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1 इसके पूर्व इस स्तूप की कथा प्राचार्य सोमदेव इस विवरण से यह सिद्ध है कि-16वीं ई. ने 'यशस्तिलक चम्पू' में की है। इनके पौने तीन शताब्दी के अन्त और 17वीं शताब्दी के प्रथम सौ वर्षों के पश्चात् हुए कवि राजमल्ल ने अपनी पाद में मथुरा नगर में 514 स्तूप थे, और उनका रचना "जम्बूस्वामी चरित्र' में लिखा है कि-- जीणौद्धार साहू टोडर द्वारा हुआ । जैन एवं वैदिक "राजमल्ल सिद्ध क्षेत्र मथुरा (चौरासी) की वन्दना ग्रंथों में मथुरा में 84 वन होने का कथन है । के लिए साहू टोडर के साथ गये । साहू टोडर कोल 12 बड़े और 72 उपवन थे। कुल चौरासी होने (अलगढ़) जिले के रहने वाले थे और टकसाल के से इसका नाम चौरासी पड़ गया। इसमें एक वन काम में दक्ष थे। जब वह वहां वन्दना कर रहे जम्बू (जामुन) वृक्षों से भरा था। इसलिए वह थे, तब उन्होंने देखा कि बीच से जम्बू स्वामी का वन जम्बू वन के नाम से प्रसिद्ध था । इसी जम्बू स्तूप (निः सही) स्थान पर बना हुआ है, उनके ही वन में केवली भगवान श्री जम्बू स्वामी ने योग निकट विद्य च्चर मुनि का, तथा पास पास में अन्य निरोध धारण कर अपने चार अधातिया कर्मों को मुनियों का है। मुनियों के स्तूप कहीं पांच, कहीं समाप्त कर मोक्ष प्राप्त किया, तभी से यह चौरासी आठ, कहीं दस और कहीं बीस की संख्या में पास का जम्बू वन जैन तीर्थ बना। कुछ विद्वानों की पास निर्मित है। जम्बस्वामी चरित्र की गाथाओं मान्यता है कि केवली भगवान ने 84 वर्ष की प्राय में इन स्तुपों का वर्णन मिलता हैं:
में मोक्ष प्राप्त किया इस लिए इस स्थल का नाम
चौरासी विख्यात हुआ। विद्यु तचर प्रादि 500 "तत्रापश्यत्स धर्मात्मा निः सहीस्थानमुत्तमम् ।
मनियों की भी यह सिद्धि भूमि है। अतः नगर के अन्त्य केवलिनो जम्बूस्वामिनो मध्यमादिदम्
निकट की निर्वाण भूमियों पर स्तूप एवं निषिधि।। 81॥
काए बनाई गयी थीं।
ततो विद्यु च्चरो नाम्ना मुनिः स्यात्तदनुग्रहात् । ___'मथुरा' में दूसरा तीर्थ केन्द्र सप्तर्षि टीला है। अतस्तस्यैव पादान्ते स्थापितः पूर्व सूरिभिः ।।
जहां पर सात-मुनिश्वरों ने चातुर्मास की तपस्या ॥82॥ तपी थी, उसे ही सप्तर्षि टीला कहते है । श्री राम
चन्द्रजी के अनुज महाराज शत्रुघ्न ने मथुरा पर क्वचित्पञ्च क्वचिच्चाष्टी, क्वचिद्दश ततः परम । विजय प्राप्त करके अपने पुत्र शूरसेन के नाम पर क्वचिद्विशतिरवे स्यात् स्तूपानां च यथायथम् ।। इस नगर का नाम शूरसेन रखा। शूरसेन नगर में
॥ 87॥ देवी प्रकोप से महामारी रोग प्रसरा। जन जन्तु
क्षण क्षण में मर रहे थे । सप्त मुनिश्वरों ने प्रागस्तूपों की दुर्दशा, जीर्णावस्था देखकर साहू मन कर वहां वर्षावास किया। यक्ष ने भयभीत हो टोडर ने उनके जीर्णोद्धार का संकल्प लिया और कर मरी रोग को समेट लिया। प्रजा धन्य हो 501 स्तूपों का एक समूह, और 13 स्तूपों का उठी। मुनियों की बहु विधि अर्चना-पूजा हुई। दूसरा समह, इस प्रकार 514 स्तूपों का उद्धार महाराज शत्रुध्न भी अयोध्या से मथुरा पाये । किया , इन स्तूपों की निकटवर्ती भूमि पर 12 उन्होंने उस भूमि पर तथा अन्य स्थलों में जिन द्वारपालों आदि की स्थापना कराई। इस जीर्णो- मन्दिर निर्माण कराये । सप्तर्षि टीले की भूमि से द्धार का कार्य वि. सं. 1630 ज्येष्ठ शुक्ला 12 प्राप्त प्राचीनतम जिन प्रतिमाएं प्रमाणित करती बुधवार को पूर्ण हुआ।
हैं कि-इस टीले के स्थल पर अवश्य जैन मन्दिर
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