Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1981
Author(s): Gyanchand Biltiwala
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ इससे यह बात स्पष्ट होती है कि निमित्तनैमित्तिकभाव के कारण कर्त्ता - कर्मव्यवहार ( प्रारोप ) होता है अतः कर्त्ता - कर्म-व्यवहार से निमित्तनैमित्तिकभाव ही लक्षित होता है । लिए इस प्रकार अतद्गुरणारोपी उपचारमूलक श्रसद्भूत व्यवहारनय वस्तुधर्म के निरूपण की एक शैली है जिसे व्याकरणादि शास्त्रों में सारोपा लक्षणा कहते हैं । यह शब्द की ही अभिधा, लक्षणा, व्यंजना इन तीन शक्तियों में से एक है । इसमें अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म के अन्यत्र समारोप द्वारा वास्तविक वस्तु धर्म ही लक्षित किया जाता है । इसका प्रयोजन है ज्ञात द्वारा अज्ञात का बोधन, दृश्य से दृश्य की स्थूल से सूक्ष्म की पहचान कराना । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है— 'प्रबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्' श्रज्ञानी को के वस्तु वास्तविक धर्म का ज्ञान कराने के ही मुनीश्वर वस्तु में किसी अवास्तविक ( अन्य वस्तु के ) धर्म का कथन करते हैं । अतः तद्गुणारोपी उपचारमूलक प्रसद्भूत व्यवहारनय का विषय तो वस्तु का वास्तविक धर्म है, किन्तु निरूपण शैली उपचारात्मक (अतद्गुरणारोपात्मक ) है । इसका प्रबल प्रमाण यह है कि उसके द्वारा जीव को अपने परसापेक्ष रूप का ज्ञान होता है और परसापेक्ष रूप से ज्ञान द्वार अपने परमार्थस्वरूप का बोध होता है । इसीलिए आचार्य श्रमृतचन्द्रजी ने कहा है- 'व्यवहारनयोऽपि परमार्थ प्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः ' अर्थात् परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय ( जिसमें प्रतद्गुरणारोपी उपचारमूलक प्रसद्भूत व्यवहारनय भी सम्मिलित हैं) के द्वारा भी वस्तुस्वरूप का निरूपण करना चाहिए । वस्तु के वास्तविक धर्म का निरूपण ही तो प्रतद्गुणारोपी उपचार का प्रयोजन है । यदि उसका प्रयोजन न हो तो भ्रान्ति Jain Education International उत्पन्न करने के अतिरिक्त उसका क्या फल होगा ? इसी शंका से तो पंचाध्यायीकार ने उसे नयाभास कहा है । वह 'नय' संज्ञा का पात्र तभी हो सकता जब उससे वस्तु के वास्तविक धर्म की प्रतीति संभव हो । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने समयसार गाथा 46 की टीका में अतद्गुरणारोपी उपचार कथनरूप व्यवहारनय इसलिए श्रावश्यक माना है कि उससे जीव को अपनी संसारी अवस्था का बोध होता है जिससे उसकी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति होती है । माननीय पंडित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र की प्रस्तावना ( पृष्ठ 13 ) में कहते हैं- " किंचित् मात्र कारण पाकर अन्य द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य में आरोपित करना पराश्रित कथन कहलाता है । इसे उपचार कथन कहते हैं । इसके जानने से शरीर आदि के साथ सम्बन्धरूप संसारदशा का ज्ञान होता है । उसका ज्ञान होने से जीव संसार के कारणभूत आस्रव बन्ध को त्याग कर मुक्ति के कारणभूत संवर और निर्जरा में प्रवृत्ति करता है ।" यहां विचारणीय है कि यदि संसार दशा यदि परसापेक्ष धर्म तद्गुणारोपी उपचार के विषय न होते तो उससे इनका बोध कैसे होता ? किसी भी वचन से सर्वथा असम्बद्ध अर्थ का बोध नहीं हो सकता । अतः सिद्ध है कि प्रतद्गुणारोपी उपचार मूलक असद्भूतव्यवहारनय का विषय भी वस्तु का वास्तविक धर्म है । इस प्रकार तद्गुणारोपी उपचारमूलक तथा तद्गुणारोपी उपचार मूलक दोनों ही प्रसद्भूत व्यवहारनय वस्तु धर्म के प्रतिपादक है— पहला अभिधा द्वारा वस्तु के वास्तविक धर्म का कथन करता है, दूसरा लक्षणा के द्वारा । संस्कृत विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल 3/12 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280