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संस्कृत के साथ प्राकृत का घनिष्ठ सम्बन्ध है । क्योंकि इन दोनों भाषाओं के विकास का समय एवं क्षेत्र प्रायः समान रहा है । प्राकृत भाषा में संस्कृत के जितने शब्दों का प्राकृतिकरण किया गया है, लगभग उतनी ही मात्रा में संस्कृत के लोक भाषा के शब्दों का संस्कृतिकरण किया गया है । कोई भी भाषा अन्य भाषा के शब्दों एवं स्वरूप के प्रभाव से वंचित नहीं रह सकती । संस्कृत में महाकाव्य, कथा, नाटक, गद्य प्रादि की जितनी विधाएं हैं, प्राकृत में भी लगभग उन सभी विधाओं पर पर्याप्त रचनाएं हैं । संस्कृत के नाटकों का अधिकांश कथोपकथन प्राकृत में होता है । संस्कृत के अलंकार ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में प्राकृत की गाथाएं प्रस्तुत की जाती रही हैं। अतः विद्वत्जगत् में संस्कृत के अध्ययन के लिए प्राकृत अपरिहार्य है । उसी तरह प्राकृत शिक्षण के क्षेत्र में संस्कृत से परिचित होना जरूरी है ।
भारतीय भाषाओं में मुक्तक काव्य की परम्परा का शुभारम्भ प्राकृत भाषा से ही होता है । पहली शताब्दी में महाकवि हाल ने गाथासप्तशती नामक प्राकृतग्रन्थों में प्राकृत की 700 गाथाओं का संकलन किया है, जिनके विषय भारतीय भाषाओं के मुक्तक काव्यों के लिए उपनीव्य रहे हैं । संस्कृत का अमरुशतक, अपभ्रंश भाषा का पाहुडदोहा, मराठी की ज्ञानेश्वरी, राजस्थानी भाषा की सतसइयां तथा हिन्दी में बिहारी की सत्सई प्रदि रचनाएं प्राकृत की गाथा सप्तशती से बहुत प्रभाfan हैं । एक उदाहरण द्रष्टव्य है
गाथाकार कहता है कि लोगों में सुना जाता है कि मेरा कठोर हृदय प्रियतम कल प्रवास को चला जायगा । अतः हे भगवती रात्रि, तू इतनी बढ़ जा कि जिससे वह कल कभी हो ही नहीं ।
यथा---
कल्लंकिरखर-हियो पवसिहिई पिम्रो सुइ जगम्मि । तह बड्ढ भयवइ निसे, जह से कल्लं चिय न होइ ॥
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इस बात को बिहारी अपने शब्दों में कहता हैसजन सकारे जायेंगे नैना मरेंगे रोय । या विधि ऐसी कीजिए फजर कबहूं न होहि ।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण प्राकृत साहित्य एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में भरे पड़े हैं। उनकी सही व्याख्या के लिए प्राकृत भाषा का अनुशीलन आवश्यक है ।
मध्ययुगीन आर्य भाषाओं में पालि एवं अपभ्रंश भाषाओं की भी स्वतन्त्र परम्परा है । इनका विशाल साहित्य है । प्राकृत भाषा का इन दोनों भाषाओं के साथ निकट का सम्बन्ध है । पालि भाषा यदि प्राकृत के पूर्व रूप को प्रगट करती है तो अपभ्रंश भाषा उसके उत्तरकालीन रूप को । प्राकृत एवं आधुनिक भाषाओं के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए अपभ्रंश बीच की महत्व - पूर्ण कड़ी है । ईसा की छठी शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का युग था । इसके बाद प्रान्तीय भाषाओं की विशेषताएं उभरकर सामने आने लगती हैं ।
आधुनिक भाषाओं ने संस्कृत पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश से बहुत कुछ ग्रहण कर अपने स्वरूप को निर्मित किया है। यहां एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा । हिन्दी में "कौन" शब्द का व्यवहार होता है । इस शब्द की विकास-यात्रा को यदि हम देखें तो पता चलता है कि किस प्रकार एक ही शब्द विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त होता है ।
प्राकृत का कोउरण शब्द अपभ्रंश में कउरण, गुजराती में कवरा, राजस्थानी में कूरंग तथा हिन्दी . में कौन के रूप में प्रयुक्त होता है । किन्तु संस्कृत में इसे कः पुनः कहना होगा। इसी प्रकार राजस्थानी एवं हिन्दी में एक बहुत प्रचलित शब्द हैजौहर । जौहर का अर्थ मरना कैसे हो गया, यह प्राकृत की परम्परा से पता चलता है। प्राकृत साहित्य में मृत्यु के लिए जमहर शब्द का प्रयोग
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