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'मथुरा' की कहानी जैन पुरातत्त्व के जुबानी 'मथुरा' के जैन-पुरातत्त्व-अवशेष
गणेश प्रसाद जैन (वाराणसी)
-बनारसी माल के व्यापारी, ठठेरी बाजार (बसन्ती कटरा) वाराणसी
मथुरा भारतवर्ष के कतिपय उन प्राचीन जैन- जैन-कला पाषाण, धातु, ताडपत्र, कागज धार्मिक-नगरों में है, जो उसके अस्तित्व को प्रादि विविध माध्यमों से विकसित हुई है। इनका प्रागैतिहासिक-काल तक ले जाते है। उत्तर- प्रारम्भ सिन्धु-सभ्यता तक पहुँच गया है । मौर्यभारतीय-प्राचीन-जैन-कला-केन्द्रों में 'मथुरा' का काल से तो निर्विवाद रूप में क्रम-बद्ध सिलसिला पद (स्थान) अग्रगणी था। ईसा पूर्व 7 वीं शताब्दी उपलब्ध है। जिन-शिल्प में पायागपट्ट-चैत्य-वृक्ष. से लेकर ईसाब्दी 11 वीं शताब्दी तक 'मथुरा' चैत्य-स्तम्भ, वेदिका, स्तप. मांगलिक चिन्ह आदि नगरी जैन-धर्म और कला की प्रधान केन्द्र अवश्य प्रतीकों से प्रारम्भ होकर खड़गासन. पद्मासन. थी। कंकाली-टीला एवं अन्य निकटवर्ती-स्थलों से सर्वतोभद्र. (चौमुखी) भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राप्त सैकड़ों जैन तीर्थंकर-प्रतिमाये, मांगलिक- चौवीसी युगल (दो तीर्थंकरों जैसे आदि ती० चिन्हों से अलंकृत पायागपट्ट, देव-किन्नरों आदि से श्री ऋषभदेव और अन्तिम ती० श्री महावीर की) बन्दित स्तम्भ, वेदिकायें, स्तूप, अशोक, चम्पक, त्रिदेव (तीन तीर्थकरों की एक साथ) नन्दीश्वरनागकेसर आदि वृक्षों के नीचे आकर्षक-मुद्राओं में द्वीप, प्रथम ती० श्री ऋषभदेव की जटाजूट वाली, खड़ी शालिमंजिकानों से युक्त सुशोभित वेदिकाओं आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के साथ भरत मुनि के स्तम्भ, कलापुर्ण-शिलापट, शिरदल आदि यह की. सात एवं सहस्राफणी वाली 23 वें तीर्थंकर सिद्ध करने में क्षम्य है कि-'मथुरा के शिल्पियों की श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमायें. 22 व ती० श्री
न्य स्थलों के शिल्पियों की क्षमता नेमिनाथ के साथ बलराम एवं श्री कृष्ण की, नगण्य अथबा अत्यन्त न्यून रही है। वहाँ से प्राप्त सहस्रकूट-चैत्यालय तथा नन्दीश्वर-द्वीप की तीर्थंकर अवशेषों से यह सिद्ध है कि तत्कालीन-जनता में प्रतिमाओं के फलक पर उनके अनुशांशिक-यक्ष, जैन-धर्म के प्रति प्रगाढ़-श्रद्धा विद्यमान थी। ये यक्षियों एवं भक्त जनों सहित की तथा यक्ष-यक्षियों अवशेष ई० पूर्व 2 री शताब्दी से 11 वीं तक के की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण हुआ है। जैनतथा 19 वीं शताब्दी के भी कुछ हैं । भारतवर्ष के शिल्प की प्राचीतम् कृतियां आज भी बराबर अतिरिक्त ईरान, यूनान और मध्य एशिया की भू-गर्भ से प्राप्त हो रही हैं । संस्कृतियों से भी इस प्राचीनतम्-धार्मिक-नगरी (मथुरा) का निकटतम् सम्वन्ध होने से यहां की यक्ष-यक्षियों एवं आकाशचारी देवों. किन्नरों वास्तु-कला, मूर्ति-कला, लोक-कला एवं लोक- द्वारा माल्यार्पण, ढोलक वादक सहित ती० जीवन में इन संस्कृतियों के छाप की झलकियां प्रतिमाओं के पश्चात् सरस्वती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, मिलती हैं।
पद्मावती आदि देवियों एवं नैगमेष, कुबेर अन्य
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