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प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत साहित्य
का सफीवाद और रहस्यवाद पर प्रभाव
- डा० दामोदर शास्त्री
प्रथम सदी के प्रा. कुन्दकुन्द की प्रात्मरसिकता से 12 वीं 13 वीं सदी में पल्लवित सूफीवाद की बिन्दु दर बिन्दु समानता लेख में हमारे सामने रखी गई है । इसी प्रकार थोड़े प्रकारान्तर से गौड़पाद और शंकर के प्रवत वेदान्त, महायानी शून्यवाद को ध्यान परम्परा, वास्तव में बाह्य क्रिया-काण्ड से हटकर चलने वाली सारे भारतीय-प्रभारतीय रहस्यवादी अध्यात्म-चिन्तन के प्रकारों पर शोधार्थी, प्राचार्य कुन्दकुन्द का सम्भवतया स्पष्ट प्रभाव या समानान्तरता पा सकते हैं। स्मारिका के पाठकों को चिन्तन का नया दिशा-बोध देने हेतु लेखक धन्यवाद के पात्र हैं।
सम्पादक
मानव की मनोवृत्ति एक त्रिवेणी है जो धारण करता है । परमात्म-तत्त्व ही उस भक्त के जिज्ञासा, चिकीर्षा और सौन्दर्यानुराग-इन तीन लिए 'सुन्दर तत्त्व' बन जाता है । भक्ति-काल के रूपों में प्रवाहित होती है। इन तीनों वृत्तियों की हिन्दी कवियों ने सांसारिक प्रेम को परमात्म-तत्त्व तृप्ति, क्रमशः ज्ञान, कर्म और उपासना के माध्यम के साथ जोड़ कर प्रेम का उदात व दिव्य रूप से मानव करता है । सौन्दर्यानुराग सभी प्राणियों
स्यानुराग सभा प्राणियो प्रस्तुत किया है । आध्यात्मिक क्षेत्र में पाई भक्ति में, विशेषकर सहृदय व्यक्तियों में, रहता है। की प्रबल लहर ने देश की धार्मिक व सांस्कृतिक सौन्दर्यानुरागी व्यक्ति अपनी ही तन्मयता का, तथा नव-चेतना को, एक आन्दोलन के रूप में जन्म अनुराग का, बाह्य पदार्थ के माध्यम से, भोग दिया। तत्कालीन हिन्दी साहित्य में प्रवाहित करता है । जब व्यक्ति अपने अनुराग को, किसी भक्ति की अजस्र धारा के प्राधार पर, हिन्दी साहित्य अलौकिक दिव्य सत्ता-प्रात्मतत्त्व या परमात्म- का एक युग (भक्ति-काल के रूप में) निर्मित हो तत्त्व के प्रति समर्पित करता है, तो उसका यह गया। यह प्राध्यात्मिक भक्ति-धारा-सगुण व अनुराग या प्रेम आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्ति का रूप निर्गुण, इन दो उपधारामों में विभाजित हो गई।
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