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प्राकृत भाषा एवं आधुनिक भाषाएं
लेख के शीर्षक से विषय स्पष्ट है । विद्वान् लेखक ने भाषा के साम्य परस्पर प्रभाव जैसे कठिन विषय को साधारण पाठक के लिये भी रुचिकर बना दिया है । इस साम्य को समझने से निश्चय ही राष्ट्रीय भावना पुष्ट होती है, और विश्व को भाषाओं के बीच साम्य को समझे तो एक विश्व का भाव पनपता है ।
जहां तक प्राकृत भाषा का प्रश्न है, प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो. रिचर्ड पिशेल तो इसे स्पष्ट संस्कृत से पूर्व की स्वीकार करते हैं । लेखक ने इसे वैदिक संस्कृत की सहोदरा माना है । कैसे भी, प्राचीनकाल से ही भारत के भाषायी इतिहास से यह गहराई से जुड़ी है ।
भारत में प्राचीन समय में जो भाषाएं प्रचलित थीं उनमें प्राकृत भाषा का स्थान महत्वपूर्ण है । अनेक भाषाविदों ने प्राकृत भाषा को प्राचीन एवं आधुनिक भाषात्रों के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्वीकार किया है । प्राकृत भाषा एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिये प्राकृत के स्वरूप एवं भाषाओं के विकास पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
भारतीय भाषाओं का विकास तीन प्रमुख कालों में हुआ है । ईसा से 600 वर्ष पूर्व तक जो भाषाएं यहां प्रचलित थीं उन्हें प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं कहा जाता है । इनमें वैदिक भाषा एवं संस्कृत प्रमुख थीं। इसके साथ-साथ जो जनभाषाएं प्रचलित थीं उन्हें प्राकृत कहा गया है । भगवान् बुद्ध एवं महावीर के समय से 1000 ईस्वी तक जिन भाषाओं का विकास हुआ है उन्हें
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० डा० प्रेमसुमन जैन
सम्पादक
मध्यकालीन आर्यभाषाएं कहते हैं। दसवीं शताब्दी के बाद विकसित भाषाओं को आधुनिक आर्यभाषाएं नाम दिया गया है। प्राकृत का सम्बन्ध इन तीनों कालों में विकसित भाषाओं के साथ बना रहा है ।
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वैदिक भाषा का विकास उस समय की लोक भाषाओं से हुआ है । उनमें जो प्राच्य नाम की जन भाषा थी उसने प्राकृत को विकसित किया है । अतः विकास की दृष्टि से वैदिक भाषा एवं प्राकृत तत्कालीन लोकभाषा से उत्पन्न सहोदरा है । इसलिये इन दोनों में कई साम्य है । विभक्तियों के प्रयोग की कमी, लिंग की अनियमितता तथा शब्द अथवा धातु रूपों में विकल्प की बहुलता इन दोनों में पायी जाती है। देशी शब्दों के प्रयोग भी दोनों में मिलते हैं । अतः वैदिक भाषा और प्राकृत का ज्ञान एक-दूसरे को समझने में पूरक है 1
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