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स्वीकारा है । कविवर बनारसीदास जी ने भी (अष्टांगयुक्त), प्रात्मतृप्ति के रूप में प्रतिपादित इसी पथ का अनुसरण किया है।10 पद्मनन्दि हैं। पंचविंशतिका ने भी नि:शरीर, निरुपाधि चिन्मात्र ज्योति को ही उपास्य बताया है|11 अकलंक स्त्रोत सूफी कवि जायसी के 'पद्मावत' काव्य का में भी निरञ्जन (निराकार) की प्रार्थना है 112 नायक रत्नसेन जैन साधक की भूमिका पर चलता
हुमा प्रतीत होता है। नायक रत्नसेन अपनी नागसूफी साहित्य का नायक परमात्मा रूपी नायिका मनी पत्नी के रहते हुए भी, पद्मावती की पोर की प्राप्ति के लिए कठोर श्रम, संग्राम आदि करता
प्राकृष्ट होता है और उसे हस्तगत करने में प्राणों
आकृष्ट हाता ह ार उस हस्तगत कर है, उसी प्रकार प्रा. कुन्दकुन्द का साधक 'मुक्ति- की बाजी लगा देता है ।28 पद्मावती प्राध्यात्मिक कान्ता' को हस्तगत करने के लिए कर्म-शत्रों से रूप से विश्वव्यापी महा ज्योति है ।29 प्रा० कुन्दजूझता है ।13 वह शिव श्री को वरण करता है, कुन्द द्वारा प्रतिपादित साधना के अनुसार, 'नागत्रिभुवन-जय लक्ष्मी को सीने से लगाने में सफल मती' शुभोपयोग की प्रतीक है, तो पद्मावती शुद्धोहोता है,15 निर्वाण-वधू के स्तनों के आलिङ्गन का पयोग की 10 साधक का लक्ष्य शुभोपयोग नहीं, सुख प्राप्त करता है,16 सिद्धि-रमणी के मुख-कमल शुद्धोपयोग है ।31 शुभोपयोग से हटते हुए, शुद्धोपपर भ्रमर की तरह रस-पान करता है।17 इस तरह योग के प्रति अधिक प्रादर,39 प्रेम, रुझान ही जिन-धर्म साधक को मुक्ति-ललना के साथ सम्भोग साधक का सम्बल है,33 व्यवहार नय की अपेक्षा का सौभाग्य प्रदान करता है ।18 ऐसे ही जैन साधक शुद्ध नय का पालम्बन अधिक श्रेयस्कर हैका चरित 'मयणपराजय चरिउ' (अपभ्रश) काव्यों इत्यादि तथ्यों का निरूपण प्रा. कुन्दकुन्द के प्राकृत में वर्णित है, जो मोहादि शत्रुनों का नाश कर साहित्य ।
साहित्य में विशेषतः हुआ है 134 चिद्रूप महाज्योति सिद्धि-कान्ता को हस्तगत करता है ।
से एकता, तदाकारता स्थापित करना ही जैन
साधक का लक्ष्य है । यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि प्राचार्य कन्दकन्द के मत में परमात्म तत्त्व की ईश्वर, या
पद्मावत काव्य का नायक जब दिवंगत होता
है तब उसके साथ उसकी दोनों पत्नियां-नागस्वामी (पति) रूप में उपासना का रहस्यवादी पक्ष
मणि व पद्मावती सती हो जाती हैं (जल कर भस्म प्रस्फुटित हुपा है,19 किन्तु उनके व्याख्याकारों ने,
हो जाती हैं)। यह घटना प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा तथा परवर्ती अन्य ग्रन्थकारों ने प्रायः जीव को
प्रतिपादित उस स्थिति का प्रतीक है जब जीव की मुक्ति-कान्ता, सिद्धि-सीमन्तिनी प्रादि स्त्री रूप का सांसारिकता के नाश के साथ ही, उसके उपयोगउपासक20 निरुपित किया है, जो सूफी विचार-धारा
गुण गत भेदों का,38 संवेद्य-संवेदक भाव के दैविध्य का पोषक है।
का, तथा समस्त द्विविध (पाप-पुण्य) कर्तव्यता का37
विलय हो जाता है, और शुद्ध व व्यवहार नय-इन अनुताप,22 प्रात्म-संयम,23 वैराग्य, दारिद्र्य,
दोनों दृष्टियों से प्रतीत, एवं प्रबद्ध-अस्पृष्ट, प्रखण्ड धैर्य, विश्वास,28 संतोष7 ये सात सोपान सूफी
शुद्ध चिन्मात्र स्थिति रह जाती है 138 साधना में माने गये हैं । ये सभी सोपान प्रा० कुन्दकुन्द के साहित्य में प्रशरणानुप्रेक्षा, संयम या सतीत्व तन्मयता का प्रतीक है । -सती नारी विरति, विरक्ति, अपरिग्रह या प्रकिञ्चन्य, सभ्यक्त्व का मन अपने प्रियतम में एकनिष्ठ भाव से तन्मय
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