हमा, मोक्ष- प्राप्ति का सूचक है । प्रथम गुण स्थान में सभी मार्ग की मंजिल तय करता है 168 सन्त रविदास प्राणी स्थित है अतः उससे आगे द्वितीय गुणस्थान ने ऐसे भक्त को सच्ची सुहागन की उपमा दी है। को पहली सीढ़ी मान कर72 गणना करने पर दसवां जैसे सुहागन ही प्रिय का वास्तविक परिचय प्राप्त गुणस्थान नवां द्वार होता है। दसवें गुणस्थान में करने का रहस्य जानती है, क्योंकि वह अपने तन- क्षपक श्रेणी वाला साधक सीधा 12वें गुणस्थान मन सभी कुछ प्रिय पर न्यौछावर कर देती है और में पहुंच जाता है जहाँ सर्वज्ञाता, अर्हद्भाव प्राप्त अभिमान या मान का अंश तक नहीं माने देती, होते हैं । अपने अन्दर भेद-भाव को भी प्रश्रय नहीं देती,67 अथवा, सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान को मूल वैसे ही सच्चा साधक परमात्मा के प्रति सर्वस्य सीढी मानकर73 चलने से उससे आगे नवद्वार यानी समपित कर व्यवहार-रत रहता है। नौ गुणस्थान और अधिक पार करने पर, चौदहवां गुणस्थान सिद्धि-प्राप्ति ही दसवां द्वार सिद्ध जायसी का रत्नसेन जब लौटता है तो जो होता है। पवन पहले नागमती के शरीर को भूने डाल रहा था वह अब शीतल होकर बहने लगता है, सारा अथवा, नौवे द्वार को पार कर दसवां द्वार, का सारा वातावरण सुखदायी हो जाता है ।68 यह ग्याहरवां या बारहवां गुणस्थान है, जहां वीतराग स्थिति प्रा० कुन्दकुन्द के अनुसार वह है, जब सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होती है, क्योंकि सराय साधक शुभोपयोग “सम्यकत्वयुक्त" से शुद्धोपयोग सम्यग्दर्शन की स्थिति दसवें से आगे नहीं मानी की ओर उन्मुख हो जाता है 169 जाती 174 जायसी का सिंहलगढ़ का वर्णन मुक्ति या जायसी द्वारा सिंहलगढ़ के अन्दर "अमृतकुण्ड" अर्हत्व-प्राप्ति की स्थिति से साम्य रखता है। का निरूपण हैं, वह जैन दृष्टि से मुक्ति-स्थिति सिंहलगढ़ में चार बसेरों का द्वार, नौ खण्ड, और में प्राप्त होने वाला शान्त रस का अजस्र स्रोत है । नौ खण्डों में पांच कोतवालों से सुरक्षित बज्रमय द्वार बताए गए हैं। कवि के अनुसार कोई विरला रहस्यवादी सन्तों के काव्यों में, प्राडम्बरपूर्ण साधक ही चक्र-भेदन कर नौ खण्डों के पार-दसवें कर्मकाण्डों (अज्ञानयुक्त क्रियामों की निन्दा,) तथा ( 3/23 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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